मनमोहन लड्डू गोपाल
लड्डू गोपाल
तुम्हारा जन्मदिन आया
मन की छबियों में
तुम्हारा मोहक रूप
गहरे अंधेरे को करती
तुम्हारी भक्ति की धूप
हमने तुम्हारे सम्मोहन में
स्वर्ग अपना पाया
मनमोहन लड्डू गोपाल
तुम्हारा जन्मदिन आया
तुम्हारी नन्हीं मुस्कान का
वर्णन करूँ मैं कैसे
नयनों में छिपी दुनिया का
सिरजन करूँ मैं कैसे
एकटक तुम्हें निहारते
जीवन का मर्म पाया
मनमोहन लड्डू गोपाल
तुम्हारा जन्मदिन आया......
मंगलवार, 31 अगस्त 2010
सोमवार, 30 अगस्त 2010
खेमा, आवाजाही और अदला-बदली
फिल्मों में अपनी-अपनी पसन्दगी के अनुसार टीमें बनने की घटनाएँ नई नहीं हैं। लम्बे समय से यह होता आ रहा है। एक निर्देशक हुआ, उसने अपनी पसन्द के अभिनेता और अन्य कलाकारों का चुनाव किया। उसकी बनायी फिल्म सफल हो गयी तो फिर अगली बार साथ काम करने की स्थितियाँ आयीं। कई बार बात इस तरह भी बनती रही कि आने वाली कई फिल्मों तक साथ काम होता रहा। निर्देशक ने यदि कभी कोई बदलाव चाहा भी तो बिना किसी पूर्वाग्रह के किसी और का चयन कर लिया, उसके साथ काम किया। सफलता या असफलता जो भी हासिल हुई, उसका मलाल नहीं किया।
स्वर्गीय बिमल राय ने दिलीप कुमार के साथ देवदास, मधुमति और यहूदी तीन फिल्मों में काम किया वहीं अशोक कुमार के साथ परिणीता और बन्दिनी कीं। उनके सम्पादक रहे हृषिकेश मुखर्जी धर्मेन्द्र और अमिताभ बच्चन के साथ लगभग समान संख्या में फिल्में करने वाले निर्देशक रहे हैं और हृषिदा ने ही समानान्तर रूप से अमोल पालेकर को लेकर भी फिल्में बनायीं लेकिन इन विलक्षण फिल्मकारों पर अपना कोई खेमा या ग्रुप बनाने का ठप्पा नहीं लगा। इन सभी के लिए अपनी अपेक्षित रचनाशीलता के कलाकारों और लेखकों का चयन उत्कृष्ट काम की आकांक्षा मानी जा सकती थी। किसी कलाकार में भी तब इतना साहस नहीं होता था कि वो न लिए जाने का बुरा माने या गाँठ बांधे।
अब स्थितियाँ दूसरी हैं। फराह खान को शाहरुख खान खेमे का निर्देशक माना जाता है। एक कोरियोग्राफर से निर्देशक तक के सफर में शाहरुख खान का समर्थक फराह के लिए बड़ा मायने रखता है लेकिन साल के शुरू में जब से फराह ने अक्षय कुमार के साथ अपने पति शिरीष के लिए तीस मार खाँ निर्देशित करने की शुरूआत की, तभी से उन पर टिप्पणियाँ हो रही हैं। शाहरुख खान पर क्या बीत रही है, यह मनगढं़त पढऩे-सुनने में आता है और फराह की धारा आगे क्या होगी, इसका आकलन किया जाता है। हाल ही में यह भी सुनने में आया कि फराह ही एक अपने घर की एक और फिल्म अक्षय कुमार को लेकर बनाएँगी जिसका नाम है जोकर। स्वर्गीय राजकपूर ने एक चुनौती जोकर बनकर उठायी थी, वह ऐतिहासिक है, दूसरी चुनौती अक्षय उठाएँगे।
अक्षय कुमार, फराह खान के भाई साजिद के लकी हीरो हैं। वे पहली बार फराह के साथ आ रहे हैं। इसके अलावा यह भी संकेत दिखायी देते हैं कि शायद फराह, आगे कोई फिल्म सलमान को लेकर भी निर्देशित करें। कुल मिलाकर यह कि अब हिन्दी फिल्मों में दायरों को बढ़ाने और विस्तारित करने के बजाय, संकीर्णता में ही सोचे जाने की स्थितियाँ बहुत ज्यादा हैं।
स्वर्गीय बिमल राय ने दिलीप कुमार के साथ देवदास, मधुमति और यहूदी तीन फिल्मों में काम किया वहीं अशोक कुमार के साथ परिणीता और बन्दिनी कीं। उनके सम्पादक रहे हृषिकेश मुखर्जी धर्मेन्द्र और अमिताभ बच्चन के साथ लगभग समान संख्या में फिल्में करने वाले निर्देशक रहे हैं और हृषिदा ने ही समानान्तर रूप से अमोल पालेकर को लेकर भी फिल्में बनायीं लेकिन इन विलक्षण फिल्मकारों पर अपना कोई खेमा या ग्रुप बनाने का ठप्पा नहीं लगा। इन सभी के लिए अपनी अपेक्षित रचनाशीलता के कलाकारों और लेखकों का चयन उत्कृष्ट काम की आकांक्षा मानी जा सकती थी। किसी कलाकार में भी तब इतना साहस नहीं होता था कि वो न लिए जाने का बुरा माने या गाँठ बांधे।
अब स्थितियाँ दूसरी हैं। फराह खान को शाहरुख खान खेमे का निर्देशक माना जाता है। एक कोरियोग्राफर से निर्देशक तक के सफर में शाहरुख खान का समर्थक फराह के लिए बड़ा मायने रखता है लेकिन साल के शुरू में जब से फराह ने अक्षय कुमार के साथ अपने पति शिरीष के लिए तीस मार खाँ निर्देशित करने की शुरूआत की, तभी से उन पर टिप्पणियाँ हो रही हैं। शाहरुख खान पर क्या बीत रही है, यह मनगढं़त पढऩे-सुनने में आता है और फराह की धारा आगे क्या होगी, इसका आकलन किया जाता है। हाल ही में यह भी सुनने में आया कि फराह ही एक अपने घर की एक और फिल्म अक्षय कुमार को लेकर बनाएँगी जिसका नाम है जोकर। स्वर्गीय राजकपूर ने एक चुनौती जोकर बनकर उठायी थी, वह ऐतिहासिक है, दूसरी चुनौती अक्षय उठाएँगे।
अक्षय कुमार, फराह खान के भाई साजिद के लकी हीरो हैं। वे पहली बार फराह के साथ आ रहे हैं। इसके अलावा यह भी संकेत दिखायी देते हैं कि शायद फराह, आगे कोई फिल्म सलमान को लेकर भी निर्देशित करें। कुल मिलाकर यह कि अब हिन्दी फिल्मों में दायरों को बढ़ाने और विस्तारित करने के बजाय, संकीर्णता में ही सोचे जाने की स्थितियाँ बहुत ज्यादा हैं।
रविवार, 29 अगस्त 2010
गुरुदत्त की प्यासा, एक अनगढ़ फिल्म
प्यासा का प्रदर्शन काल 57 का है। आजादी के ठीक दस साल बाद की यह फिल्म स्वार्थी और मतलबपरस्त दुनिया को बेनकाब करके रख देती है। यह एक गहरे और मर्मस्पशी कथानक के माध्यम से हमारे आसपास की ऐसी तस्वीर रचती है, जिसका हर चरित्र हमें जाना-पहचाना लगता है। आजाद मुल्क में एक बेहतर दुनिया की कल्पना, हर इन्सान का ख्वाब हो सकता है, ऐसा लाजमी भी है। यहाँ कहानी परिवार से शुरू होती है और समाज तक जाती है। हमारे सामने विभिन्न किरदारों के माध्यम से ऐसे चरित्र नुमायाँ होते हैं जिनका चेहरा यकबयक मुखौटे में तब्दील हो जाता है और मुखौटा अचानक ही चेहरा हो जाता है। गुरुदत्त हिन्दी सिनेमा के महान फिल्मकार थे। यह फिल्म उनकी असाधारण कृति है जिसका उदाहरण फिल्म इतिहास में उनकी अन्य अनेक महत्वपूर्ण फिल्मों के साथ प्रमुखता से दिया जाता है।
यह एक संवेदनशील शायर की कहानी है जो अपने परिवार के लिए व्यर्थ की जिन्दगी जी रहा है, जो सभी के लिए तकलीफदेह है। उसका परिवार उसकी लिखी रचनाओं को कबाड़ी और रद्दी वाले को बेच देता है, जिसकी तलाश में नायक दर-दर भटकता है। उसकी रचनाएँ एक वैश्या के पास मिल जाती हैं। विजय, नायक का ख्वाब इन रचनाओं के चयन के प्रकाशन का है मगर हर जगह हतोत्साह और नकली व्यवहार उसे तोडक़र रख देता है। जब अचानक दुर्घटना में किसी व्यक्ति के मारे जाने के बाद उसकी शिनाख्त नायक के रूप में होती है तो माहौल बदल जाता है।
हिकारत वालों की स्वार्थपरकता हमदर्दी में तब्दील होने ढोंग करती है। फिल्म का क्लायमेक्स है, किताब का लोकार्पण हो रहा है। कभी नायक की प्रेयसी रही, अब प्रकाशक की पत्नी है। कवि को श्रद्धांजलियाँ दी जा रही हैं, ऐसे में कवि उसी सभागार में आकर खड़ा हो जाता है। सारे चेहरों पर रोशनी पड़ती है और नायक की छाया अंधेरे में नजर आती है। मुकम्मल दोहरेपन में जैसे रंगे हाथों पकड़ लिए गये ऐसे दुनियादारों का नायक बहिष्कार करके चल देता है। फिल्म मन पर भारी दबाव देकर खत्म होती है।
एक नायक और निर्देशक के रूप में यह पूरी तरह गुरुदत्त की फिल्म है। वहीदा रहमान, माला सिन्हा, रहमान, मेहमूद फिल्म के महत्वपूर्ण कलाकार हैं। साहिर के लिखे गाने, सचिन देव बर्मन का संगीत अमर हैं। ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है, जैसे गहरे निराशा बोध के गानों और परेशान करने वाली फिल्म में जॉनी वाकर पर एक रोचक गीत भी फिल्माया गया है, सर जो तेरा चकराए, या दिल डूबा जाए। ऐसा लगता है कि यह साहिर के गीतों को निगाहों से स्पर्श करते, पढ़ते आगे बढ़ती है।
इस फिल्म के सिने-छायाकार व्ही.के. मूर्ति को पिछले दिनों ही दादा साहब फाल्के पुरस्कार से भारत सरकार ने सम्मानित किया था।
यह एक संवेदनशील शायर की कहानी है जो अपने परिवार के लिए व्यर्थ की जिन्दगी जी रहा है, जो सभी के लिए तकलीफदेह है। उसका परिवार उसकी लिखी रचनाओं को कबाड़ी और रद्दी वाले को बेच देता है, जिसकी तलाश में नायक दर-दर भटकता है। उसकी रचनाएँ एक वैश्या के पास मिल जाती हैं। विजय, नायक का ख्वाब इन रचनाओं के चयन के प्रकाशन का है मगर हर जगह हतोत्साह और नकली व्यवहार उसे तोडक़र रख देता है। जब अचानक दुर्घटना में किसी व्यक्ति के मारे जाने के बाद उसकी शिनाख्त नायक के रूप में होती है तो माहौल बदल जाता है।
हिकारत वालों की स्वार्थपरकता हमदर्दी में तब्दील होने ढोंग करती है। फिल्म का क्लायमेक्स है, किताब का लोकार्पण हो रहा है। कभी नायक की प्रेयसी रही, अब प्रकाशक की पत्नी है। कवि को श्रद्धांजलियाँ दी जा रही हैं, ऐसे में कवि उसी सभागार में आकर खड़ा हो जाता है। सारे चेहरों पर रोशनी पड़ती है और नायक की छाया अंधेरे में नजर आती है। मुकम्मल दोहरेपन में जैसे रंगे हाथों पकड़ लिए गये ऐसे दुनियादारों का नायक बहिष्कार करके चल देता है। फिल्म मन पर भारी दबाव देकर खत्म होती है।
एक नायक और निर्देशक के रूप में यह पूरी तरह गुरुदत्त की फिल्म है। वहीदा रहमान, माला सिन्हा, रहमान, मेहमूद फिल्म के महत्वपूर्ण कलाकार हैं। साहिर के लिखे गाने, सचिन देव बर्मन का संगीत अमर हैं। ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है, जैसे गहरे निराशा बोध के गानों और परेशान करने वाली फिल्म में जॉनी वाकर पर एक रोचक गीत भी फिल्माया गया है, सर जो तेरा चकराए, या दिल डूबा जाए। ऐसा लगता है कि यह साहिर के गीतों को निगाहों से स्पर्श करते, पढ़ते आगे बढ़ती है।
इस फिल्म के सिने-छायाकार व्ही.के. मूर्ति को पिछले दिनों ही दादा साहब फाल्के पुरस्कार से भारत सरकार ने सम्मानित किया था।
शनिवार, 28 अगस्त 2010
गाड़ी बुला रही है........
गाड़ी बुला रही है, सीटी बजा रही है
चलना ही जि़न्दगी है, चलती ही जा रही है
गाड़ी बुला रही है.....
देखो वो रेल, बच्चों का खेल, सीखो सबक जवानों
सर पे है बोझ, सीने मेें आग, लब पर धुँआ है जानों
फिर भी ये जा रही है, न$गमें सुना रही है
गाड़ी बुला रही है.....
आगे तू$फान, पीछे बरसात, ऊपर गगन में बिजली
सोचे न बात, दिन हो के रात, सिगनल हुआ के निकली
देखो वो आ रही है, देखो वो जा रही है
गाड़ी बुला रही है....
आते हैं लोग, जाते हैं लोग, पानी के जैसे रेले
जाने के बाद, आते हैं याद, गुज़रे हुए वो मेले
यादें बना रही है, यादें मिटा रही है
गाड़ी बुला रही है.....
गाड़ी को देख, कैसी है नेक, अच्छा बुरा न देखे
सब हैं सवार, दुश्मन के यार, सबको चली है लेके
जीना सिखा रही है, मरना सिखा रही है
गाड़ी बुला रही है......
गाड़ी का नाम, न कर बदनाम, पटरी पे रख के सर को
हिम्मत न हार, कर इन्तज़ार, आ लौट जाएँ घर को
ये रात जा रही है, वो सुबह आ रही है
गाड़ी बुला रही है.....
सुन ये पैगाम, ये संग्राम, जीवन नहीं है सपना
दरिया को फांद, पर्वत को चीर, काम है ये उसका अपना
नींदें उड़ा रही है, जागो जगा रही है
गाड़ी बुला रही है.......
यह अब से पच्चीस साल पहले आयी फिल्म दोस्त का एक अनूठा प्रेरणादायी गीत है जिसमें रेलगाड़ी के माध्यम से जीवन के सच, उसके अस्तित्व, संघर्ष और हौसले को व्यक्त किया गया है। इस फिल्म का प्रदर्शन 1974 में हुआ था। प्रेम जी इस फिल्म के निर्माता थे और निर्देशन किया था दुलाल गुहा ने। इस फिल्म में मुख्य भूमिका धर्मेन्द्र ने निभायी थी जिनको भारतीय सिनेमा सदाबहार सितारा कहा जाता है। गाड़ी बुला रही है, गाने की रचना आनंद बख्शी ने की थी। लक्ष्मीकान्त-प्यारेलाल ने इसका संगीत तैयार किया था। जिस तरह का यह गीत लिखा गया था, रेल की सीटी और उसकी चाल को समय से जोडक़र मनभावन और गहरे डूब जाने पर विवश कर देने वाली संगीत रचना इस गाने की महसूस होती है। यह गाना ऐसा है, जो हमारे जीवन की कठिनाइयों, हमारी टूटती-बलवती हिम्मत और हमारे सपनों को पंख देता प्रतीत होता है। पढऩे में यह गाना जितना सुरुचिपूर्ण है, सुनने में उतना ही आनंददायक भी।
यह गाना फिल्म के प्रारम्भ में ही है। फिल्म की शुरूआत में ही जब नामावली परदे पर आती है, तब पाश्र्व में यह गाना चलता है। हिमाचलप्रदेश की लोकेशन है। छोटी सी रेलगाड़ी छुकछुक जाती दिखायी दे रही है, और यह गाना बज रहा है। हम इसी नामावली के बीच फिल्म के नायक मानव को देखते हैं, जिसकी भूमिका धर्मेन्द्र ने निभायी है। अपनी अनुभूतियों और ख्यालों में तमाम खुशियाँ, उत्सुकता और बेसब्री लिए वह रेलगाड़ी में बैठा जा रहा है। उसकी पढ़ाई पूरी हो गयी है। मानव अपने पिता से मिलने के लिए बेताब है, जिन्होंने बचपन में उसे अपने गोद में खिलाते हुए , आती-जाती रेल के सामने सुनाया था। वह अपने फादर का खत पढ़ता है........
दो साल बाद मेरा मानव मुझसे मिलने आ रहा है मगर आज का मानव वो नन्हा-मुन्ना मानव नहीं बल्कि एम. ए. पास एक होनहार नौजवान है। मगर मानव, स्कूल और कॉलेज का इम्तिहान खत्म होने से ही स्टूडेंट लाइफ खत्म नहीं होती। जि़न्दगी के हर मोड़ पर, हर एक इंसान, एक स्डूडेंट है। इसलिए मैं तुमसे जो कुछ कहना चाहता हूँ वो तुम्हारे लिए जानना बहुत ज़रूरी है। मुझे मालूम है, तुम आ रहे हो। तुम मुझसे दूर रहे, लेकिन मैं हमेशा तुम्हारे करीब, तुम्हारे पास रहा। तुमने लिखा था कि मेरे लिए एक शाल खरीदी है। मुझे चाहिए। बहुत सर्दी लग रही है और फिर तुम्हारा माउथ ऑर्गन सुनने के लिए भी मेरी आत्मा तड़प रही है।
....मानव संगीत इन्सान की जि़न्दगी का एक बहुत बड़ा अंग है। तुम्हें याद है, न संगीत के ज़रिए ही तुम्हें जि़न्दगी का हर फलसफा समझाता आया हूँ। तुम वो संगीत भूले तो नहीं......
मानव के मुँह से बरबस निकलता है, नहीं फादर.... और परदे पर से गाना शुरू हो जाता है, गाड़ी बुला रही है। तारा देवी स्टेशन पर उतरकर मानव तेज दौड़ता हुआ फादर को आवाज़ लगाते चर्च में दाखिल होता है तो वहाँ अपने फादर फ्रांसिस के बजाय फादर रिवैलो को देखकर चौंक जाता है। वह फादर फ्रांसिस को पूछता है तो फादर रिवैलो बतलाते हैं कि वो एक साल पहले इस दुनिया से चले गये। यह जानकर मानव को यकीन नहीं होता। वो कहता है कि वे तो मुझे हर हफ्ते खत लिखते थे। उनका आखिरी खत भी मेरे पास है। इस बात पर फादर रिवैलो, मानव को बतलाते हैं कि एक साल पहले फादर फ्रांसिस गम्भीर बीमार थे। उन्होंने ही उन्हें खूब सारी चि_ियाँ हर सप्ताह पोस्ट करने को दी थीं ताकि तुम अपनी पढ़ाई अधूरी छोडक़र न चले आओ। मानव इस बात को जानकर कि फादर फ्रांसिस अब नहीं रहे, रोने लगता है।
अगले दृश्य में हम देखते हैं कि मानव अपनी अटैची से एक शॉल निकालकर फादर फ्रांसिस की कब्र को ओढ़ा रहा है। फिर वो अपना माउथ ऑर्गन निकालकर बजाता है। उसकी आँखों में आँसू है, उसे फिर फादर याद आ जाते हैं, जो गा रहे हैं, आते हैं लोग, जाते हैं लोग, पानी के जैसे रेले.......मानव बचपन की याद में खो जाता है......जाती हुई रेल के किनारे फादर उसे गोद में लेकर रेल दिखाकर गा रहे हैं........गाड़ी बुला रही है, सीटी बजा रही है......।
गाना खत्म होने के बाद हम मानव को फिर से एक बार फादर रिवैलो के साथ देखते हैं जो मानव को फादर फ्रांसिस का एक खत देते हैं। वो मानव को एक किताबों से भरी अटैची भी देते हैं जो फादर फ्रांसिस उसके लिए छोड़ गये हैं। मानव वह खत रेल में पढ़ रहा है.......
मानव, अगर मैं चाहता तो तुम्हें क्रिश्चियन बना सकता था, मगर मैंने कभी कोशिश नहीं की क्योंकि मेरा यकीन है कि जो एक अच्छा इंसान है, वो एक अच्छा हिन्दू है, एक अच्छा मुसलमान है, एक अच्छा क्रिश्चियन है। इसलिए मैंने तुम्हारा नाम मानव रखा। तुम्हारा धर्म मानव धर्म है।
यह पूरा दृश्य और गाड़ी बुला रही है गाना, पूरा सुनकर मन बहुत सी बातें सोचने पर विवश हो जाता है। गीतकार ने किस प्रकार एक गीत और विशेषकर रेल को केन्द्र में रखकर जीवन के दर्शन को ही प्रस्तुत कर दिया है। किशोर कुमार ने इस गाने को जिस गम्भीरता और प्रवाह से गाया है, उससे हमारे सामने रेल, उसकी छुकछुक और इन्सान के हृदय की विराटता की अपेक्षा रेल से करने का फलसफा, सब एक अलग ही सोच की तरफ ले जाता है। हम इन दृश्यों में एक पादरी का स्नेहिल व्यक्तित्व, एक बेसहारा बच्चे को अच्छे संस्कार देकर पालना और जीवन में एक आदर्श इन्सान बनने की प्रेरणा देना, यह सब देखते हैं। दोस्त फिल्म का यह नायक मानव उन्हीं संस्कारों के रास्ते चलकर सभी तरह के संघर्ष का सामना करता है। जब कभी उसकी हिम्मत टूटती है तो अपने फादर की सीख, इस गाने के अन्तरे उसको भीतर से मजबूत करते हैं।
अभिभट्टाचार्य, एक प्रतिष्ठित अभिनेता थे जो इस फिल्म में फादर फ्रांसिस बने थे। वे जिस आल्हाद और प्यार भरे भाव से एक छोटे बच्चे को गोद मेें लिए, उसके साथ खेलते-कूदते, माउथ ऑर्गन बजाते, रेल दिखाकर गाते इस गाने में दिखायी पढ़ते हैं, उसे देखते हुए उस अकाट्य सत्य से रूबरू होते हैं, जिसे बड़े होने पर हम बिसरा दिया करते हैं कि हर पिता अपने बच्चों से बेइन्तहा प्यार करता है.......।
चलना ही जि़न्दगी है, चलती ही जा रही है
गाड़ी बुला रही है.....
देखो वो रेल, बच्चों का खेल, सीखो सबक जवानों
सर पे है बोझ, सीने मेें आग, लब पर धुँआ है जानों
फिर भी ये जा रही है, न$गमें सुना रही है
गाड़ी बुला रही है.....
आगे तू$फान, पीछे बरसात, ऊपर गगन में बिजली
सोचे न बात, दिन हो के रात, सिगनल हुआ के निकली
देखो वो आ रही है, देखो वो जा रही है
गाड़ी बुला रही है....
आते हैं लोग, जाते हैं लोग, पानी के जैसे रेले
जाने के बाद, आते हैं याद, गुज़रे हुए वो मेले
यादें बना रही है, यादें मिटा रही है
गाड़ी बुला रही है.....
गाड़ी को देख, कैसी है नेक, अच्छा बुरा न देखे
सब हैं सवार, दुश्मन के यार, सबको चली है लेके
जीना सिखा रही है, मरना सिखा रही है
गाड़ी बुला रही है......
गाड़ी का नाम, न कर बदनाम, पटरी पे रख के सर को
हिम्मत न हार, कर इन्तज़ार, आ लौट जाएँ घर को
ये रात जा रही है, वो सुबह आ रही है
गाड़ी बुला रही है.....
सुन ये पैगाम, ये संग्राम, जीवन नहीं है सपना
दरिया को फांद, पर्वत को चीर, काम है ये उसका अपना
नींदें उड़ा रही है, जागो जगा रही है
गाड़ी बुला रही है.......
यह अब से पच्चीस साल पहले आयी फिल्म दोस्त का एक अनूठा प्रेरणादायी गीत है जिसमें रेलगाड़ी के माध्यम से जीवन के सच, उसके अस्तित्व, संघर्ष और हौसले को व्यक्त किया गया है। इस फिल्म का प्रदर्शन 1974 में हुआ था। प्रेम जी इस फिल्म के निर्माता थे और निर्देशन किया था दुलाल गुहा ने। इस फिल्म में मुख्य भूमिका धर्मेन्द्र ने निभायी थी जिनको भारतीय सिनेमा सदाबहार सितारा कहा जाता है। गाड़ी बुला रही है, गाने की रचना आनंद बख्शी ने की थी। लक्ष्मीकान्त-प्यारेलाल ने इसका संगीत तैयार किया था। जिस तरह का यह गीत लिखा गया था, रेल की सीटी और उसकी चाल को समय से जोडक़र मनभावन और गहरे डूब जाने पर विवश कर देने वाली संगीत रचना इस गाने की महसूस होती है। यह गाना ऐसा है, जो हमारे जीवन की कठिनाइयों, हमारी टूटती-बलवती हिम्मत और हमारे सपनों को पंख देता प्रतीत होता है। पढऩे में यह गाना जितना सुरुचिपूर्ण है, सुनने में उतना ही आनंददायक भी।
यह गाना फिल्म के प्रारम्भ में ही है। फिल्म की शुरूआत में ही जब नामावली परदे पर आती है, तब पाश्र्व में यह गाना चलता है। हिमाचलप्रदेश की लोकेशन है। छोटी सी रेलगाड़ी छुकछुक जाती दिखायी दे रही है, और यह गाना बज रहा है। हम इसी नामावली के बीच फिल्म के नायक मानव को देखते हैं, जिसकी भूमिका धर्मेन्द्र ने निभायी है। अपनी अनुभूतियों और ख्यालों में तमाम खुशियाँ, उत्सुकता और बेसब्री लिए वह रेलगाड़ी में बैठा जा रहा है। उसकी पढ़ाई पूरी हो गयी है। मानव अपने पिता से मिलने के लिए बेताब है, जिन्होंने बचपन में उसे अपने गोद में खिलाते हुए , आती-जाती रेल के सामने सुनाया था। वह अपने फादर का खत पढ़ता है........
दो साल बाद मेरा मानव मुझसे मिलने आ रहा है मगर आज का मानव वो नन्हा-मुन्ना मानव नहीं बल्कि एम. ए. पास एक होनहार नौजवान है। मगर मानव, स्कूल और कॉलेज का इम्तिहान खत्म होने से ही स्टूडेंट लाइफ खत्म नहीं होती। जि़न्दगी के हर मोड़ पर, हर एक इंसान, एक स्डूडेंट है। इसलिए मैं तुमसे जो कुछ कहना चाहता हूँ वो तुम्हारे लिए जानना बहुत ज़रूरी है। मुझे मालूम है, तुम आ रहे हो। तुम मुझसे दूर रहे, लेकिन मैं हमेशा तुम्हारे करीब, तुम्हारे पास रहा। तुमने लिखा था कि मेरे लिए एक शाल खरीदी है। मुझे चाहिए। बहुत सर्दी लग रही है और फिर तुम्हारा माउथ ऑर्गन सुनने के लिए भी मेरी आत्मा तड़प रही है।
....मानव संगीत इन्सान की जि़न्दगी का एक बहुत बड़ा अंग है। तुम्हें याद है, न संगीत के ज़रिए ही तुम्हें जि़न्दगी का हर फलसफा समझाता आया हूँ। तुम वो संगीत भूले तो नहीं......
मानव के मुँह से बरबस निकलता है, नहीं फादर.... और परदे पर से गाना शुरू हो जाता है, गाड़ी बुला रही है। तारा देवी स्टेशन पर उतरकर मानव तेज दौड़ता हुआ फादर को आवाज़ लगाते चर्च में दाखिल होता है तो वहाँ अपने फादर फ्रांसिस के बजाय फादर रिवैलो को देखकर चौंक जाता है। वह फादर फ्रांसिस को पूछता है तो फादर रिवैलो बतलाते हैं कि वो एक साल पहले इस दुनिया से चले गये। यह जानकर मानव को यकीन नहीं होता। वो कहता है कि वे तो मुझे हर हफ्ते खत लिखते थे। उनका आखिरी खत भी मेरे पास है। इस बात पर फादर रिवैलो, मानव को बतलाते हैं कि एक साल पहले फादर फ्रांसिस गम्भीर बीमार थे। उन्होंने ही उन्हें खूब सारी चि_ियाँ हर सप्ताह पोस्ट करने को दी थीं ताकि तुम अपनी पढ़ाई अधूरी छोडक़र न चले आओ। मानव इस बात को जानकर कि फादर फ्रांसिस अब नहीं रहे, रोने लगता है।
अगले दृश्य में हम देखते हैं कि मानव अपनी अटैची से एक शॉल निकालकर फादर फ्रांसिस की कब्र को ओढ़ा रहा है। फिर वो अपना माउथ ऑर्गन निकालकर बजाता है। उसकी आँखों में आँसू है, उसे फिर फादर याद आ जाते हैं, जो गा रहे हैं, आते हैं लोग, जाते हैं लोग, पानी के जैसे रेले.......मानव बचपन की याद में खो जाता है......जाती हुई रेल के किनारे फादर उसे गोद में लेकर रेल दिखाकर गा रहे हैं........गाड़ी बुला रही है, सीटी बजा रही है......।
गाना खत्म होने के बाद हम मानव को फिर से एक बार फादर रिवैलो के साथ देखते हैं जो मानव को फादर फ्रांसिस का एक खत देते हैं। वो मानव को एक किताबों से भरी अटैची भी देते हैं जो फादर फ्रांसिस उसके लिए छोड़ गये हैं। मानव वह खत रेल में पढ़ रहा है.......
मानव, अगर मैं चाहता तो तुम्हें क्रिश्चियन बना सकता था, मगर मैंने कभी कोशिश नहीं की क्योंकि मेरा यकीन है कि जो एक अच्छा इंसान है, वो एक अच्छा हिन्दू है, एक अच्छा मुसलमान है, एक अच्छा क्रिश्चियन है। इसलिए मैंने तुम्हारा नाम मानव रखा। तुम्हारा धर्म मानव धर्म है।
यह पूरा दृश्य और गाड़ी बुला रही है गाना, पूरा सुनकर मन बहुत सी बातें सोचने पर विवश हो जाता है। गीतकार ने किस प्रकार एक गीत और विशेषकर रेल को केन्द्र में रखकर जीवन के दर्शन को ही प्रस्तुत कर दिया है। किशोर कुमार ने इस गाने को जिस गम्भीरता और प्रवाह से गाया है, उससे हमारे सामने रेल, उसकी छुकछुक और इन्सान के हृदय की विराटता की अपेक्षा रेल से करने का फलसफा, सब एक अलग ही सोच की तरफ ले जाता है। हम इन दृश्यों में एक पादरी का स्नेहिल व्यक्तित्व, एक बेसहारा बच्चे को अच्छे संस्कार देकर पालना और जीवन में एक आदर्श इन्सान बनने की प्रेरणा देना, यह सब देखते हैं। दोस्त फिल्म का यह नायक मानव उन्हीं संस्कारों के रास्ते चलकर सभी तरह के संघर्ष का सामना करता है। जब कभी उसकी हिम्मत टूटती है तो अपने फादर की सीख, इस गाने के अन्तरे उसको भीतर से मजबूत करते हैं।
अभिभट्टाचार्य, एक प्रतिष्ठित अभिनेता थे जो इस फिल्म में फादर फ्रांसिस बने थे। वे जिस आल्हाद और प्यार भरे भाव से एक छोटे बच्चे को गोद मेें लिए, उसके साथ खेलते-कूदते, माउथ ऑर्गन बजाते, रेल दिखाकर गाते इस गाने में दिखायी पढ़ते हैं, उसे देखते हुए उस अकाट्य सत्य से रूबरू होते हैं, जिसे बड़े होने पर हम बिसरा दिया करते हैं कि हर पिता अपने बच्चों से बेइन्तहा प्यार करता है.......।
शुक्रवार, 27 अगस्त 2010
असाधारण नायक ओमपुरी
ओमपुरी की बहुचर्चित किताब को हिन्द पॉकेट बुक्स ने हिन्दी में छापकर जारी किया है। यह वही किताब है जिसका मूल संस्करण अंग्रेजी में है और जिसे उनकी पत्नी नंदिता पुरी ने लिखा है। इस पुस्तक का मूल संस्करण जब जारी होने को था तब उसके कुछ समय पहले कुछ अनपेक्षित बातों के जिक्र से ओमपुरी अपनी पत्नी से खिन्न हो गये थे। ऐसा लग रहा था कि शायद उनके रिश्ते सामान्य न रह पाएँ क्योंकि पुस्तक में उदारता से ओमपुरी के विभिन्न स्त्रियों से छोटी उम्र से पिछले समय तक रहे सम्बन्धों का जिक्र था। पुस्तक के जारी होने के कुछ समय पहले यह तनाव दूर हुआ मगर ऐसा नहीं हुआ कि वे अंश हटा लिए गये हों। हिन्दी में जो किताब प्रकाशित हुई है, उसमें तेरह साल की उम्र से लेकर लम्बे समय तक ऐसे कुछ प्रसंगों का समावेश है। खैर, यह ऐसी कोई रस लेकर बात करने वाली बात नहीं है।
यह पुस्तक खासतौर पर हमें भारतीय सिनेमा के एक ऐसे महत्वपूर्ण कलाकार के बचपन से लेक र अब तक संघर्ष, उतार-चढ़ावों, सपनों और सरोकारों को सहजता से देख पाने के मौके देती है। इस किताब का मूल अंग्रेजी संस्करण अपने आपमें लेखकीय दृष्टि से कितना सशक्त और प्रभावी है, यह तो उस संस्करण के आकलनकर्ता ही जाने मगर हिन्दी संस्करण के प्रस्तुतिकरण में अनेक खामियाँ हैं। अंग्रेजी से हिन्दी में सपाट अनुवाद दरअसल व्यवस्थित रूपान्तर नहीं होता, इसी कारण ओमपुरी की पर्सनैलिटी को जिक्र और सम्बोधन के स्तर पर गरिमापूर्ण नहीं बनाया जा सका है। पंजाब के छोटे से गाँव से अपनी यात्रा शुरू करने वाला मामूली सा इन्सान जो ओमप्रकाश पुरी के नाम से जाना जाता हो, गरीबी और आर्थिक कठिनाई में भूखा भी रहा।
इस किताब का सबसे अच्छा पहलू ओमपुरी और नसीरुद्दीन शाह के परस्पर सम्बन्धों और मित्रता को जानना है। सार्थक सिनेमा की पृष्ठभूमि में दोनों को स्पर्धी कहा जाता है। सिनेमा से इतर दोनों के रिश्तों को कोई नहीं जानता मगर यह सचाई है कि रंगमंच से लेकर पुणे फिल्म इन्स्टीट्यूट और वहाँ से मुम्बई के संघर्ष और पहली फिल्म तक ही नहीं आज तक दोनों गहरे मित्र हैं। मुम्बई के एक रेस्त्राँ में ओमपुरी ने नसीर के प्राण उस समय सामने आकर बचाए थे जब साथ का एक मित्र पीछे से अचानक चाकू से नसीर पर वार करने जा रहा था। दोनों ने साथ में जाने भी दो यारों, अर्धसत्य, द्रोहकाल, मकबूल, बोलो राम सहित अनेक अहम फिल्मों में काम भी किया है। यह किताब सहज पाठ के हिसाब से दिलचस्प है।
वैसे, प्रूफ, सम्पादन, खण्ड चयन आदि में और बेहतर काम हो सकता था यदि इसे नंदिता की जगह कोई जानकार सिने-विश£ेषक ओमपुरी के समर्थन से लिख पाता।
यह पुस्तक खासतौर पर हमें भारतीय सिनेमा के एक ऐसे महत्वपूर्ण कलाकार के बचपन से लेक र अब तक संघर्ष, उतार-चढ़ावों, सपनों और सरोकारों को सहजता से देख पाने के मौके देती है। इस किताब का मूल अंग्रेजी संस्करण अपने आपमें लेखकीय दृष्टि से कितना सशक्त और प्रभावी है, यह तो उस संस्करण के आकलनकर्ता ही जाने मगर हिन्दी संस्करण के प्रस्तुतिकरण में अनेक खामियाँ हैं। अंग्रेजी से हिन्दी में सपाट अनुवाद दरअसल व्यवस्थित रूपान्तर नहीं होता, इसी कारण ओमपुरी की पर्सनैलिटी को जिक्र और सम्बोधन के स्तर पर गरिमापूर्ण नहीं बनाया जा सका है। पंजाब के छोटे से गाँव से अपनी यात्रा शुरू करने वाला मामूली सा इन्सान जो ओमप्रकाश पुरी के नाम से जाना जाता हो, गरीबी और आर्थिक कठिनाई में भूखा भी रहा।
इस किताब का सबसे अच्छा पहलू ओमपुरी और नसीरुद्दीन शाह के परस्पर सम्बन्धों और मित्रता को जानना है। सार्थक सिनेमा की पृष्ठभूमि में दोनों को स्पर्धी कहा जाता है। सिनेमा से इतर दोनों के रिश्तों को कोई नहीं जानता मगर यह सचाई है कि रंगमंच से लेकर पुणे फिल्म इन्स्टीट्यूट और वहाँ से मुम्बई के संघर्ष और पहली फिल्म तक ही नहीं आज तक दोनों गहरे मित्र हैं। मुम्बई के एक रेस्त्राँ में ओमपुरी ने नसीर के प्राण उस समय सामने आकर बचाए थे जब साथ का एक मित्र पीछे से अचानक चाकू से नसीर पर वार करने जा रहा था। दोनों ने साथ में जाने भी दो यारों, अर्धसत्य, द्रोहकाल, मकबूल, बोलो राम सहित अनेक अहम फिल्मों में काम भी किया है। यह किताब सहज पाठ के हिसाब से दिलचस्प है।
वैसे, प्रूफ, सम्पादन, खण्ड चयन आदि में और बेहतर काम हो सकता था यदि इसे नंदिता की जगह कोई जानकार सिने-विश£ेषक ओमपुरी के समर्थन से लिख पाता।
मंगलवार, 24 अगस्त 2010
हम दोनों
हम दोनों 1960 के दशक की फिल्म थी। इसका प्रदर्शन काल 61 का है। नवकेतन के बैनर पर अमरजीत ने इस फिल्म को निर्देशित किया था। हम दोनों की स्क्रिप्ट विजय आनंद ने लिखी थी जो देव के छोटे भाई थे जो आगे चलकर उनकी कई महत्वपूर्ण फिल्मों गाइड, तेरे मेरे सपने आदि के निर्देशक भी हुए।
देव आनंद की यह दोहरी भूमिका वाली फिल्म थी जो एक ही कर्तव्य भूमि पर काम करने वाले दो देशभक्तों के जीवन को बड़ी गहराई से देखती है। नैतिकता और अन्तद्र्वन्द्व के जो सशक्त दृश्य इस फिल्म में हैं वे मन को गहरे छू जाते हैं। आज इस फिल्म की चर्चा करना यों भी समीचीन लगा क्योंकि इस फिल्म को भी मुगले आजम और नया दौर की तरह रंगीन कर दिया गया है और दोबारा प्रदर्शित किए जाने की तैयारी है।
दो देशभक्त सैनिक कैप्टन आनंद और मेजर वर्मा हमशक्ल हैं। दोनों ही वीर-साहसी और युद्धभूमि पर अपना कौशल दिखाने वाले। मेजर आनंद, मीता से प्यार करता है जिसकी भूमिका साधना ने निभायी है दूसरी तरफ रूमा मेजर वर्मा की पत्नी है जिसको अपने पति का इन्तजार है। नंदा रूमा की भूमिका में हैं। मेजर की वयोवृद्ध, बीमार माँ भी उसका रास्ता अपने आखिरी दिनों में देख रही है।
देश एक युद्ध का सामना करता है और खबर फैलती है कि इसमें मेजर की मौत हो गयी। घटनाक्रम कुछ इस तरह होते हैं कि कैप्टन आनंद, मेजर वर्मा के घर पहुँच जाता है। कहानी यहाँ बहुत जटिल हो जाती है। कैप्टन आनंद के सपनों और जीवन में मीता है, यहाँ उसे रूमा अपने पति के रूप में देखती है। द्वन्द्व और असमजंस के बीच नैतिकता और परिस्थितियों में अपनी यथास्थिति के कठिन पलों को कैप्टन आनंद जीता है।
इसी बीच एक दिन मेजर वर्मा अपने घर लौट आता है। दोनों ही किरदारों के आमने-सामने के दृश्य बहुत कसे हुए हैं। दोनों के बीच नैतिकता और आदर्श को लेकर परस्पर सवाल और कड़ी बहसें होती हैं मगर सचाई यह है कि कैप्टन आनंद ने भी अपने जीवन को बेदाग रखा है। जटिल परिस्थितियों में भी अपनी और रूमा की रक्षा की है। दोनों ही भूमिकाएँ देव आनंद ने निभायी हैं।
साहिर लुधियानवी ने इस फिल्म के खूबसूरत गीत लिखे हैं जिनमें मुख्य रूप से, मैं जिन्दगी का साथ निभाता चला गया और अल्ला तेरो नाम ईश्वर तेरो नाम, अभी न जाओ छोडक़र आज भी याद रहते हैं। जयदेव ने फिल्म के गीतों की मधुर संगीत रचना की है। लीला चिटनीस की निभायी माँ की भूमिका में ममता और बेटे के इन्तजार का विलक्षण जज्बा उनकी आँखों में देखा जा सकता है। हम दोनों को देखना, अपने अनुभवों में संवेदना का पुनस्र्पर्श और रोमांच को अनुभूत करने जैसा है।
देव आनंद की यह दोहरी भूमिका वाली फिल्म थी जो एक ही कर्तव्य भूमि पर काम करने वाले दो देशभक्तों के जीवन को बड़ी गहराई से देखती है। नैतिकता और अन्तद्र्वन्द्व के जो सशक्त दृश्य इस फिल्म में हैं वे मन को गहरे छू जाते हैं। आज इस फिल्म की चर्चा करना यों भी समीचीन लगा क्योंकि इस फिल्म को भी मुगले आजम और नया दौर की तरह रंगीन कर दिया गया है और दोबारा प्रदर्शित किए जाने की तैयारी है।
दो देशभक्त सैनिक कैप्टन आनंद और मेजर वर्मा हमशक्ल हैं। दोनों ही वीर-साहसी और युद्धभूमि पर अपना कौशल दिखाने वाले। मेजर आनंद, मीता से प्यार करता है जिसकी भूमिका साधना ने निभायी है दूसरी तरफ रूमा मेजर वर्मा की पत्नी है जिसको अपने पति का इन्तजार है। नंदा रूमा की भूमिका में हैं। मेजर की वयोवृद्ध, बीमार माँ भी उसका रास्ता अपने आखिरी दिनों में देख रही है।
देश एक युद्ध का सामना करता है और खबर फैलती है कि इसमें मेजर की मौत हो गयी। घटनाक्रम कुछ इस तरह होते हैं कि कैप्टन आनंद, मेजर वर्मा के घर पहुँच जाता है। कहानी यहाँ बहुत जटिल हो जाती है। कैप्टन आनंद के सपनों और जीवन में मीता है, यहाँ उसे रूमा अपने पति के रूप में देखती है। द्वन्द्व और असमजंस के बीच नैतिकता और परिस्थितियों में अपनी यथास्थिति के कठिन पलों को कैप्टन आनंद जीता है।
इसी बीच एक दिन मेजर वर्मा अपने घर लौट आता है। दोनों ही किरदारों के आमने-सामने के दृश्य बहुत कसे हुए हैं। दोनों के बीच नैतिकता और आदर्श को लेकर परस्पर सवाल और कड़ी बहसें होती हैं मगर सचाई यह है कि कैप्टन आनंद ने भी अपने जीवन को बेदाग रखा है। जटिल परिस्थितियों में भी अपनी और रूमा की रक्षा की है। दोनों ही भूमिकाएँ देव आनंद ने निभायी हैं।
साहिर लुधियानवी ने इस फिल्म के खूबसूरत गीत लिखे हैं जिनमें मुख्य रूप से, मैं जिन्दगी का साथ निभाता चला गया और अल्ला तेरो नाम ईश्वर तेरो नाम, अभी न जाओ छोडक़र आज भी याद रहते हैं। जयदेव ने फिल्म के गीतों की मधुर संगीत रचना की है। लीला चिटनीस की निभायी माँ की भूमिका में ममता और बेटे के इन्तजार का विलक्षण जज्बा उनकी आँखों में देखा जा सकता है। हम दोनों को देखना, अपने अनुभवों में संवेदना का पुनस्र्पर्श और रोमांच को अनुभूत करने जैसा है।
हिन्दी सिनेमा में पिता
हिन्दी सिनेमा में पिता की भूमिका, परिवार में सम्बन्ध और बेटे-बेटियों सभी से रिश्तों की बारीकियों और भावनाओं पर तमाम फिल्में वक्त-वक्त पर बनी हैं। सिनेमा में पिता की भावुक उपस्थिति हमें मर्मभेदी लगती है तो पिता के साथ द्वन्द्व को हॉल में कुर्सी पर बैठे हम अलग रोमांच में जीते हैं। समय-समय पर फिल्मकारों ने इस तरह के कोणों को बखूबी प्रस्तुत भी किया है। गोविन्द निहलानी और महेश मांजरेकर ने अपने-अपने समय में पिता नाम से फिल्में बनायी हैं। एक फूल दो माली में मन्नाडे का गाया गाना, तुझे सूरज कहूँ या चन्दा, तुझे दीप कहूँ या तारा, मेरा नाम करेगा रोशन, जग में मेरा राजदुलारा, पिता के अपने पुत्र के प्रति प्रेम और कामना को गहरी संवेदना के साथ व्यक्त करता है।
सलीम-जावेद ने अमिताभ बच्चन को लेकर बहुत सी सफल फिल्में लिखीं जिनमें खास पिता के साथ तनाव और तकरार को प्रभावी संवादों और प्रतिभासम्पन्न कलाकारों के बीच दर्शकों ने देखकर खूब तालियाँ बजायीं। हम ऐसी फिल्मों में त्रिशूल, शक्ति आदि को याद कर सकते हैं। त्रिशूल में अमिताभ बच्चन के सामने संजीव कुमार पिता के रूप में थे तो शक्ति में दिलीप कुमार ने अपने संवादों से कई बार अमिताभ बच्चन को नजरें झुकाने पर विवश कर दिया था। अमिताभ बच्चन प्रकाश मेहरा की फिल्म शराबी में भी अपने व्यावसायी पिता के खिलाफ रहते हैं जिनके पास बेटे के लिए वक्त नहीं है। अमिताभ बच्चन को तो खास ऐसी फिल्मों के माध्यम से ही सफलता मिली जिसमें वे पिता के विरुद्ध रहे। प्रकाश मेहरा की ही एक फिल्म लावारिस भी इसी सन्दर्भ में याद आती है जिसमें अमजद खान ने उनके पिता की भूमिका निभायी थी। दीवार में बड़े हो चुके विजय की स्मृतियों में पिता है, जिसको अपने संवाद में बार-बार, अपने पक्ष में बोलते हुए चोर की तोहमत वे दोहराते हैं।
इन फिल्मों से अलग बात करें तो कुछ बड़ी अच्छी फिल्में भी पिता के किरदारों को आदर्श रूप में प्रस्तुत करने वाली हमें ध्यान आती हैं। प्रियदर्शन की गर्दिश में अमरीश पुरी हवलदार पिता हैं जो अपने बेटे के इन्स्पेक्टर बनने का ख्वाब लिए हुए है मगर मार खाते पिता की रक्षा करने में अनायास यह बेटा अपराधी बन जाता है। सारांश में अनुपम खेर का अभिनय बड़ा मर्मस्पर्शी है जो ऐसे पिता के दुख को सामने लाता है जो अपने मरे हुए बेटे की अस्थियाँ प्राप्त करने के लिए कस्टम के चक्कर लगा रहा है। क्लायमेक्स में झुंझलाए पिता का कस्टम अधिकारी से रुंधे गले में बोला अनुपम खेर का संवाद उनको बड़ी ऊँचाई पर ले जाता है। आज तक ऐसा काम अनुपम खेर नहीं कर पाए। कुछ फूहड़ कॉमेडियाँ भी हैं डेविड धवन मार्का फिल्मों में, जैसे आँखें जिसमें कादर खान, गोविन्दा और चंकी के पिता होते हैं।
सलीम-जावेद ने अमिताभ बच्चन को लेकर बहुत सी सफल फिल्में लिखीं जिनमें खास पिता के साथ तनाव और तकरार को प्रभावी संवादों और प्रतिभासम्पन्न कलाकारों के बीच दर्शकों ने देखकर खूब तालियाँ बजायीं। हम ऐसी फिल्मों में त्रिशूल, शक्ति आदि को याद कर सकते हैं। त्रिशूल में अमिताभ बच्चन के सामने संजीव कुमार पिता के रूप में थे तो शक्ति में दिलीप कुमार ने अपने संवादों से कई बार अमिताभ बच्चन को नजरें झुकाने पर विवश कर दिया था। अमिताभ बच्चन प्रकाश मेहरा की फिल्म शराबी में भी अपने व्यावसायी पिता के खिलाफ रहते हैं जिनके पास बेटे के लिए वक्त नहीं है। अमिताभ बच्चन को तो खास ऐसी फिल्मों के माध्यम से ही सफलता मिली जिसमें वे पिता के विरुद्ध रहे। प्रकाश मेहरा की ही एक फिल्म लावारिस भी इसी सन्दर्भ में याद आती है जिसमें अमजद खान ने उनके पिता की भूमिका निभायी थी। दीवार में बड़े हो चुके विजय की स्मृतियों में पिता है, जिसको अपने संवाद में बार-बार, अपने पक्ष में बोलते हुए चोर की तोहमत वे दोहराते हैं।
इन फिल्मों से अलग बात करें तो कुछ बड़ी अच्छी फिल्में भी पिता के किरदारों को आदर्श रूप में प्रस्तुत करने वाली हमें ध्यान आती हैं। प्रियदर्शन की गर्दिश में अमरीश पुरी हवलदार पिता हैं जो अपने बेटे के इन्स्पेक्टर बनने का ख्वाब लिए हुए है मगर मार खाते पिता की रक्षा करने में अनायास यह बेटा अपराधी बन जाता है। सारांश में अनुपम खेर का अभिनय बड़ा मर्मस्पर्शी है जो ऐसे पिता के दुख को सामने लाता है जो अपने मरे हुए बेटे की अस्थियाँ प्राप्त करने के लिए कस्टम के चक्कर लगा रहा है। क्लायमेक्स में झुंझलाए पिता का कस्टम अधिकारी से रुंधे गले में बोला अनुपम खेर का संवाद उनको बड़ी ऊँचाई पर ले जाता है। आज तक ऐसा काम अनुपम खेर नहीं कर पाए। कुछ फूहड़ कॉमेडियाँ भी हैं डेविड धवन मार्का फिल्मों में, जैसे आँखें जिसमें कादर खान, गोविन्दा और चंकी के पिता होते हैं।
शनिवार, 21 अगस्त 2010
डाग्दर बाबू, नबेन्दु घोष का एक अधूरा सपना
बिमल राय जब मुम्बई गये, 1951 में माँ फिल्म बनाने, उस समय विभाजन के बाद का सिनेमा का परिदृश्य नरम, साहित्य का परिदृश्य नरम, न्यू थिएटर्स वाले भी परेशानियों में थे। वे एक फिल्म बनाने के लिए बॉम्बे टॉकीज आये पर वो अपनी टीम लेकर आये जिसमें उनके साथ नबेन्दु घोष भी थे क्योंकि लेखन और साहित्य के काम उन्हीं के जिम्मे होते थे। उस समय बॉम्बे टॉकीज की भी हालत खराब थी। उस समय दस माह से लोगों को तनख्वाह नहीं मिली थी। उस समय एस. एच. मुंशी ने बाप-बेटी फिल्म बनायी। इस फिल्म के लिए उन्हें साइन किया और उसके बाद किस तरह का संघर्ष शुरू हुआ, वह इसके आगे की बात है। बाम्बे टॉकीज से तनख्वाह मिलना शुरू होने तक यह संघर्ष चलता रहा।
बाप-बेटी में एक लडक़ी की कहानी थी जो होस्टल में रहती है और सब लोग मिलकर उसे चिढ़ाते हैं कि कोई तुमसे मिलने नहीं आता। एक दिन वो लडक़ी स्टेशन पर जाती है और एक व्यक्ति के सामने जाकर उससे कहती है कि आप मेरे पापा हो। रंजन ने वो कैरेक्टर किया था। वो आश्चर्य में पूछते हैं, पापा? इस पर लडक़ी कहती है कि देखो आप मुझको न मत करना। मेरे दोस्त मेरे पीछे खड़े हैं, और वो मुझे बहुत चिढ़ाते हैं। आप बस हाँ-हाँ बोलते जाना, जो मैं कहूँ। एक दिन यह रिश्ता सचमुच ऐसा हो जाता है कि वो व्यक्ति उस बच्ची को एक पिता की तरह प्यार करने लगता है। उसमें एक सीन होता है कि उंगली पर उंगली रखकर झूठ बोलो तो उसमें कोई पाप नहीं लगता।
ये कहानी उन्होंने पहले एस. मुखर्जी को सुनायी थी। इस पर एस. मुखर्जी ने कहा था कि ये कहानी अच्छी है पर मैं नहीं बनाऊँगा। पूछा गया, क्यों? तो वे बोले, क्योंकि आय एम ए बिजनेस परसन। उनसे पूछा, इसका मतलब? तो वे बोले, बिजनेस के लिए बहुत अच्छी कहानी भी अच्छी नहीं होती। उनसे नबेन्दु ने पूछा कि फिर बिजनेस के लिए क्या चाहिए? एस. मुखर्जी ने कहा कि उसके भी कुछ केलकुलेशन हैं। जैसे आप कोई खाना बनाते हो और उसमें स्वाद लाना चाहते हो, उसके लिए पाँच मसाले होते हैं। उसी तरह इसके भी स्पाइसेज होते हैं। उसकी प्रभाव में ये कहानी मुंशी जी ने सुनी और बनाना मंजूर किया। 51-52 में ये फिल्म बनी और इसके प्रदर्शन के बाद फिर बिमल राय ने दो बीघा जमीन बनाना तय किया और अशोक कुमार चाहते थे कि बिमल राय परिणीता निर्देशित करें। ये दोनों ही फिल्में एक साथ बनी थीं।
मुंशी जी बिहार के रहने वाले थे। नबेन्दु उसी समय तीसरी कसम पर काम कर रहे थे। उनको किसी ने बताया था कि मैला आँचल बहुत ही मर्मस्पर्शी और ग्राह्य करने वाला उपन्यास है, रेणु का। नबेन्दु ने वो उपन्यास पढ़ा और तय किया कि मुझे इस फिल्म पर काम करना है। यह डाग्दर बाबू के बनने का प्रसंग है। मुंशी जी ने नबेन्दु दा को कहा कि यदि आप करेंगे तो हम इसे प्रोड्यूज करेंगे। इसकी तैयारी तब से थी, साठ के दशक से लेकिन इसकी शुरूआत में ज्यादा समय लग गया। शूटिंग की गयी बिहार में। रेणु तब थे। धर्मेन्द्र तब डॉक्टर का रोल कर रहे थे। जया भादुड़ी और उत्पल दत्त की बेटी बनी थीं। उसमें और भी बहुत सारे कैरेक्टर, बहुत अच्छे-अच्छे लोग थे। अजितेश बंदोपाध्याय, बहुत सारे और भी। शूटिंग अस्सी प्रतिशत हो गयी थी। उसी समय निर्माता और वितरक में कुछ असहमतियाँ हो गयीं, तो उन्होंने आगे फिल्म को पूरा ही नहीं किया। बीस प्रतिशत काम बाकी रह गया था। इस फिल्म में संगीत आर.डी. बर्मन का था। बड़ा ही खूबसूरत संगीत। आंचलिक आस्वाद का, मेलोडियस, गेय प्रभाव से भरा। आशा जी ने इसमें गाया था। एक गाना लता जी का था। इस गाने की रेकॉर्डिंग तब नहीं हुई थी। पंचम का यह काम बड़ा महत्वपूर्ण था। दो गाने तो बहुत ही अच्छे थे।
बहुत दिनों बाद नबेन्दु घोष एक फिल्म निर्देशित कर रहे थे, प्रेम एक कविता। अशोक कुमार, इन्द्राणी मुखर्जी, ऐसे ही और लोग थे। सौमित्र चटर्जी उसमें काम करने वाले थे। अशोक कुमार-सौमित्र चटर्जी, जैसे बन्दिनी में एक उम्रदराज और एक युवा। वैसी ही कहानी लगभग। उसके लिए एस.डी. बर्मन ने गाना रेकॉर्ड भी किया था। दो गाने थे, उसमेें। एक गाना था, नींद चुराए, चैन चुराए, जो बाद में अनुराग फिल्म में ले लिया गया। उसमें अच्छी बात तो यह रही कि वो गाना भी आगे आया और अलग इस्तेमाल हुआ। कई बार ऐसा होता है कि किसी के लिए तैयार किया गया मगर वहाँ उसका इस्तेमाल नहीं हो पाया। दुख होता है कि आर.डी. बर्मन के गाने जो उन्होंने डाग्दर बाबू के लिए कम्पोज किए थे, वो कई काम में भी नहीं आ पाये, इस्तेमाल भी नहीं हुए और खो गये। डाग्दर बाबू के प्रोड्यूसर भी गुजर गये। उनके बेटे थे, पता नहीं उन्होंने क्या किया। बाद में मेरे भाई ने भी पता लगाना चाहा मगर कुछ पता नहीं चला। अधिकार की लड़ाई थी। निर्माता ने वितरक से पैसे लिए थे, उसी की वजह से सब बिगड़ गया।
एक और दूसरी फिल्म नबेन्दु घोष बनाने वाले थे, उसका भी किस्सा है, बनी नहीं वो भी। गौरीचंद्र, वो गुरुदत्त बनाने वाले थे। गीता दत्त उसमें काम करने वाली थीं। वो भी फिल्म नहीं बनी और ये मोतीलाल पादरी जो आखिरी फिल्म उनकी है, अगर ये फिल्म बनती, जैसी कि उनकी इच्छा थी, त्रयी बनाने की जब उन्होंने तृषाग्रिी बनायी थी। तृषाग्रिी का जो कोर है, ये एक संत जो भगवान, ईश्वर, अल्लाह, गॉड किसी भी नाम को कह लीजिए, से सीधे सरोकार स्थापित करने के भ्रम को जीता है। एक दिन उसका विश्वास डगमगाता है, उस विश्वास के डगमगाने की कहानी थी तृषाग्रिी। मोतीलाल पादरी, एक पादरी व्यक्ति की कहानी थी। ये भी वही कहानी थी कि एक आदमी अपने विश्वास को ही अस्थिर होते देख रहा है। एक दिन वह इस बात को महसूस करता है कि यह किस तरह का यथार्थ है? मैं दुनिया को ज्ञान दे रहा हूँ मगर अपने भीतर के अंधकार का क्या करूँ? नबेन्दु दा ने जब तृषाग्रिी बनायी थी तभी वे सत्तर साल के हो चुके थे। वे उस समय दूसरी फिल्म मोतीलाल पादरी बनाना चाहते थे। एक तीसरी फिल्म उनके मन में पण्डित कैरेक्टर को लेकर थी।
एक निर्देशक के रूप में यदि वे ये फिल्में बना पाते तो उनकी पहचान और होती, निश्चित ही। नबेन्दु घोष ने अपने जीवन में सृजनात्मक सक्रियता के साथ बहुत सारी छबियों को सराहनीय ढंग से जिया और लोगों में आदर की निगाह से देखे गये। उन्होंने जितनी कहानी लिखी हैं, जितने उपन्यास लिखे हैं वो अपने आपमें अद्भुत है। इतना व्यापक, विविध और प्रशंसनीय लेखन सचमुच कई बार अचम्भित करता है।
बाप-बेटी में एक लडक़ी की कहानी थी जो होस्टल में रहती है और सब लोग मिलकर उसे चिढ़ाते हैं कि कोई तुमसे मिलने नहीं आता। एक दिन वो लडक़ी स्टेशन पर जाती है और एक व्यक्ति के सामने जाकर उससे कहती है कि आप मेरे पापा हो। रंजन ने वो कैरेक्टर किया था। वो आश्चर्य में पूछते हैं, पापा? इस पर लडक़ी कहती है कि देखो आप मुझको न मत करना। मेरे दोस्त मेरे पीछे खड़े हैं, और वो मुझे बहुत चिढ़ाते हैं। आप बस हाँ-हाँ बोलते जाना, जो मैं कहूँ। एक दिन यह रिश्ता सचमुच ऐसा हो जाता है कि वो व्यक्ति उस बच्ची को एक पिता की तरह प्यार करने लगता है। उसमें एक सीन होता है कि उंगली पर उंगली रखकर झूठ बोलो तो उसमें कोई पाप नहीं लगता।
ये कहानी उन्होंने पहले एस. मुखर्जी को सुनायी थी। इस पर एस. मुखर्जी ने कहा था कि ये कहानी अच्छी है पर मैं नहीं बनाऊँगा। पूछा गया, क्यों? तो वे बोले, क्योंकि आय एम ए बिजनेस परसन। उनसे पूछा, इसका मतलब? तो वे बोले, बिजनेस के लिए बहुत अच्छी कहानी भी अच्छी नहीं होती। उनसे नबेन्दु ने पूछा कि फिर बिजनेस के लिए क्या चाहिए? एस. मुखर्जी ने कहा कि उसके भी कुछ केलकुलेशन हैं। जैसे आप कोई खाना बनाते हो और उसमें स्वाद लाना चाहते हो, उसके लिए पाँच मसाले होते हैं। उसी तरह इसके भी स्पाइसेज होते हैं। उसकी प्रभाव में ये कहानी मुंशी जी ने सुनी और बनाना मंजूर किया। 51-52 में ये फिल्म बनी और इसके प्रदर्शन के बाद फिर बिमल राय ने दो बीघा जमीन बनाना तय किया और अशोक कुमार चाहते थे कि बिमल राय परिणीता निर्देशित करें। ये दोनों ही फिल्में एक साथ बनी थीं।
मुंशी जी बिहार के रहने वाले थे। नबेन्दु उसी समय तीसरी कसम पर काम कर रहे थे। उनको किसी ने बताया था कि मैला आँचल बहुत ही मर्मस्पर्शी और ग्राह्य करने वाला उपन्यास है, रेणु का। नबेन्दु ने वो उपन्यास पढ़ा और तय किया कि मुझे इस फिल्म पर काम करना है। यह डाग्दर बाबू के बनने का प्रसंग है। मुंशी जी ने नबेन्दु दा को कहा कि यदि आप करेंगे तो हम इसे प्रोड्यूज करेंगे। इसकी तैयारी तब से थी, साठ के दशक से लेकिन इसकी शुरूआत में ज्यादा समय लग गया। शूटिंग की गयी बिहार में। रेणु तब थे। धर्मेन्द्र तब डॉक्टर का रोल कर रहे थे। जया भादुड़ी और उत्पल दत्त की बेटी बनी थीं। उसमें और भी बहुत सारे कैरेक्टर, बहुत अच्छे-अच्छे लोग थे। अजितेश बंदोपाध्याय, बहुत सारे और भी। शूटिंग अस्सी प्रतिशत हो गयी थी। उसी समय निर्माता और वितरक में कुछ असहमतियाँ हो गयीं, तो उन्होंने आगे फिल्म को पूरा ही नहीं किया। बीस प्रतिशत काम बाकी रह गया था। इस फिल्म में संगीत आर.डी. बर्मन का था। बड़ा ही खूबसूरत संगीत। आंचलिक आस्वाद का, मेलोडियस, गेय प्रभाव से भरा। आशा जी ने इसमें गाया था। एक गाना लता जी का था। इस गाने की रेकॉर्डिंग तब नहीं हुई थी। पंचम का यह काम बड़ा महत्वपूर्ण था। दो गाने तो बहुत ही अच्छे थे।
बहुत दिनों बाद नबेन्दु घोष एक फिल्म निर्देशित कर रहे थे, प्रेम एक कविता। अशोक कुमार, इन्द्राणी मुखर्जी, ऐसे ही और लोग थे। सौमित्र चटर्जी उसमें काम करने वाले थे। अशोक कुमार-सौमित्र चटर्जी, जैसे बन्दिनी में एक उम्रदराज और एक युवा। वैसी ही कहानी लगभग। उसके लिए एस.डी. बर्मन ने गाना रेकॉर्ड भी किया था। दो गाने थे, उसमेें। एक गाना था, नींद चुराए, चैन चुराए, जो बाद में अनुराग फिल्म में ले लिया गया। उसमें अच्छी बात तो यह रही कि वो गाना भी आगे आया और अलग इस्तेमाल हुआ। कई बार ऐसा होता है कि किसी के लिए तैयार किया गया मगर वहाँ उसका इस्तेमाल नहीं हो पाया। दुख होता है कि आर.डी. बर्मन के गाने जो उन्होंने डाग्दर बाबू के लिए कम्पोज किए थे, वो कई काम में भी नहीं आ पाये, इस्तेमाल भी नहीं हुए और खो गये। डाग्दर बाबू के प्रोड्यूसर भी गुजर गये। उनके बेटे थे, पता नहीं उन्होंने क्या किया। बाद में मेरे भाई ने भी पता लगाना चाहा मगर कुछ पता नहीं चला। अधिकार की लड़ाई थी। निर्माता ने वितरक से पैसे लिए थे, उसी की वजह से सब बिगड़ गया।
एक और दूसरी फिल्म नबेन्दु घोष बनाने वाले थे, उसका भी किस्सा है, बनी नहीं वो भी। गौरीचंद्र, वो गुरुदत्त बनाने वाले थे। गीता दत्त उसमें काम करने वाली थीं। वो भी फिल्म नहीं बनी और ये मोतीलाल पादरी जो आखिरी फिल्म उनकी है, अगर ये फिल्म बनती, जैसी कि उनकी इच्छा थी, त्रयी बनाने की जब उन्होंने तृषाग्रिी बनायी थी। तृषाग्रिी का जो कोर है, ये एक संत जो भगवान, ईश्वर, अल्लाह, गॉड किसी भी नाम को कह लीजिए, से सीधे सरोकार स्थापित करने के भ्रम को जीता है। एक दिन उसका विश्वास डगमगाता है, उस विश्वास के डगमगाने की कहानी थी तृषाग्रिी। मोतीलाल पादरी, एक पादरी व्यक्ति की कहानी थी। ये भी वही कहानी थी कि एक आदमी अपने विश्वास को ही अस्थिर होते देख रहा है। एक दिन वह इस बात को महसूस करता है कि यह किस तरह का यथार्थ है? मैं दुनिया को ज्ञान दे रहा हूँ मगर अपने भीतर के अंधकार का क्या करूँ? नबेन्दु दा ने जब तृषाग्रिी बनायी थी तभी वे सत्तर साल के हो चुके थे। वे उस समय दूसरी फिल्म मोतीलाल पादरी बनाना चाहते थे। एक तीसरी फिल्म उनके मन में पण्डित कैरेक्टर को लेकर थी।
एक निर्देशक के रूप में यदि वे ये फिल्में बना पाते तो उनकी पहचान और होती, निश्चित ही। नबेन्दु घोष ने अपने जीवन में सृजनात्मक सक्रियता के साथ बहुत सारी छबियों को सराहनीय ढंग से जिया और लोगों में आदर की निगाह से देखे गये। उन्होंने जितनी कहानी लिखी हैं, जितने उपन्यास लिखे हैं वो अपने आपमें अद्भुत है। इतना व्यापक, विविध और प्रशंसनीय लेखन सचमुच कई बार अचम्भित करता है।
गुरुवार, 19 अगस्त 2010
बरखा के अंदेशे
बिखरी जुल्फों की छांव
कब तक रहेगी
मालूम न था
बादल कुछ टुकड़ों में आकर
ठहर क्या गए
वहीं के होकर रह गए
तुम मुस्कुराती हो
अपने सम्मोहन पर
बड़े गुमान से
नदी सी बहती केशराशि को
अपने हाथ में थामकर
साँस रोके देखते रहे
बमुश्किल सह गए
तुम अक्सर ऐसे ही
बांध लिया करती हो
कभी हवाओं को
कभी बादलों को
बरखा के अंदेशे
शिकायती लहजों में
यही बात तुमसे कह गए
कब तक रहेगी
मालूम न था
बादल कुछ टुकड़ों में आकर
ठहर क्या गए
वहीं के होकर रह गए
तुम मुस्कुराती हो
अपने सम्मोहन पर
बड़े गुमान से
नदी सी बहती केशराशि को
अपने हाथ में थामकर
साँस रोके देखते रहे
बमुश्किल सह गए
तुम अक्सर ऐसे ही
बांध लिया करती हो
कभी हवाओं को
कभी बादलों को
बरखा के अंदेशे
शिकायती लहजों में
यही बात तुमसे कह गए
अभिव्यक्ति और अच्छी-बुरी आदतें
हिन्दी फिल्मों के तकरीबन चालीस साल के सक्रिय अनुभवों वाले प्रचारक, पी.आर.ओ. आर. आर. पाठक ने एक बार कन्नड़ के मशहूर मगर कुछ दिनों पहले दिवंगत अभिनेता विष्णु वर्धन का जिक्र एक उदाहरण से किया। बीस वर्ष पहले करीब, इस अभिनेता ने एक हिन्दी फिल्म इन्स्पेक्टर धनुष में नायक भी भूमिका अदा की थी। विष्णु वर्धन ने एक बार उन्हें बैंगलोर निमंत्रित किया। वे रात को उनके विशाल बंगले में पहुँचे। अगले दिन इस नायक का जन्मदिन था। विष्णु वर्धन और उनकी पत्नी भारती जिन्होंने मस्ताना, कु ँवारा बाप, पूरब और पश्चिम फिल्मों में काम भी किया है, ने उनको खास अगले दिन का वातावरण देखने के लिए बैंगलोर बुलाया था। जन्मदिन के एक रात पहले बारह बजे से बंगले के बाहर कोलाहल बढऩा शुरू हुआ। सुबह होते-होते, कितने हजार लोग परिसर और बाहर बड़े अनुशासित भाव से इस हीरो को शुभकानाएँ देने खड़े दिखायी दे रहे थे, अन्दाज लगा पाना मुश्किल था। पाठक जी ने आश्चर्य व्यक्त किया और पूछा कि यह विहंगम किस तरह इतना नियंत्रित है? विष्णु वर्धन का जवाब था, दर्शकों का प्यार है यह। मेरी इनसे कोई दूरी नहीं है। और वास्तव में जिस तरह से वे सबसे मिले, यथासम्भव आवभगत, सबको गुलदस्ता, फूल देने के अवसर, सब कुछ इतना मर्यादित और अनुशासित कि बयाँ करना मुश्किल।
यह कल्पनातीत है, हिन्दी सिनेमा में। ऐसे बहुतेरे नायक अहँकार और गुरूर से भरे हैं जो परदे पर विभिन्न किस्म के दिल को छू लेने वाले किरदार करते हैं। दर्शकों के दिल के वे करीब दर्शक की तरफ से ही पहुँचते हैं। यह दर्शक का एकतरफा इश्क जैसा होता है। कलाकारों के सारे एप्रोच व्यावसायिक होते हैं। दर्शकों से उनका संवेदनशील रिश्ता कायम नहीं हो पाता। इस बात का सबसे अच्छा उदाहरण समय देखने में आता है जब कई सितारों के पीछे प्रशंसकों की भीड़ उनका आटोग्राफ मांगती है। उस समय जब वे कागजों पर हस्ताक्षर कर रहे होते हैं तब उनका चेहरा ध्यान से देखना चाहिए। दीवाने प्रशंसकों से पीछा छुड़ाने वाला भाव चेहरे पर साफ पढ़ा जा सकता है। भोपाल में राजनीति की शूटिंग के समय अजय देवगन, मनोज वाजपेयी जैसे सितारे प्रशंसकों से घिर जाने पर अनंत में ताकते नजर आते थे। अजय देवगन को गजब के मौन व्रती थे। उनको महसूस होता था कि वे बियाबान में खड़े हैं।
सदाबहार अभिनेता धर्मेन्द्र इस मामले में सबसे विलक्षण हैं। वे हमेशा इस बात को शिरोधार्य करते हैं कि वो जो कुछ भी हैं, उनको और उनके परिवार को जो जगह आज मिली है उसका श्रेय केवल उनके चाहने वालों को है। उनसे मिलने वाले कभी निराश नहीं लौटे। जन्मदिन पर धर्मेन्द्र से मिलने वालों का तांता लगा रहता है। वे सबसे मिलते हैं। सबका प्यार कुबूल करते हैं। इसकी वजह यही है कि वे जमीन को जानते हैं। यही कारण है कि उनका जिक्र, फिल्म इण्डस्ट्री में आदर और प्यार से ही होता है।
यह कल्पनातीत है, हिन्दी सिनेमा में। ऐसे बहुतेरे नायक अहँकार और गुरूर से भरे हैं जो परदे पर विभिन्न किस्म के दिल को छू लेने वाले किरदार करते हैं। दर्शकों के दिल के वे करीब दर्शक की तरफ से ही पहुँचते हैं। यह दर्शक का एकतरफा इश्क जैसा होता है। कलाकारों के सारे एप्रोच व्यावसायिक होते हैं। दर्शकों से उनका संवेदनशील रिश्ता कायम नहीं हो पाता। इस बात का सबसे अच्छा उदाहरण समय देखने में आता है जब कई सितारों के पीछे प्रशंसकों की भीड़ उनका आटोग्राफ मांगती है। उस समय जब वे कागजों पर हस्ताक्षर कर रहे होते हैं तब उनका चेहरा ध्यान से देखना चाहिए। दीवाने प्रशंसकों से पीछा छुड़ाने वाला भाव चेहरे पर साफ पढ़ा जा सकता है। भोपाल में राजनीति की शूटिंग के समय अजय देवगन, मनोज वाजपेयी जैसे सितारे प्रशंसकों से घिर जाने पर अनंत में ताकते नजर आते थे। अजय देवगन को गजब के मौन व्रती थे। उनको महसूस होता था कि वे बियाबान में खड़े हैं।
सदाबहार अभिनेता धर्मेन्द्र इस मामले में सबसे विलक्षण हैं। वे हमेशा इस बात को शिरोधार्य करते हैं कि वो जो कुछ भी हैं, उनको और उनके परिवार को जो जगह आज मिली है उसका श्रेय केवल उनके चाहने वालों को है। उनसे मिलने वाले कभी निराश नहीं लौटे। जन्मदिन पर धर्मेन्द्र से मिलने वालों का तांता लगा रहता है। वे सबसे मिलते हैं। सबका प्यार कुबूल करते हैं। इसकी वजह यही है कि वे जमीन को जानते हैं। यही कारण है कि उनका जिक्र, फिल्म इण्डस्ट्री में आदर और प्यार से ही होता है।
बुधवार, 18 अगस्त 2010
गीत-संगीत-कहानी में अनुपस्थित प्रेम
पहले वक्त का संगीत किसी योग-सुयोग से ही सुनने को मिल पाता है। चलती कार के ड्राइवर की सुरुचि पर भी यह सब निर्भर रहता है। ऐसे ही एक ड्राइवर की लगायी सीडी में जब चांदनी का गीत, तेरे मेरे ओठों पे मीठे-मीठे गीत मितवा, आगे-आगे चले हम पीछे-पीछे प्रीत मितवा, बजने लगा तो फिल्म याद आ गयी। उसका कालखण्ड याद आ गया। यश चोपड़ा याद आ गये। आनंद बख्शी याद आ गये और शिव-हरि याद आ गये। और लता मंगेशकर और बाबला मेहता भी याद आ गये जिन्होंने इस गीत को गाया था। लगभग पाँच मिनट बजते रहे इस गाने में पण्डित शिव कुमार शर्मा और उनकी शिष्य परम्परा का सन्तूर और पण्डित हरिप्रसाद चौरसिया और उनकी शिष्य परम्परा की बाँसुरी रोम-रोम में प्रवाहित होती प्रतीत हुई। गाने के बीच में बजती बाँसुरी से यकायक, देखा एक ख्वाब तो ये सिलसिले हुए, की धुन बजने लगी और दूसरी लाइन, दूर तक निगाह में हैं गुल खिले हुए, के बाद फिर, मितवा गाने के अनुकूल होकर संगीत गाने को आगे लिए बढ़ चला।
इस मीठे गाने ने अनुभूतियों में जो रस घोला उसी से इस बात को ध्यान करना शुरू किया कि अब तो इस तरह का संगीत, ऐसे गीत और आवाज का ऐसा माधुर्य नजर ही नहीं आता। सुरों के संग्राम के इस बड़े कठिन और एक-दूसरे का गिरेबान पकड़ते गायक-संगीतकारों के बीच यह सम्भव भी कैसे है? कैसे हो भला गीत लिखा जाना, फूल तुम्हें भेजा है खत में? अच्छे गीत-संगीत का समय काफी बाद तक अच्छा रहा है। पिछले दस सालों में देखते-ही-देखते सब जिस तरह से बिगड़ गया, उसका जरूर पता नहीं चला। अब तो कैमरा गीत गाते कलाकारों से सौ फीट दूरी रखता है। गाना बजता रहता है, कलाकार को लिप-मूमेंट की सावधानी या चिन्ता ही नहीं करनी होती। पहले इसकी फिक्र बहुत की जाती थी। बेमिसाल गायक मरहूम मोहम्मद रफी तो देव आनंद के लिए भी गाते थे और गुरुदत्त के लिए भी, शम्मी कपूर के लिए भी गाते थे और धर्मेन्द्र के लिए भी।
सभी कलाकारों की आवाज होने का हुनर इसी वजह से था क्योंकि उस समय गाने का फिल्मांकन भी एक सृजन हुआ करता था। अब वैसा नहीं रहा। हम उस जमाने को अब लगभग पूरी तरह भूल जाएँ जब फिल्म किसी कहानी पर बनती थी। कहानी में परिस्थितियों के आधार पर गीत रचना के लिए गीतकार को कहा जाता था। जब उसका संगीत तैयार होता था तब निर्देशक और गीतकार, गायक और अभिनेता-अभिनेत्रियों के साथ बैठते थे। बाद में सभी ने जब एक साथ कई दाढिय़ों में साबुन लगाकर सबको इन्तजार में बैठाना शुरू कर दिया, तब सारा बेड़ा गर्क हो गया। लोकप्रिय फिल्म संस्कृति में प्रेम, कहानी का मुख्य आधार रहा है। अब प्रेम सब जगह से अनुपस्थित है।
इस मीठे गाने ने अनुभूतियों में जो रस घोला उसी से इस बात को ध्यान करना शुरू किया कि अब तो इस तरह का संगीत, ऐसे गीत और आवाज का ऐसा माधुर्य नजर ही नहीं आता। सुरों के संग्राम के इस बड़े कठिन और एक-दूसरे का गिरेबान पकड़ते गायक-संगीतकारों के बीच यह सम्भव भी कैसे है? कैसे हो भला गीत लिखा जाना, फूल तुम्हें भेजा है खत में? अच्छे गीत-संगीत का समय काफी बाद तक अच्छा रहा है। पिछले दस सालों में देखते-ही-देखते सब जिस तरह से बिगड़ गया, उसका जरूर पता नहीं चला। अब तो कैमरा गीत गाते कलाकारों से सौ फीट दूरी रखता है। गाना बजता रहता है, कलाकार को लिप-मूमेंट की सावधानी या चिन्ता ही नहीं करनी होती। पहले इसकी फिक्र बहुत की जाती थी। बेमिसाल गायक मरहूम मोहम्मद रफी तो देव आनंद के लिए भी गाते थे और गुरुदत्त के लिए भी, शम्मी कपूर के लिए भी गाते थे और धर्मेन्द्र के लिए भी।
सभी कलाकारों की आवाज होने का हुनर इसी वजह से था क्योंकि उस समय गाने का फिल्मांकन भी एक सृजन हुआ करता था। अब वैसा नहीं रहा। हम उस जमाने को अब लगभग पूरी तरह भूल जाएँ जब फिल्म किसी कहानी पर बनती थी। कहानी में परिस्थितियों के आधार पर गीत रचना के लिए गीतकार को कहा जाता था। जब उसका संगीत तैयार होता था तब निर्देशक और गीतकार, गायक और अभिनेता-अभिनेत्रियों के साथ बैठते थे। बाद में सभी ने जब एक साथ कई दाढिय़ों में साबुन लगाकर सबको इन्तजार में बैठाना शुरू कर दिया, तब सारा बेड़ा गर्क हो गया। लोकप्रिय फिल्म संस्कृति में प्रेम, कहानी का मुख्य आधार रहा है। अब प्रेम सब जगह से अनुपस्थित है।
अपने-अपने मूल्य और समझौते
एक पूरे जमाने का अन्तर नजर आता है। एक समय था जब सिनेमा की नायिका को अभिनेत्री कहा जाता था। अभिनेत्री की व्याख्या स्त्री जो अभिनय करती है या करना जानती है। अभिनेता, पुरुष कलाकारों के लिए, जो अभिनय करना जानते हैं। इसी तरह का व्यवहारसम्मत सम्बोधन बरसों-बरस रहा है। अभिनेता और अभिनेत्री शब्द की भी अपनी गरिमा है। इसके तक इतर विभाजन नहीं थे। पहले सिनेमा में पढ़े-लिखे, गुणीजन और अपढ़ मगर गहरे अनुभवी, दोनों ही किस्म के लोग पारंगत रहे हैं। महानगर से लेकर ठेठ गाँव से आये अभिनेता-अभिनेत्रियों ने भी अपनी उपस्थिति को बखूबी रेखांकित किया है। यदि हम देव आनंद, अशोक कुमार, दिलीप कुमार, बलराज साहनी, राजकुमार, सुनील दत्त, राजकपूर, शम्मी और शशि कपूर, मोतीलाल को जानते हैं तो उसी तरह हम मेहमूद, जॉनी वाकर, सी.एस. दुबे, कन्हैयालाल, याकूब, गोप, असित सेन, नजीर हुसैन, नाना पलसीकर, जयराज, ओमप्रकाश को भी उतना ही जानते हैं।
यदि हमारे सामने शर्मिला टैगोर, वहीदा रहमान, नादिरा, कामिनी कौशल, शोभना समर्थ, नूतन, जया भादुड़ी, साधना आदि के उदाहरण हैं तो उसी प्रकार सुरैया, मीना कुमारी, मधुबाला, अमिता, लीला मिश्रा के भी। सभी ने अपने काम से, अपने सिनेमा से, अपने किरदारों से सम्मान अर्जित किया है। दर्शकों के जेहन में आज भी वैसी ही उनकी स्मृतियाँ हैं जो उनकी सक्रियता के काल में रही हैं। बाद में एक साथ समय की तब्दीली, पढ़े-लिखे और शो-बिजनेस में अपनी अपेक्षाकृत चमक-दमक वाली छबि को बनाने और उस तरह का व्यवहार करने वाले अभिनेता-अभिनेत्री कब हीरो-हीरोइन के रूप में बदल गये, कह पाना मुश्किल है। हमने अचानक ये नये नाम देखे। हीरो-हीरोइन में परिवर्तित हो जाने वाले सम्बोधनों के साथ ही सबसे ज्यादा गरिमा और गम्भीरता प्रभावित हुई।
किसी समय में मूल्य और गरिमा को स्थापित करने वाले कलाकारों की एक बड़ी संख्या हुआ करती थी। निजी या पारिवारिक जीवन चाहे जितना सहज या ऊहापोह से भरा हो, कैसे भी संंघर्ष साथ चल रहे हों मगर एक मर्यादा हमेशा ही बनी रही। बाद में वह सब क्षरित होने लगा। अभिनेत्री से हीरोइन बनी सिनेमा की नायिका को प्रतिभा से ज्यादा काया पर ऐतबार हो गया। अभिनेताओं से हीरो बने नायक ज्यादा कृत्रिम और परस्पर विद्वेष रखने वाले हो गये। उन्हें अपनी प्रतिभा के बल पर या अपने आत्मविश्वास से ज्यादा दूसरे नायक के अवसरों को कम करना और यदि साथ काम कर रहा है, तो उसकी भूमिका को सिकोड़ देने में अपना समय खर्च करना पड़ा। स्पर्धा ने गलाकाट प्रतियोगिता का रूप लिया। अपने नसीब और क्षमताओं से ज्यादा दूसरे की किस्मत पर रश्क करने का स्वभाव, स्थायी भाव बन गया। मूल्य न जाने कहाँ चले गये, समझौते उभरकर सामने आना शुरू हो गये। हम आज के अपने सिनेमा में स्त्री की जगह को शर्म की जगह पर देखते हैं। गुणो के साथ किसका जिक्र किया जाये, यह सोचना पड़ता है।
यदि हमारे सामने शर्मिला टैगोर, वहीदा रहमान, नादिरा, कामिनी कौशल, शोभना समर्थ, नूतन, जया भादुड़ी, साधना आदि के उदाहरण हैं तो उसी प्रकार सुरैया, मीना कुमारी, मधुबाला, अमिता, लीला मिश्रा के भी। सभी ने अपने काम से, अपने सिनेमा से, अपने किरदारों से सम्मान अर्जित किया है। दर्शकों के जेहन में आज भी वैसी ही उनकी स्मृतियाँ हैं जो उनकी सक्रियता के काल में रही हैं। बाद में एक साथ समय की तब्दीली, पढ़े-लिखे और शो-बिजनेस में अपनी अपेक्षाकृत चमक-दमक वाली छबि को बनाने और उस तरह का व्यवहार करने वाले अभिनेता-अभिनेत्री कब हीरो-हीरोइन के रूप में बदल गये, कह पाना मुश्किल है। हमने अचानक ये नये नाम देखे। हीरो-हीरोइन में परिवर्तित हो जाने वाले सम्बोधनों के साथ ही सबसे ज्यादा गरिमा और गम्भीरता प्रभावित हुई।
किसी समय में मूल्य और गरिमा को स्थापित करने वाले कलाकारों की एक बड़ी संख्या हुआ करती थी। निजी या पारिवारिक जीवन चाहे जितना सहज या ऊहापोह से भरा हो, कैसे भी संंघर्ष साथ चल रहे हों मगर एक मर्यादा हमेशा ही बनी रही। बाद में वह सब क्षरित होने लगा। अभिनेत्री से हीरोइन बनी सिनेमा की नायिका को प्रतिभा से ज्यादा काया पर ऐतबार हो गया। अभिनेताओं से हीरो बने नायक ज्यादा कृत्रिम और परस्पर विद्वेष रखने वाले हो गये। उन्हें अपनी प्रतिभा के बल पर या अपने आत्मविश्वास से ज्यादा दूसरे नायक के अवसरों को कम करना और यदि साथ काम कर रहा है, तो उसकी भूमिका को सिकोड़ देने में अपना समय खर्च करना पड़ा। स्पर्धा ने गलाकाट प्रतियोगिता का रूप लिया। अपने नसीब और क्षमताओं से ज्यादा दूसरे की किस्मत पर रश्क करने का स्वभाव, स्थायी भाव बन गया। मूल्य न जाने कहाँ चले गये, समझौते उभरकर सामने आना शुरू हो गये। हम आज के अपने सिनेमा में स्त्री की जगह को शर्म की जगह पर देखते हैं। गुणो के साथ किसका जिक्र किया जाये, यह सोचना पड़ता है।
सोमवार, 16 अगस्त 2010
अपने-अपने मूल्य और समझौते
एक पूरे जमाने का अन्तर नजर आता है। एक समय था जब सिनेमा की नायिका को अभिनेत्री कहा जाता था। अभिनेत्री की व्याख्या स्त्री जो अभिनय करती है या करना जानती है। अभिनेता, पुरुष कलाकारों के लिए, जो अभिनय करना जानते हैं। इसी तरह का व्यवहारसम्मत सम्बोधन बरसों-बरस रहा है। अभिनेता और अभिनेत्री शब्द की भी अपनी गरिमा है। इसके तक इतर विभाजन नहीं थे। पहले सिनेमा में पढ़े-लिखे, गुणीजन और अपढ़ मगर गहरे अनुभवी, दोनों ही किस्म के लोग पारंगत रहे हैं। महानगर से लेकर ठेठ गाँव से आये अभिनेता-अभिनेत्रियों ने भी अपनी उपस्थिति को बखूबी रेखांकित किया है। यदि हम देव आनंद, अशोक कुमार, दिलीप कुमार, बलराज साहनी, राजकुमार, सुनील दत्त, राजकपूर, शम्मी और शशि कपूर, मोतीलाल को जानते हैं तो उसी तरह हम मेहमूद, जॉनी वाकर, सी.एस. दुबे, कन्हैयालाल, याकूब, गोप, असित सेन, नजीर हुसैन, नाना पलसीकर, जयराज, ओमप्रकाश को भी उतना ही जानते हैं।
यदि हमारे सामने शर्मिला टैगोर, वहीदा रहमान, नादिरा, कामिनी कौशल, शोभना समर्थ, नूतन, जया भादुड़ी, साधना आदि के उदाहरण हैं तो उसी प्रकार सुरैया, मीना कुमारी, मधुबाला, अमिता, लीला मिश्रा के भी। सभी ने अपने काम से, अपने सिनेमा से, अपने किरदारों से सम्मान अर्जित किया है। दर्शकों के जेहन में आज भी वैसी ही उनकी स्मृतियाँ हैं जो उनकी सक्रियता के काल में रही हैं। बाद में एक साथ समय की तब्दीली, पढ़े-लिखे और शो-बिजनेस में अपनी अपेक्षाकृत चमक-दमक वाली छबि को बनाने और उस तरह का व्यवहार करने वाले अभिनेता-अभिनेत्री कब हीरो-हीरोइन के रूप में बदल गये, कह पाना मुश्किल है। हमने अचानक ये नये नाम देखे। हीरो-हीरोइन में परिवर्तित हो जाने वाले सम्बोधनों के साथ ही सबसे ज्यादा गरिमा और गम्भीरता प्रभावित हुई।
किसी समय में मूल्य और गरिमा को स्थापित करने वाले कलाकारों की एक बड़ी संख्या हुआ करती थी। निजी या पारिवारिक जीवन चाहे जितना सहज या ऊहापोह से भरा हो, कैसे भी संंघर्ष साथ चल रहे हों मगर एक मर्यादा हमेशा ही बनी रही। बाद में वह सब क्षरित होने लगा। अभिनेत्री से हीरोइन बनी सिनेमा की नायिका को प्रतिभा से ज्यादा काया पर ऐतबार हो गया। अभिनेताओं से हीरो बने नायक ज्यादा कृत्रिम और परस्पर विद्वेष रखने वाले हो गये। उन्हें अपनी प्रतिभा के बल पर या अपने आत्मविश्वास से ज्यादा दूसरे नायक के अवसरों को कम करना और यदि साथ काम कर रहा है, तो उसकी भूमिका को सिकोड़ देने में अपना समय खर्च करना पड़ा। स्पर्धा ने गलाकाट प्रतियोगिता का रूप लिया। अपने नसीब और क्षमताओं से ज्यादा दूसरे की किस्मत पर रश्क करने का स्वभाव, स्थायी भाव बन गया। मूल्य न जाने कहाँ चले गये, समझौते उभरकर सामने आना शुरू हो गये। हम आज के अपने सिनेमा में स्त्री की जगह को शर्म की जगह पर देखते हैं। गुणो के साथ किसका जिक्र किया जाये, यह सोचना पड़ता है।
यदि हमारे सामने शर्मिला टैगोर, वहीदा रहमान, नादिरा, कामिनी कौशल, शोभना समर्थ, नूतन, जया भादुड़ी, साधना आदि के उदाहरण हैं तो उसी प्रकार सुरैया, मीना कुमारी, मधुबाला, अमिता, लीला मिश्रा के भी। सभी ने अपने काम से, अपने सिनेमा से, अपने किरदारों से सम्मान अर्जित किया है। दर्शकों के जेहन में आज भी वैसी ही उनकी स्मृतियाँ हैं जो उनकी सक्रियता के काल में रही हैं। बाद में एक साथ समय की तब्दीली, पढ़े-लिखे और शो-बिजनेस में अपनी अपेक्षाकृत चमक-दमक वाली छबि को बनाने और उस तरह का व्यवहार करने वाले अभिनेता-अभिनेत्री कब हीरो-हीरोइन के रूप में बदल गये, कह पाना मुश्किल है। हमने अचानक ये नये नाम देखे। हीरो-हीरोइन में परिवर्तित हो जाने वाले सम्बोधनों के साथ ही सबसे ज्यादा गरिमा और गम्भीरता प्रभावित हुई।
किसी समय में मूल्य और गरिमा को स्थापित करने वाले कलाकारों की एक बड़ी संख्या हुआ करती थी। निजी या पारिवारिक जीवन चाहे जितना सहज या ऊहापोह से भरा हो, कैसे भी संंघर्ष साथ चल रहे हों मगर एक मर्यादा हमेशा ही बनी रही। बाद में वह सब क्षरित होने लगा। अभिनेत्री से हीरोइन बनी सिनेमा की नायिका को प्रतिभा से ज्यादा काया पर ऐतबार हो गया। अभिनेताओं से हीरो बने नायक ज्यादा कृत्रिम और परस्पर विद्वेष रखने वाले हो गये। उन्हें अपनी प्रतिभा के बल पर या अपने आत्मविश्वास से ज्यादा दूसरे नायक के अवसरों को कम करना और यदि साथ काम कर रहा है, तो उसकी भूमिका को सिकोड़ देने में अपना समय खर्च करना पड़ा। स्पर्धा ने गलाकाट प्रतियोगिता का रूप लिया। अपने नसीब और क्षमताओं से ज्यादा दूसरे की किस्मत पर रश्क करने का स्वभाव, स्थायी भाव बन गया। मूल्य न जाने कहाँ चले गये, समझौते उभरकर सामने आना शुरू हो गये। हम आज के अपने सिनेमा में स्त्री की जगह को शर्म की जगह पर देखते हैं। गुणो के साथ किसका जिक्र किया जाये, यह सोचना पड़ता है।
शनिवार, 14 अगस्त 2010
हमारी गुरु माता ही हमारी भगवान हैं - पण्डित हरिप्रसाद चौरसिया
उनकी बाँसुरी बजती है तो लगता है जैसे प्रकृति गाने लगी है। प्रतीत होता है, कि पहाड़ों को संगीत मिल गया है, महसूस होता है, कि फूलों की क्यारियाँ खूबसूरती और खुश्बू मेें और जवाँ हो गयी हैं। आँख मूंद लेने को जी करता है और तब तक खोलने की तबीयत नहीं होती जब तक आवाज़ थम नहीं जाती। पण्डित हरिप्रसाद चौरसिया, सचमुच हमारे समय के ऐसे अनूठे मुरली वाले हैं जिनकी बंसी का स्वर हमारी अनुभूतियों को महक देता है, अहसास होता है कि एक ऐसा स्वर हमारे साथ है जो जि़न्दगी को कुछ देर ही सही, एक ऐसे रूमान से भर देता है, जिसके बाहर आने को फिर जी नहीं चाहता। प्रख्यात सन्तूर वादक पण्डित शिवकुमार शर्मा के साथ शिव-हरि की जोड़ी बनाकर जो कुछ खास फिल्मों में उन्होंने संगीत दिया है, वो अत्यन्त सुरीला, मीठा और अविस्मरणीय है। श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के दिन पण्डित जी चौबीस घण्टे बाँसुरी बजाते हैं। वे कहते हैं कि जब लोग अपने यार-दोस्तों के जन्मदिन के अवसरों पर दिन-रात हुड़दंग और शोर करते हैं तो मैं अपने प्रभु का जन्मदिन रात-दिन बाँसुरी बजाकर क्यों नहीं मना सकता?
अहा जि़न्दगी के प्रेम विशेषांक के लिए उन्होंने रचनाशीलता का उनका जगत,भक्ति, प्रेम, खूबसूरत ख़्वाब, गुरु, माँ, सफलता आदि को लेकर वो सब कुछ कहा जिसका कहीं न कहीं निश्चित रूप से प्रेम और उसकी पगडण्डी से सच्चा सरोकार स्थापित अवश्य होता है-
मेरी रचनाशीलता का जगत
हर रचनाशील मनुष्य का अपना जगत होता है, ऐसा मेरा मानना है। हर रचनाशील मनुष्य अपने जगत में अपनी रचनाशीलता के जगत की भी एक जगह बनाता है। यह उसकी रचनात्मक बेचैनी और सन्तुष्टि दोनों के लिए ही अत्यन्त ज़रूरी भी होता है। इस जगत से ही तो सारी सृजन ऊर्जा प्राप्त होती है। मेरी रचनाशीलता का जगत, मुझे लगता है कि मेरे लिए स्वर्ग जैसा है। मैं जब भी उस जगत में प्रवेश करता हूँ, अपनी रचना के बारे में या किसी भी प्रकार का संगीत, शास्त्रीय संगीत हो या फिल्म संगीत हो, वो जगह मुझे स्वर्ग दिखायी पड़ती है। कहाँ क्या करना है, कहाँ कितनी ज़रूरत है, किस चीज़ की ज़रूरत है, कैसे संगीत की ज़रूरत है, उसका रूप क्या होना चाहिए, उसकी शक्ल क्या होना चाहिए, यह सब हम अपने हिसाब से करते हैं। हमारे साथ भगवान होते हैं और भगवान के आशीर्वाद से सब कुछ ठीक होता है, अब तक ठीक हुआ है। यह मेरे विश्वास और आस्था पर भी निर्भर करता है।
मेरी दृष्टि में भक्ति एक ऐसा मार्ग है जो भगवान का सीधा दर्शन कराता है। जिस आदमी में भक्ति होती है वो दुनिया के लोगों का दिल जीतता है। पहले जैसा मैंने कहा कि भक्ति से भगवान के दर्शन होते हैं। इन्सान यदि भक्ति से भगवान का दिल जीत सकता है तो वो इन्सान का दिल भी जीत सकता है। भक्ति का सकारात्मक भाव और विनयशीलता हमारे जीवन में बहुत सारे श्रेष्ठ मार्ग प्रशस्त करने का काम करती है। लेकिन यह सब तभी हो सकता है जब हम भक्ति के मर्म को समझ सकें क्योंकि जिस इन्सान में भक्ति नहीं है, उस इन्सान में बहुत बड़ी कमी रह जाती है।
यह बात कभी सोची है आपने कि सब लोग टाटा-बिरला क्यों नहीं बनते? दुनिया में टाटा-बिरला से ज्य़ादा मेहनत करने वाले लोग हैं। सुबह 6 बजे से उठकर रात को 12 बजे तक काम करते हैं। छोटी सी दुकान खोलकर बैठे रहते हैं और फिर भी वो एक समय ही खाना खाते हैं लेकिन वो टाटा-बिरला नहीं बन सकते। उनमेें ज़रूर कोई कमी है। तो मुझे लगता है कि भक्ति की कमी है। हम जो भी काम करें, उसमें भक्ति आवश्यक है। काम चाहे छोटा हो या बड़ा, यदि हमारी साधना, हमारे जीवन और हमारे भविष्य से जुड़ा है तो उसे हमें भक्ति भाव से ही करना चाहिए। इसी भावना से जिन लोगों ने काम किया वो उन्होंने अपने जीवन में इसका सर्वोत्कृष्ट फल पाया। ये लोग भक्त थे। उन्होंने देखा कि व्यवसाय उनके लिए भक्ति है और उन्होंने दुनिया में बहुत नाम कमाया। आप जो भी काम करने जा रहे हैं उसे भक्ति की तरह से लेंगे तभी दुनिया आपकी तरफ़ देखेगी।
प्रेम बड़ी पर्सनल चीज़ है
प्रेम एक अलग चीज़ है। प्रेम भी पर्सनल होता है। प्रेम हम सारी दुनिया से नहीं कर सकते। हम अपने परिवार, अपने मित्रों से करेंगे। इसके अलावा ज्य़ादा लोगों से प्रेम कर नहीं सकते क्योंकि फिर प्रेम बहुत साधारण हो जायेगा। प्रेम की विशिष्टता ही यही है, उसकी खूबसूरती ही यही है कि वह अपने निजीपन में, अपना निजता में श्रेष्ठ अभिव्यक्ति और अनुभूति को जीता और प्राप्त करता है। उसकी असाधारणता, असाधारण रहस्य को वही जानता है, जो प्रेम को जीता है। भक्ति एक ऐसी चीज़ है कि वो हम किसी से भी कर सकते हैं। अपने कार्य से भक्ति करेंगे तो जो हमारा कार्य है, जो हमारा फील्ड है, जो हमारा जगत है वहाँ हमको सफलता मिलेगी। यदि हम खेती करते हैं और भक्ति के साथ करते हैं तो फिर चाहे सारी दुनिया मेें सुनामी आ जाये, लेकिन हमारी खेती में अनाज ज़रूर होगा। प्रेम बड़ी पर्सनल चीज़ है। प्रेम में भी कई प्रकार का प्रेम है। जो प्रेम हम अपनी पत्नी को करते हैं, वो बच्चे को नहीं करते। जो प्रेम हम अपने बच्चे को करते हैं, वो अपने भाई को नहीं करते। उसके भिन्न-भिन्न रूप हैं। प्रेम की परिभाषा बहुत अलग है। हम उसकी व्याख्या उसकी गरिमा और खुश्बू को बरकरार रखते हुए भी अलग-अलग ढंग से कर सकते हैं। भक्ति की परिभाषा एक ही है लेकिन प्रेम की बहुत सारी परिभाषाएँ हैं। आपके गुरु से आपका प्रेम अलग रहेगा, आपके माता-पिता से आपका प्रेम अलग रहेगा, आपके बच्चों से आपका प्रेम अलग रहेगा और आपके मित्रों से आपका प्रेम अलग ही रहेगा। प्रेम को डायल्यूट कर सकते हैं आप लेकिन भक्ति को डायल्यूट नहीं कर सकते। प्रेम कई बार बदल भी जाता है लेकिन भक्ति बदल नहीं सकती। प्रेम बदल भी जाता है, कभी झगड़ा हो गया किसी से, आपकी पत्नी से ही बहुत प्रेम था मगर झगड़ा हो गया तो डिवोर्स हो गया, प्रेम खत्म हो गया। लेकिन भक्ति कभी खत्म नहीं होती। शुरू में एक बार यदि इसका रस मिल गया तो फिर जीवन भर रहता है।
संगीत ही हमारा खूबसूरत ख़्वाब
हमारा खूबसूरत ख़्वाब जितना भी था, संगीत था। बचपन से ही यही एक स्वप्र देखा, तन-मन और लगन से साधना की और भगवान की कृपा से हमारी साधना को प्रतिसाद मिला। जो स्वप्र देखा था, इसी साधना और एकधुन से साकार हुआ। संगीत के अलावा जो हमारी गुरु भक्ति थी, वह हमारे लिए अत्यन्त मूल्यवान रही है। शिष्य भाव से अपने जीवन में अपने गुरु से जो संस्कार सीखे, कला का जिस तरह का मार्ग और माध्यम हमारी शिक्षा में आया, वह हमारे लिए बेहद अनुभूतिजन्य रहा है। जो गुरु से हमको मिला है, वो हम किस तरह से लोगों में बाँटें और गुरु ने किस हिसाब से हमको दिया है और हम उस हिसाब से बच्चों को दें, हमको किस तरह से प्यार दिया है, उस तरह से प्यार दें, किस तरह से खाना - पीना खिलाया, हम गरीब थे, हमको बहुत सहायता की, हम भी उसी तरह से बच्चों को सहायता करें, यही हमने सोचा और करने का प्रयास किया है।
यह हमारा ख़्वाब था कि गुरु का संस्कार, हमारी साधना और परिश्रम जीवन में हमें यदि इस योग्य बनाता है तो हम भी अपनी शिष्य परम्परा में उन संवेदनाओं को तवज्जो देंगे जो हमने अपने गुरु में देखीं। हमारा यही स्वप्र था, वो भी पूरा हो गया। मुम्बई में बहुत अच्छा गुरुकुल बन गया और दूसरी जगह भी बन रहा है, उड़ीसा में काम किया है, अमेरिका मेें काम किया है। यही हमारा ख़्वाब था जो पूरा हो रहा है। गुरुकुल तो एक बहुत प्राचीन कन्सेप्ट है। एक पुरातन परम्परा। शिक्षण और संस्कार की एक ऐसी जगह जहाँ आप सब छोडक़र जायें और इस तरह समर्पित हों कि आपको पूरी तरह वहाँ के वातावरण में शामिल होने में कोई कठिनाई न हो। आपको अपनाया जा सके, गोद लिया जा सके और जब तक वो चाहें आप उनके साथ समय बिता सकेें। अगर वो चाहें पन्द्रह साल, तो पन्द्रह साल उनके साथ रह सकें, सब भूलकर। आप यह सोचें कि यह मेरा ही कुल है, यह मेरा ही गुरु है और यह मेरा ही घर है। फिर आपको वहाँ सारी व्यवस्था मिलती है, जैसे घर में खाना, पीना, सोना, रहना। कोई पैसे नहीं लगते लेकिन गुरुकुल के जो बहुत सारे सिस्टम होते हैं उनका पालन करना पड़ता है। उस हिसाब से आप रह सकते हैं और गुरुकुल में भी पाँच हज़ार लोग तो रहते नहीं, पाँच लोग रहते हैं या सात लोग या दस लोग रहते हैं। उन सभी के लिए शिष्यत्व एक बड़ी चुनौती भी होती है। उनके नाम के साथ उनके गुरु का नाम भी जुड़ा होता है। वे जहाँ जाते हैं, उनके गुरु का नाम अवश्य ही लिया जाता है, ऐसे में अपने गुरु के नाम का सम्मान रखना उनके लिए न सिर्फ कला और अनुशासन के स्तर पर अहम होता है बल्कि व्यक्तित्व और आचरण के स्तर पर भी।
गुरु - शिष्य परम्परा
गुरु के बारे में हम यही कहना चाहेंगे कि उनसे भक्ति होती है, प्रेम नहीं होता। गुरु की भक्ति होगी तभी गुरु से ज्ञान मिलता है। सच्चे मन से हमने यदि गुरु मान लिया है तो फिर अपने गुरु का समग्र व्यक्तित्व और उससे जुड़ी छोटी-छोटी चीज़ें भी शिष्य के जीवन में बड़ी मायने रखने वाली हो जाती हैं। गुरु की साधना का अपना ही वैभव होता है। हममे समर्पण होता है तो गुरु का सिखाया हमारी साधना को सार्थक भी कर सकता है। अगर गुरु नहीं भी सिखाएँगे तो भी ज्ञान मिलता रहेगा आपको क्योंकि आपकी भक्ति है। गुरु आपको इग्नोर भी करेंगे तो भी आपको उनके देखने से, उनके हाथ रखने से, उनकी बातचीत से आप हर चीज़ सीखते रहेंगे। वो सिर्फ़ बात भी करेंगे तो उससे भी आप सीख जायेंगे। या कि दूसरे को सिखाते रहें और आपको एवॉइड कर दें तो भी आप सीखते रहेंगे। इसलिए सीखते रहेंगे क्योंकि आपमेें भक्ति है। आप उस मार्ग की तरफ सच्ची भक्ति से जा रहे हैं जहाँ से गुरु की विद्या प्राप्त की जा सकती है। हमारी अपने गुरु के प्रति भक्ति है। हम चाहते हैं कि हम अपने गुरु का नाम ऊँचा करें।
गुरु-शिष्य परम्परा भी तभी सार्थक होगी जब भक्ति होगी। भक्ति होगी तो कितना भी गुरु को अपने शिष्य से नाराज़गी हो, लेकिन बाद मेें उसका भी दिल पिघल जाता है क्योंकि वो भी तो इन्सान ही रहते हैं न? पिघल जाते हैं अपने शिष्य के प्रति। फिर वो सब कुछ देना चाहता है, जो उसके पास विद्या होगी, जो उसका खाना होगा, जो उसका कपड़ा होगा, सब कुछ देना चाहता है। अपने बच्चों से भी ज्य़ादा शिष्य की भक्ति पर गुरु को फिर स्नेह आ जाता है और वह फिर सब कुछ करता है। गुरु ही हमारे इष्ट भगवान भी हैं। क्योंकि उनकी वज़ह से आज हमको दुनिया में लोग जानते हैं, पहचानते हैं। उनकी विद्या की वज़ह से हमारी पहचान है। उस विद्या से ही हमारा जीवन और सृजन सार्थक हुआ है। अगर वो विद्या नहीं होती तो कौन हमको जानता था? कृष्ण भगवान ने तो हमको नहीं सिखाया। उनकी तो तस्वीर हम देखते हैं, केवल। दुनिया के साथ हम भी उनके नत-मस्तक हैं। हमारी गुरु माता ही हमारी भगवान हैं। उन्होंने ही हमें विद्या दी, प्रेम दिया, संस्कार दिया। उनके प्रति मेरी श्रद्धा ऐसी है जिसे मैं बोलकर बता नहीं सकता। शब्दों में बता पाना मुश्किल है। वो ऐसी भावना है जिसे कोई छीन नहीं सकता। मैं उसका प्रकाश भी नहीं कर सकता अन्यथा मैं अपने हाथों से ऐसी किताब लिखता।
माँ
माँ की तो मुझे सूरत भी याद नहीं है। जब वो मुझे छोडक़र गयी थीं तब मैं बहुत ही छोटा था, पाँच या साढ़े पाँच साल का रहा होऊँगा। इसलिए मुझे उनकी शक्ल भी याद नहीं है। उनको लेकर स्मृतियों में यदि कहूँ तो धुंधली छबियाँ भी नहीं हैं। उनका स्वभाव कैसा था, यह भी याद नहीं है। बचपन, माँ के बिना अकेला, उदास और नीरस तो होता ही है। बच्चों के लिए माँ की छत्रछाया ईश्वर के सम्बल की तरह होती है। माँ तो बच्चे के लिए सब विघ्र, बाधाएँ, मुसीबतें और दुख अपने ऊपर ले लिया करती हैं। अपनी माँ को लेकर बस यही एक दुख सालता रहता था बचपन में कि ये मुझे क्यों छोडक़र चली गयीं? दूसरों की माँ हैं, वो अपने बच्चों को कितना प्यार करती हैं और हमारी माँ क्यों इतनी जल्दी मुझे छोडक़र चली गयीं? मैंने ऐसा क्या गुनाह किया था? इसकी बहुत चिन्ता होती थी। दुख भी होता था। वो दुख आज भी है और हमेशा रहेगा। अगर वो रहतीं तो ये दुख न होता। दूसरे बच्चों को देखता तो लगता कि बच्चे, माँ के साथ झगड़ा करते हैं, माँ उनको बहुत प्यार करती है, फिर माँ मारती है उनको, ये चीज़ें हमने मिस किया अपने जीवन में। हमारा बचपन इन सारे सुखों और भावनात्मक खुशियों से वंचित ही रहा। इस बात का गम तो रहा हमेशा। वो चीज़ कभी-कभी बहुत तकलीफ देती है जब सोचता हूँ तो। पहले बहुत सोचता था, आहिस्ता-आहिस्ता कम हो गया लेकिन कम ही रहेगा, खत्म नहीं होगा क्योंकि माँ तो माँ ही है न.....।
जन्माष्टमी में स्वरोच्चारण
जन्माष्टमी के दिन मैं चौबीस घण्टे बाँसुरी बजाता हूँ। करीब पच्चीस साल हो गया ऐसा करते हुए। भगवान कृष्ण ने इस वाद्य को दिखाया और सारी दुनिया चोरी करके ले गयी। वही तो हमारे दिग्दर्शक हैं। वे ही तो हमको रास्ता दिखाने वाले हैं, इस वाद्य का। हमने इस वाद्य को अपनी साधना का आधार बनाया इसीलिए उनकी भक्ति हम इस तरह से करते हैं। लेकिन उसमें जो जान डालने का काम किया, वो तो हमारे गुरु ने किया। उनकी ही प्रेरणा से अपने सब शिष्यों के साथ हम चौबीस घण्टे जन्माष्टमी पर कृष्ण भगवान का जन्मदिन बाँसुरी बजाकर मनाते हैं। इस तरह अपने शिष्यों के भी अन्तर में हम डालना चाहते हैं कि ये जो हम कर रहे हैं, वो तुम्हें भी करना है। बहुत अच्छा वातावरण होता है उस समय, आप देखेंगे तो आपको अहसास होगा, कैसा लगता है..........।़ वो सही पूजा होती है। जन्माष्टमी के दिन मंत्रोच्चारण तो हर मन्दिर में मिलेगा लेकिन हमारे घर स्वरोच्चारण होता है। रात बारह बजे से लेकर अगली रात बारह बजे तक।
मैं अक्सर सोचता हूँ कि आज ज़माना जन्मदिन पर, चाहे परिवार हों या मित्र-दोस्त, कितना ऊधम मचाते हैं, कितना हुड़दंग करते हैं, कितना शोर-शराबा करते हैं। इन सबके बीच मैं अपने प्रभु, अपने बाँसुरीवाले का जन्मदिन चौबीस घण्टे बाँसुरी बजाकर मनाता हूँ तो उसमें बुरा क्या है? हमारे शिष्य भी बरसों से इसी भावना के साथ जन्माष्टमी के पर्व पर मेरे साथ शामिल होते हैं। हम सब मिलकर जन्माष्टमी, भगवान कृष्ण का जन्मदिन इसी भावना के साथ मनाते आ रहे हैं।
सफलता का रहस्य
सफलता का रहस्य......यह तो इन्सान पर निर्भर करता है कि वो किस चीज़ को सफलता मानता है? किसी-किसी का दिल नहीं भरता। पैसा कमाते जाते हैं मगर फिर भी दिल नहीं भरता, और लोगों का गला काटते रहते हैं और खून पीते रहते हैं। ऐसे भी लोग हैं और वो समझते भी नहीं कि वो सफल हो गये हैं। फिर उसी में वो बरबाद भी हो जाते हैं फिर भी नहीं समझते। ये आपके ऊपर निर्भर करता है। कुछ-कुछ लोग हैं जो दो रोटी में भी यह समझते हैं कि हमको ऊपर वाले ने बहुत कुछ दे दिया। कुछ लोगों के पास दस मकान भी होंगे, भले ही वे एक मकान में रहते हों मगर यह चाहेंगे कि और एक मकान मिल जाये। सारा जीवन वो अतृप्त रहते हैं। जब तृप्ति नहीं होगी तो सफलता कैसे मिलेगी? एक आदमी वो होता है जिसे कि मालूम होता है कि हमारे पास इतनी बड़ी चादर है कि हमारा पैर ढँक जायेगा, वो यह सोचकर सन्तुष्ट हो जाता है। कुछ लोगों के कबर्ड में चादर भरा हुआ है, वो और भी भरते जाते हैं उसमें लेकिन उनको लगता है कि फिर भी कमी है उनके जीवन में। ये मनुष्य पर निर्भर करता है कि उसकी इच्छाएँ कहाँ जाकर अनुशासित होती हैं।
हर आदमी सफलता के पीछे पड़ा रहता है। कोई बिजनेस में सफलता पाना चाहता है, कोई कुश्ती-कसरत में सफलता पाना चाहता है, कोई आदमी स्पोर्टर्स में सफलता पाना चाहता है कि मैं इतने हज़ार रन बना लूँ, यह सब निर्भर करता है, अपनी-अपनी तसल्ली के धरातल पर। मैं कितने रन बना लूँ तो मेरा जी तृप्त हो जायेगा, कोई आदमी बिजनेस में है, सोचता है अपनी चार फैक्ट्री लगा दिया तो मैं सफल हो गया। कोई आदमी लगाते ही जाते हैं, जैसे बिरला-टाटा लगाते ही जाते हैं, फिर भी वो सोचते हैं कि और भी होना चाहिए। यह भी हर एक इन्सान, हर एक मनुष्य के ऊपर निर्भर करता है कि वो क्या सोचता है, कि अपने जीवन में सफलता का सूत्र क्या होना चाहिए? मैं सोचता हूँ कि मैं तृप्त हूँ। मेरी सफलता से मैं तृप्त हूँ। मैंने जो सोचा था, मुझको मिल गया। भगवान ने दे दिया। अपने आपको मैं बहुत खुश मानता हूँ। मुझे लोग प्यार करते हैं, इससे ज्य़ादा सफलता और क्या चाहिए? किसी को उतना प्यार नहीं मिलता। हमको लोग इतना प्यार करते हैं, इतना सम्मान देते हैं, इससे बड़ी क्या सफलता चाहिए जीवन में..........।़ हम भगवान श्रीकृष्ण नहीं बनना चाहते कि लोग हमारी पूजा करें, हमें प्यार करें बस.......तो मैं अपने आपको भाग्यवान समझता हूँ भगवान श्रीकृष्ण से भी। उनकी तो लोग पूजा करते हैं, हमको लोग प्यार करते हैं। चाहे ठण्ड हो या गरम हो या बारिश हो फिर भी प्यार से आकर सुनते हैं, बातचीत करते हैं और मिलते हैं। छोटे बच्चे भी जिनको ज्य़ादा मालूम नहीं होता, वो आकर बैठते हैं, पास आकर आटोग्राफ मांगते हैं, उनका प्यार देखकर मन गदगद हो उठता है।
क्रोध तो आना ही चाहिए
मनुष्य को भगवान ने ऐसा बनाया है कि उसमें क्रोध भी होना चाहिए, उसमें कृपा भी होना चाहिए, उसमें दूसरों का सत्कार करने का जज़्बा भी होना चाहिए, उसको हँसना भी चाहिए, सब बातें होना चाहिए तभी तो मनुष्य माना जायेगा वरना मनुष्य कैसा? मुझे भी क्रोध आता है, कभी किसी बात पर आ भी जाता है। कभी दाल में नमक ज्य़ादा हो गया और भूख लगी है तो क्रोध आ भी जायेगा। इसमें क्या बड़ी बात है? हमने तो कभी नहीं देखा कि दाल में नमक खूब हो जाये तो आदमी डांस करने लगे........आ...हा....ऐसा ही होना चाहिए। मिर्ची सब्ज़ी में हो गयी, डांस करने लगे......थोड़ा क्रोध तो आयेगा। आपने देखा है किसी को, जली रोटी आयी हो और वो खुशी से डांस करने लगे.....आहा......क्या रोटी आयी है....। सबको क्रोध है। वहाँ क्रोध आना ही चाहिए। नहीं तो फिर आपका दिमा$ग सन्तुलित नहीं है।
बाँसुरी के सिवा कोई शौक नहीं
बाँसुरी के अलावा मेरा कोई शौक नहीं है। बचपन से वही किया, वही करता आया। वही करता रहूँगा, जब तक जि़न्दा रहूँगा और अगले जन्म में भी वही करूँगा, अगर मनुष्य का जन्म हुआ तो। जो मिल गया वो खा लेता हूँ, कुछ बनाने-वनाने का शौक नहीं है। बहुत साधारण आदमी हुआ। जैसा हुआ वैसे रह लेता हूँ। लेकिन सब कुछ अच्छा ही मिलता है। जहाँ जाता हूँ वहाँ परिवार की तरह लोग मिल जाते हैं, इससे बड़ी क्या बात होगी.........।़
फिल्म, शिव और यश.....
फिल्म संगीत की तरफ आना, मुम्बई में रहने और काम करने के योग के साथ जुड़ा। मैं रेडियो में नौकरी करता था। शिव कुमार जी फिल्मों में बजाने के लिए आये थे। हमारी मुलाकात हुई। मैं भी फिल्मों के लिए बजाता था। दोनों रोज़ मिलते थे। बातें होती थीं, इस तरह शुरूआत हो गयी। अलग-अलग म्युजि़क डायरेक्टरों के साथ काम करते थे। आगे चलकर हम दोनों में भाई की तरह सम्बन्ध हो गया। बाद मेें जब प्रोड्यूसर्स ने पूछा कि आप दोनों फिल्म के लिए संगीत देंगे तो हमने कहा कि ज़रूर, यह हमारा व्यवसाय तो नहीं है मगर इसको हम शौकिया करेंगे। हमें अवसर मिले, हमने किया। चूँकि शौकिया कर रहे थे, लिहाज़ा अच्छा काम किया और लोगों ने खूब पसन्द भी किया। भाग्य भी अच्छा था।
यश चोपड़ा से जुडऩे का कारण यह था कि हम लोग उनके बहुत निकट थे। यश चोपड़ा ने ही हमें पहले ऑफर किया, तो उनके साथ काम शुरू किया। उनके लिए हमने सिलसिला, चांदनी, लम्हें आदि फिल्में कीं। हमने और भी दूसरे डायरेक्टरों के साथ भी काम किया। लेकिन यश चोपड़ा के साथ हमने ज्य़ादा काम इसलिए किया कि उनके साथ हमारा एक फेमिली जैसा सम्बन्ध हो गया था। वो हमारी जो थोड़ी सी कमियाँ थीं उनको वो समझते थे। कमियाँ मतलब, कभी हम बाहर प्रोग्राम में जायेंगे, तो कोई नहीं रहेगा, उसको एडजस्ट करना, लास्ट मूमेन्ट में हमने उनसे कह दिया, आज हम भोपाल जायेंगे बजाने और ऐसे में उनकी कोई शूटिंग या शेड्यूल पड़ गया, तो उसमें हम यह नहीं कह सकते कि आज हमारी रेकॉर्डिंग या शूटिंग है इसलिए हम बजाने नहीं आ सकते। तो ऐसी सारी चीज़ों को सहृदयतापूर्वक वे एडजस्ट करते थे जो दूसरे लोग नहीं करते।
अभी तो फिल्म एकदम छोड़ दिया है क्योंकि मैं अभी दूसरे कार्यक्रम में लगा हूँ गुरुकुल के। फिर प्रोग्राम भी टू-मच हो जाता है। अब मैं छ: महीने विदेश में भी रहता हूँ। तो मेरी वज़ह से किसी को परेशानी न हो, इसलिए मैंने थोड़ा बन्द करके रखा हुआ है।
अहा जि़न्दगी के प्रेम विशेषांक के लिए उन्होंने रचनाशीलता का उनका जगत,भक्ति, प्रेम, खूबसूरत ख़्वाब, गुरु, माँ, सफलता आदि को लेकर वो सब कुछ कहा जिसका कहीं न कहीं निश्चित रूप से प्रेम और उसकी पगडण्डी से सच्चा सरोकार स्थापित अवश्य होता है-
मेरी रचनाशीलता का जगत
हर रचनाशील मनुष्य का अपना जगत होता है, ऐसा मेरा मानना है। हर रचनाशील मनुष्य अपने जगत में अपनी रचनाशीलता के जगत की भी एक जगह बनाता है। यह उसकी रचनात्मक बेचैनी और सन्तुष्टि दोनों के लिए ही अत्यन्त ज़रूरी भी होता है। इस जगत से ही तो सारी सृजन ऊर्जा प्राप्त होती है। मेरी रचनाशीलता का जगत, मुझे लगता है कि मेरे लिए स्वर्ग जैसा है। मैं जब भी उस जगत में प्रवेश करता हूँ, अपनी रचना के बारे में या किसी भी प्रकार का संगीत, शास्त्रीय संगीत हो या फिल्म संगीत हो, वो जगह मुझे स्वर्ग दिखायी पड़ती है। कहाँ क्या करना है, कहाँ कितनी ज़रूरत है, किस चीज़ की ज़रूरत है, कैसे संगीत की ज़रूरत है, उसका रूप क्या होना चाहिए, उसकी शक्ल क्या होना चाहिए, यह सब हम अपने हिसाब से करते हैं। हमारे साथ भगवान होते हैं और भगवान के आशीर्वाद से सब कुछ ठीक होता है, अब तक ठीक हुआ है। यह मेरे विश्वास और आस्था पर भी निर्भर करता है।
मेरी दृष्टि में भक्ति एक ऐसा मार्ग है जो भगवान का सीधा दर्शन कराता है। जिस आदमी में भक्ति होती है वो दुनिया के लोगों का दिल जीतता है। पहले जैसा मैंने कहा कि भक्ति से भगवान के दर्शन होते हैं। इन्सान यदि भक्ति से भगवान का दिल जीत सकता है तो वो इन्सान का दिल भी जीत सकता है। भक्ति का सकारात्मक भाव और विनयशीलता हमारे जीवन में बहुत सारे श्रेष्ठ मार्ग प्रशस्त करने का काम करती है। लेकिन यह सब तभी हो सकता है जब हम भक्ति के मर्म को समझ सकें क्योंकि जिस इन्सान में भक्ति नहीं है, उस इन्सान में बहुत बड़ी कमी रह जाती है।
यह बात कभी सोची है आपने कि सब लोग टाटा-बिरला क्यों नहीं बनते? दुनिया में टाटा-बिरला से ज्य़ादा मेहनत करने वाले लोग हैं। सुबह 6 बजे से उठकर रात को 12 बजे तक काम करते हैं। छोटी सी दुकान खोलकर बैठे रहते हैं और फिर भी वो एक समय ही खाना खाते हैं लेकिन वो टाटा-बिरला नहीं बन सकते। उनमेें ज़रूर कोई कमी है। तो मुझे लगता है कि भक्ति की कमी है। हम जो भी काम करें, उसमें भक्ति आवश्यक है। काम चाहे छोटा हो या बड़ा, यदि हमारी साधना, हमारे जीवन और हमारे भविष्य से जुड़ा है तो उसे हमें भक्ति भाव से ही करना चाहिए। इसी भावना से जिन लोगों ने काम किया वो उन्होंने अपने जीवन में इसका सर्वोत्कृष्ट फल पाया। ये लोग भक्त थे। उन्होंने देखा कि व्यवसाय उनके लिए भक्ति है और उन्होंने दुनिया में बहुत नाम कमाया। आप जो भी काम करने जा रहे हैं उसे भक्ति की तरह से लेंगे तभी दुनिया आपकी तरफ़ देखेगी।
प्रेम बड़ी पर्सनल चीज़ है
प्रेम एक अलग चीज़ है। प्रेम भी पर्सनल होता है। प्रेम हम सारी दुनिया से नहीं कर सकते। हम अपने परिवार, अपने मित्रों से करेंगे। इसके अलावा ज्य़ादा लोगों से प्रेम कर नहीं सकते क्योंकि फिर प्रेम बहुत साधारण हो जायेगा। प्रेम की विशिष्टता ही यही है, उसकी खूबसूरती ही यही है कि वह अपने निजीपन में, अपना निजता में श्रेष्ठ अभिव्यक्ति और अनुभूति को जीता और प्राप्त करता है। उसकी असाधारणता, असाधारण रहस्य को वही जानता है, जो प्रेम को जीता है। भक्ति एक ऐसी चीज़ है कि वो हम किसी से भी कर सकते हैं। अपने कार्य से भक्ति करेंगे तो जो हमारा कार्य है, जो हमारा फील्ड है, जो हमारा जगत है वहाँ हमको सफलता मिलेगी। यदि हम खेती करते हैं और भक्ति के साथ करते हैं तो फिर चाहे सारी दुनिया मेें सुनामी आ जाये, लेकिन हमारी खेती में अनाज ज़रूर होगा। प्रेम बड़ी पर्सनल चीज़ है। प्रेम में भी कई प्रकार का प्रेम है। जो प्रेम हम अपनी पत्नी को करते हैं, वो बच्चे को नहीं करते। जो प्रेम हम अपने बच्चे को करते हैं, वो अपने भाई को नहीं करते। उसके भिन्न-भिन्न रूप हैं। प्रेम की परिभाषा बहुत अलग है। हम उसकी व्याख्या उसकी गरिमा और खुश्बू को बरकरार रखते हुए भी अलग-अलग ढंग से कर सकते हैं। भक्ति की परिभाषा एक ही है लेकिन प्रेम की बहुत सारी परिभाषाएँ हैं। आपके गुरु से आपका प्रेम अलग रहेगा, आपके माता-पिता से आपका प्रेम अलग रहेगा, आपके बच्चों से आपका प्रेम अलग रहेगा और आपके मित्रों से आपका प्रेम अलग ही रहेगा। प्रेम को डायल्यूट कर सकते हैं आप लेकिन भक्ति को डायल्यूट नहीं कर सकते। प्रेम कई बार बदल भी जाता है लेकिन भक्ति बदल नहीं सकती। प्रेम बदल भी जाता है, कभी झगड़ा हो गया किसी से, आपकी पत्नी से ही बहुत प्रेम था मगर झगड़ा हो गया तो डिवोर्स हो गया, प्रेम खत्म हो गया। लेकिन भक्ति कभी खत्म नहीं होती। शुरू में एक बार यदि इसका रस मिल गया तो फिर जीवन भर रहता है।
संगीत ही हमारा खूबसूरत ख़्वाब
हमारा खूबसूरत ख़्वाब जितना भी था, संगीत था। बचपन से ही यही एक स्वप्र देखा, तन-मन और लगन से साधना की और भगवान की कृपा से हमारी साधना को प्रतिसाद मिला। जो स्वप्र देखा था, इसी साधना और एकधुन से साकार हुआ। संगीत के अलावा जो हमारी गुरु भक्ति थी, वह हमारे लिए अत्यन्त मूल्यवान रही है। शिष्य भाव से अपने जीवन में अपने गुरु से जो संस्कार सीखे, कला का जिस तरह का मार्ग और माध्यम हमारी शिक्षा में आया, वह हमारे लिए बेहद अनुभूतिजन्य रहा है। जो गुरु से हमको मिला है, वो हम किस तरह से लोगों में बाँटें और गुरु ने किस हिसाब से हमको दिया है और हम उस हिसाब से बच्चों को दें, हमको किस तरह से प्यार दिया है, उस तरह से प्यार दें, किस तरह से खाना - पीना खिलाया, हम गरीब थे, हमको बहुत सहायता की, हम भी उसी तरह से बच्चों को सहायता करें, यही हमने सोचा और करने का प्रयास किया है।
यह हमारा ख़्वाब था कि गुरु का संस्कार, हमारी साधना और परिश्रम जीवन में हमें यदि इस योग्य बनाता है तो हम भी अपनी शिष्य परम्परा में उन संवेदनाओं को तवज्जो देंगे जो हमने अपने गुरु में देखीं। हमारा यही स्वप्र था, वो भी पूरा हो गया। मुम्बई में बहुत अच्छा गुरुकुल बन गया और दूसरी जगह भी बन रहा है, उड़ीसा में काम किया है, अमेरिका मेें काम किया है। यही हमारा ख़्वाब था जो पूरा हो रहा है। गुरुकुल तो एक बहुत प्राचीन कन्सेप्ट है। एक पुरातन परम्परा। शिक्षण और संस्कार की एक ऐसी जगह जहाँ आप सब छोडक़र जायें और इस तरह समर्पित हों कि आपको पूरी तरह वहाँ के वातावरण में शामिल होने में कोई कठिनाई न हो। आपको अपनाया जा सके, गोद लिया जा सके और जब तक वो चाहें आप उनके साथ समय बिता सकेें। अगर वो चाहें पन्द्रह साल, तो पन्द्रह साल उनके साथ रह सकें, सब भूलकर। आप यह सोचें कि यह मेरा ही कुल है, यह मेरा ही गुरु है और यह मेरा ही घर है। फिर आपको वहाँ सारी व्यवस्था मिलती है, जैसे घर में खाना, पीना, सोना, रहना। कोई पैसे नहीं लगते लेकिन गुरुकुल के जो बहुत सारे सिस्टम होते हैं उनका पालन करना पड़ता है। उस हिसाब से आप रह सकते हैं और गुरुकुल में भी पाँच हज़ार लोग तो रहते नहीं, पाँच लोग रहते हैं या सात लोग या दस लोग रहते हैं। उन सभी के लिए शिष्यत्व एक बड़ी चुनौती भी होती है। उनके नाम के साथ उनके गुरु का नाम भी जुड़ा होता है। वे जहाँ जाते हैं, उनके गुरु का नाम अवश्य ही लिया जाता है, ऐसे में अपने गुरु के नाम का सम्मान रखना उनके लिए न सिर्फ कला और अनुशासन के स्तर पर अहम होता है बल्कि व्यक्तित्व और आचरण के स्तर पर भी।
गुरु - शिष्य परम्परा
गुरु के बारे में हम यही कहना चाहेंगे कि उनसे भक्ति होती है, प्रेम नहीं होता। गुरु की भक्ति होगी तभी गुरु से ज्ञान मिलता है। सच्चे मन से हमने यदि गुरु मान लिया है तो फिर अपने गुरु का समग्र व्यक्तित्व और उससे जुड़ी छोटी-छोटी चीज़ें भी शिष्य के जीवन में बड़ी मायने रखने वाली हो जाती हैं। गुरु की साधना का अपना ही वैभव होता है। हममे समर्पण होता है तो गुरु का सिखाया हमारी साधना को सार्थक भी कर सकता है। अगर गुरु नहीं भी सिखाएँगे तो भी ज्ञान मिलता रहेगा आपको क्योंकि आपकी भक्ति है। गुरु आपको इग्नोर भी करेंगे तो भी आपको उनके देखने से, उनके हाथ रखने से, उनकी बातचीत से आप हर चीज़ सीखते रहेंगे। वो सिर्फ़ बात भी करेंगे तो उससे भी आप सीख जायेंगे। या कि दूसरे को सिखाते रहें और आपको एवॉइड कर दें तो भी आप सीखते रहेंगे। इसलिए सीखते रहेंगे क्योंकि आपमेें भक्ति है। आप उस मार्ग की तरफ सच्ची भक्ति से जा रहे हैं जहाँ से गुरु की विद्या प्राप्त की जा सकती है। हमारी अपने गुरु के प्रति भक्ति है। हम चाहते हैं कि हम अपने गुरु का नाम ऊँचा करें।
गुरु-शिष्य परम्परा भी तभी सार्थक होगी जब भक्ति होगी। भक्ति होगी तो कितना भी गुरु को अपने शिष्य से नाराज़गी हो, लेकिन बाद मेें उसका भी दिल पिघल जाता है क्योंकि वो भी तो इन्सान ही रहते हैं न? पिघल जाते हैं अपने शिष्य के प्रति। फिर वो सब कुछ देना चाहता है, जो उसके पास विद्या होगी, जो उसका खाना होगा, जो उसका कपड़ा होगा, सब कुछ देना चाहता है। अपने बच्चों से भी ज्य़ादा शिष्य की भक्ति पर गुरु को फिर स्नेह आ जाता है और वह फिर सब कुछ करता है। गुरु ही हमारे इष्ट भगवान भी हैं। क्योंकि उनकी वज़ह से आज हमको दुनिया में लोग जानते हैं, पहचानते हैं। उनकी विद्या की वज़ह से हमारी पहचान है। उस विद्या से ही हमारा जीवन और सृजन सार्थक हुआ है। अगर वो विद्या नहीं होती तो कौन हमको जानता था? कृष्ण भगवान ने तो हमको नहीं सिखाया। उनकी तो तस्वीर हम देखते हैं, केवल। दुनिया के साथ हम भी उनके नत-मस्तक हैं। हमारी गुरु माता ही हमारी भगवान हैं। उन्होंने ही हमें विद्या दी, प्रेम दिया, संस्कार दिया। उनके प्रति मेरी श्रद्धा ऐसी है जिसे मैं बोलकर बता नहीं सकता। शब्दों में बता पाना मुश्किल है। वो ऐसी भावना है जिसे कोई छीन नहीं सकता। मैं उसका प्रकाश भी नहीं कर सकता अन्यथा मैं अपने हाथों से ऐसी किताब लिखता।
माँ
माँ की तो मुझे सूरत भी याद नहीं है। जब वो मुझे छोडक़र गयी थीं तब मैं बहुत ही छोटा था, पाँच या साढ़े पाँच साल का रहा होऊँगा। इसलिए मुझे उनकी शक्ल भी याद नहीं है। उनको लेकर स्मृतियों में यदि कहूँ तो धुंधली छबियाँ भी नहीं हैं। उनका स्वभाव कैसा था, यह भी याद नहीं है। बचपन, माँ के बिना अकेला, उदास और नीरस तो होता ही है। बच्चों के लिए माँ की छत्रछाया ईश्वर के सम्बल की तरह होती है। माँ तो बच्चे के लिए सब विघ्र, बाधाएँ, मुसीबतें और दुख अपने ऊपर ले लिया करती हैं। अपनी माँ को लेकर बस यही एक दुख सालता रहता था बचपन में कि ये मुझे क्यों छोडक़र चली गयीं? दूसरों की माँ हैं, वो अपने बच्चों को कितना प्यार करती हैं और हमारी माँ क्यों इतनी जल्दी मुझे छोडक़र चली गयीं? मैंने ऐसा क्या गुनाह किया था? इसकी बहुत चिन्ता होती थी। दुख भी होता था। वो दुख आज भी है और हमेशा रहेगा। अगर वो रहतीं तो ये दुख न होता। दूसरे बच्चों को देखता तो लगता कि बच्चे, माँ के साथ झगड़ा करते हैं, माँ उनको बहुत प्यार करती है, फिर माँ मारती है उनको, ये चीज़ें हमने मिस किया अपने जीवन में। हमारा बचपन इन सारे सुखों और भावनात्मक खुशियों से वंचित ही रहा। इस बात का गम तो रहा हमेशा। वो चीज़ कभी-कभी बहुत तकलीफ देती है जब सोचता हूँ तो। पहले बहुत सोचता था, आहिस्ता-आहिस्ता कम हो गया लेकिन कम ही रहेगा, खत्म नहीं होगा क्योंकि माँ तो माँ ही है न.....।
जन्माष्टमी में स्वरोच्चारण
जन्माष्टमी के दिन मैं चौबीस घण्टे बाँसुरी बजाता हूँ। करीब पच्चीस साल हो गया ऐसा करते हुए। भगवान कृष्ण ने इस वाद्य को दिखाया और सारी दुनिया चोरी करके ले गयी। वही तो हमारे दिग्दर्शक हैं। वे ही तो हमको रास्ता दिखाने वाले हैं, इस वाद्य का। हमने इस वाद्य को अपनी साधना का आधार बनाया इसीलिए उनकी भक्ति हम इस तरह से करते हैं। लेकिन उसमें जो जान डालने का काम किया, वो तो हमारे गुरु ने किया। उनकी ही प्रेरणा से अपने सब शिष्यों के साथ हम चौबीस घण्टे जन्माष्टमी पर कृष्ण भगवान का जन्मदिन बाँसुरी बजाकर मनाते हैं। इस तरह अपने शिष्यों के भी अन्तर में हम डालना चाहते हैं कि ये जो हम कर रहे हैं, वो तुम्हें भी करना है। बहुत अच्छा वातावरण होता है उस समय, आप देखेंगे तो आपको अहसास होगा, कैसा लगता है..........।़ वो सही पूजा होती है। जन्माष्टमी के दिन मंत्रोच्चारण तो हर मन्दिर में मिलेगा लेकिन हमारे घर स्वरोच्चारण होता है। रात बारह बजे से लेकर अगली रात बारह बजे तक।
मैं अक्सर सोचता हूँ कि आज ज़माना जन्मदिन पर, चाहे परिवार हों या मित्र-दोस्त, कितना ऊधम मचाते हैं, कितना हुड़दंग करते हैं, कितना शोर-शराबा करते हैं। इन सबके बीच मैं अपने प्रभु, अपने बाँसुरीवाले का जन्मदिन चौबीस घण्टे बाँसुरी बजाकर मनाता हूँ तो उसमें बुरा क्या है? हमारे शिष्य भी बरसों से इसी भावना के साथ जन्माष्टमी के पर्व पर मेरे साथ शामिल होते हैं। हम सब मिलकर जन्माष्टमी, भगवान कृष्ण का जन्मदिन इसी भावना के साथ मनाते आ रहे हैं।
सफलता का रहस्य
सफलता का रहस्य......यह तो इन्सान पर निर्भर करता है कि वो किस चीज़ को सफलता मानता है? किसी-किसी का दिल नहीं भरता। पैसा कमाते जाते हैं मगर फिर भी दिल नहीं भरता, और लोगों का गला काटते रहते हैं और खून पीते रहते हैं। ऐसे भी लोग हैं और वो समझते भी नहीं कि वो सफल हो गये हैं। फिर उसी में वो बरबाद भी हो जाते हैं फिर भी नहीं समझते। ये आपके ऊपर निर्भर करता है। कुछ-कुछ लोग हैं जो दो रोटी में भी यह समझते हैं कि हमको ऊपर वाले ने बहुत कुछ दे दिया। कुछ लोगों के पास दस मकान भी होंगे, भले ही वे एक मकान में रहते हों मगर यह चाहेंगे कि और एक मकान मिल जाये। सारा जीवन वो अतृप्त रहते हैं। जब तृप्ति नहीं होगी तो सफलता कैसे मिलेगी? एक आदमी वो होता है जिसे कि मालूम होता है कि हमारे पास इतनी बड़ी चादर है कि हमारा पैर ढँक जायेगा, वो यह सोचकर सन्तुष्ट हो जाता है। कुछ लोगों के कबर्ड में चादर भरा हुआ है, वो और भी भरते जाते हैं उसमें लेकिन उनको लगता है कि फिर भी कमी है उनके जीवन में। ये मनुष्य पर निर्भर करता है कि उसकी इच्छाएँ कहाँ जाकर अनुशासित होती हैं।
हर आदमी सफलता के पीछे पड़ा रहता है। कोई बिजनेस में सफलता पाना चाहता है, कोई कुश्ती-कसरत में सफलता पाना चाहता है, कोई आदमी स्पोर्टर्स में सफलता पाना चाहता है कि मैं इतने हज़ार रन बना लूँ, यह सब निर्भर करता है, अपनी-अपनी तसल्ली के धरातल पर। मैं कितने रन बना लूँ तो मेरा जी तृप्त हो जायेगा, कोई आदमी बिजनेस में है, सोचता है अपनी चार फैक्ट्री लगा दिया तो मैं सफल हो गया। कोई आदमी लगाते ही जाते हैं, जैसे बिरला-टाटा लगाते ही जाते हैं, फिर भी वो सोचते हैं कि और भी होना चाहिए। यह भी हर एक इन्सान, हर एक मनुष्य के ऊपर निर्भर करता है कि वो क्या सोचता है, कि अपने जीवन में सफलता का सूत्र क्या होना चाहिए? मैं सोचता हूँ कि मैं तृप्त हूँ। मेरी सफलता से मैं तृप्त हूँ। मैंने जो सोचा था, मुझको मिल गया। भगवान ने दे दिया। अपने आपको मैं बहुत खुश मानता हूँ। मुझे लोग प्यार करते हैं, इससे ज्य़ादा सफलता और क्या चाहिए? किसी को उतना प्यार नहीं मिलता। हमको लोग इतना प्यार करते हैं, इतना सम्मान देते हैं, इससे बड़ी क्या सफलता चाहिए जीवन में..........।़ हम भगवान श्रीकृष्ण नहीं बनना चाहते कि लोग हमारी पूजा करें, हमें प्यार करें बस.......तो मैं अपने आपको भाग्यवान समझता हूँ भगवान श्रीकृष्ण से भी। उनकी तो लोग पूजा करते हैं, हमको लोग प्यार करते हैं। चाहे ठण्ड हो या गरम हो या बारिश हो फिर भी प्यार से आकर सुनते हैं, बातचीत करते हैं और मिलते हैं। छोटे बच्चे भी जिनको ज्य़ादा मालूम नहीं होता, वो आकर बैठते हैं, पास आकर आटोग्राफ मांगते हैं, उनका प्यार देखकर मन गदगद हो उठता है।
क्रोध तो आना ही चाहिए
मनुष्य को भगवान ने ऐसा बनाया है कि उसमें क्रोध भी होना चाहिए, उसमें कृपा भी होना चाहिए, उसमें दूसरों का सत्कार करने का जज़्बा भी होना चाहिए, उसको हँसना भी चाहिए, सब बातें होना चाहिए तभी तो मनुष्य माना जायेगा वरना मनुष्य कैसा? मुझे भी क्रोध आता है, कभी किसी बात पर आ भी जाता है। कभी दाल में नमक ज्य़ादा हो गया और भूख लगी है तो क्रोध आ भी जायेगा। इसमें क्या बड़ी बात है? हमने तो कभी नहीं देखा कि दाल में नमक खूब हो जाये तो आदमी डांस करने लगे........आ...हा....ऐसा ही होना चाहिए। मिर्ची सब्ज़ी में हो गयी, डांस करने लगे......थोड़ा क्रोध तो आयेगा। आपने देखा है किसी को, जली रोटी आयी हो और वो खुशी से डांस करने लगे.....आहा......क्या रोटी आयी है....। सबको क्रोध है। वहाँ क्रोध आना ही चाहिए। नहीं तो फिर आपका दिमा$ग सन्तुलित नहीं है।
बाँसुरी के सिवा कोई शौक नहीं
बाँसुरी के अलावा मेरा कोई शौक नहीं है। बचपन से वही किया, वही करता आया। वही करता रहूँगा, जब तक जि़न्दा रहूँगा और अगले जन्म में भी वही करूँगा, अगर मनुष्य का जन्म हुआ तो। जो मिल गया वो खा लेता हूँ, कुछ बनाने-वनाने का शौक नहीं है। बहुत साधारण आदमी हुआ। जैसा हुआ वैसे रह लेता हूँ। लेकिन सब कुछ अच्छा ही मिलता है। जहाँ जाता हूँ वहाँ परिवार की तरह लोग मिल जाते हैं, इससे बड़ी क्या बात होगी.........।़
फिल्म, शिव और यश.....
फिल्म संगीत की तरफ आना, मुम्बई में रहने और काम करने के योग के साथ जुड़ा। मैं रेडियो में नौकरी करता था। शिव कुमार जी फिल्मों में बजाने के लिए आये थे। हमारी मुलाकात हुई। मैं भी फिल्मों के लिए बजाता था। दोनों रोज़ मिलते थे। बातें होती थीं, इस तरह शुरूआत हो गयी। अलग-अलग म्युजि़क डायरेक्टरों के साथ काम करते थे। आगे चलकर हम दोनों में भाई की तरह सम्बन्ध हो गया। बाद मेें जब प्रोड्यूसर्स ने पूछा कि आप दोनों फिल्म के लिए संगीत देंगे तो हमने कहा कि ज़रूर, यह हमारा व्यवसाय तो नहीं है मगर इसको हम शौकिया करेंगे। हमें अवसर मिले, हमने किया। चूँकि शौकिया कर रहे थे, लिहाज़ा अच्छा काम किया और लोगों ने खूब पसन्द भी किया। भाग्य भी अच्छा था।
यश चोपड़ा से जुडऩे का कारण यह था कि हम लोग उनके बहुत निकट थे। यश चोपड़ा ने ही हमें पहले ऑफर किया, तो उनके साथ काम शुरू किया। उनके लिए हमने सिलसिला, चांदनी, लम्हें आदि फिल्में कीं। हमने और भी दूसरे डायरेक्टरों के साथ भी काम किया। लेकिन यश चोपड़ा के साथ हमने ज्य़ादा काम इसलिए किया कि उनके साथ हमारा एक फेमिली जैसा सम्बन्ध हो गया था। वो हमारी जो थोड़ी सी कमियाँ थीं उनको वो समझते थे। कमियाँ मतलब, कभी हम बाहर प्रोग्राम में जायेंगे, तो कोई नहीं रहेगा, उसको एडजस्ट करना, लास्ट मूमेन्ट में हमने उनसे कह दिया, आज हम भोपाल जायेंगे बजाने और ऐसे में उनकी कोई शूटिंग या शेड्यूल पड़ गया, तो उसमें हम यह नहीं कह सकते कि आज हमारी रेकॉर्डिंग या शूटिंग है इसलिए हम बजाने नहीं आ सकते। तो ऐसी सारी चीज़ों को सहृदयतापूर्वक वे एडजस्ट करते थे जो दूसरे लोग नहीं करते।
अभी तो फिल्म एकदम छोड़ दिया है क्योंकि मैं अभी दूसरे कार्यक्रम में लगा हूँ गुरुकुल के। फिर प्रोग्राम भी टू-मच हो जाता है। अब मैं छ: महीने विदेश में भी रहता हूँ। तो मेरी वज़ह से किसी को परेशानी न हो, इसलिए मैंने थोड़ा बन्द करके रखा हुआ है।
शुक्रवार, 13 अगस्त 2010
पीपली लाइव के नत्था से विशेष इंटरव्यू
वर्षों पहले जब हबीब तनवीर का छत्तीसगढिय़ा नाचा ग्रुप कुछ बुजुर्ग कलाकारों के इस दुनिया से चले जाने के बाद टूटता सा लग रहा था, उस वक्त ग्रुप में छत्तीसगढ़ी मूल के ही कुछ नये कलाकारों की आमद हुई थी। भारत भवन के अन्तरंग में ऐसे ही एक समय बाद का आगरा बाजार नाटक देखने का अवसर आया। नाटक में वे सब भूमिकाएँ जो भुलवाराम यादव, गोविन्द निर्मलकर, रामचरण निर्मलकर करते थे, उनकी जगह युवा कलाकार दिखे। तब न जाने क्यों ऐसा लगता था कि हबीब साहब की प्रस्तुतियों में कलाकारों के सर्जनासमृद्ध तेवर पहले दिखायी देते थे, वे अब नहीं दीख रहे। उन युवा कलाकारों में, जो जमने के जतन में थे, एक कलाकार ओंकारदास माणिकपुरी भी था, जो तब बाइस-तेईस साल का युवा था। हबीब साहब ने उसको बड़े भरोसे अपने थिएटर में लिया था। तब छोटी-छोटी भूमिकाएँ करने वाला ओंकारदास नया थिएटर का अब सबसे चर्चित कलाकार है। वह आमिर खान प्रोडक्शन की चर्चित फिल्म पीपली लाइव में नत्था की भूमिका में ऐसा प्रसिद्ध हो गया है कि हर जगह उसका चर्चा है। इधर दिवंगत हबीब तनवीर के नया थिएटर ग्रुप में सबसे चर्चित नाटक चरणदास चोर का चोर भी वह है, जिसे पहले गोविन्द निर्मलकर, दीपक तिवारी, चैतराम यादव अदि किया करते थे। ओंकारदास ऐसा रंगप्रतिबद्ध है कि इस नाटक के कुछ निरन्तर शो के कारण ही उसने नसीर के साथ एक फिल्म के अवसर के लिए विनम्रतापूर्वक क्षमा मांग ली।
भोपाल और हबीब तनवीर, सर्जना और सक्रियता के पर्याय रहे हैं। उनका घर भी यहीं श्यामला हिल्स में है जहाँ अब उनकी बेटी नगीन तनवीर रहकर ग्रुप चलाती है। देश भर में नया थिएटर के नाटक हुआ करते हैं मगर धुरि भोपाल ही है। सांस्कृतिक यात्रा चलती रहती है मगर सब लौटकर भोपाल ही आते हैं। दिल्ली की टीवी पत्रकार अनुषा रिजवी की कहानी पर पीपली लाइव फिल्म बनाने वाले निर्माता-अभिनेता आमिर खान ने अनुषा को निर्देशन का दायित्व भी सौंपा मगर फिल्म पर निगाह पूरी रखी। अनुषा ने ही फिल्म की पटकथा और संवाद भी लिखे हैं। एक बार जब भोपाल में प्रकाश झा की राजनीति फिल्म का जोर चल रहा था, उनके कैटरीना, रणबीर, नाना, अर्जुन रामपाल और नसीर जैसे कलाकारों के आने-जाने की खबरें अखबार में नुमायाँ होती थीं, अचानक एक दिन खबर आयी कि आमिर खान रात के जहाज से अचानक भोपाल आये और सीधे भोपाल से सत्तर किलोमीटर दूर उस बड़वई गाँव में जाकर रात भर रहे जहाँ फिल्म की शूटिंग चल रही थी। आमिर फिर सुबह वहीं से सीधे भोपाल हवाई अड्डे आये और मुम्बई चले गये।
ओंकारदास माणिकपुरी, पीपली लाइव के मुख्य कलाकार हैं। उनके बड़े भाई की भूमिका रघुवीर यादव ने की है। यह एक ऐसे भूमिहीन गरीब परिवार की कहानी है जिसमें बड़ा भाई अविवाहित है और छोटा भाई विवाहित, बाल-बच्चेदार। घर में बुजुर्ग अम्माँ भी है। मेहनत-मजदूरी से जैसे तैसे घर की रोटी चलाने वाले दोनों भाई काम से रात को लौटते हुए कई बार ठगिनी का मजा भी लेते हुए घर आते हैं। ठगिनी, शराबनोशी का पर्याय है जो मुंशी प्रेमचन्द की कहानी कफन से अभिप्रेरित है। कर्ज से लदे और चुकाने में नितान्त असमर्थ, नत्था और उसका बड़ा भाई ऐसे ही खेत में बैठे अपनी जिन्दगी की विडम्बनाओं का चिन्तन कर रहे होते हैं। उनको इस बात की खबर होती है कि सरकार उन किसानों का कर्ज माफ करना चाहती है जिन्होंने आत्महत्या कर ली है। दोनों की बातचीत इसी को लेकर है। बड़ा भाई कहता है कि मैं आत्महत्या कर लूँ क्योंकि मेरे न कोई आगे है, न पीछे। मगर छोटा भाई अपना कर्तव्य निभाना चाहता है, वह भाई से कहता है, आप क्यों करोगे आत्महत्या, मैं ही न कर लूँ। इस पर बड़ा भाई कूटनीतिक उत्तर देता है, ठीक है, तू ही कर ले आत्महत्या। शाम को शराब के नशे में लौटते हुए एक परचून की दुकान में बीड़ी-माचिस मांगते हुए नत्था कह देता है कि मैं आत्महत्या करने जा रहा हूँ। यहीं से सनसनी बनती है। कर्ज से निजात पाने के लिए नत्था मरना चाहता है। एक टीवी पत्रकार यहाँ से खबर को ले उड़ता है।
पूरे देश में नत्था के मरने की बात की खबर फैल गयी है। अलग-अलग राजनैतिक दलों और उसके नेताओं, छुटभैयों द्वारा मुद्दा गरमा दिया जाता है। एक कहता है कि नत्था मरेगा, मर के रहेगा और दूसरा कहता है, नत्था नहीं मरेगा। पीपली गाँव में देश का मीडिया आकर इक_ा हो गया है। नत्था का छोटा सा घर घेर लिया गया है। नत्था, सरकार और पुलिस की कड़ी निगरानी में आ गया है। वह पाखाने के लिए भी जाता है तो साथ में चार सिपाही जाते हैं। नत्था और उसके परिवार की क्या जरूरतें हैं, वो सब पूरी की जा रही हैं। हेडपम्प, टीवी पता नहीं क्या कुछ लाकर उसके घर में पटक दिया गया है। उसकी पत्नी, बच्चे और बूढ़ी अम्माँ हतप्रभ हैं। बड़ा भाई सोच रहा है कि अचानक देखते ही देखते दुनिया कितनी बदल गयी है मगर सब के सब डरे हुए हैं। अभाव में जीवन कठिन था मगर किसी तरह जिया जा रहा था, अब सब सजग निगाहों और देखरेख में है, उठना-बैठना, खाना-सोना दूभर है। इन्टरव्यू हो रहा है, सवाल-जवाब हो रहे हैं। पीपली गाँव पूरे देश से जुड़ गया है। क्रान्तिकारी टीवी रिपोर्टर पल-पल की खबर सबको दे रहे हैं। खबरें दोहरायी-चौहरायी जा रही हैं।
ओंकारदास माणिकपुरी, नत्था की अपनी भूमिका को अपने लिए किसी चमत्कार से कम नहीं मानते। पीपली लाइव प्रदर्शित होने को है। इस नत्था की दुनिया सचमुच, वाकई फिल्म प्रदर्शन के बाद कुछ और हो जाएगी। ओंकारदास, को उस बाद की कल्पना है मगर वह अपनी सहजता और सादगी को खोने वाला आदमी नहीं लगता। पीपली लाइव, नत्था के किरदार और फिल्म की तमाम बातें उससे अपने घर में करते हुए लगातार ऐसा लग रहा था, कि बात बेहद जमीनी आदमी से हो रही है। वह कहता है कि सबसे पहले वह थिएटर का है, सिनेमा फिर उसके बाद में है। वह मरहूम हबीब तनवीर को याद करता है। बताता है कि हबीब साहब ने जब हमको खूब सारा आजमा लिया था, तब एक दिन कहे थे कि तू चोर की तैयारी कर। तब तक चैतराम यादव, चरणदास में चोर कर रहा था। एक बार चैतराम अचानक इस काम के लिए उपलब्ध नहीं हुआ तो फिर ओंकारदास माणिकपुरी ने यह काम सम्हाला। हालाँकि ओंकारनाथ को दुख है कि हबीब साहब उसे मँझा हुआ चोर नहीं देख पाए लेकिन अब मनोयोग से वह चरणदास चोर के किरदार में उतर गया है। उसने बताया कि एक फिल्म का बुलावा था मगर उस समय शो चल रहा था, मैं कह दिया, थिएटर से दगा नहीं करूँगा।
अनुषा रिजवी और उनके पति महमूद रिजवी का ओंकारदास धन्यवाद करते हैं जिन्होंने नत्था की भूमिका के लिए उसका चुनाव किया। बड़े खुश होकर, दिल खोलकर वह बतलाता है कि फिल्म शुरू होने के पहले आमिर खान साहब से पहली बार मुम्बई में उनके घर में जब मिलवाया गया तो पहले वह एक कमरे में बैठा था, फिर अचानक आमिर कमरे में दाखिल हुए और हाथ मिलाकर कहा, अरे तुमको बधाई, नत्था का रोल कर रहे हो। यह रोल तो मैं खुद करना चाहता था मगर तुमको मिला है तो अच्छे करना, जाहिर है करोगे ही। भोपाल में जब ओंकारदास से बातचीत हो रही थी, उसके कुछ दिन पहले ही वह आमिर और अनुषा के साथ संदान फेस्टिवल में अमेरिका होकर आया था। वहाँ पीपली लाइव को खूब सराहा गया। छत्तीसगढ़ के दुर्ग जिले में आंचलिक संस्कृति और लोकमंच से एक साधक की तरह जुडक़र काम करने वाला पीपली लाइव का नत्था, ओंकारदास अब हिन्दुस्तान में फिल्म के प्रदर्शन की तारीखें नजदीक आते-आते बार-बार फ्लाई करके मुम्बई जाता है। किस्मत ने भले उसकी जिन्दगी में पंख लगा दिए हों मगर यह कलाकार अभी भी जमीन से जुड़ा ही दिखायी देता है।
भोपाल और हबीब तनवीर, सर्जना और सक्रियता के पर्याय रहे हैं। उनका घर भी यहीं श्यामला हिल्स में है जहाँ अब उनकी बेटी नगीन तनवीर रहकर ग्रुप चलाती है। देश भर में नया थिएटर के नाटक हुआ करते हैं मगर धुरि भोपाल ही है। सांस्कृतिक यात्रा चलती रहती है मगर सब लौटकर भोपाल ही आते हैं। दिल्ली की टीवी पत्रकार अनुषा रिजवी की कहानी पर पीपली लाइव फिल्म बनाने वाले निर्माता-अभिनेता आमिर खान ने अनुषा को निर्देशन का दायित्व भी सौंपा मगर फिल्म पर निगाह पूरी रखी। अनुषा ने ही फिल्म की पटकथा और संवाद भी लिखे हैं। एक बार जब भोपाल में प्रकाश झा की राजनीति फिल्म का जोर चल रहा था, उनके कैटरीना, रणबीर, नाना, अर्जुन रामपाल और नसीर जैसे कलाकारों के आने-जाने की खबरें अखबार में नुमायाँ होती थीं, अचानक एक दिन खबर आयी कि आमिर खान रात के जहाज से अचानक भोपाल आये और सीधे भोपाल से सत्तर किलोमीटर दूर उस बड़वई गाँव में जाकर रात भर रहे जहाँ फिल्म की शूटिंग चल रही थी। आमिर फिर सुबह वहीं से सीधे भोपाल हवाई अड्डे आये और मुम्बई चले गये।
ओंकारदास माणिकपुरी, पीपली लाइव के मुख्य कलाकार हैं। उनके बड़े भाई की भूमिका रघुवीर यादव ने की है। यह एक ऐसे भूमिहीन गरीब परिवार की कहानी है जिसमें बड़ा भाई अविवाहित है और छोटा भाई विवाहित, बाल-बच्चेदार। घर में बुजुर्ग अम्माँ भी है। मेहनत-मजदूरी से जैसे तैसे घर की रोटी चलाने वाले दोनों भाई काम से रात को लौटते हुए कई बार ठगिनी का मजा भी लेते हुए घर आते हैं। ठगिनी, शराबनोशी का पर्याय है जो मुंशी प्रेमचन्द की कहानी कफन से अभिप्रेरित है। कर्ज से लदे और चुकाने में नितान्त असमर्थ, नत्था और उसका बड़ा भाई ऐसे ही खेत में बैठे अपनी जिन्दगी की विडम्बनाओं का चिन्तन कर रहे होते हैं। उनको इस बात की खबर होती है कि सरकार उन किसानों का कर्ज माफ करना चाहती है जिन्होंने आत्महत्या कर ली है। दोनों की बातचीत इसी को लेकर है। बड़ा भाई कहता है कि मैं आत्महत्या कर लूँ क्योंकि मेरे न कोई आगे है, न पीछे। मगर छोटा भाई अपना कर्तव्य निभाना चाहता है, वह भाई से कहता है, आप क्यों करोगे आत्महत्या, मैं ही न कर लूँ। इस पर बड़ा भाई कूटनीतिक उत्तर देता है, ठीक है, तू ही कर ले आत्महत्या। शाम को शराब के नशे में लौटते हुए एक परचून की दुकान में बीड़ी-माचिस मांगते हुए नत्था कह देता है कि मैं आत्महत्या करने जा रहा हूँ। यहीं से सनसनी बनती है। कर्ज से निजात पाने के लिए नत्था मरना चाहता है। एक टीवी पत्रकार यहाँ से खबर को ले उड़ता है।
पूरे देश में नत्था के मरने की बात की खबर फैल गयी है। अलग-अलग राजनैतिक दलों और उसके नेताओं, छुटभैयों द्वारा मुद्दा गरमा दिया जाता है। एक कहता है कि नत्था मरेगा, मर के रहेगा और दूसरा कहता है, नत्था नहीं मरेगा। पीपली गाँव में देश का मीडिया आकर इक_ा हो गया है। नत्था का छोटा सा घर घेर लिया गया है। नत्था, सरकार और पुलिस की कड़ी निगरानी में आ गया है। वह पाखाने के लिए भी जाता है तो साथ में चार सिपाही जाते हैं। नत्था और उसके परिवार की क्या जरूरतें हैं, वो सब पूरी की जा रही हैं। हेडपम्प, टीवी पता नहीं क्या कुछ लाकर उसके घर में पटक दिया गया है। उसकी पत्नी, बच्चे और बूढ़ी अम्माँ हतप्रभ हैं। बड़ा भाई सोच रहा है कि अचानक देखते ही देखते दुनिया कितनी बदल गयी है मगर सब के सब डरे हुए हैं। अभाव में जीवन कठिन था मगर किसी तरह जिया जा रहा था, अब सब सजग निगाहों और देखरेख में है, उठना-बैठना, खाना-सोना दूभर है। इन्टरव्यू हो रहा है, सवाल-जवाब हो रहे हैं। पीपली गाँव पूरे देश से जुड़ गया है। क्रान्तिकारी टीवी रिपोर्टर पल-पल की खबर सबको दे रहे हैं। खबरें दोहरायी-चौहरायी जा रही हैं।
ओंकारदास माणिकपुरी, नत्था की अपनी भूमिका को अपने लिए किसी चमत्कार से कम नहीं मानते। पीपली लाइव प्रदर्शित होने को है। इस नत्था की दुनिया सचमुच, वाकई फिल्म प्रदर्शन के बाद कुछ और हो जाएगी। ओंकारदास, को उस बाद की कल्पना है मगर वह अपनी सहजता और सादगी को खोने वाला आदमी नहीं लगता। पीपली लाइव, नत्था के किरदार और फिल्म की तमाम बातें उससे अपने घर में करते हुए लगातार ऐसा लग रहा था, कि बात बेहद जमीनी आदमी से हो रही है। वह कहता है कि सबसे पहले वह थिएटर का है, सिनेमा फिर उसके बाद में है। वह मरहूम हबीब तनवीर को याद करता है। बताता है कि हबीब साहब ने जब हमको खूब सारा आजमा लिया था, तब एक दिन कहे थे कि तू चोर की तैयारी कर। तब तक चैतराम यादव, चरणदास में चोर कर रहा था। एक बार चैतराम अचानक इस काम के लिए उपलब्ध नहीं हुआ तो फिर ओंकारदास माणिकपुरी ने यह काम सम्हाला। हालाँकि ओंकारनाथ को दुख है कि हबीब साहब उसे मँझा हुआ चोर नहीं देख पाए लेकिन अब मनोयोग से वह चरणदास चोर के किरदार में उतर गया है। उसने बताया कि एक फिल्म का बुलावा था मगर उस समय शो चल रहा था, मैं कह दिया, थिएटर से दगा नहीं करूँगा।
अनुषा रिजवी और उनके पति महमूद रिजवी का ओंकारदास धन्यवाद करते हैं जिन्होंने नत्था की भूमिका के लिए उसका चुनाव किया। बड़े खुश होकर, दिल खोलकर वह बतलाता है कि फिल्म शुरू होने के पहले आमिर खान साहब से पहली बार मुम्बई में उनके घर में जब मिलवाया गया तो पहले वह एक कमरे में बैठा था, फिर अचानक आमिर कमरे में दाखिल हुए और हाथ मिलाकर कहा, अरे तुमको बधाई, नत्था का रोल कर रहे हो। यह रोल तो मैं खुद करना चाहता था मगर तुमको मिला है तो अच्छे करना, जाहिर है करोगे ही। भोपाल में जब ओंकारदास से बातचीत हो रही थी, उसके कुछ दिन पहले ही वह आमिर और अनुषा के साथ संदान फेस्टिवल में अमेरिका होकर आया था। वहाँ पीपली लाइव को खूब सराहा गया। छत्तीसगढ़ के दुर्ग जिले में आंचलिक संस्कृति और लोकमंच से एक साधक की तरह जुडक़र काम करने वाला पीपली लाइव का नत्था, ओंकारदास अब हिन्दुस्तान में फिल्म के प्रदर्शन की तारीखें नजदीक आते-आते बार-बार फ्लाई करके मुम्बई जाता है। किस्मत ने भले उसकी जिन्दगी में पंख लगा दिए हों मगर यह कलाकार अभी भी जमीन से जुड़ा ही दिखायी देता है।
गुरुवार, 12 अगस्त 2010
दूर हटो ऐ दुनिया वालों हिन्दुस्तान हमारा है
किस्मत अपने आपमें ऐसा शब्द है जिसके साथ सम्भावनाओं की सकारात्मकता और नकारात्मकता दोनों ही जुड़ी हुई हैं मगर इसी शब्द में गजब का आकर्षण है जो हमेशा उसके बेहतर परिणाम के लिए आश्वस्त करता है। चालीस के दशक में हिन्दी सिनेमा में किस्मत नाम की ऐसी फिल्म का निर्माण हुआ था जिसने सफलता के ऐतिहासिक झण्डे गाड़े थे। शोले तो पचहत्तर में पाँच साल चली थी मगर किस्मत 1943 में पाँच साल चलने वाली, कीर्तिमान स्थापित करने वाली फिल्म का नाम था। इस फिल्म को देखने का अनुभव लेने वाली पीढ़ी हमारे बीच पितृ पुरुषों के रूप में मौजूद है।
इसी फिल्म में कवि प्रदीप, आज हिमालय की चोटी से फिर हमने ललकारा है, दूर हटो ऐ दुनिया वालों हिन्दुस्तान हमारा है जैसा अविस्मरणीय गीत लिखकर अमर हो गये थे। किस्मत फिल्म की बात करते हुए हम ऐसे समय की याद करते हैं जब भारत परतन्त्र था और दृढ़ प्रतिवाद का माध्यम बनकर सिनेमा सरस्वती पुत्रों के सृजन से विदेशी हुकूमत के सामने सीना तानकर एक बड़े खतरे का रूप ले रहा था। अभिव्यक्ति के संगीन खतरों के बीच देशभक्ति का ऐसा दुस्साहस करने वाले दधीचि कवि प्रदीप ने किस्मत को अपने गीतों से गजब का तेवर देने का काम किया था। वे अपने जीवन और आचरण में देश और समाजचेता थे। किस्मत एक ऐसी फिल्म थी जिसने पहली बार बेटे और भाइयों के बिछुडऩे और अलग-अलग समय तथा परिस्थितियों में पलकर बड़े होने के बाद विरोधाभासी छबि को जीने का उदाहरण प्रस्तुत किया था। सिनेमा के पहले महानायक अशोक कुमार की यह एक सशक्त फिल्म मानी जाती है।
यह एक ऐसे अपराधी के हृदय में सहृदयता देखती है जो किसी कठिन क्षण में एक मुसीबतजदा घर में पनाह लेता है जहाँ स्वाभिमान और जीवन मूल्य सर्वोपरि होते हैं। गरीबी, अभाव और बेहतर जीवन की अभिलाषाएँ किसी भी इन्सान को उसके धरातल से इधर-उधर होने या नैतिक रूप से पतित होने के लिए विवश कभी नहीं करतीं। विरोधाभास सपनों और हौसलों को हमेशा बड़ी ऊष्मा देने का काम करते हैं। हर वक्त सिगरेट हाथ में लिए अशोक कुमार अपनी आकर्षक और जवाँ छबि से दर्शकों के दिलों पर राज करते थे। सिगरेट पीते हुए छोटी-छोटी आँखों के बीच खिलखिलाकर हँसने का उनका अन्दाज बड़ा मारक था। बॉम्बे टॉकीज की यह फिल्म देविका रानी की देखरेख में बनी थी। ज्ञान मुखर्जी के निर्देशन में बनी इस फिल्म की सशक्त कथा-पटकथा के पीछे पी.एल. सन्तोषी, शाहिद लतीफ और खुद ज्ञान मुखर्जी का योगदान था। एकदम अलग कहानी होने के बावजूद इस फिल्म में देशप्रेम का ऐसा सन्देश प्रवाहित हुआ जिसकी मिसाल हमेशा दी जाती रही है। समकालीनता, तकनीक और समय की सीमाओं में बनी इस फिल्म गुणों को देखते हुए आज की घटिया फिल्मों को धिक्कारने को जी चाहता है।
इसी फिल्म में कवि प्रदीप, आज हिमालय की चोटी से फिर हमने ललकारा है, दूर हटो ऐ दुनिया वालों हिन्दुस्तान हमारा है जैसा अविस्मरणीय गीत लिखकर अमर हो गये थे। किस्मत फिल्म की बात करते हुए हम ऐसे समय की याद करते हैं जब भारत परतन्त्र था और दृढ़ प्रतिवाद का माध्यम बनकर सिनेमा सरस्वती पुत्रों के सृजन से विदेशी हुकूमत के सामने सीना तानकर एक बड़े खतरे का रूप ले रहा था। अभिव्यक्ति के संगीन खतरों के बीच देशभक्ति का ऐसा दुस्साहस करने वाले दधीचि कवि प्रदीप ने किस्मत को अपने गीतों से गजब का तेवर देने का काम किया था। वे अपने जीवन और आचरण में देश और समाजचेता थे। किस्मत एक ऐसी फिल्म थी जिसने पहली बार बेटे और भाइयों के बिछुडऩे और अलग-अलग समय तथा परिस्थितियों में पलकर बड़े होने के बाद विरोधाभासी छबि को जीने का उदाहरण प्रस्तुत किया था। सिनेमा के पहले महानायक अशोक कुमार की यह एक सशक्त फिल्म मानी जाती है।
यह एक ऐसे अपराधी के हृदय में सहृदयता देखती है जो किसी कठिन क्षण में एक मुसीबतजदा घर में पनाह लेता है जहाँ स्वाभिमान और जीवन मूल्य सर्वोपरि होते हैं। गरीबी, अभाव और बेहतर जीवन की अभिलाषाएँ किसी भी इन्सान को उसके धरातल से इधर-उधर होने या नैतिक रूप से पतित होने के लिए विवश कभी नहीं करतीं। विरोधाभास सपनों और हौसलों को हमेशा बड़ी ऊष्मा देने का काम करते हैं। हर वक्त सिगरेट हाथ में लिए अशोक कुमार अपनी आकर्षक और जवाँ छबि से दर्शकों के दिलों पर राज करते थे। सिगरेट पीते हुए छोटी-छोटी आँखों के बीच खिलखिलाकर हँसने का उनका अन्दाज बड़ा मारक था। बॉम्बे टॉकीज की यह फिल्म देविका रानी की देखरेख में बनी थी। ज्ञान मुखर्जी के निर्देशन में बनी इस फिल्म की सशक्त कथा-पटकथा के पीछे पी.एल. सन्तोषी, शाहिद लतीफ और खुद ज्ञान मुखर्जी का योगदान था। एकदम अलग कहानी होने के बावजूद इस फिल्म में देशप्रेम का ऐसा सन्देश प्रवाहित हुआ जिसकी मिसाल हमेशा दी जाती रही है। समकालीनता, तकनीक और समय की सीमाओं में बनी इस फिल्म गुणों को देखते हुए आज की घटिया फिल्मों को धिक्कारने को जी चाहता है।
बुधवार, 11 अगस्त 2010
बोझिल जीवन का प्रतिबिम्ब
हिन्दी सिनेमा के क्लैसिक पर यथासम्भव हर रविवार को चर्चा करने की शुरूआत दो सप्ताह पहले की थी। इसमें एक विचार यह बना कि एक बार सिनेमा की शुरूआत की उल्लेखनीय फिल्म का चयन किया जाये और एक बार साठ के दशक और उसके बाद की फिल्म का पुनरावलोकन करें। पहली बार किस्मत, दूसरी बार वक्त फिल्म पर पिछले हफ्तों में बात हुई है। इस बार महान फिल्मकार शान्ताराम वनकुद्रे की फिल्म दुनिया न माने पर लिखना उचित लगा। व्ही. शान्ताराम सिनेमा के आरम्भ को सक्षम बनाने वाले फिल्मकार थे। दुनिया न माने फिल्म उन्होंने 1937 में बनायी। यह फिल्म नारायण हरि आपटे के उपन्यास न पटणारी गोष्ठ पर बनी थी।
मराठी में कंकु और हिन्दी में दुनिया न माने बनाकर शान्तराम ने एक प्रबुद्ध और सजग समाजचेता होने का परिचय भी दिया था। तीस के दशक के देशकाल और वातावरण की कल्पना की जा सकती है। परतन्त्र हिन्दुस्तान में सामाजिक पिछड़ापन, दकियानूसी मानसिकता और शक्तिशाली तथा रसूखदारों के कमजोरों, दुर्बलों, गरीबों और स्त्रियों पर थोपे जाने वाले शोषण की कहानी ही यह फिल्म थी। फिल्म एक गरीब परिवार की कम उम्र युवती की कहानी है जिसके परिजन रुपयों के लालच में उसका ब्याह एक वृद्ध आदमी से कर देते हैं। युवती को अंधेरे में रखा गया है मगर जब वह ब्याह कर आती है तो कल्पना के विपरीत एक वृद्ध और अशक्त पति को देखकर विद्रोह कर उठती है। वह अपने इस पति से साफ-साफ कह देती है कि उसकी निगाह में वह एक पिता की ही तरह है, इसके सिवा कुछ नहीं।
यह निर्मला अपना समय कठिनाई के साथ व्यतीत कर रही है। उसका वृद्ध पति अपनी हठधर्मिता और सम्पन्नता का एक अजीब सा अहँकारयुक्त व्यवहार लिए पेश आता है। उसका विवाहित पुत्र एक दिन उससे अमर्यादित प्रस्ताव करता है जिसका वह करारा जवाब भी देती है। एक दिन निर्मला का वृद्ध पति मर जाता है। यहाँ आसपास का वातावरण और लोकलाज की दुहाई देने वाली स्त्रियाँ और तथाकथित समझदार व अनुभवी लोग उसे विधवा जीवन की कठिनाइयों और आगे पहाड़ सी जिन्दगी के भय बतलाते हैं। केशवराव दाते वृद्ध पति और शान्ता आप्टे निर्मला की भूमिका में अपने किरदार को बखूबी निबाहते हैं।
दुनिया न माने एक समय की त्रासदी को प्रस्तुत करने वाली फिल्म है जिसको देखते हुए फिल्म के पाश्र्व में हमें निरन्तर अवसाद और भारीपन महसूस होता है। काका साहेब के पात्र को जीते हुए केशवराव दाते आइने में अपने दरके हुए प्रतिबिम्ब को देखकर कुण्ठित होते हैं। घड़ी समय और समक्ष के विदू्रप को इस किरदार के सामने अपनी ध्वनि से प्रभावी ढंग से प्रस्तुत करती है। दुनिया न माने, एक यादगार और कालजयी फिल्म है।
मराठी में कंकु और हिन्दी में दुनिया न माने बनाकर शान्तराम ने एक प्रबुद्ध और सजग समाजचेता होने का परिचय भी दिया था। तीस के दशक के देशकाल और वातावरण की कल्पना की जा सकती है। परतन्त्र हिन्दुस्तान में सामाजिक पिछड़ापन, दकियानूसी मानसिकता और शक्तिशाली तथा रसूखदारों के कमजोरों, दुर्बलों, गरीबों और स्त्रियों पर थोपे जाने वाले शोषण की कहानी ही यह फिल्म थी। फिल्म एक गरीब परिवार की कम उम्र युवती की कहानी है जिसके परिजन रुपयों के लालच में उसका ब्याह एक वृद्ध आदमी से कर देते हैं। युवती को अंधेरे में रखा गया है मगर जब वह ब्याह कर आती है तो कल्पना के विपरीत एक वृद्ध और अशक्त पति को देखकर विद्रोह कर उठती है। वह अपने इस पति से साफ-साफ कह देती है कि उसकी निगाह में वह एक पिता की ही तरह है, इसके सिवा कुछ नहीं।
यह निर्मला अपना समय कठिनाई के साथ व्यतीत कर रही है। उसका वृद्ध पति अपनी हठधर्मिता और सम्पन्नता का एक अजीब सा अहँकारयुक्त व्यवहार लिए पेश आता है। उसका विवाहित पुत्र एक दिन उससे अमर्यादित प्रस्ताव करता है जिसका वह करारा जवाब भी देती है। एक दिन निर्मला का वृद्ध पति मर जाता है। यहाँ आसपास का वातावरण और लोकलाज की दुहाई देने वाली स्त्रियाँ और तथाकथित समझदार व अनुभवी लोग उसे विधवा जीवन की कठिनाइयों और आगे पहाड़ सी जिन्दगी के भय बतलाते हैं। केशवराव दाते वृद्ध पति और शान्ता आप्टे निर्मला की भूमिका में अपने किरदार को बखूबी निबाहते हैं।
दुनिया न माने एक समय की त्रासदी को प्रस्तुत करने वाली फिल्म है जिसको देखते हुए फिल्म के पाश्र्व में हमें निरन्तर अवसाद और भारीपन महसूस होता है। काका साहेब के पात्र को जीते हुए केशवराव दाते आइने में अपने दरके हुए प्रतिबिम्ब को देखकर कुण्ठित होते हैं। घड़ी समय और समक्ष के विदू्रप को इस किरदार के सामने अपनी ध्वनि से प्रभावी ढंग से प्रस्तुत करती है। दुनिया न माने, एक यादगार और कालजयी फिल्म है।
मंगलवार, 10 अगस्त 2010
हृषिकेश मुखर्जी की अविस्मरणीय अनुराधा
महान फिल्मकार बिमल राय की फिल्मों के एडीटर रहे हृषिकेश मुखर्जी जब आगे चलकर स्वयं निर्देशक बने तो उन्होंने अपनी फिल्मों के माध्यम से सामाजिक मूल्यों के साथ-साथ जीवन की बड़ी सहज और स्वाभाविक परिस्थितियों को अपनी रचनाशीलता का आधार बनाया। एक सम्पादक के रूप में उनकी दृष्टि गहराई से हम बिमल राय की अनेक फिल्मों में देख सकते हैं। आज जिस फिल्म अनुराधा की चर्चा कर रहे हैं वो हृषि दा की तीसरी फिल्म थी।
अनुराधा, उन्होंने मुसाफिर और अनाड़ी के बाद बनायी थी जिसमें पण्डित रविशंकर का संगीत था। बलराज साहनी, लीला नायडू, अभिभट्टाचार्य, नजीर हुसैन, असित सेन इस फिल्म के प्रमुख कलाकार थे। अनुराधा एक बड़ी खूबसूरत और मर्मस्पर्शी फिल्म है जो देखते हुए आपके मन में गहरे उतर जाती है। कहानी यों तो बहुत सहज सी है मगर उसका ट्रीटमेंट जिस गहराई से हुआ है, वह इसे एक सम्वेदनशील फिल्म के रूप में हमें हमेशा याद दिलाता है। नाम से जाहिर है, अनुराधा नायिका है जिसका विवाह के पेशे के प्रति प्रतिबद्ध और अत्यन्त कर्मठ डॉक्टर से हो जाता है। विवाह के बाद वह एक छोटे से गाँव में पति के साथ आ जाती है। डॉक्टर तन्मयता से मरीजों की सेवा करता है। उनके प्रति मानवीय सम्वेदना रखता है। जिस तरह डॉक्टर को भगवान का रूप कहा जाता है, गाँव के लोग उसे इसी रूप में देखते हैं और उसके प्रति बड़ी श्रद्धा रखते हैं। यह डॉक्टर केवल दवा नहीं देता बल्कि लोगों को जीवन और निबाह की सीख भी देता है।
अपने प्रोफेशन के प्रति उसका इतना डूबा हुआ होना धीरे-धीरे किस तरह उसके घर में अनुराधा को उपेक्षित और नितान्त अकेला करता चला जा रहा है, इसका उसे ख्याल नहीं है। वह अपनी पत्नी को कोई दुख नहीं देता, प्रताडि़त नहीं करता मगर पूरे वक्त उसकी काम के प्रति एकाग्रता घर में उसकी जीवन्त उपस्थिति को प्रभावित करती है। डॉक्टर की एक प्यारी सी बेटी है जो अपने पिता और माँ के बीच स्वाभाविक और निश्छल सेतु की तरह है मगर किसी जमाने में अच्छी गायिका रही पत्नी को यह लगने लगता है कि उसे अपने घर चले जाना चाहिए। जिस दिन उसको जाना है उसी दिन गाँव में वरिष्ठ डॉक्टरों का एक ग्रुप आया है जो रात इस डॉक्टर के घर खाना खाने आना चाहता है। पति, पत्नी से अनुरोध करता है कि आज न जाये। डॉक्टरों के ग्रुप के एक वरिष्ठ डॉक्टर घर में खाना खाते हैं और वे उतनी ही देर में सारी बातों को समझ जाते हैं। वे नायक की पत्नी से पिता की तरह बात करते हैं फिर डॉक्टर को नसीहत देते हैं। हृदय को छू लेने वाला आत्मावलोकन है। अन्त यह है कि वह अपने पिता के यहाँ नहीं जा रही है।
अनुराधा, उन्होंने मुसाफिर और अनाड़ी के बाद बनायी थी जिसमें पण्डित रविशंकर का संगीत था। बलराज साहनी, लीला नायडू, अभिभट्टाचार्य, नजीर हुसैन, असित सेन इस फिल्म के प्रमुख कलाकार थे। अनुराधा एक बड़ी खूबसूरत और मर्मस्पर्शी फिल्म है जो देखते हुए आपके मन में गहरे उतर जाती है। कहानी यों तो बहुत सहज सी है मगर उसका ट्रीटमेंट जिस गहराई से हुआ है, वह इसे एक सम्वेदनशील फिल्म के रूप में हमें हमेशा याद दिलाता है। नाम से जाहिर है, अनुराधा नायिका है जिसका विवाह के पेशे के प्रति प्रतिबद्ध और अत्यन्त कर्मठ डॉक्टर से हो जाता है। विवाह के बाद वह एक छोटे से गाँव में पति के साथ आ जाती है। डॉक्टर तन्मयता से मरीजों की सेवा करता है। उनके प्रति मानवीय सम्वेदना रखता है। जिस तरह डॉक्टर को भगवान का रूप कहा जाता है, गाँव के लोग उसे इसी रूप में देखते हैं और उसके प्रति बड़ी श्रद्धा रखते हैं। यह डॉक्टर केवल दवा नहीं देता बल्कि लोगों को जीवन और निबाह की सीख भी देता है।
अपने प्रोफेशन के प्रति उसका इतना डूबा हुआ होना धीरे-धीरे किस तरह उसके घर में अनुराधा को उपेक्षित और नितान्त अकेला करता चला जा रहा है, इसका उसे ख्याल नहीं है। वह अपनी पत्नी को कोई दुख नहीं देता, प्रताडि़त नहीं करता मगर पूरे वक्त उसकी काम के प्रति एकाग्रता घर में उसकी जीवन्त उपस्थिति को प्रभावित करती है। डॉक्टर की एक प्यारी सी बेटी है जो अपने पिता और माँ के बीच स्वाभाविक और निश्छल सेतु की तरह है मगर किसी जमाने में अच्छी गायिका रही पत्नी को यह लगने लगता है कि उसे अपने घर चले जाना चाहिए। जिस दिन उसको जाना है उसी दिन गाँव में वरिष्ठ डॉक्टरों का एक ग्रुप आया है जो रात इस डॉक्टर के घर खाना खाने आना चाहता है। पति, पत्नी से अनुरोध करता है कि आज न जाये। डॉक्टरों के ग्रुप के एक वरिष्ठ डॉक्टर घर में खाना खाते हैं और वे उतनी ही देर में सारी बातों को समझ जाते हैं। वे नायक की पत्नी से पिता की तरह बात करते हैं फिर डॉक्टर को नसीहत देते हैं। हृदय को छू लेने वाला आत्मावलोकन है। अन्त यह है कि वह अपने पिता के यहाँ नहीं जा रही है।
सोमवार, 9 अगस्त 2010
परिदृश्य में गौण होता सिनेमा
सिनेमा अपने प्रभाव में पिछले समय में लगातार क्षीण होता जा रहा है, इसकी खबर सभी को है। उनको भी जो लोग फिल्म बना रहे हैं, उनको भी जो लोग फिल्म में सामने या नेपथ्य में काम कर रहे हैं, उनको भी जो सामने से देख रहे हैं और उनको भी जो समग्रता में इसके नफे-नुकसान के कारोबार में जुड़े हुए हैं। ऐसे सभी लोगों को इस बात के अन्देशे हैं कि बीस-पच्चीस साल वाला प्रभाव कायम हो पाना अब मुश्किल है। पिछले ऐसे समय में सिनेमा के ही लोगों ने सिनेमा को गौण करने का काम किया है। सिनेमा में स्तर की गिरावट पर तो अब बात करना ही बेमानी है। यह सब होकर ऐसे धरातल पर आ पहुँचा है जहाँ से रसातल का मार्ग प्रशस्त होता है।
मुम्बई से फिल्म इण्डस्ट्री से जुड़ी ट्रेड गाइडों में से कुछ पत्रिकाएँ माह-दो माह में एक बार दो तरह की सूचियाँ छापती हैं। इनमें से एक सूची वो होती है जिसमें उन फिल्मों के नाम होते हैं जो निर्माणाधीन होती हैं। एक सूची दूसरी होती है जिनका निर्माण पूर्ण हो चुका होता है और वो प्रदर्शन की बाट जोह रही होती हैं। दोनों ही तरफ सूचियाँ लम्बी होती हैं। उच्च कोटि के घराने और बैनर की पन्द्रह फिल्में शायद होती होंगी और शेष पिच्यासी स्वनामधन्य फिल्मकारों और कलाकारों की। बनी हुई फिल्मों में दो-चार-दस के रास्ते प्रशस्त होते हैं, शेष सूची में दर्ज ही रह जाती हैं। ऐसी फिल्मों की संख्या बड़ी ही रहती है। कई बार लगता है कि कितने लोग अप्रदर्शित फिल्मों से अपने अस्तित्व के साथ जुड़े रहते हैं, उनका क्या होता होगा? फिल्म से जुड़े लोगों ने ही अपने माध्यम से अलग हटकर अपने असाधारण खेल प्रेम का परिचय देते हुए टीमें खरीद ली हैं और आपस में मुर्गा-लड़ाई का खेल, दीवाने खेल प्रेमी देख रहे हैं। किसे क्या हासिल हो रहा है, क्या पता लेकिन सिनेमा संस्कृति के जिम्मेदार लोगों ने खेल माध्यम में अपनी ऐसी रुचि प्रदर्शित की है जिसने सबसे ज्यादा हानि सिनेमा को ही पहुँचाने का काम किया है। एक तो वैसे भी दर्शकों ने फिल्में सिनेमाघर में देखना बन्द कर दिया था लेकिन बची-खुची कमी आई. पी. एल. ने पूरी कर दी।
अब भरी गरमी में सिनेमाघरों तक जाना आदमी के बस का ही नहीं रह गया। हर आदमी कार चलाकर आयनॉक्स में मँहगी फिल्म देखने की स्थिति में नहीं होता। शाहरुख खान, शिल्पा शेट्टी और प्रीटि जिन्टा और इनके तमाम समर्थक कलाकार स्टेडियम में इक_ा हैं।
खेल जमकर हो रहा है लेकिन सिनेमा जमकर होना तो दूर ढंग से चल भी नहीं पा रहा। सचमुच सिनेमा के लिए यह समय बड़ा विकट है। खेल में जमा-जुटा सारा ग्लैमर अपने मुख्य स्थान से हट गया है और मुख्य स्थान अर्थात स्टूडियो, आउटडोर, थिएटर सब जगह सन्नाटा छा गया है।
मुम्बई से फिल्म इण्डस्ट्री से जुड़ी ट्रेड गाइडों में से कुछ पत्रिकाएँ माह-दो माह में एक बार दो तरह की सूचियाँ छापती हैं। इनमें से एक सूची वो होती है जिसमें उन फिल्मों के नाम होते हैं जो निर्माणाधीन होती हैं। एक सूची दूसरी होती है जिनका निर्माण पूर्ण हो चुका होता है और वो प्रदर्शन की बाट जोह रही होती हैं। दोनों ही तरफ सूचियाँ लम्बी होती हैं। उच्च कोटि के घराने और बैनर की पन्द्रह फिल्में शायद होती होंगी और शेष पिच्यासी स्वनामधन्य फिल्मकारों और कलाकारों की। बनी हुई फिल्मों में दो-चार-दस के रास्ते प्रशस्त होते हैं, शेष सूची में दर्ज ही रह जाती हैं। ऐसी फिल्मों की संख्या बड़ी ही रहती है। कई बार लगता है कि कितने लोग अप्रदर्शित फिल्मों से अपने अस्तित्व के साथ जुड़े रहते हैं, उनका क्या होता होगा? फिल्म से जुड़े लोगों ने ही अपने माध्यम से अलग हटकर अपने असाधारण खेल प्रेम का परिचय देते हुए टीमें खरीद ली हैं और आपस में मुर्गा-लड़ाई का खेल, दीवाने खेल प्रेमी देख रहे हैं। किसे क्या हासिल हो रहा है, क्या पता लेकिन सिनेमा संस्कृति के जिम्मेदार लोगों ने खेल माध्यम में अपनी ऐसी रुचि प्रदर्शित की है जिसने सबसे ज्यादा हानि सिनेमा को ही पहुँचाने का काम किया है। एक तो वैसे भी दर्शकों ने फिल्में सिनेमाघर में देखना बन्द कर दिया था लेकिन बची-खुची कमी आई. पी. एल. ने पूरी कर दी।
अब भरी गरमी में सिनेमाघरों तक जाना आदमी के बस का ही नहीं रह गया। हर आदमी कार चलाकर आयनॉक्स में मँहगी फिल्म देखने की स्थिति में नहीं होता। शाहरुख खान, शिल्पा शेट्टी और प्रीटि जिन्टा और इनके तमाम समर्थक कलाकार स्टेडियम में इक_ा हैं।
खेल जमकर हो रहा है लेकिन सिनेमा जमकर होना तो दूर ढंग से चल भी नहीं पा रहा। सचमुच सिनेमा के लिए यह समय बड़ा विकट है। खेल में जमा-जुटा सारा ग्लैमर अपने मुख्य स्थान से हट गया है और मुख्य स्थान अर्थात स्टूडियो, आउटडोर, थिएटर सब जगह सन्नाटा छा गया है।
रविवार, 8 अगस्त 2010
नत्था होने का मतलब
वर्षों पहले जब हबीब तनवीर का छत्तीसगढिय़ा नाचा ग्रुप कुछ बुजुर्ग कलाकारों के इस दुनिया से चले जाने के बाद टूटता सा लग रहा था, उस वक्त ग्रुप में छत्तीसगढ़ी मूल के ही कुछ नये कलाकारों की आमद हुई थी। भारत भवन के अन्तरंग में ऐसे ही एक समय बाद का आगरा बाजार नाटक देखने का अवसर आया। नाटक में वे सब भूमिकाएँ जो भुलवाराम यादव, गोविन्द निर्मलकर, रामचरण निर्मलकर करते थे, उनकी जगह युवा कलाकार दिखे। तब न जाने क्यों ऐसा लगता था कि हबीब साहब की प्रस्तुतियों में कलाकारों के सर्जनासमृद्ध तेवर पहले दिखायी देते थे, वे अब नहीं दीख रहे। उन युवा कलाकारों में, जो जमने के जतन में थे, एक कलाकार ओंकारदास माणिकपुरी भी था, जो तब बाइस-तेईस साल का युवा था। हबीब साहब ने उसको बड़े भरोसे अपने थिएटर में लिया था। तब छोटी-छोटी भूमिकाएँ करने वाला ओंकारदास नया थिएटर का अब सबसे चर्चित कलाकार है। वह आमिर खान प्रोडक्शन की चर्चित फिल्म पीपली लाइव में नत्था की भूमिका में ऐसा प्रसिद्ध हो गया है कि हर जगह उसका चर्चा है। इधर दिवंगत हबीब तनवीर के नया थिएटर ग्रुप में सबसे चर्चित नाटक चरणदास चोर का चोर भी वह है, जिसे पहले गोविन्द निर्मलकर, दीपक तिवारी, चैतराम यादव अदि किया करते थे। ओंकारदास ऐसा रंगप्रतिबद्ध है कि इस नाटक के कुछ निरन्तर शो के कारण ही उसने नसीर के साथ एक फिल्म के अवसर के लिए विनम्रतापूर्वक क्षमा मांग ली।
भोपाल और हबीब तनवीर, सर्जना और सक्रियता के पर्याय रहे हैं। उनका घर भी यहीं श्यामला हिल्स में है जहाँ अब उनकी बेटी नगीन तनवीर रहकर ग्रुप चलाती है। देश भर में नया थिएटर के नाटक हुआ करते हैं मगर धुरि भोपाल ही है। सांस्कृतिक यात्रा चलती रहती है मगर सब लौटकर भोपाल ही आते हैं। दिल्ली की टीवी पत्रकार अनुषा रिजवी की कहानी पर पीपली लाइव फिल्म बनाने वाले निर्माता-अभिनेता आमिर खान ने अनुषा को निर्देशन का दायित्व भी सौंपा मगर फिल्म पर निगाह पूरी रखी। अनुषा ने ही फिल्म की पटकथा और संवाद भी लिखे हैं। एक बार जब भोपाल में प्रकाश झा की राजनीति फिल्म का जोर चल रहा था, उनके कैटरीना, रणबीर, नाना, अर्जुन रामपाल और नसीर जैसे कलाकारों के आने-जाने की खबरें अखबार में नुमायाँ होती थीं, अचानक एक दिन खबर आयी कि आमिर खान रात के जहाज से अचानक भोपाल आये और सीधे भोपाल से सत्तर किलोमीटर दूर उस बड़वई गाँव में जाकर रात भर रहे जहाँ फिल्म की शूटिंग चल रही थी। आमिर फिर सुबह वहीं से सीधे भोपाल हवाई अड्डे आये और मुम्बई चले गये।
ओंकारदास माणिकपुरी, पीपली लाइव के मुख्य कलाकार हैं। उनके बड़े भाई की भूमिका रघुवीर यादव ने की है। यह एक ऐसे भूमिहीन गरीब परिवार की कहानी है जिसमें बड़ा भाई अविवाहित है और छोटा भाई विवाहित, बाल-बच्चेदार। घर में बुजुर्ग अम्माँ भी है। मेहनत-मजदूरी से जैसे तैसे घर की रोटी चलाने वाले दोनों भाई काम से रात को लौटते हुए कई बार ठगिनी का मजा भी लेते हुए घर आते हैं। ठगिनी, शराबनोशी का पर्याय है जो मुंशी प्रेमचन्द की कहानी कफन से अभिप्रेरित है। कर्ज से लदे और चुकाने में नितान्त असमर्थ, नत्था और उसका बड़ा भाई ऐसे ही खेत में बैठे अपनी जिन्दगी की विडम्बनाओं का चिन्तन कर रहे होते हैं। उनको इस बात की खबर होती है कि सरकार उन किसानों का कर्ज माफ करना चाहती है जिन्होंने आत्महत्या कर ली है। दोनों की बातचीत इसी को लेकर है। बड़ा भाई कहता है कि मैं आत्महत्या कर लूँ क्योंकि मेरे न कोई आगे है, न पीछे। मगर छोटा भाई अपना कर्तव्य निभाना चाहता है, वह भाई से कहता है, आप क्यों करोगे आत्महत्या, मैं ही न कर लूँ। इस पर बड़ा भाई कूटनीतिक उत्तर देता है, ठीक है, तू ही कर ले आत्महत्या। शाम को शराब के नशे में लौटते हुए एक परचून की दुकान में बीड़ी-माचिस मांगते हुए नत्था कह देता है कि मैं आत्महत्या करने जा रहा हूँ। यहीं से सनसनी बनती है। कर्ज से निजात पाने के लिए नत्था मरना चाहता है। एक टीवी पत्रकार यहाँ से खबर को ले उड़ता है।
पूरे देश में नत्था के मरने की बात की खबर फैल गयी है। अलग-अलग राजनैतिक दलों और उसके नेताओं, छुटभैयों द्वारा मुद्दा गरमा दिया जाता है। एक कहता है कि नत्था मरेगा, मर के रहेगा और दूसरा कहता है, नत्था नहीं मरेगा। पीपली गाँव में देश का मीडिया आकर इक_ा हो गया है। नत्था का छोटा सा घर घेर लिया गया है। नत्था, सरकार और पुलिस की कड़ी निगरानी में आ गया है। वह पाखाने के लिए भी जाता है तो साथ में चार सिपाही जाते हैं। नत्था और उसके परिवार की क्या जरूरतें हैं, वो सब पूरी की जा रही हैं। हेडपम्प, टीवी पता नहीं क्या कुछ लाकर उसके घर में पटक दिया गया है। उसकी पत्नी, बच्चे और बूढ़ी अम्माँ हतप्रभ हैं। बड़ा भाई सोच रहा है कि अचानक देखते ही देखते दुनिया कितनी बदल गयी है मगर सब के सब डरे हुए हैं। अभाव में जीवन कठिन था मगर किसी तरह जिया जा रहा था, अब सब सजग निगाहों और देखरेख में है, उठना-बैठना, खाना-सोना दूभर है। इन्टरव्यू हो रहा है, सवाल-जवाब हो रहे हैं। पीपली गाँव पूरे देश से जुड़ गया है। क्रान्तिकारी टीवी रिपोर्टर पल-पल की खबर सबको दे रहे हैं। खबरें दोहरायी-चौहरायी जा रही हैं।
ओंकारदास माणिकपुरी, नत्था की अपनी भूमिका को अपने लिए किसी चमत्कार से कम नहीं मानते। पीपली लाइव प्रदर्शित होने को है। इस नत्था की दुनिया सचमुच, वाकई फिल्म प्रदर्शन के बाद कुछ और हो जाएगी। ओंकारदास, को उस बाद की कल्पना है मगर वह अपनी सहजता और सादगी को खोने वाला आदमी नहीं लगता। पीपली लाइव, नत्था के किरदार और फिल्म की तमाम बातें उससे अपने घर में करते हुए लगातार ऐसा लग रहा था, कि बात बेहद जमीनी आदमी से हो रही है। वह कहता है कि सबसे पहले वह थिएटर का है, सिनेमा फिर उसके बाद में है। वह मरहूम हबीब तनवीर को याद करता है। बताता है कि हबीब साहब ने जब हमको खूब सारा आजमा लिया था, तब एक दिन कहे थे कि तू चोर की तैयारी कर। तब तक चैतराम यादव, चरणदास में चोर कर रहा था। एक बार चैतराम अचानक इस काम के लिए उपलब्ध नहीं हुआ तो फिर ओंकारदास माणिकपुरी ने यह काम सम्हाला। हालाँकि ओंकारनाथ को दुख है कि हबीब साहब उसे मँझा हुआ चोर नहीं देख पाए लेकिन अब मनोयोग से वह चरणदास चोर के किरदार में उतर गया है। उसने बताया कि एक फिल्म का बुलावा था मगर उस समय शो चल रहा था, मैं कह दिया, थिएटर से दगा नहीं करूँगा।
अनुषा रिजवी और उनके पति महमूद रिजवी का ओंकारदास धन्यवाद करते हैं जिन्होंने नत्था की भूमिका के लिए उसका चुनाव किया। बड़े खुश होकर, दिल खोलकर वह बतलाता है कि फिल्म शुरू होने के पहले आमिर खान साहब से पहली बार मुम्बई में उनके घर में जब मिलवाया गया तो पहले वह एक कमरे में बैठा था, फिर अचानक आमिर कमरे में दाखिल हुए और हाथ मिलाकर कहा, अरे तुमको बधाई, नत्था का रोल कर रहे हो। यह रोल तो मैं खुद करना चाहता था मगर तुमको मिला है तो अच्छे करना, जाहिर है करोगे ही। भोपाल में जब ओंकारदास से बातचीत हो रही थी, उसके कुछ दिन पहले ही वह आमिर और अनुषा के साथ संदान फेस्टिवल में अमेरिका होकर आया था। वहाँ पीपली लाइव को खूब सराहा गया। छत्तीसगढ़ के दुर्ग जिले में आंचलिक संस्कृति और लोकमंच से एक साधक की तरह जुडक़र काम करने वाला पीपली लाइव का नत्था, ओंकारदास अब हिन्दुस्तान में फिल्म के प्रदर्शन की तारीखें नजदीक आते-आते बार-बार फ्लाई करके मुम्बई जाता है। किस्मत ने भले उसकी जिन्दगी में पंख लगा दिए हों मगर यह कलाकार अभी भी जमीन से जुड़ा ही दिखायी देता है।
भोपाल और हबीब तनवीर, सर्जना और सक्रियता के पर्याय रहे हैं। उनका घर भी यहीं श्यामला हिल्स में है जहाँ अब उनकी बेटी नगीन तनवीर रहकर ग्रुप चलाती है। देश भर में नया थिएटर के नाटक हुआ करते हैं मगर धुरि भोपाल ही है। सांस्कृतिक यात्रा चलती रहती है मगर सब लौटकर भोपाल ही आते हैं। दिल्ली की टीवी पत्रकार अनुषा रिजवी की कहानी पर पीपली लाइव फिल्म बनाने वाले निर्माता-अभिनेता आमिर खान ने अनुषा को निर्देशन का दायित्व भी सौंपा मगर फिल्म पर निगाह पूरी रखी। अनुषा ने ही फिल्म की पटकथा और संवाद भी लिखे हैं। एक बार जब भोपाल में प्रकाश झा की राजनीति फिल्म का जोर चल रहा था, उनके कैटरीना, रणबीर, नाना, अर्जुन रामपाल और नसीर जैसे कलाकारों के आने-जाने की खबरें अखबार में नुमायाँ होती थीं, अचानक एक दिन खबर आयी कि आमिर खान रात के जहाज से अचानक भोपाल आये और सीधे भोपाल से सत्तर किलोमीटर दूर उस बड़वई गाँव में जाकर रात भर रहे जहाँ फिल्म की शूटिंग चल रही थी। आमिर फिर सुबह वहीं से सीधे भोपाल हवाई अड्डे आये और मुम्बई चले गये।
ओंकारदास माणिकपुरी, पीपली लाइव के मुख्य कलाकार हैं। उनके बड़े भाई की भूमिका रघुवीर यादव ने की है। यह एक ऐसे भूमिहीन गरीब परिवार की कहानी है जिसमें बड़ा भाई अविवाहित है और छोटा भाई विवाहित, बाल-बच्चेदार। घर में बुजुर्ग अम्माँ भी है। मेहनत-मजदूरी से जैसे तैसे घर की रोटी चलाने वाले दोनों भाई काम से रात को लौटते हुए कई बार ठगिनी का मजा भी लेते हुए घर आते हैं। ठगिनी, शराबनोशी का पर्याय है जो मुंशी प्रेमचन्द की कहानी कफन से अभिप्रेरित है। कर्ज से लदे और चुकाने में नितान्त असमर्थ, नत्था और उसका बड़ा भाई ऐसे ही खेत में बैठे अपनी जिन्दगी की विडम्बनाओं का चिन्तन कर रहे होते हैं। उनको इस बात की खबर होती है कि सरकार उन किसानों का कर्ज माफ करना चाहती है जिन्होंने आत्महत्या कर ली है। दोनों की बातचीत इसी को लेकर है। बड़ा भाई कहता है कि मैं आत्महत्या कर लूँ क्योंकि मेरे न कोई आगे है, न पीछे। मगर छोटा भाई अपना कर्तव्य निभाना चाहता है, वह भाई से कहता है, आप क्यों करोगे आत्महत्या, मैं ही न कर लूँ। इस पर बड़ा भाई कूटनीतिक उत्तर देता है, ठीक है, तू ही कर ले आत्महत्या। शाम को शराब के नशे में लौटते हुए एक परचून की दुकान में बीड़ी-माचिस मांगते हुए नत्था कह देता है कि मैं आत्महत्या करने जा रहा हूँ। यहीं से सनसनी बनती है। कर्ज से निजात पाने के लिए नत्था मरना चाहता है। एक टीवी पत्रकार यहाँ से खबर को ले उड़ता है।
पूरे देश में नत्था के मरने की बात की खबर फैल गयी है। अलग-अलग राजनैतिक दलों और उसके नेताओं, छुटभैयों द्वारा मुद्दा गरमा दिया जाता है। एक कहता है कि नत्था मरेगा, मर के रहेगा और दूसरा कहता है, नत्था नहीं मरेगा। पीपली गाँव में देश का मीडिया आकर इक_ा हो गया है। नत्था का छोटा सा घर घेर लिया गया है। नत्था, सरकार और पुलिस की कड़ी निगरानी में आ गया है। वह पाखाने के लिए भी जाता है तो साथ में चार सिपाही जाते हैं। नत्था और उसके परिवार की क्या जरूरतें हैं, वो सब पूरी की जा रही हैं। हेडपम्प, टीवी पता नहीं क्या कुछ लाकर उसके घर में पटक दिया गया है। उसकी पत्नी, बच्चे और बूढ़ी अम्माँ हतप्रभ हैं। बड़ा भाई सोच रहा है कि अचानक देखते ही देखते दुनिया कितनी बदल गयी है मगर सब के सब डरे हुए हैं। अभाव में जीवन कठिन था मगर किसी तरह जिया जा रहा था, अब सब सजग निगाहों और देखरेख में है, उठना-बैठना, खाना-सोना दूभर है। इन्टरव्यू हो रहा है, सवाल-जवाब हो रहे हैं। पीपली गाँव पूरे देश से जुड़ गया है। क्रान्तिकारी टीवी रिपोर्टर पल-पल की खबर सबको दे रहे हैं। खबरें दोहरायी-चौहरायी जा रही हैं।
ओंकारदास माणिकपुरी, नत्था की अपनी भूमिका को अपने लिए किसी चमत्कार से कम नहीं मानते। पीपली लाइव प्रदर्शित होने को है। इस नत्था की दुनिया सचमुच, वाकई फिल्म प्रदर्शन के बाद कुछ और हो जाएगी। ओंकारदास, को उस बाद की कल्पना है मगर वह अपनी सहजता और सादगी को खोने वाला आदमी नहीं लगता। पीपली लाइव, नत्था के किरदार और फिल्म की तमाम बातें उससे अपने घर में करते हुए लगातार ऐसा लग रहा था, कि बात बेहद जमीनी आदमी से हो रही है। वह कहता है कि सबसे पहले वह थिएटर का है, सिनेमा फिर उसके बाद में है। वह मरहूम हबीब तनवीर को याद करता है। बताता है कि हबीब साहब ने जब हमको खूब सारा आजमा लिया था, तब एक दिन कहे थे कि तू चोर की तैयारी कर। तब तक चैतराम यादव, चरणदास में चोर कर रहा था। एक बार चैतराम अचानक इस काम के लिए उपलब्ध नहीं हुआ तो फिर ओंकारदास माणिकपुरी ने यह काम सम्हाला। हालाँकि ओंकारनाथ को दुख है कि हबीब साहब उसे मँझा हुआ चोर नहीं देख पाए लेकिन अब मनोयोग से वह चरणदास चोर के किरदार में उतर गया है। उसने बताया कि एक फिल्म का बुलावा था मगर उस समय शो चल रहा था, मैं कह दिया, थिएटर से दगा नहीं करूँगा।
अनुषा रिजवी और उनके पति महमूद रिजवी का ओंकारदास धन्यवाद करते हैं जिन्होंने नत्था की भूमिका के लिए उसका चुनाव किया। बड़े खुश होकर, दिल खोलकर वह बतलाता है कि फिल्म शुरू होने के पहले आमिर खान साहब से पहली बार मुम्बई में उनके घर में जब मिलवाया गया तो पहले वह एक कमरे में बैठा था, फिर अचानक आमिर कमरे में दाखिल हुए और हाथ मिलाकर कहा, अरे तुमको बधाई, नत्था का रोल कर रहे हो। यह रोल तो मैं खुद करना चाहता था मगर तुमको मिला है तो अच्छे करना, जाहिर है करोगे ही। भोपाल में जब ओंकारदास से बातचीत हो रही थी, उसके कुछ दिन पहले ही वह आमिर और अनुषा के साथ संदान फेस्टिवल में अमेरिका होकर आया था। वहाँ पीपली लाइव को खूब सराहा गया। छत्तीसगढ़ के दुर्ग जिले में आंचलिक संस्कृति और लोकमंच से एक साधक की तरह जुडक़र काम करने वाला पीपली लाइव का नत्था, ओंकारदास अब हिन्दुस्तान में फिल्म के प्रदर्शन की तारीखें नजदीक आते-आते बार-बार फ्लाई करके मुम्बई जाता है। किस्मत ने भले उसकी जिन्दगी में पंख लगा दिए हों मगर यह कलाकार अभी भी जमीन से जुड़ा ही दिखायी देता है।
शुक्रवार, 6 अगस्त 2010
क्या मिलिए ऐसे लोगों से....
क्या मिलिए ऐसे लोगों से
जिनकी फितरत छिपी रहे
नकली चेहरा सामने आये
असली सूरत छिपी रहे
सदाबहार अभिनेता धर्मेन्द्र की एक बहुत पुरानी फिल्म इज्ज़त का यह गाना है। यह फिल्म सन् 1968 में रिली$ज हुई थी। यह गाना उस दौर के नायक के मनोवेग को व्यक्त करता है। क्या यह बीमारी उतनी पुरानी है? तब भी लोगों का नकली चेहरा ही सामने आया करता था और असली सूरत छिपी रह जाती थी? यदि सचमुच तब यह हाल था, तो आज तो शायद और भी बुरा हाल होगा।
एक बहुत अलग किस्म के दौर में हमारा जीना हो रहा है। मैं अपने पिता के मित्रों से आज भी पिता सा स्नेह पाता हूँ। मेरे पिता का उन मित्रों से जैसा सहकार है, वो मुझे विलक्षण लगता है। मुझे बचपन से पिता ने उनके बारे में यही बताया था कि ये चाचा हैं। मुझे कभी उस गहराई में जाने की $जरूरत नहीं पड़ी कि ये पिता के भाई अर्थात्ï चाचा तो नहीं हैं, ये तो पिता के मित्र हैं, फिर चाचा कैसे हुए। यह तो मुझे चालीस साल में लगा है कि ये तो पिता के वो भाई हैं, जिनका भतीजा होना मेरे लिए बड़े सौभाग्य की बात रही है। एक चाचा का निधन उस दिन हुआ जो मेरा जन्मदिन था और उसी साल से फिर अपना जन्मदिन न तो अच्छा लगा और न ही मनाने का मन हुआ। आज लेकिन अपने आसपास जो दोस्ती-यारियाँ हैं, उनमें अपने बच्चों के उस तरह के चाचा निकलकर प्राय: नहीं ही आते, जैसे हमारे चाचा हैं। ऐसा नहीं है कि बिल्कुल नहीं हैं, हैं मगर एक लम्बा वक्त मथा गया है तब दो-एक रिश्ते बने हैं।
बहुत सारा वक्त हम जिनके साथ जीते हैं, हम देखते हैं कि दो चेहरे हैं जो नजर आते हैं। ऐसा नहीं कि हम बहुत पारदर्शी या एक ही चेहरे वाले आदमी होंगे मगर हर आदमी के आसपास जो भी चेहरा है वो दो है। यह ऐसे समय की सचाई है जब कहा जाता है कि आपको अपने बुरे के लिए अलग से शत्रु बनाने की आवश्यकता नहीं है। आपके नजदीक, आपका अपना ही कोई बखूबी इस काम को कर रहा है। वो आपका खासा दोस्त होगा, खूब हँसकर बात करेगा, खूब आत्मीयता प्रकट करेगा, आपके चेहरे के सामने जब भी वो अपना चेहरा रखेगा, वह चेहरे पर जितने भी भाव लाएगा, वो सब के सब आपके ही लिए होंगे लेकिन जिन तमाम कारणों के गमले पर वो अपनी नफरत की मिट्टी और पानी डाल रहा होगा, उसका आपको पता भी न होगा।
एक आदमी है जो खुले आम यह स्वीकारोक्ति देता है कि वो जीवन में किसी का भरोसा नहीं करता। वो कहता है कि उसे अपनी बीवी का भी विश्वास नहीं। लेकिन कई बार वो इस बात पर बेहद कुपित हो जाता है कि लोग उस पर विश्वास नहीं करते। वो सिर्फ अपने आप ही को इस बात के लिए अधिकृत मानता है, दूसरे उसके प्रति इसी धारणा के लिए अधिकृत हों, यह बात उसे न तो स्वीकार है और न ही बर्दाश्त। ये सब चेहरा फेंटने की कवायद नहीं तो और क्या है? हर आदमी, एक दूसरे का चेहरा ताश की तरह फेंट ही तो रहा है। हर बार जो पत्ता ऊपर आता है, उम्मीद के विपरीत होता है। दरअसल आदमी भी ताश के पत्ते तरह की दो छवियों को जिया करता है। बावन पत्तों का चरित्र ऊपर से एक ही दिखायी पड़ता है मगर दूसरी तरफ कोई हुकुम होता है तो कोई चिड़ी, कोई ईंट होता है तो कोई पान। हाँ जोकर, बावन पत्तों में चार ही होते हैं।
दो चेहरों का समाज, आज की सचाई पता नहीं कितनी है। जब भी जी चाहा नई दुनिया बना लेते हैं लोग, एक चेहरे पे कई चेहरे लगा लेते हैं लोग, जैसा गाना भी बरसों पहले किसी फिल्म में आया था। पहले कहा जाता था कि भीतर-बाहर दिल एक सा होता है मगर चेहरे के बारे में बात करते हुए यह दावा नहीं किया जा सकता कि यह कितनी परतों में है -
चेहरे तमाम हैं, अनेक रंगों में रंगे हैं,
दुनिया हमाम है, सब के सब नंगे हैं।
जिनकी फितरत छिपी रहे
नकली चेहरा सामने आये
असली सूरत छिपी रहे
सदाबहार अभिनेता धर्मेन्द्र की एक बहुत पुरानी फिल्म इज्ज़त का यह गाना है। यह फिल्म सन् 1968 में रिली$ज हुई थी। यह गाना उस दौर के नायक के मनोवेग को व्यक्त करता है। क्या यह बीमारी उतनी पुरानी है? तब भी लोगों का नकली चेहरा ही सामने आया करता था और असली सूरत छिपी रह जाती थी? यदि सचमुच तब यह हाल था, तो आज तो शायद और भी बुरा हाल होगा।
एक बहुत अलग किस्म के दौर में हमारा जीना हो रहा है। मैं अपने पिता के मित्रों से आज भी पिता सा स्नेह पाता हूँ। मेरे पिता का उन मित्रों से जैसा सहकार है, वो मुझे विलक्षण लगता है। मुझे बचपन से पिता ने उनके बारे में यही बताया था कि ये चाचा हैं। मुझे कभी उस गहराई में जाने की $जरूरत नहीं पड़ी कि ये पिता के भाई अर्थात्ï चाचा तो नहीं हैं, ये तो पिता के मित्र हैं, फिर चाचा कैसे हुए। यह तो मुझे चालीस साल में लगा है कि ये तो पिता के वो भाई हैं, जिनका भतीजा होना मेरे लिए बड़े सौभाग्य की बात रही है। एक चाचा का निधन उस दिन हुआ जो मेरा जन्मदिन था और उसी साल से फिर अपना जन्मदिन न तो अच्छा लगा और न ही मनाने का मन हुआ। आज लेकिन अपने आसपास जो दोस्ती-यारियाँ हैं, उनमें अपने बच्चों के उस तरह के चाचा निकलकर प्राय: नहीं ही आते, जैसे हमारे चाचा हैं। ऐसा नहीं है कि बिल्कुल नहीं हैं, हैं मगर एक लम्बा वक्त मथा गया है तब दो-एक रिश्ते बने हैं।
बहुत सारा वक्त हम जिनके साथ जीते हैं, हम देखते हैं कि दो चेहरे हैं जो नजर आते हैं। ऐसा नहीं कि हम बहुत पारदर्शी या एक ही चेहरे वाले आदमी होंगे मगर हर आदमी के आसपास जो भी चेहरा है वो दो है। यह ऐसे समय की सचाई है जब कहा जाता है कि आपको अपने बुरे के लिए अलग से शत्रु बनाने की आवश्यकता नहीं है। आपके नजदीक, आपका अपना ही कोई बखूबी इस काम को कर रहा है। वो आपका खासा दोस्त होगा, खूब हँसकर बात करेगा, खूब आत्मीयता प्रकट करेगा, आपके चेहरे के सामने जब भी वो अपना चेहरा रखेगा, वह चेहरे पर जितने भी भाव लाएगा, वो सब के सब आपके ही लिए होंगे लेकिन जिन तमाम कारणों के गमले पर वो अपनी नफरत की मिट्टी और पानी डाल रहा होगा, उसका आपको पता भी न होगा।
एक आदमी है जो खुले आम यह स्वीकारोक्ति देता है कि वो जीवन में किसी का भरोसा नहीं करता। वो कहता है कि उसे अपनी बीवी का भी विश्वास नहीं। लेकिन कई बार वो इस बात पर बेहद कुपित हो जाता है कि लोग उस पर विश्वास नहीं करते। वो सिर्फ अपने आप ही को इस बात के लिए अधिकृत मानता है, दूसरे उसके प्रति इसी धारणा के लिए अधिकृत हों, यह बात उसे न तो स्वीकार है और न ही बर्दाश्त। ये सब चेहरा फेंटने की कवायद नहीं तो और क्या है? हर आदमी, एक दूसरे का चेहरा ताश की तरह फेंट ही तो रहा है। हर बार जो पत्ता ऊपर आता है, उम्मीद के विपरीत होता है। दरअसल आदमी भी ताश के पत्ते तरह की दो छवियों को जिया करता है। बावन पत्तों का चरित्र ऊपर से एक ही दिखायी पड़ता है मगर दूसरी तरफ कोई हुकुम होता है तो कोई चिड़ी, कोई ईंट होता है तो कोई पान। हाँ जोकर, बावन पत्तों में चार ही होते हैं।
दो चेहरों का समाज, आज की सचाई पता नहीं कितनी है। जब भी जी चाहा नई दुनिया बना लेते हैं लोग, एक चेहरे पे कई चेहरे लगा लेते हैं लोग, जैसा गाना भी बरसों पहले किसी फिल्म में आया था। पहले कहा जाता था कि भीतर-बाहर दिल एक सा होता है मगर चेहरे के बारे में बात करते हुए यह दावा नहीं किया जा सकता कि यह कितनी परतों में है -
चेहरे तमाम हैं, अनेक रंगों में रंगे हैं,
दुनिया हमाम है, सब के सब नंगे हैं।
बुधवार, 4 अगस्त 2010
अभिनेता रविकिशन से बातचीत
बातचीत । रविकिशन
भोजपुरी फिल्मों के महानायक
रविकिशन को फोन पर बताया कि भोजपुरी फिल्मों के ट्रेण्ड को लेकर बातचीत करनी है तो उन्होंने कहा कि कमालिस्तान स्टूडियो आ जाइए, वहाँ भोला बजरंगी फिल्म की शूटिंग कर रहा हूँ। शाम को जब उनसे मिले तो एयर कण्डीशण्ड वेन में वे अपना मेकअप करा रहे थे। स्टूडियो मेें रेल्वे प्लेटफॉर्म का सेट बना हुआ था, रेल की दो बोगियाँ बनी हुई थीं और कुछ जूनियर आर्टिस्टों की आवाजाही हो रही थी, जहाँ उनको शॉट देने जाना था। विगत पाँच-सात वर्षों में अचानक भोजपुरी फिल्मों के जगत को व्यावसाय और लोकप्रियता के क्षेत्र में जिस तरह के पंख लगे हैं, उसकी $जमीन तैयार करने में रविकिशन की अहम भूमिका रही है। उन्हें भोजपुरी फिल्मों का अमिताभ बच्चन कहा जाता है और अमिताभ बच्चन ने उन्हें महानायक की उपाधि दी है।
हिन्दी फिल्मों के बरक्स खड़ी आत्मनिर्भर भोजपुरी फिल्मों की इण्डस्ट्री के इस प्रमुख अभिनेता ने जो कहा, वो उसी भाव के साथ प्रस्तुत है -
पचास ह$जार लोगों के घर का चूल्हा
भोजपुरी फिल्मों की इण्डस्ट्री एक ह$जार करोड़ रुपयों की इण्डस्ट्री है। यहाँ प्रतिवर्ष लगभग सौ फिल्मों का निर्माण हो रहा है। पिछले पैंतालीस सालों में दो नेशनल अवार्ड भोजपुरी फिल्मों को प्राप्त हुए हैं। पूरे भारत में ये फिल्में लगती हैं। अमिताभ बच्चन से लेकर रमेश सिप्पी, दुनिया-जहान के लोग सब इसमें आ गये हैं। पचास ह$जार लोगों का चूल्हा जल रहा है, परिवार जी रहा है। दरिद्रों की भाषा है भोजपुरी, यह अब कोई बोलता नहीं है। भारत सरकार ने सम्मान दे दिया, नेशनल अवार्ड देकर। हम पहले दिन से इसके पीछे रहे हैं। सारा खून-पसीना देकर इसे सींचा है। आज इण्डस्ट्री इतनी बड़ी हो गयी है। बहुत खुशी होती है हमको। बड़ी अच्छी बात है यह कि आज भोजपुरी अपनी बुलन्दी पर है। कुछ वर्षों में ही यह चमत्कार हुआ है। भाग्य था इसका। समय था इसका। फिर डेडिकेशन भी रहे और हमारा जुनून था इसके पीछे कि इस भाषा को कैसे भी ऊँचाई पर लाना है और आज ये भाषा इतनी ऊँचाई पर आ गयी है।
अपने पैरों पर खड़ी इण्डस्ट्री
एकनॉमिक्स सही है। बजट कन्ट्रोल में है और से$फ है आज। दो-ढाई करोड़ लगाकर भी हिन्दी फिल्में अनसे$फ हो जाती हैं मगर भोजपुरी फिल्मेें से$फ हैं। इस बात की हमको बेहद खुशी है कि भोजपुरी फिल्मों की इण्डस्ट्री अपने पैरों पर खड़ी है और अब बढ़ते ही जायेगी। भोजपुरी फिल्मों का आकर्षण देशव्यापी हो गया है। आपने मुम्बई मेें तमाम पोस्टर और प्रचार देखे होंगे इन फिल्मों के। मुम्बई में भी भोजपुरी फिल्मेें आज उतनी ही चलती हैं, जितनी कि गाँवों में। शहरों में चलती हैं, दिल्ली और पंजाब में भी चलती हैं। यू.पी., बिहार और झारखण्ड में भी चलती हैं। आज भोजपुरी चारों तरफ चल रही है।
महानायक की उपाधि
अमिताभ बच्चन साहब ने हमको महानायक की उपाधि दी। दिलीप साहब ने हमको दुआएँ दीं जब वो स्वयं एक भोजपुरी फिल्म का निर्माण कर रहे थे। सिप्पी साहब ने हमको आशीर्वाद दिया। अमित जी का महानायक कहना अपने आपमें एक बहुत बड़ी उपाधि है। फिर भारत सरकार ने दो नेशनल अवार्ड हमको दे दिया, कब होई गवना हमार के लिए जो उदित नारायण की फिल्म है। कार्पोरेट हाउस अभी आ रहा है। बड़ी-बड़ी कम्पनी$ज आ रही हैं। अब इसका सितारा बुलन्दी पर है।
सीरियस फिल्म मेकर्स की $जरूरत
बड़े-बड़े व्यावायिक लोगों के आने से इस इण्डस्ट्री को खतरा नहीं है, बल्कि फायदा ही होगा लेकिन एण्ड ऑफ द डे, भोजपुरी में जो इसके परिवेश को जानेगा, जो यहाँ के कल्चर को जानेगा वही आदमी सक्सेसफुल सिनेमा बनाने वाला हो सकता है। भोजपुरी को समझना बहुत $जरूरी है, तब भोजपुरी को बनाने के बारे में सोचा जाना चाहिए। कुछ लोग यहाँ आये और भोजपुरी कल्चर को जाने बिना गलत विषय ले लिया, गलत स्क्रिप्ट ले ली, उनके लिए फिर वो काम हानिकारक ही रहा। भोजपुरी फिल्म इण्डस्ट्री में चालीस प्रतिशत लोग ऐसे हैं जो सीरियस फिल्म मेकर नहीं हैं। भोजपुरी की हवा और सफलता को देखकर लाभ के लिए इससे जुड़ गये हैं। ठीक है, समय है मगर ऐसा हिन्दी फिल्मों में भी है। बहती गंगा मेें हर कोई हाथ धोना चाहता है लेकिन जो इसको इमोशनली लेगा, जो उस परिवेश को समझेगा, प्रोड्यूसर होगा या डायरेक्टर, वहाँ का होना $जरूरी है। जो नार्थ से बिलांग करे, जो वहाँ की माटी से बिलांग करे या जो रीजनल सिनेमा का पावर जाने, क्योंकि यह सिनेमा अलग है। हिन्दी सिनेमा से इसका कोई लेना-देना नहीं है। बोली, भाषा, पहनावा, कपड़ा, सेंटीमेंट, इमोशन, डायलॉग्स, इज्जत, आदर, चरण छूना, सिन्दूर, घूंघट, आँगन इतनी सारी ची$जें हैं कि इसको समझना बहुत $जरूरी है क्योंकि इण्डस्ट्री अब बहुत बड़ी हो गयी है। उसको म$जाक में नहीं लिया जाना चाहिए।
गब्ïबर सिंह भी बने हैं
अभी तो बहुत बाकी है। अभी तो शुरूआत है। साठ फिल्में हम कर लिए हैं। तीस और आ रही हैं हमारी। इनमें पन्द्रह की शूटिंग चल रही है और पन्द्रह की शूटिंग शुरू होने वाली है। एक दिन में आजकल हम एक ही शूटिंग करते हैं। पहले तो दो-दो, तीन-तीन और चार-चार तक कर लिया करते थे मगर अब नहीं करते हैं। उधर हिन्दी सिनेमा भी कर रहे हैं, श्याम बेनेगल की महादेव से लेकर, गोविन्दा वाली फिल्म है गणेश आचार्य जिसके निर्देशक हैं। एक फिल्म सोनाली कुलकर्णी के साथ है, कारण। एक फिल्म अली आटो वाला कर रहे हैं। एक फिल्म अजय देवगन के साथ है। गब्ïबर सिंह कर रहे हैं, एकता कपूर के साथ। उसमें गब्ïबर बने हैं। एक बलम परदेसी कर रहे हैं। ये एक भोला बजरंगी तो है ही। अलग-अलग इश्यू को लेकर फिल्में कर रहे हैं। ऐसे कई इश्यू$ज हैं हमारे पास। कॉमर्शियल फिल्में भी हैं, इन्द्र कुमार और अशोक ठाकरिया की फिल्म है। दोस्तों की कहानी है। तरह-तरह का सिनेमा है, तरह-तरह की कहानी है। इस तरह अलग-अलग सिनेमा कर रहे हैं। अब आगे चार हिन्दी फिल्म किया करेंगे और चार भोजपुरी। आठ फिल्में एक साल में।
आखिरी साँस तक भोजपुरिया सिपाही
भोजपुरी सिनेमा ने ही हमको पहचान दी। यही हमारी आइडेन्टिटी है। मातृभाषा है हमारी। हमारी माँ भी यही बोली बोलती है। इसको लेकर हमारा सेन्टिमेन्ट्स यही है कि आखिरी साँस तक मैं भोजपुरिया सिपाही हूँ। एक सिपाही की तरह काम कर रहा हूँ। यही मेरा सबसे बड़ा सेन्टिमेन्ट् है। भोजपुरी मेें निर्देशन का ख्याल बिल्कुल नहीं है। वो बहुत अलग तरह का काम है। ए$ज एन एक्टर ही सक्रिय रहना चाहते हैं। उसी में अभी बहुत सारा काम बाकी है। डायरेक्शन का ऐसा है, कि दस-पन्द्रह साल बाद उम्र आयेगी, तब उसको तवज्जो दिया जायेगा। हमको रिवेल टाइप का रोल करना है भोजपुरी में। ऐसा आक्रोश जो सरकार पलट दे। क्रान्ति ले आये, ऐसी कोई फिल्म करना चाहता हूँ, जैसे रंग दे बसन्ती जैसी फिल्म। कोई सीख मिले, यूथ को दिशा मिले ऐसी कोई फिल्म क्योंकि भोजपुरी मेें यूथ को हमको बहुत सीख देनी है।
भोजपुरी फिल्मों के महानायक
रविकिशन को फोन पर बताया कि भोजपुरी फिल्मों के ट्रेण्ड को लेकर बातचीत करनी है तो उन्होंने कहा कि कमालिस्तान स्टूडियो आ जाइए, वहाँ भोला बजरंगी फिल्म की शूटिंग कर रहा हूँ। शाम को जब उनसे मिले तो एयर कण्डीशण्ड वेन में वे अपना मेकअप करा रहे थे। स्टूडियो मेें रेल्वे प्लेटफॉर्म का सेट बना हुआ था, रेल की दो बोगियाँ बनी हुई थीं और कुछ जूनियर आर्टिस्टों की आवाजाही हो रही थी, जहाँ उनको शॉट देने जाना था। विगत पाँच-सात वर्षों में अचानक भोजपुरी फिल्मों के जगत को व्यावसाय और लोकप्रियता के क्षेत्र में जिस तरह के पंख लगे हैं, उसकी $जमीन तैयार करने में रविकिशन की अहम भूमिका रही है। उन्हें भोजपुरी फिल्मों का अमिताभ बच्चन कहा जाता है और अमिताभ बच्चन ने उन्हें महानायक की उपाधि दी है।
हिन्दी फिल्मों के बरक्स खड़ी आत्मनिर्भर भोजपुरी फिल्मों की इण्डस्ट्री के इस प्रमुख अभिनेता ने जो कहा, वो उसी भाव के साथ प्रस्तुत है -
पचास ह$जार लोगों के घर का चूल्हा
भोजपुरी फिल्मों की इण्डस्ट्री एक ह$जार करोड़ रुपयों की इण्डस्ट्री है। यहाँ प्रतिवर्ष लगभग सौ फिल्मों का निर्माण हो रहा है। पिछले पैंतालीस सालों में दो नेशनल अवार्ड भोजपुरी फिल्मों को प्राप्त हुए हैं। पूरे भारत में ये फिल्में लगती हैं। अमिताभ बच्चन से लेकर रमेश सिप्पी, दुनिया-जहान के लोग सब इसमें आ गये हैं। पचास ह$जार लोगों का चूल्हा जल रहा है, परिवार जी रहा है। दरिद्रों की भाषा है भोजपुरी, यह अब कोई बोलता नहीं है। भारत सरकार ने सम्मान दे दिया, नेशनल अवार्ड देकर। हम पहले दिन से इसके पीछे रहे हैं। सारा खून-पसीना देकर इसे सींचा है। आज इण्डस्ट्री इतनी बड़ी हो गयी है। बहुत खुशी होती है हमको। बड़ी अच्छी बात है यह कि आज भोजपुरी अपनी बुलन्दी पर है। कुछ वर्षों में ही यह चमत्कार हुआ है। भाग्य था इसका। समय था इसका। फिर डेडिकेशन भी रहे और हमारा जुनून था इसके पीछे कि इस भाषा को कैसे भी ऊँचाई पर लाना है और आज ये भाषा इतनी ऊँचाई पर आ गयी है।
अपने पैरों पर खड़ी इण्डस्ट्री
एकनॉमिक्स सही है। बजट कन्ट्रोल में है और से$फ है आज। दो-ढाई करोड़ लगाकर भी हिन्दी फिल्में अनसे$फ हो जाती हैं मगर भोजपुरी फिल्मेें से$फ हैं। इस बात की हमको बेहद खुशी है कि भोजपुरी फिल्मों की इण्डस्ट्री अपने पैरों पर खड़ी है और अब बढ़ते ही जायेगी। भोजपुरी फिल्मों का आकर्षण देशव्यापी हो गया है। आपने मुम्बई मेें तमाम पोस्टर और प्रचार देखे होंगे इन फिल्मों के। मुम्बई में भी भोजपुरी फिल्मेें आज उतनी ही चलती हैं, जितनी कि गाँवों में। शहरों में चलती हैं, दिल्ली और पंजाब में भी चलती हैं। यू.पी., बिहार और झारखण्ड में भी चलती हैं। आज भोजपुरी चारों तरफ चल रही है।
महानायक की उपाधि
अमिताभ बच्चन साहब ने हमको महानायक की उपाधि दी। दिलीप साहब ने हमको दुआएँ दीं जब वो स्वयं एक भोजपुरी फिल्म का निर्माण कर रहे थे। सिप्पी साहब ने हमको आशीर्वाद दिया। अमित जी का महानायक कहना अपने आपमें एक बहुत बड़ी उपाधि है। फिर भारत सरकार ने दो नेशनल अवार्ड हमको दे दिया, कब होई गवना हमार के लिए जो उदित नारायण की फिल्म है। कार्पोरेट हाउस अभी आ रहा है। बड़ी-बड़ी कम्पनी$ज आ रही हैं। अब इसका सितारा बुलन्दी पर है।
सीरियस फिल्म मेकर्स की $जरूरत
बड़े-बड़े व्यावायिक लोगों के आने से इस इण्डस्ट्री को खतरा नहीं है, बल्कि फायदा ही होगा लेकिन एण्ड ऑफ द डे, भोजपुरी में जो इसके परिवेश को जानेगा, जो यहाँ के कल्चर को जानेगा वही आदमी सक्सेसफुल सिनेमा बनाने वाला हो सकता है। भोजपुरी को समझना बहुत $जरूरी है, तब भोजपुरी को बनाने के बारे में सोचा जाना चाहिए। कुछ लोग यहाँ आये और भोजपुरी कल्चर को जाने बिना गलत विषय ले लिया, गलत स्क्रिप्ट ले ली, उनके लिए फिर वो काम हानिकारक ही रहा। भोजपुरी फिल्म इण्डस्ट्री में चालीस प्रतिशत लोग ऐसे हैं जो सीरियस फिल्म मेकर नहीं हैं। भोजपुरी की हवा और सफलता को देखकर लाभ के लिए इससे जुड़ गये हैं। ठीक है, समय है मगर ऐसा हिन्दी फिल्मों में भी है। बहती गंगा मेें हर कोई हाथ धोना चाहता है लेकिन जो इसको इमोशनली लेगा, जो उस परिवेश को समझेगा, प्रोड्यूसर होगा या डायरेक्टर, वहाँ का होना $जरूरी है। जो नार्थ से बिलांग करे, जो वहाँ की माटी से बिलांग करे या जो रीजनल सिनेमा का पावर जाने, क्योंकि यह सिनेमा अलग है। हिन्दी सिनेमा से इसका कोई लेना-देना नहीं है। बोली, भाषा, पहनावा, कपड़ा, सेंटीमेंट, इमोशन, डायलॉग्स, इज्जत, आदर, चरण छूना, सिन्दूर, घूंघट, आँगन इतनी सारी ची$जें हैं कि इसको समझना बहुत $जरूरी है क्योंकि इण्डस्ट्री अब बहुत बड़ी हो गयी है। उसको म$जाक में नहीं लिया जाना चाहिए।
गब्ïबर सिंह भी बने हैं
अभी तो बहुत बाकी है। अभी तो शुरूआत है। साठ फिल्में हम कर लिए हैं। तीस और आ रही हैं हमारी। इनमें पन्द्रह की शूटिंग चल रही है और पन्द्रह की शूटिंग शुरू होने वाली है। एक दिन में आजकल हम एक ही शूटिंग करते हैं। पहले तो दो-दो, तीन-तीन और चार-चार तक कर लिया करते थे मगर अब नहीं करते हैं। उधर हिन्दी सिनेमा भी कर रहे हैं, श्याम बेनेगल की महादेव से लेकर, गोविन्दा वाली फिल्म है गणेश आचार्य जिसके निर्देशक हैं। एक फिल्म सोनाली कुलकर्णी के साथ है, कारण। एक फिल्म अली आटो वाला कर रहे हैं। एक फिल्म अजय देवगन के साथ है। गब्ïबर सिंह कर रहे हैं, एकता कपूर के साथ। उसमें गब्ïबर बने हैं। एक बलम परदेसी कर रहे हैं। ये एक भोला बजरंगी तो है ही। अलग-अलग इश्यू को लेकर फिल्में कर रहे हैं। ऐसे कई इश्यू$ज हैं हमारे पास। कॉमर्शियल फिल्में भी हैं, इन्द्र कुमार और अशोक ठाकरिया की फिल्म है। दोस्तों की कहानी है। तरह-तरह का सिनेमा है, तरह-तरह की कहानी है। इस तरह अलग-अलग सिनेमा कर रहे हैं। अब आगे चार हिन्दी फिल्म किया करेंगे और चार भोजपुरी। आठ फिल्में एक साल में।
आखिरी साँस तक भोजपुरिया सिपाही
भोजपुरी सिनेमा ने ही हमको पहचान दी। यही हमारी आइडेन्टिटी है। मातृभाषा है हमारी। हमारी माँ भी यही बोली बोलती है। इसको लेकर हमारा सेन्टिमेन्ट्स यही है कि आखिरी साँस तक मैं भोजपुरिया सिपाही हूँ। एक सिपाही की तरह काम कर रहा हूँ। यही मेरा सबसे बड़ा सेन्टिमेन्ट् है। भोजपुरी मेें निर्देशन का ख्याल बिल्कुल नहीं है। वो बहुत अलग तरह का काम है। ए$ज एन एक्टर ही सक्रिय रहना चाहते हैं। उसी में अभी बहुत सारा काम बाकी है। डायरेक्शन का ऐसा है, कि दस-पन्द्रह साल बाद उम्र आयेगी, तब उसको तवज्जो दिया जायेगा। हमको रिवेल टाइप का रोल करना है भोजपुरी में। ऐसा आक्रोश जो सरकार पलट दे। क्रान्ति ले आये, ऐसी कोई फिल्म करना चाहता हूँ, जैसे रंग दे बसन्ती जैसी फिल्म। कोई सीख मिले, यूथ को दिशा मिले ऐसी कोई फिल्म क्योंकि भोजपुरी मेें यूथ को हमको बहुत सीख देनी है।
सुप्रतिष्ठित गायिका गिरिजा देवी से एक दुर्लभ मुलाक़ात
भारतीय शास्त्रीय संगीत परम्परा की यशस्वी और मूर्धन्य विभूति सुश्री गिरिजा देवी से बात करना जैसे सुरीले अमृत तत्वों को अपनी शिराओं में निरन्तर प्रवाहित होना, अनुभव करना है। दो वर्ष बाद गिरिजा देवी अस्सी बरस की हो जाएँगी लेकिन बचपन में पिता बाबू रामदास राय ने अपनी बिटिया को संगीत के साथ-साथ बहादुरी की और भी जिन साहसिक कलाओं में दक्ष किया था, उसी का परिणाम है कि वे चेहरे से हर वक्त तरोता$जा और ऊर्जा से भरपूर दिखायी पड़ती हैं। पाँच वर्ष की उम्र से उन्होंने बनारस घराने के निष्णात कलाकारों स्वर्गीय पण्डित सरजू प्रसाद मिश्र और पण्डित श्रीचंद मिश्र से संगीत सीखना शुरू किया। शास्त्रीय और उप शास्त्रीय संगीत में निष्णात गिरिजा देवी की गायकी में सेनिया और बनारस घराने की अदायगी का विशिष्टï माधुर्य, अपनी पाम्परिक विशेषताओं के साथ विद्यमान है। ध्रुपद, ख्य़ाल, टप्पा, तराना, सदरा, ठुमरी और पारम्परिक लोक संगीत में होरी, चैती, कजरी, झूला, दादरा और भजन के अनूठे प्रदर्शनों के साथ ही उन्होंने ठुमरी के साहित्य का गहन अध्ययन और अनुसंधान भी किया है। भारतीय शास्त्रीय संगीत के समकालीन परिदृश्य में वे एकमात्र ऐसी वरिष्ठï गायिका हैं जिन्हें पूरब अंग की गायकी के लिए विश्वव्यापी प्रतिष्ठा प्राप्त है। गिरिजा देवी ने पूरबी अंग की कलात्मक विरासत को अत्यन्त मोहक और सौष्ठवपूर्ण ढंग से उद्घाटित करने का महती काम किया है। संगीत मे उनकी सुदीर्घ साधना हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के मूल सौन्दर्य और सौन्दर्यमूलक ऐश्वर्य की पहचान को अधिक पारदर्शी भी बनाकर प्रकट करती है।
बनारस, मेरा घर और घराना
मेरा जन्म वाराणसी में हुआ और मैं वहीं पर अपने पापा के साथ रहती थी। उन्हें संगीत का बड़ा शौक था और उनको सुनने से मुझे भी शौक हो गया मगर शौक ऐसा हो गया कि पापा ने फिर मेरी पाँच साल की उम्र में ही संगीत सिखाने के लिए गुरु जी को बुलाया और शुरूआत की। वो मेरे पिताजी के गुरु भी थे, उन्होंने भी गाना-वाना उनसे सीखा था लेकिन वो थे सारंगी के नवा$ज थे स्वर्गीय पण्डित सरजू प्रसाद मिश्र जी बनारस के। लेकिन मेरे पिताजी मुझे गाना सिखाना चाहते थे तो इस तरह फिर मेरा गाना शुरू हुआ, उनसे सीखना। फिर मैं चौदह साल की उम्र तक उन्हीं से गाना सीखती रही और उसके बाद उनकी डेथ हो गयी। अठारह साल की उम्र में फिर मेरे दूसरे गुरु जी हुए। उस बीच मेरी शादी भी हो गयी। उस समय, ज़माने मेें छोटेपन में शादी हो जाया करती थी, मेरी शादी सोलह साल में हो गयी थी। अठारह साल मेें बेबी हो जाने की वजह से बाद में फिर मैंने गाना शुरू किया और बहुत रिया$ज और बहुत अच्छी तरह से सब करना पड़ता है।
उस समय ऐसा था कि लड़कियाँ गुरु जी के घर नहीं जाती थीं, गुरु जी ही घर आते थे। घर में शिक्षा-दीक्षा होती थी और मेरे दादा गुरु जी जो थे वो इतना मानते थे कि सुबह नौ, साढ़े नौ बजे आ जाते थे और शाम को चार बजे, साढ़े चार बजे जाते थे, गर्मी के दिन में और जाड़े के दिन में तो जल्दी चले जाते थे। तो वे खाना-वाना खा करके आराम करते थे, हम लोग उनकी तमाखू भरते थे, उनका पीठ दबाना, उनका सिर खुजलाना ये सब करते थे, बच्चे थे तब। तो उस समय गुरु की सेवा करना और गुरु का हमारे माँ-पिता कैसे सम्मान करते थे, तो ये देख-देखकर के बच्चों में एक ची$ज बन जाती है न, इसके बाद पढ़ाई मेरी स्कूल में शुरू किया था लेकिन तीसरे क्लास में जाते-जाते मैंने कहा, मैं नहीं पढूँगी क्योंकि इतना टीचर्स मेरे पिताजी ने रख दिया था, एक संस्कृत, हिन्दी पढ़ाते थे, उर्दू उस $जमाने में पढ़ाते थे, एक इंगलिश पढ़ाने वाले आते थे और एक गाने के लिए। चार टीचरों का काम करने से घबड़ा जाते थे, बच्चे तो थे ही, तो इसलिए हमने कहा, हम पढ़ेंगे नहीं, गायेंगे। इस पर मेरी माँ बहुत नारा$ज हुई थीं कि गाना ही गाना सीखेगी, पता नहीं इसका गाना चलेगा कि नहीं चलेगा, पता नहीं क्या, आ आ करवाते रहते हैं दिन भर। तो माँ-पिताजी में कभी-कभी ये भी हो जाता था कि लडक़ी को खाना बनाना, घर गृहस्थी सम्हालना, ये सब भी बताना चाहिए, तो इस पर पिताजी ने कहा, नहीं, ये कुछ और ही लडक़ी हुई है हमको, इसलिए सुबह को जब हमें ले जाते थे टहलने के लिए पिताजी, तो चार बजे, साढ़े चार बजे उठकर पाँच बजे हम लोग जाते थे टहलने के लिए। उस $जमाने में पिताजी ने हमें फिर घोड़ा चलाना सिखा दिया, स्वीमिंग करना सिखा दिया, लाठी चलाना सिखा दिया, याने एक तरह से पूरी बहादुरी और पूरा संगीतमय जीवन उन्होंने कर दिया था।
तो वो जो असर पड़ा था मेरे सिर पर, तो वो उतरने का नाम ही नहीं लिया। फिर उसके बाद शादी हो जाने के बाद बच्चे को सम्हालें, क्या करें, तो बेबी एक साल की हुई तब इसको माँ के पास छोड़ करके मैं चली गयी सारनाथ। एक बगीचे में जहाँ कि मैं तीन बजे रात को उठ करके, नहा-धो करके सात बजे तक रिया$ज करती थी। फिर उसके बाद नाश्ता-वाश्ता बना करके, खाना-वाना बना करके, एक मेरे साथ नेपाली नौकर था, एक आया खाना बनाने वाली थी, हम तीन जने ही जाकर वहाँ रहते थे और बच्चे को रो$ज बुला के, देख-दाख करके छोड़ देते थे। इस तरह से हमारा जीवन चला। पति भी हमारे रात को वहाँ चले जाते थे और गुरु भी जाते थे। तो वो लोग एक क मरे मेें, मने, वरण्डा था, वहाँ सोते थे और कमरे में मैं रहती थी। उस समय बिजली भी नहीं थी और हम लोगों को लालटेन जला करके रहना पड़ता था, सारनाथ में। ये बात मैं बता रही हूँ आपको करीब, पैंसठ साल तो हो ही गया, हाँ तेरसठ-चौंसठ साल पहले की बात है। उस समय बनारस में बिजली आ गयी थी परन्तु सारनाथ तरफ नहीं थी। तो इस तरह से एक बरस वहाँ पर, जिसको कहिए कि हमने अपने को बन्द कर लिया था। न किसी से मिलना, न जुलना। खाली संगीत का अध्ययन। फिर गुरु जी हमारे बैठ के सिखा देते थे। फिर वो लोग रिक्शे में चले आते थे शहर फिर मैं दिन को तीन बजे उठकर रिया$ज करती थी। शाम को गुरु जी फिर आते थे, तब रात आठ बजे से लेकर दस बजे तक उनका रिया$ज, इस तरह से छ: - सात घण्टे का रियाज चलता था।
इलाहाबाद के रेडियो स्टेशन में पहला प्रोग्राम
फिर जब मैं घर आयी तो सारी गिरस्ती पड़ गयी मेरे ऊपर। मेरे भाई, बहनें, ये सब कोई और रिश्तेदार-नातेदार, शादी - बयाह सभी मे हिस्सा लेना था लेकिन मैं संगीत के लिए अपना टाइम निकाल लेती थी। इतना सब करते-करते, फिर फॉट्टीनाइन में इलाहाबाद रेडियो स्टेशन बना तो उसमे मैंने पहला प्रोग्राम दिया, तो उस जमाने में ऐसा नहीं था, कि ए ग्रेड मिले, बी ग्रेड मिले, सी ग्रेड मिले। ग्रेडेशन का ऐसा कुछ था ही नहीं। सामने ही स्टेशन डायरेक्टर वगैरह बैठे थे, सुनकर ही वो लोग कर देते थे, तो फिर मुझको रैंक वैसा ही दिया जैसे बिस्मिल्लाह भाई, सिद्धेश्वरी देवी और रसूलन बाई का, हरिशंकर मिश्रा जी का, जो लोग गायक वगैरह थे, उन्हीं के ग्रेड में। क्योंकि पता इस तरह से लगा कि जो चेक उन्हें मिलता था, वो ही चेक हमें मिलता था। तो इस तरह पता लगा कि नबबे रुपया उनकी फीस थी तो नबबे रुपया मुझे भी मिल गयी। फस्र्ट क्लास उन्हें भी तीन मिला, हमें भी तीन मिला। तो एक बराबर, समझ में आया कि उन लोगों ने किया था। तो कोई बात नहीं थी, सब भगवान की, गुरु की कृपा थी, मिला, मिला। तो फॉट्टीनाइन से मैंने इलाहाबाद रेडियो स्टेशन से गाना शुरू किया।
फिफ्टीवन में मैंने पहला कान्फ्रेन्स आरा में किया। बिहार में आरा एक जगह है, पटना, आरा। तो आरा में जब मैंने वहाँ पर गाया तो बहुत बड़ी बात ये हुई कि एक तो खुले पण्डाल में हो रहा था प्रोग्राम और दूसरे पण्डित ओंकारनाथ जी आने वाले थे बनारस से, उस समय वहीं थे यूनिवर्सिटी में पण्डित ओंकारनाथ जी ठाकुर, तो वो आने वाले थे लेकिन उनकी गाड़ी बीच रास्ते में खराब हो गयी और सुबह उनका प्रोग्राम था ग्यारह बजे से। तो वो नहीं आये और उस जगह हमको बिठा दिया लोगों ने गाने के लिए। इतनी पबलिक आयी थी उनके नाम से कि कह नहीं सक ते, सिर दिख रहा था आदमी का, पता नहीं लग रहा था कितने भरे हुए लोग हैं। तो उस वक्त मैंने जो गाना गाया वहाँ पर। करीब डेढ़ से पौने दो घण्टे मैंने गाना गाया, ख्य़ाल गायी, टप्पा गाया, उसके बाद ठुमरी गायी मगर उसी दिन पहली बार मैंने बाबुल मोरा नैहर छूटो जाये, गाया था, तब से लेकर लगातार उसको कितनी ही बार गया। आज तक लोग पूछते हैं मगर अब मैंने उसे गाना बन्द कर दिया है। गाते-गाते हद्द हो गयी, वो जन गण मन हो गया था मेरे लिए (हँसती हैं) बाबुल मोरा नैहर छूटो जाये। इसलिए वहाँ गायी इक्यावन दिसम्बर में और जनवरी में बनारस में हुआ सन बावन में। तो वहाँ पर हमारे पति ही इसके पे्रसीडेण्ट थे और सारे बड़े लोग जितने वहाँ के थे, सारे मिल कर के इसको किए थे और तीन दिन का कॉन्फ्रेन्स था जिसमें केसर बाई, पण्डित ओंकारनाथ ठाकुर, पटवर्धन जी, डी वी पलुस्कर, पण्डित रविशंकर जी, अली अकबर खाँ, उस्ताद विलायत खाँ, मने कौन ऐसा नहीं बचा था सितारा देवी, गोपीकृष्ण मने कोई ऐसा, सिद्धेश्वरी देवी, रसूलन बाई, बिस्मिल्ला भाई जितने लोग थे सब भरे हुए थे उसमें और उसमेें मैंने पहला गाना गाया जनवरी में।
डॉ राधाकृष्णन ने फरमाइश की, एक ठुमरी और ..............
पण्डित रविशंकर जी उस समय रेडियो में थे दिल्ली के। तो उन्होंने जाकर जिकर किया, एक होता था कॉन्स्टेशन क्लब का प्रोग्राम तालकटोरा में, तालकटोरा गार्डन में, उसको करने वाली थीं पटौदी, बेगम पटौदी और सुमित्रा, शीला भरतराम, नैना देवी इन सबने मिलकर उसे बनाया था और निर्मला जोशी, डॉ जोशी की लडक़ी थी, वो ही सेकेट्री थीं। तो किसी तरह उन लोगों को मालूमात हुई तो मुझे बुलाया। मैं भी पहली बार दिल्ली गयी मार्च में और पलुस्कर जी भी पहली बार गये, बड़े गुलाम अली खाँ साहब पहली बार गये। शायद है कि कहीं वो पत्रिका पड़ी होगी मेरे पास। फस्र्ट टाइम था मेरा। तो वहाँ पर सारे राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री पण्डित जवाहरलाल नेहरु जी सब लोग आने वाले थे। लेकिन उन लोगों को तो काम हो गया तो वो लोग नहीं आये लेकिन उपराष्ट्रपति जी आये डॉ राधाकृष्णन। बाकी सारे पट्टाभिसीतारमैया, सुचेता कृपलानी जितने भी थे सारे उन लोग के लिए एक घण्टे का प्रोग्राम वो लोग करती थीं। फिर रात साढ़े नौ बजे से एक-दो बजे तक चलता था उन लोग का प्रोग्राम। तो उसमें मुझे और डी वी पलुस्कर साहब को और बिस्मिल्लाह खाँ साहब को बीस-बीस मिनट टाइम मिला। कहा गया बीस-बीस मिनट सब लोग गा लीजिए। तो पहले बिस्मिल्लाह खाँ साहब ने बजाया फिर डी वी पलुस्कर साहब ने गाया उसके बाद हमें गाना पड़ा। तो जब हमें गाना पड़ा तो पण्डित जी ने कहा, रविशंकर जी जिनको हम दादा बोलते हैं, हम बोले क्या गायें, वो बजा लिए राग-रागिनी, वो गा दिए ख्य़ाल बीस मिनट में मध्य लय का, तो वो बोले तुम पाँच मिनट टप्पा गा दो और पन्द्रह मिनट की ठुमरी। तो हमने कहा, ठीक है, चलिए, अइसइ गा देते हैं। तो मैंने पाँच-छ: मिनट का टप्पा गाया, उस समय तो बहुत तैयारी थी और यंग एज था तो टप्पा गाया और फिर ठुमरी गा लिया और मैंने करीब दो-तीन मिनट पहले ही खतम कर दिया, कि वो लोग न कहें कि खतम करो। शुरू से मेरी आदत थी कि कोई न, न करे हमें। हम हट जाएँ लेकिन हम न नहीं सुनना चाहते। तो इसलिए हमने सत्रह-अठारह मिनट में खतम कर दिया तब तक डॉ राधाकृष्णन ने आदमी भेजा कि हमें एक और ठुमरी सुननी है। तो मैं बोल्ड तो थी क्योंकि मैं तमाम ये घोड़ा चढऩा, ये करना, लडक़ों के जैसा काम करना, सबके ऊपर अपना रुआब जमाये रहती थी। तो मैं स्टेज से बोली कि मैं गाऊँगी $जरूर मगर ऐसा न हो कि बीच में से उठ जाइएगा आप लोग (हँसती हैं) । तो वो थोड़ा हँस दिए फिर कहने लगे, नहीं। तो मैंने कुछ आधा घण्टा एक और ठुमरी गायी। एक ठुमरी मैंने आधा घण्टा गायी। तो उस समय सारे पत्रकार लोग एकदम सक्रिय हो गये। सबने फिर लिखा। पेपर में आ गया। तो पहला आरा, दूसरा बनारस, तीसरा दिल्ली में मैंने गाया।
सात समुंदर पार तक शिष्य परम्परा की अमरबेल
इसके बाद तो भगवान की कृपा थी। सब जगह मैंने गाया। हिन्दुस्तान में ऐसी कोई जगह नहीं, जहाँ मैंने न गाया हो। विदेशों में भी गयी, विदेशों में भी लोगों ने मेरा देखरेख अच्छी तरह से किया। बहुत इज्जत दिया वहाँ पर भी। कई शिष्याएँ भी हो गयीं वहाँ पर भी जो अपने एन आय आर थे, उन लोगों में भी। इस तरह से तो मेरे संगीत का जीवन चलता रहा मगर संगीत में सबसे बड़ी बात है कि एक तो गुरु को बहुत इज्जत देकर के क्योंकि माँ-पिताजी जन्म देते हैं। पहला गुरु तो माँ ही है जो हमें बात करना सिखाती है, जो ये सिखाती है कि ये माँ है, ये तुम्हारे चाचाजी हैं, पिताजी हैं, काकाजी हैं, इसके बाद के मेरे ज्ञान के गुरु जो थे वे मेरे दादा गुरु जी थे और मेरे पिताजी ने मुझे बहुत सम्हाल करके रखा मगर हम लोग क्या, बहुत छोटेपन में ही शादी हो जाती थी, सोलह-सत्रह की उमर में, शादी हो गयी तो मेरी एक बेबी भी हो गयी अठारह साल की उमर में तो इस व$जह से थोड़ा रुक गया था, मगर इसके बाद फिर मैंने बहुत तबियत से गाना-वाना गाकर के मुकाम बनाया। बस भगवान को याद करके, अपने गुरु को याद करके, बड़ों को याद करके आज तक संगीत का मेरा सफर चला आ रहा है। और ऐसे भी मेरे कई शिष्यों, मतलब ज्य़ादा नहीं दस-पन्द्रह हैं क्योंकि अभी मुझ ही को जानकारी लेने से फुर्सत नहीं मिलती, मेरे रिया$ज से फुर्सत नहीं मिलती। हम कहाँ तक दे सकें लेकिन आई टी सी संगीत रिसर्च एकेडमी ने एक बनाया कलकतते में 1977 में। उसमे वे लोग मुझे ले गये बनारस घराना की वज़ह से और वहाँ पर भी मैंने तीन-चार शिष्यों को बनाया। अच्छी गाती हैं वो लोग क्योंकि हर गुरु को तीन शिष्य मिलते थे। एक तो मेरे गुरु जी का लडक़ा ही गया था। मेरे गुरु जी की डेथ हो गयी थी, दूसरे वाले, उनका लडक़ा। दो वहाँ से मिले थे लेकिन मेरे गुरु जी का लडक़ा था, एक ही लडक़ा था, चला आया था घर वापस। दूसरी की डेथ हो गयी, तीसरी गाती है।
फिर उसके बाद मैं हिन्दू यूनिवर्सिटी में आयी। वहाँ एज़ ए विजीटिंग प्रोफेसर मैं दो साल थी और फिर उसके बाद घर में ही और फिर प्रोग्राम वगैरह अमेरिका, लन्दन, इधर-उधर जाने में ही बहुत टाइम लग जाता है। दो-दो महीने, डेढ़-डेढ़ महीने वहाँ का प्रोग्राम सब रहता था। फिर इसके बाद मैं घर में सिखाती थी बच्चों को। लेकिन वाराणसी मे मुझे शिष्य कुछ अच्छे नहीं मिले। जैसा कि मैंने कलकतते मे देखा शिष्य, तो उनको बहुत ज्य़ादा लालसा होती थी कि संगीतज्ञ बनें, चाहें वो सरोद हो, सितार हो, तबला हो, गाना हो, कुछ भी हो। वहाँ लड़कियाँ सुरीली, समझदार, अच्छी तरह से इसीलिए मैंने कलकतते में ही अपना एक और घर बना लिया। बनारस में तो ही मेरा घर, अभी तक है मेरा घर। मैं हर दो-तीन महीने में जाती हूँ बनारस। लेकिन कलकत्ते मे मैं चली आयी क्योंकि मेरी एक ही बेटी है। उसी शादी कलकतते में हुई थी। हमारी देखरेख के हिसाब से भी हम चले आये क्योंकि हमारे पति की डेथ हो गयी थी सेवन्टीफाइव में और सेवन्टीसेवन में मैं चली आयी थी कलकतते। तब से वहीं रहती हूँ बस आना-जाना लगा रहता है। कलकतते में मुझे चार-पाँच शिष्य बहुत अच्छे मिले। उनको मैंने बहुत प्रेम से सिखाया और गाते भी बहुत अच्छे हैं। वक्त आने पर सबका नाम बताएँगे क्योंकि एक शिष्य का नाम बता दें तो दूसरे शिष्य दुखी होते हैं कि मेरा नाम क्यों नहीं लिया, तो इसलिए। बड़े अच्छे शिष्य तैयार हो रहे हैं और पूरा गायकी हमारे घराने की, बनारस घराने की , सेनिया घराना। जितना ख्य़ाल अंग और ये सब है और बनारस का भी उसमें अंग है ख्य़ाल गाने का, वो मैंने तो याद किया लेकिन इसके बाद टप्पा, तत्कार, सदरा, तराना, ध्रुपद, धमार फिर आपके ठुमरी और होली, चैती, कजरी, झूला ये सब मैंने वहाँ पर सीखा।
हमें शौक था शादियों के गीत, बच्चा होने के गीत इन सबका, हमे बचपन मे गुड्डा-गुडिय़ों की शादियाँ करने का शौक बहुत था। इसमें गुरु माँ के घर की लड़कियों को और अपने दोस्तों को बुला के ढोलक पर उनका गाना सुनती थी और सबको खाना खिलाती थी। मुझे खाना खिलाने का बहुत शौक है। तो वो सब मेरा बचपन से ही चला आया। उसको कोई रोक नहीं सका। और मैं खाना बनाती हँू चार आदमी का और आठ आदमी को बुला लिया, आओ मेरे साथ खाना खाओ, कुछ इस तरह का रहा है मेरा। और न ही मेरा कोई सिनेमा देखने का शौक है, न ही कोई क्लब, न ही ये सब करने का शौक नहीं था। एक भारतीय स्त्री को जो वास्तव में जरूरत है, वो चीजें मुझे मेरे घर से, लोगों के यहाँ देखने से, मेरे गुरु घराने से, वो ची$ज में मैं पली और बढ़ी। मगर जब बाहर गयी तो वहाँ का भी देखा कि कैसे फॉरेन में लोग रहते हैं, जाते हैं लेकिन मेरी जो चाल थी, उसमें उनकी तरह वैसा कुछ भी मैंने आने नहीं दिया। अपना पहरावा-ओढ़ावा, खान-पान, बातचीत सब कुछ इस तरह से किया जो मेरा अपना संस्कार था। ऐसे दस-बार शिष्य अमेरिका, लन्दन, न्यू जर्सी में हैं, फ्रांस और इटली में भी हैं, लेकिन बहुत कायदे से, मैंने कहा कि सा रे गा मा से शुरू करके तुम्हारी नींव मजबूत करें फिर तुम्हें अच्छी तरह से बना सकते हैं हम। तो दो-तीन लड़कियाँ अच्छी हैं और खुद भी टीचिंग कर रही हैं अभी।
फिफ्टीवन से दो हजार सात तक..........
तो ये सब भगवान की और गुरु की कृपा है और मेरे बड़ों का आशीर्वाद है कि जो चला आ रहा है अभी तक पचपन-छप्पन साल हो गये। मैं तो आज भी जब भी श्रोताओं के सामने जाती हूँ, तो मुझे लगता है कि ये श्रोता नहीं हैं बल्कि भगवान ने जो बनाया है, ईश्वर के सारे रूप यहाँ बैठे हुए हैं और मैं आँख बन्द करके भगवान और अपने गुरु का स्मरण करके गाती हूँ। लेकिन हर चीज का एक समय है। जैसे आज मैं डेढ़ घण्टे बैठकर यमन कल्याण गाऊँ तो कुछ लोग आते हैं टिकिट लेकर के टप्पा सुनने को, कुछ लोग आते हैं ख्य़ाल सुनने को, कुछ लोग आते हैं ठुमरी सुनने को, कुछ लोग आते हैं दादरा सुनने, कुछ लोग आते हैं लोकगीत सुनने, कुछ लोग भजन सुनने आते हैं तो हम पहले ही ऑर्गेनाइजर से पूछ लेते हैं कि भई हमें समय कितना है, उन्होंने कहा कि डेढ़ घण्टा तो हम आधे घण्टे, चालीस मिनट में ख्य़ाल थोड़ा कम्पलीट जैसा मेरे गुरु ने सिखाया वैसा ही मैं गा देती हूँ। उसके बाद पन्द्रह मिनट एक ठुमरी, दस मिनट वो, पाँच मिनट वो करके उनका डेढ़ घण्टा मैं पूरा कर देती थी कि लगता ही नहीं था कि समय कहाँ चला जाता है। लोग तब और सुनने की फरमाइश करते थे। हम समय की बहुत इज्ज़त करते हैं। अगर आपने हमको पाँच बजे का समय दिया गाने के लिए तैयार रहने के लिए तो हम चार चालीस पर तैयार होकर के खड़े रहेंगे। इतनी समय की पाबन्दी मुझे हो गयी है। समय की कदर करना चाहिए क्योंकि जो समय चला जाता है फिर वापिस नहीं आता।
नयी सदी की संस्कृति
ये सब बातें और हिन्दी के बड़े-बड़े लोगों की कहानियाँ, कविताएँ ये सब पढ़ती थी, इसलिए मुझे हिन्दी साहित्य से बहुत ही लगाव है। उसके बाद बंगाल के लोग, महाराष्ट्र के लोग, उनके बारे में जैसे रवीन्द्रनाथ ठाकुर के बारे में, काजी नजरूल के बारे में जानते हैं और इन लोगों की कविताएँ सुनते हैं तो मुझे बहुत पसन्द आती हैं। महाराष्ट्र में भी इतने लोग हुए हैं, मराठी गाना, मराठी ड्रामा सब मैंने देखा, समझ में नहीं आता था तो पूछ लेते थे। इसलिए हर जगह की अपनी-अपनी एक वेल्यू है और हर जगह में ही विद्वान लोग हैं। मगर अब क्या हो गया है, पहले की फिल्म के, या ऐसे भी ग$जल, कव्वाली सब होती थी मगर तब उसकी इज्ज़त और सम्मान रखकर लोग बैठते थे। आज न वो ग$जल में ची$ज रह गयी, न कव्वाली में, न वो फिल्म संगीत में। इतना कुछ, ज्य़ादा ही कुछ हटता जा रहा है साहित्य से कि कुरता फाड़ के देख लो, कि कऊआ बोल रहा है, और कोई शबद नहीं मिल रहा है सबको कि कोयल बोलती है, मोर बोल रहा है, ये सब नहीं। तो इसलिए दुख भी लगता है कि बहुत दुनिया बदलती चली जा रही है। उस जमाने में कॉन्फ्रेन्स शुरू होती थी रात को नौ बजे तो सुबह पाँच बजे-छ: बजे खत्म करते थे। पूरे रात हम लोग देखते थे उसको। मगर आज तो रात को नौ बजे भी निकलने मे डर लगता है कि कोई छीना-झपटी न कर दे, कोई कुछ न कह दे। फिर हम तो गाड़ी में जा रहे हैं लेकिन सबके पास तो गाडिय़ाँ नहीं हैं। कोई रिकशे से जा रहा है, कोई मोटर साइकिल से, कोई साइकिल से। तो इस समय इतनी ज्य़ादा घबराहट हो गयी है कि रात का प्रोग्राम नौ-साढ़े नौ बजे तक लोग बन्द कर देते हैं।
गुरु-शिष्य परम्परा : धीरज और बाजार
आजकल के गुरु को, हम शिकायत नहीं कर रहे हैं, जो शिष्य हैं वो भी चाहते हैं कि हमें इतना जल्दी सिखा दें कि हम एकदम टॉप पर पहुँच जाएँ। टेलीवि$जन और रेडियो, कॉन्फ्रेन्स सब गाएँ और गुरु सोचता है कि इसको फँसाकर रखो कि इससे पाँच सौ-ह$जार सिटिंग का जो मिलता है वो बन्द न हो जाए। दोनों में बन नहीं रही है। लेकिन अभी भी अगर खोजा जाए हिन्दुस्तान में, तो दस-बीस अच्छे गुरु मिल सकते हैं जो कि बैठकर के बच्चों को आगे बढ़ाने का जैसा हौंसला मैं किए हूँ कि दस-बीस बच्चे भी हमारे अच्छे निकल जाएँ तो वे सौ अच्छे शिष्य तैयार कर सकेेंगे, ह$जार शिष्य तैयार कर सकेंगे। हम लोग ऐसे अपने दस ही शिष्य बनाएँ तो बहुत है। मगर खाली अपने बच्चों को सिखाकर, अपने परिवार को सिखाकर कला को बांध लेना उचित नहीं है। देखिए, तकदीर भी कोई ची$ज होती है। ईश्वर की कृपा हो, गुरु की कृपा हो, उसकी तकदीर भी होना चाहिए। माँ जन्म देती है लेकिन कर्मदाता नहीं होती, वो जन्मदाता है। तो इसीलिए कितना भी गुरु कर दे, कोई-कोई गुरु इतने तकदीर वाले होते हैं कि जैसे केलूचरण महापात्र। जितनी भी शिष्याएँ निकली हैं, जितने भी शिष्य निकले हैं सबने नाम किया, चाहें संयुक्ता पाणिग्रही हों, चाहें प्रोतिमा बेदी हों, चाहें कुमकुम मोहन्ती हों, चाहें उनका बेटा हो शिबू, और वो क्या नाम है, डोना, वो क्रिकेट खेलते हैं सौरव, उनकी पत्नी, सारे बच्चे लोग अच्छा डांस कर रहे हैं। ऐसे गुरु भी जिनका कि भाग्य हो, ऐसे शिष्य उनका नाम रोशन करें, भाग्यवान हैं। हमारे पण्डित बिरजू महाराज के भी अनेक शिष्य हैं। बहुत अच्छे शिष्य निकले उनके, बहुत अच्छा कर भी रहे हैं वो। अब गायन मे पण्डित ओंकारनाथ जी के शिष्य हैं, वो लोग सर्विस में चले गये क्योंकि उनको रुपया मिल जाता है उनके खर्च के लिए, पन्द्रह हजार-बीस हजार। और आजकल मँहगाई इतनी बढ़ गयी है, कि घर का किराया ले लीजिए, कि घर का खाना ले लीजिए, कि बच्चों की पढ़ाई ले लीजिए, सब इतना ज्य़ादा हो गया है कि वो लोग कड़ी से कड़ी मेहनत करके घर को चलाते भी हैं और उसी मे शिक्षा भी देते हैं। मैं बुरा नहीं कहती हूँ शिक्षकों को, उनकी भी अपनी बहुत $जरूरतें हैं। हर लोग तो लाख रुपया, दो लाख रुपया नहीं ले सकता या पाँच लाख रुपया लेकिन जो लोग बहुत अच्छे हो गये हैं जिनके पास करोड़ों सम्पतित है, उन लोगों को आज जो भारतीय संगीत की इज्ज़त दब रही है, जो माहौल है, ऐसा चलेगा, उतने ही बच्चे हमारे बरबाद होंगे। उन्हे अच्छी ची$ज सुनाने-सुनने का मौका मिलना चाहिए। जैसा कि स्पिक मैके कर रहा है, यूनिवर्सिटीज और स्कूल में, कॉलेज मे प्रोग्राम करते हैं, बहुत अच्छा लेक्चर डिमॉस्ट्रेशन देना, उन्हें समझाना, वैसा हम लोग प्रयत्न कर रहे हैं कि ऐसी कोई और भी संस्था बनना चाहिए जिसमें लोग वर्कशॉप करवाएँ, चाहें भोपाल हो, इन्दौर हो, मुम्बई हो। मैंने भी वर्कशॉप किया, मुम्बई में जाकर नेहरु सेंटर में। सभी लोग आए, बच्चियाँ भी, आरती अंकलीकर से लेकर अश्विनी भिड़े भी, पद्मा तलवलकर, सब लोग आये, बहुत लोग आये मगर सात दिन के अन्दर, पाँच दिन के अन्दर हम कितनी ची$जें उन्हें बता सकते हैं। गायकी का रूप या भाव नहीं बता सकते जब तक बैठकर कुछ दिन नहीं सीखेंगे। यदि रेकॉर्ड से सीखेंगे तो भी मैं कैसे उसको कहती हूँ, यह थोड़ी पता लग पायेगा। तो बच्चों को गवर्नमेेंट हेल्प करे या कम्पनी$ज हेल्प करेें क्योंकि देखिएगा, एक गुरु को भी तो कुछ चाहिए। फ्री तो आ नहीं सकते। अपना खर्चा-वर्चा लगा के आएँ, उनको रहने का, सात-आठ दिन का जैसा, उनकी इज्ज़त हो, उसके ऊपर तो खर्च होगा लेकिन वो बच्चे जो सीखेंगे, कुछ सार्थक रहेगा। इसके ऊपर ध्यान देना चाहिए। सीखने-सिखाने वाले सब लोगों को अच्छी राह दिखानी चाहिए, अच्छी राह पर चलना चाहिए।
पिताजी की याद.......
बाबू रामदास राय मेरे पिताजी का नाम था। मेरे पिताजी तो हर बखत याद आते हैं। हम लोग गाँव में रहते थे। जमींदारी थी, थोड़े हिस्से की। आधी हमारी और आधी हमारे रिश्तेदारों की जो दादा-परदादा के जमाने से चली आ रही थी। बाद में पिताजी वो सब हमारे परिवार में रखकर के बनारस चले आये थे। काशी आने के बाद ही हमारे घर में गाने-बजाने का माहौल बना। पहले पापा ने सीखा, मेरे को भी आ गया। तो पापा की तो हर बखत याद आती है। जिस समय मैंने सीखा उस समय वो कठिन दौर निकल चुका था जब लड़कियों को गाने-बजाने से रोका जाता था। पण्डित मदन मोहन मालवीय की बेटियाँ सीख रही थीं, इधर महाराष्ट्र में लोग निकल गये थे हीराबाई बड़ोदेकर, केसर बाई, गंगूबाई हंगल ये लोग निकल चुकी थीं। सिद्धेश्वरी देवी भी गा रही थीं लेकिन ये लोग राज दरबार में भी गाती थीं मगर मेरे पिताजी ने और मेरे पति ने कहा, नहीं, हम राज दरबार में नहीं गाएँगे। चाहें वो लाखों दे देते, करोड़ों दे देते, नहीं जाते।
कलाकार का सच्चा धर्म
एक कलाकार का सच्चा धर्म यही है कि वो अपनी सत्यता को न छोड़े। सत्य का जीवन में पालन करे। जहाँ तक हो सके, हम यह नहीं कहते कि कृष्ण, राम सब सामने खड़े हैं लेकिन मैं उन्हें मानसिक रूप से मानती हूँ। उनका जो रूप है उसकी मैं पूजा करती हूँ क्योंकि उन्होंने बहुत बड़ा कार्य किया है। वो मोक्ष दिए कि नहीं दिए लेकिन इतने बड़े हो गये हैं कि उन्हें हमें मानना पड़ता है। उनकी बातों को अपने शास्त्रों के अनुसार अपनी रामायण में, अपनी गीता में जो पढ़ते हैं तो कुछ तो किया है उन्होंने। ऐसे तो कोई निकालेगा नहीं उनकी किताबें। चाहे हिन्दू हों या मुसलमान हों, पहले हम लोगों में कितना मेल था, इतना मेल रहता था, आज के जीवन में देखिए छोटी-छोटी सी बात पर कटुता बढ़ती चली जा रही है। पहले उस्ताद लोग भी बहुत ही सीधे थे और बहुत ही सच्चे थे। जिसको भी वे सचमुच मानते थे कि ये लडक़ा या लडक़ी ठीक है, उसे आशीर्वाद देते थे नहीं तो उसको तुरन्त कहते थे कि न, अभी तुम बाहर जाने लायक नहीं हो। अभी तुम गुरु या उस्ताद से सीखो। ये ची$ज ठीक करो, वो तुम्हारी तानें ठीक नहीं हैं, स्वर सही नहीं हैं, ताल ठीक नहीं है, ये सब वो लोग बताते थे। आज किसी बच्चे को कह दो तो वो कहेगा, वाह, मैं कोई खराब थोड़े ही हूँ, मैं तो बढिय़ा हूँ। ऐसे में कौन बोलेगा भला, झगड़ा मोल लेगा। भाई आप जानिए, आपका काम जाने। तो इस तरह से चलता है ये समाज, ये दुनिया। कुछ न कुछ ऋतु बदलती रहती है।
ईश्वर के बारे में
भइया ईश्वर के बारे में तो बहुत..........हम तो हर बखत उनको याद करते हैं। थोड़ा मेडिटेशन, खरज, ऊँकार मेरा तो संगीत ही पूजा है। उसी से मैं उन्हें सजाती हूँ, उसी से फूल चढ़ाती हूँ और न मेरे पास फूल है न पत्ती है। उनका तो हर वक्त हृदय में वास रहता है, जैसे माँ सरस्वती हैं, शिव हैं मेरे आराध्य, उनका ध्यान तो रखना ही पड़ता है।
दुनिया को कैसे खूबसूरत बनाया जा सकता है?
दुनिया को खूबसूरत बनाया जा सकता है, कि सब लोग बहुत प्यार-मोहबबत के आदमी हो जाएँ, बहुत सच्चाई आ जाए सबमें और बहुत शालीनता, खासकर के लड़कियों में भी और लडक़ों में भी। उद्दण्ड रहकर के दुनिया को बिगाडऩा ठीक नहीं है। उद्दण्डता कभी ठीक नहीं रही है क्योंकि मैंने सुना है कि जो उद्दण्ड होते थे वो मार दिए जाते थे या खतम कर दिए जाते थे या जेल बन्द कर दिया जाता था। जैसे कंस हुए। हुआ कि नहीं उनका खात्मा। कृष्ण ने किया जिनके वे मामा थे। लेकिन ये नहीं है कि कृष्ण सखियों के साथ दौड़े भी, रासलीला भी किया, खेल भी किए मगर आन्तरिक उनका ये था कि सबको अपने में बुला रहे हैं, अपने पास बुला रहे हैं। मतलब यही था कि मेरे में वो हो जाएँ। तो आपमे, हमारे में सब जगह तो भगवान बसे हुए हैं फिर क्यों लोग एक दूसरे के शत्रु इस तरह से बनते जा रहे हैं? दुनिया को खूबसूरत बनाना है तो सबको एक ही विचार ले करके चलना होगा, चाहे वो किसी भी जाति के हों। मैं यह नहीं कहती कि अमीर और गरीब पहले भी रहे हैं। क्या राम के वक्त धोबी, नाई नहीं था? क्या वो पालकी उठाने वाला आदमी नहीं था? क्या वो राजा बन जाता था? नहीं। राजा राज करते थे, प्रजा को देखते थे और प्रजा को अपना बेटा, अपनी बेटी, अपनी सन्तान मानते थे पर आज के $जमाने में पहले अपने ही पास सब भर लेते हैं मगर उसके बाद खाली हाथ चले जाते हैं। वो भी बेकार है। लेकिन भगवान जब किसी को कुछ देता है तो तुम्हें भी कुछ देना चाहिए। सब लेकर नहीं जाना चाहिए और ले के जाएगा कहाँ से? हम तो खाली हाथ आये थे और खाली हाथ चले जाएँगे। कहा है न मुट्ठी बांधे आते हैं और खाली हाथ चले जाते हैं। आप देखिए छोटा बच्चा पैदा होता है तो मुट्ठियाँ उसकी बंधी होती हैं और जब जाता है आदमी तो हाथ खाली रहता है। तो अगर अच्छा काम करके हम जाएँगे तो सैकड़ों वर्ष हमे लोग याद रखेंगे और यदि हम किसी की बुराई, किसी का ये, किसी की चोरी, किसी का कजरा, किसी का खून, किसी को मारा तो वो बदनाम ही रह जाएगा। इसलिए सब कोई जब तक मिलेंगे नहीं, एक जने कुछ नहीं कर सकते हैं। मगर मैं तो अपने बच्चों को, श्रोताओं को अपने सामने जो होते हैं, यही कहती हूँ कि आपस का प्यार रखो अगर तुम्हें किसी से कुछ बुराई है तो मुँह पर ही बोल दो कि अच्छा नहीं लगा हमें। मन में मैल रखकर कभी जीवन चल नहीं सकता। दोस्त भी मानते हो और मैल भी रखते हो, ऐसा क्यों है? और सबमें संगीत है। आप अगर सही नहीं चलिएगा तो लुढक़ जाइएगा। लोग कहेंगे कि बेताले चल रहे हैं। अगर स्वर में नहीं बोले, बाँ बाँ बाँ बाँ किए तो सब कहेंगे बड़ा बेसुरा बोल रहा है भैया। ऐसी औरतें भी हैं और पुरुष भी हैं। तो स्वर और लय तो हर एक की जिन्दगी में है मगर उसकी खोज करना पड़ता है। अरे अभी तो एक ही जिन्दगी हमारे लिए कम है कि ठीक से जी सकें। इसके लिए कई जीवन चाहिए हमें। न मेरा रियाज ही पूरा हुआ और न मेरी शिक्षा ही पूरी हुई। मैं इसके बारे में क्या बोलूँ? जो मेरे गुरु ने बताया, जो हमारे बाप, माँ, दादा, दादी ने बताया उन्हीं की बात सार्थक है, मेरी अपनी बात तो कुछ कहने की ही नहीं है, उसके लिए तो एक जीवन और चाहिए तब शायद अपनी बात बता सकें। ये सब सुनी सी, देखी सी और सिखायी बात मैं कर रही हूँ। मेरे में कुछ नहीं है। मेरा सब कुछ अर्पण है मेरे गुरु और मेरे भगवान के ऊपर। मैं कुछ नहीं हूँ। और जो करते हैं वही करते हैं। अभी कोई बात कहना है और गला बन्द हो जाए, बोल ही न पाएँ तो कोई तो है सब करने वाला जिसको हम देख नहीं पा रहे मगर है कोई। तमाम दिमाग, आँख, नाक, कान ये सब बनाया है ईश्वर ने। जानवरों को बनाया, कितने जीव बनाए, करोड़ों जीव-जन्तु। ये किसने बनाया? उसका अगर दर्शन हो जाए, उसकी खोज हो जाए तब तो हम बोलने लायक नहीं रहेंगे। हम तो कहीं चले जाएँगे कैलाश पर्वत। फिर आप लोग हमें छू नहीं सकते, बोलना तो बड़े दूर की बात है। लेकिन जब हम जीवन में रह रहे हैं, संसार के जीवन में तो हमें सब कुछ करना पड़ता है। कभी-कभी झूठ भी बोलना पड़ता है। लोग खूब फोन करते हैं तो बेटी से कहते हैं, कह दो सो गयी हैं, कहीं चली गयीं हैं। भगवान का नाम लेते हैं दस बार कि मैंने झूठ बोल दिया। उचित नहीं है यह लेकिन क्या करें, परेशान हो जाते हैं। एक तो उमर भी हो गयी है न, इस उमर में औरतों के लिए, जबकि पचास बरस मे वो बुड्ढी हो जाती हैं, लडक़े तो साठ-पैंसठ बरस में भी लडक़े ही रह जाते हैं। ऐसा कुछ ईश्वर ने बनाया कि पचास बरस में वो बुड्ढी ही कहलाती हैं लेकिन कोई अस्सी बरस, अठहततर बरस, उन्यासी बरस में इतना साहस करके आते हैं तो इसीलिए कि हमारे लिए संगीत को सर्वोपरि रहना चाहिए। ये कभी नीचे नहीं जा सकता। हमारे लिए हमारे पिता से मिली हिम्मत सबसे बड़ी ची$ज है। यह भगवान की दी हुई है कि गुरु की दी हुई है कि पापा की दी हुई है, पता नहीं मगर मैं हिम्मत कभी नहीं हारती। मेरा तो दो साल पहले बायपास ऑपरेशन हुआ उसके बाद हम तो तीन महीने में ही चले गये थे फ्रांस, लन्दन और इटली और अमेरिका प्रोग्राम करने। तो मतलब हिम्मत रखते हैं और उसी हिम्मत से भगवान आप लोग तक हमें पहुँचाए हैं।
बनारस, मेरा घर और घराना
मेरा जन्म वाराणसी में हुआ और मैं वहीं पर अपने पापा के साथ रहती थी। उन्हें संगीत का बड़ा शौक था और उनको सुनने से मुझे भी शौक हो गया मगर शौक ऐसा हो गया कि पापा ने फिर मेरी पाँच साल की उम्र में ही संगीत सिखाने के लिए गुरु जी को बुलाया और शुरूआत की। वो मेरे पिताजी के गुरु भी थे, उन्होंने भी गाना-वाना उनसे सीखा था लेकिन वो थे सारंगी के नवा$ज थे स्वर्गीय पण्डित सरजू प्रसाद मिश्र जी बनारस के। लेकिन मेरे पिताजी मुझे गाना सिखाना चाहते थे तो इस तरह फिर मेरा गाना शुरू हुआ, उनसे सीखना। फिर मैं चौदह साल की उम्र तक उन्हीं से गाना सीखती रही और उसके बाद उनकी डेथ हो गयी। अठारह साल की उम्र में फिर मेरे दूसरे गुरु जी हुए। उस बीच मेरी शादी भी हो गयी। उस समय, ज़माने मेें छोटेपन में शादी हो जाया करती थी, मेरी शादी सोलह साल में हो गयी थी। अठारह साल मेें बेबी हो जाने की वजह से बाद में फिर मैंने गाना शुरू किया और बहुत रिया$ज और बहुत अच्छी तरह से सब करना पड़ता है।
उस समय ऐसा था कि लड़कियाँ गुरु जी के घर नहीं जाती थीं, गुरु जी ही घर आते थे। घर में शिक्षा-दीक्षा होती थी और मेरे दादा गुरु जी जो थे वो इतना मानते थे कि सुबह नौ, साढ़े नौ बजे आ जाते थे और शाम को चार बजे, साढ़े चार बजे जाते थे, गर्मी के दिन में और जाड़े के दिन में तो जल्दी चले जाते थे। तो वे खाना-वाना खा करके आराम करते थे, हम लोग उनकी तमाखू भरते थे, उनका पीठ दबाना, उनका सिर खुजलाना ये सब करते थे, बच्चे थे तब। तो उस समय गुरु की सेवा करना और गुरु का हमारे माँ-पिता कैसे सम्मान करते थे, तो ये देख-देखकर के बच्चों में एक ची$ज बन जाती है न, इसके बाद पढ़ाई मेरी स्कूल में शुरू किया था लेकिन तीसरे क्लास में जाते-जाते मैंने कहा, मैं नहीं पढूँगी क्योंकि इतना टीचर्स मेरे पिताजी ने रख दिया था, एक संस्कृत, हिन्दी पढ़ाते थे, उर्दू उस $जमाने में पढ़ाते थे, एक इंगलिश पढ़ाने वाले आते थे और एक गाने के लिए। चार टीचरों का काम करने से घबड़ा जाते थे, बच्चे तो थे ही, तो इसलिए हमने कहा, हम पढ़ेंगे नहीं, गायेंगे। इस पर मेरी माँ बहुत नारा$ज हुई थीं कि गाना ही गाना सीखेगी, पता नहीं इसका गाना चलेगा कि नहीं चलेगा, पता नहीं क्या, आ आ करवाते रहते हैं दिन भर। तो माँ-पिताजी में कभी-कभी ये भी हो जाता था कि लडक़ी को खाना बनाना, घर गृहस्थी सम्हालना, ये सब भी बताना चाहिए, तो इस पर पिताजी ने कहा, नहीं, ये कुछ और ही लडक़ी हुई है हमको, इसलिए सुबह को जब हमें ले जाते थे टहलने के लिए पिताजी, तो चार बजे, साढ़े चार बजे उठकर पाँच बजे हम लोग जाते थे टहलने के लिए। उस $जमाने में पिताजी ने हमें फिर घोड़ा चलाना सिखा दिया, स्वीमिंग करना सिखा दिया, लाठी चलाना सिखा दिया, याने एक तरह से पूरी बहादुरी और पूरा संगीतमय जीवन उन्होंने कर दिया था।
तो वो जो असर पड़ा था मेरे सिर पर, तो वो उतरने का नाम ही नहीं लिया। फिर उसके बाद शादी हो जाने के बाद बच्चे को सम्हालें, क्या करें, तो बेबी एक साल की हुई तब इसको माँ के पास छोड़ करके मैं चली गयी सारनाथ। एक बगीचे में जहाँ कि मैं तीन बजे रात को उठ करके, नहा-धो करके सात बजे तक रिया$ज करती थी। फिर उसके बाद नाश्ता-वाश्ता बना करके, खाना-वाना बना करके, एक मेरे साथ नेपाली नौकर था, एक आया खाना बनाने वाली थी, हम तीन जने ही जाकर वहाँ रहते थे और बच्चे को रो$ज बुला के, देख-दाख करके छोड़ देते थे। इस तरह से हमारा जीवन चला। पति भी हमारे रात को वहाँ चले जाते थे और गुरु भी जाते थे। तो वो लोग एक क मरे मेें, मने, वरण्डा था, वहाँ सोते थे और कमरे में मैं रहती थी। उस समय बिजली भी नहीं थी और हम लोगों को लालटेन जला करके रहना पड़ता था, सारनाथ में। ये बात मैं बता रही हूँ आपको करीब, पैंसठ साल तो हो ही गया, हाँ तेरसठ-चौंसठ साल पहले की बात है। उस समय बनारस में बिजली आ गयी थी परन्तु सारनाथ तरफ नहीं थी। तो इस तरह से एक बरस वहाँ पर, जिसको कहिए कि हमने अपने को बन्द कर लिया था। न किसी से मिलना, न जुलना। खाली संगीत का अध्ययन। फिर गुरु जी हमारे बैठ के सिखा देते थे। फिर वो लोग रिक्शे में चले आते थे शहर फिर मैं दिन को तीन बजे उठकर रिया$ज करती थी। शाम को गुरु जी फिर आते थे, तब रात आठ बजे से लेकर दस बजे तक उनका रिया$ज, इस तरह से छ: - सात घण्टे का रियाज चलता था।
इलाहाबाद के रेडियो स्टेशन में पहला प्रोग्राम
फिर जब मैं घर आयी तो सारी गिरस्ती पड़ गयी मेरे ऊपर। मेरे भाई, बहनें, ये सब कोई और रिश्तेदार-नातेदार, शादी - बयाह सभी मे हिस्सा लेना था लेकिन मैं संगीत के लिए अपना टाइम निकाल लेती थी। इतना सब करते-करते, फिर फॉट्टीनाइन में इलाहाबाद रेडियो स्टेशन बना तो उसमे मैंने पहला प्रोग्राम दिया, तो उस जमाने में ऐसा नहीं था, कि ए ग्रेड मिले, बी ग्रेड मिले, सी ग्रेड मिले। ग्रेडेशन का ऐसा कुछ था ही नहीं। सामने ही स्टेशन डायरेक्टर वगैरह बैठे थे, सुनकर ही वो लोग कर देते थे, तो फिर मुझको रैंक वैसा ही दिया जैसे बिस्मिल्लाह भाई, सिद्धेश्वरी देवी और रसूलन बाई का, हरिशंकर मिश्रा जी का, जो लोग गायक वगैरह थे, उन्हीं के ग्रेड में। क्योंकि पता इस तरह से लगा कि जो चेक उन्हें मिलता था, वो ही चेक हमें मिलता था। तो इस तरह पता लगा कि नबबे रुपया उनकी फीस थी तो नबबे रुपया मुझे भी मिल गयी। फस्र्ट क्लास उन्हें भी तीन मिला, हमें भी तीन मिला। तो एक बराबर, समझ में आया कि उन लोगों ने किया था। तो कोई बात नहीं थी, सब भगवान की, गुरु की कृपा थी, मिला, मिला। तो फॉट्टीनाइन से मैंने इलाहाबाद रेडियो स्टेशन से गाना शुरू किया।
फिफ्टीवन में मैंने पहला कान्फ्रेन्स आरा में किया। बिहार में आरा एक जगह है, पटना, आरा। तो आरा में जब मैंने वहाँ पर गाया तो बहुत बड़ी बात ये हुई कि एक तो खुले पण्डाल में हो रहा था प्रोग्राम और दूसरे पण्डित ओंकारनाथ जी आने वाले थे बनारस से, उस समय वहीं थे यूनिवर्सिटी में पण्डित ओंकारनाथ जी ठाकुर, तो वो आने वाले थे लेकिन उनकी गाड़ी बीच रास्ते में खराब हो गयी और सुबह उनका प्रोग्राम था ग्यारह बजे से। तो वो नहीं आये और उस जगह हमको बिठा दिया लोगों ने गाने के लिए। इतनी पबलिक आयी थी उनके नाम से कि कह नहीं सक ते, सिर दिख रहा था आदमी का, पता नहीं लग रहा था कितने भरे हुए लोग हैं। तो उस वक्त मैंने जो गाना गाया वहाँ पर। करीब डेढ़ से पौने दो घण्टे मैंने गाना गाया, ख्य़ाल गायी, टप्पा गाया, उसके बाद ठुमरी गायी मगर उसी दिन पहली बार मैंने बाबुल मोरा नैहर छूटो जाये, गाया था, तब से लेकर लगातार उसको कितनी ही बार गया। आज तक लोग पूछते हैं मगर अब मैंने उसे गाना बन्द कर दिया है। गाते-गाते हद्द हो गयी, वो जन गण मन हो गया था मेरे लिए (हँसती हैं) बाबुल मोरा नैहर छूटो जाये। इसलिए वहाँ गायी इक्यावन दिसम्बर में और जनवरी में बनारस में हुआ सन बावन में। तो वहाँ पर हमारे पति ही इसके पे्रसीडेण्ट थे और सारे बड़े लोग जितने वहाँ के थे, सारे मिल कर के इसको किए थे और तीन दिन का कॉन्फ्रेन्स था जिसमें केसर बाई, पण्डित ओंकारनाथ ठाकुर, पटवर्धन जी, डी वी पलुस्कर, पण्डित रविशंकर जी, अली अकबर खाँ, उस्ताद विलायत खाँ, मने कौन ऐसा नहीं बचा था सितारा देवी, गोपीकृष्ण मने कोई ऐसा, सिद्धेश्वरी देवी, रसूलन बाई, बिस्मिल्ला भाई जितने लोग थे सब भरे हुए थे उसमें और उसमेें मैंने पहला गाना गाया जनवरी में।
डॉ राधाकृष्णन ने फरमाइश की, एक ठुमरी और ..............
पण्डित रविशंकर जी उस समय रेडियो में थे दिल्ली के। तो उन्होंने जाकर जिकर किया, एक होता था कॉन्स्टेशन क्लब का प्रोग्राम तालकटोरा में, तालकटोरा गार्डन में, उसको करने वाली थीं पटौदी, बेगम पटौदी और सुमित्रा, शीला भरतराम, नैना देवी इन सबने मिलकर उसे बनाया था और निर्मला जोशी, डॉ जोशी की लडक़ी थी, वो ही सेकेट्री थीं। तो किसी तरह उन लोगों को मालूमात हुई तो मुझे बुलाया। मैं भी पहली बार दिल्ली गयी मार्च में और पलुस्कर जी भी पहली बार गये, बड़े गुलाम अली खाँ साहब पहली बार गये। शायद है कि कहीं वो पत्रिका पड़ी होगी मेरे पास। फस्र्ट टाइम था मेरा। तो वहाँ पर सारे राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री पण्डित जवाहरलाल नेहरु जी सब लोग आने वाले थे। लेकिन उन लोगों को तो काम हो गया तो वो लोग नहीं आये लेकिन उपराष्ट्रपति जी आये डॉ राधाकृष्णन। बाकी सारे पट्टाभिसीतारमैया, सुचेता कृपलानी जितने भी थे सारे उन लोग के लिए एक घण्टे का प्रोग्राम वो लोग करती थीं। फिर रात साढ़े नौ बजे से एक-दो बजे तक चलता था उन लोग का प्रोग्राम। तो उसमें मुझे और डी वी पलुस्कर साहब को और बिस्मिल्लाह खाँ साहब को बीस-बीस मिनट टाइम मिला। कहा गया बीस-बीस मिनट सब लोग गा लीजिए। तो पहले बिस्मिल्लाह खाँ साहब ने बजाया फिर डी वी पलुस्कर साहब ने गाया उसके बाद हमें गाना पड़ा। तो जब हमें गाना पड़ा तो पण्डित जी ने कहा, रविशंकर जी जिनको हम दादा बोलते हैं, हम बोले क्या गायें, वो बजा लिए राग-रागिनी, वो गा दिए ख्य़ाल बीस मिनट में मध्य लय का, तो वो बोले तुम पाँच मिनट टप्पा गा दो और पन्द्रह मिनट की ठुमरी। तो हमने कहा, ठीक है, चलिए, अइसइ गा देते हैं। तो मैंने पाँच-छ: मिनट का टप्पा गाया, उस समय तो बहुत तैयारी थी और यंग एज था तो टप्पा गाया और फिर ठुमरी गा लिया और मैंने करीब दो-तीन मिनट पहले ही खतम कर दिया, कि वो लोग न कहें कि खतम करो। शुरू से मेरी आदत थी कि कोई न, न करे हमें। हम हट जाएँ लेकिन हम न नहीं सुनना चाहते। तो इसलिए हमने सत्रह-अठारह मिनट में खतम कर दिया तब तक डॉ राधाकृष्णन ने आदमी भेजा कि हमें एक और ठुमरी सुननी है। तो मैं बोल्ड तो थी क्योंकि मैं तमाम ये घोड़ा चढऩा, ये करना, लडक़ों के जैसा काम करना, सबके ऊपर अपना रुआब जमाये रहती थी। तो मैं स्टेज से बोली कि मैं गाऊँगी $जरूर मगर ऐसा न हो कि बीच में से उठ जाइएगा आप लोग (हँसती हैं) । तो वो थोड़ा हँस दिए फिर कहने लगे, नहीं। तो मैंने कुछ आधा घण्टा एक और ठुमरी गायी। एक ठुमरी मैंने आधा घण्टा गायी। तो उस समय सारे पत्रकार लोग एकदम सक्रिय हो गये। सबने फिर लिखा। पेपर में आ गया। तो पहला आरा, दूसरा बनारस, तीसरा दिल्ली में मैंने गाया।
सात समुंदर पार तक शिष्य परम्परा की अमरबेल
इसके बाद तो भगवान की कृपा थी। सब जगह मैंने गाया। हिन्दुस्तान में ऐसी कोई जगह नहीं, जहाँ मैंने न गाया हो। विदेशों में भी गयी, विदेशों में भी लोगों ने मेरा देखरेख अच्छी तरह से किया। बहुत इज्जत दिया वहाँ पर भी। कई शिष्याएँ भी हो गयीं वहाँ पर भी जो अपने एन आय आर थे, उन लोगों में भी। इस तरह से तो मेरे संगीत का जीवन चलता रहा मगर संगीत में सबसे बड़ी बात है कि एक तो गुरु को बहुत इज्जत देकर के क्योंकि माँ-पिताजी जन्म देते हैं। पहला गुरु तो माँ ही है जो हमें बात करना सिखाती है, जो ये सिखाती है कि ये माँ है, ये तुम्हारे चाचाजी हैं, पिताजी हैं, काकाजी हैं, इसके बाद के मेरे ज्ञान के गुरु जो थे वे मेरे दादा गुरु जी थे और मेरे पिताजी ने मुझे बहुत सम्हाल करके रखा मगर हम लोग क्या, बहुत छोटेपन में ही शादी हो जाती थी, सोलह-सत्रह की उमर में, शादी हो गयी तो मेरी एक बेबी भी हो गयी अठारह साल की उमर में तो इस व$जह से थोड़ा रुक गया था, मगर इसके बाद फिर मैंने बहुत तबियत से गाना-वाना गाकर के मुकाम बनाया। बस भगवान को याद करके, अपने गुरु को याद करके, बड़ों को याद करके आज तक संगीत का मेरा सफर चला आ रहा है। और ऐसे भी मेरे कई शिष्यों, मतलब ज्य़ादा नहीं दस-पन्द्रह हैं क्योंकि अभी मुझ ही को जानकारी लेने से फुर्सत नहीं मिलती, मेरे रिया$ज से फुर्सत नहीं मिलती। हम कहाँ तक दे सकें लेकिन आई टी सी संगीत रिसर्च एकेडमी ने एक बनाया कलकतते में 1977 में। उसमे वे लोग मुझे ले गये बनारस घराना की वज़ह से और वहाँ पर भी मैंने तीन-चार शिष्यों को बनाया। अच्छी गाती हैं वो लोग क्योंकि हर गुरु को तीन शिष्य मिलते थे। एक तो मेरे गुरु जी का लडक़ा ही गया था। मेरे गुरु जी की डेथ हो गयी थी, दूसरे वाले, उनका लडक़ा। दो वहाँ से मिले थे लेकिन मेरे गुरु जी का लडक़ा था, एक ही लडक़ा था, चला आया था घर वापस। दूसरी की डेथ हो गयी, तीसरी गाती है।
फिर उसके बाद मैं हिन्दू यूनिवर्सिटी में आयी। वहाँ एज़ ए विजीटिंग प्रोफेसर मैं दो साल थी और फिर उसके बाद घर में ही और फिर प्रोग्राम वगैरह अमेरिका, लन्दन, इधर-उधर जाने में ही बहुत टाइम लग जाता है। दो-दो महीने, डेढ़-डेढ़ महीने वहाँ का प्रोग्राम सब रहता था। फिर इसके बाद मैं घर में सिखाती थी बच्चों को। लेकिन वाराणसी मे मुझे शिष्य कुछ अच्छे नहीं मिले। जैसा कि मैंने कलकतते मे देखा शिष्य, तो उनको बहुत ज्य़ादा लालसा होती थी कि संगीतज्ञ बनें, चाहें वो सरोद हो, सितार हो, तबला हो, गाना हो, कुछ भी हो। वहाँ लड़कियाँ सुरीली, समझदार, अच्छी तरह से इसीलिए मैंने कलकतते में ही अपना एक और घर बना लिया। बनारस में तो ही मेरा घर, अभी तक है मेरा घर। मैं हर दो-तीन महीने में जाती हूँ बनारस। लेकिन कलकत्ते मे मैं चली आयी क्योंकि मेरी एक ही बेटी है। उसी शादी कलकतते में हुई थी। हमारी देखरेख के हिसाब से भी हम चले आये क्योंकि हमारे पति की डेथ हो गयी थी सेवन्टीफाइव में और सेवन्टीसेवन में मैं चली आयी थी कलकतते। तब से वहीं रहती हूँ बस आना-जाना लगा रहता है। कलकतते में मुझे चार-पाँच शिष्य बहुत अच्छे मिले। उनको मैंने बहुत प्रेम से सिखाया और गाते भी बहुत अच्छे हैं। वक्त आने पर सबका नाम बताएँगे क्योंकि एक शिष्य का नाम बता दें तो दूसरे शिष्य दुखी होते हैं कि मेरा नाम क्यों नहीं लिया, तो इसलिए। बड़े अच्छे शिष्य तैयार हो रहे हैं और पूरा गायकी हमारे घराने की, बनारस घराने की , सेनिया घराना। जितना ख्य़ाल अंग और ये सब है और बनारस का भी उसमें अंग है ख्य़ाल गाने का, वो मैंने तो याद किया लेकिन इसके बाद टप्पा, तत्कार, सदरा, तराना, ध्रुपद, धमार फिर आपके ठुमरी और होली, चैती, कजरी, झूला ये सब मैंने वहाँ पर सीखा।
हमें शौक था शादियों के गीत, बच्चा होने के गीत इन सबका, हमे बचपन मे गुड्डा-गुडिय़ों की शादियाँ करने का शौक बहुत था। इसमें गुरु माँ के घर की लड़कियों को और अपने दोस्तों को बुला के ढोलक पर उनका गाना सुनती थी और सबको खाना खिलाती थी। मुझे खाना खिलाने का बहुत शौक है। तो वो सब मेरा बचपन से ही चला आया। उसको कोई रोक नहीं सका। और मैं खाना बनाती हँू चार आदमी का और आठ आदमी को बुला लिया, आओ मेरे साथ खाना खाओ, कुछ इस तरह का रहा है मेरा। और न ही मेरा कोई सिनेमा देखने का शौक है, न ही कोई क्लब, न ही ये सब करने का शौक नहीं था। एक भारतीय स्त्री को जो वास्तव में जरूरत है, वो चीजें मुझे मेरे घर से, लोगों के यहाँ देखने से, मेरे गुरु घराने से, वो ची$ज में मैं पली और बढ़ी। मगर जब बाहर गयी तो वहाँ का भी देखा कि कैसे फॉरेन में लोग रहते हैं, जाते हैं लेकिन मेरी जो चाल थी, उसमें उनकी तरह वैसा कुछ भी मैंने आने नहीं दिया। अपना पहरावा-ओढ़ावा, खान-पान, बातचीत सब कुछ इस तरह से किया जो मेरा अपना संस्कार था। ऐसे दस-बार शिष्य अमेरिका, लन्दन, न्यू जर्सी में हैं, फ्रांस और इटली में भी हैं, लेकिन बहुत कायदे से, मैंने कहा कि सा रे गा मा से शुरू करके तुम्हारी नींव मजबूत करें फिर तुम्हें अच्छी तरह से बना सकते हैं हम। तो दो-तीन लड़कियाँ अच्छी हैं और खुद भी टीचिंग कर रही हैं अभी।
फिफ्टीवन से दो हजार सात तक..........
तो ये सब भगवान की और गुरु की कृपा है और मेरे बड़ों का आशीर्वाद है कि जो चला आ रहा है अभी तक पचपन-छप्पन साल हो गये। मैं तो आज भी जब भी श्रोताओं के सामने जाती हूँ, तो मुझे लगता है कि ये श्रोता नहीं हैं बल्कि भगवान ने जो बनाया है, ईश्वर के सारे रूप यहाँ बैठे हुए हैं और मैं आँख बन्द करके भगवान और अपने गुरु का स्मरण करके गाती हूँ। लेकिन हर चीज का एक समय है। जैसे आज मैं डेढ़ घण्टे बैठकर यमन कल्याण गाऊँ तो कुछ लोग आते हैं टिकिट लेकर के टप्पा सुनने को, कुछ लोग आते हैं ख्य़ाल सुनने को, कुछ लोग आते हैं ठुमरी सुनने को, कुछ लोग आते हैं दादरा सुनने, कुछ लोग आते हैं लोकगीत सुनने, कुछ लोग भजन सुनने आते हैं तो हम पहले ही ऑर्गेनाइजर से पूछ लेते हैं कि भई हमें समय कितना है, उन्होंने कहा कि डेढ़ घण्टा तो हम आधे घण्टे, चालीस मिनट में ख्य़ाल थोड़ा कम्पलीट जैसा मेरे गुरु ने सिखाया वैसा ही मैं गा देती हूँ। उसके बाद पन्द्रह मिनट एक ठुमरी, दस मिनट वो, पाँच मिनट वो करके उनका डेढ़ घण्टा मैं पूरा कर देती थी कि लगता ही नहीं था कि समय कहाँ चला जाता है। लोग तब और सुनने की फरमाइश करते थे। हम समय की बहुत इज्ज़त करते हैं। अगर आपने हमको पाँच बजे का समय दिया गाने के लिए तैयार रहने के लिए तो हम चार चालीस पर तैयार होकर के खड़े रहेंगे। इतनी समय की पाबन्दी मुझे हो गयी है। समय की कदर करना चाहिए क्योंकि जो समय चला जाता है फिर वापिस नहीं आता।
नयी सदी की संस्कृति
ये सब बातें और हिन्दी के बड़े-बड़े लोगों की कहानियाँ, कविताएँ ये सब पढ़ती थी, इसलिए मुझे हिन्दी साहित्य से बहुत ही लगाव है। उसके बाद बंगाल के लोग, महाराष्ट्र के लोग, उनके बारे में जैसे रवीन्द्रनाथ ठाकुर के बारे में, काजी नजरूल के बारे में जानते हैं और इन लोगों की कविताएँ सुनते हैं तो मुझे बहुत पसन्द आती हैं। महाराष्ट्र में भी इतने लोग हुए हैं, मराठी गाना, मराठी ड्रामा सब मैंने देखा, समझ में नहीं आता था तो पूछ लेते थे। इसलिए हर जगह की अपनी-अपनी एक वेल्यू है और हर जगह में ही विद्वान लोग हैं। मगर अब क्या हो गया है, पहले की फिल्म के, या ऐसे भी ग$जल, कव्वाली सब होती थी मगर तब उसकी इज्ज़त और सम्मान रखकर लोग बैठते थे। आज न वो ग$जल में ची$ज रह गयी, न कव्वाली में, न वो फिल्म संगीत में। इतना कुछ, ज्य़ादा ही कुछ हटता जा रहा है साहित्य से कि कुरता फाड़ के देख लो, कि कऊआ बोल रहा है, और कोई शबद नहीं मिल रहा है सबको कि कोयल बोलती है, मोर बोल रहा है, ये सब नहीं। तो इसलिए दुख भी लगता है कि बहुत दुनिया बदलती चली जा रही है। उस जमाने में कॉन्फ्रेन्स शुरू होती थी रात को नौ बजे तो सुबह पाँच बजे-छ: बजे खत्म करते थे। पूरे रात हम लोग देखते थे उसको। मगर आज तो रात को नौ बजे भी निकलने मे डर लगता है कि कोई छीना-झपटी न कर दे, कोई कुछ न कह दे। फिर हम तो गाड़ी में जा रहे हैं लेकिन सबके पास तो गाडिय़ाँ नहीं हैं। कोई रिकशे से जा रहा है, कोई मोटर साइकिल से, कोई साइकिल से। तो इस समय इतनी ज्य़ादा घबराहट हो गयी है कि रात का प्रोग्राम नौ-साढ़े नौ बजे तक लोग बन्द कर देते हैं।
गुरु-शिष्य परम्परा : धीरज और बाजार
आजकल के गुरु को, हम शिकायत नहीं कर रहे हैं, जो शिष्य हैं वो भी चाहते हैं कि हमें इतना जल्दी सिखा दें कि हम एकदम टॉप पर पहुँच जाएँ। टेलीवि$जन और रेडियो, कॉन्फ्रेन्स सब गाएँ और गुरु सोचता है कि इसको फँसाकर रखो कि इससे पाँच सौ-ह$जार सिटिंग का जो मिलता है वो बन्द न हो जाए। दोनों में बन नहीं रही है। लेकिन अभी भी अगर खोजा जाए हिन्दुस्तान में, तो दस-बीस अच्छे गुरु मिल सकते हैं जो कि बैठकर के बच्चों को आगे बढ़ाने का जैसा हौंसला मैं किए हूँ कि दस-बीस बच्चे भी हमारे अच्छे निकल जाएँ तो वे सौ अच्छे शिष्य तैयार कर सकेेंगे, ह$जार शिष्य तैयार कर सकेंगे। हम लोग ऐसे अपने दस ही शिष्य बनाएँ तो बहुत है। मगर खाली अपने बच्चों को सिखाकर, अपने परिवार को सिखाकर कला को बांध लेना उचित नहीं है। देखिए, तकदीर भी कोई ची$ज होती है। ईश्वर की कृपा हो, गुरु की कृपा हो, उसकी तकदीर भी होना चाहिए। माँ जन्म देती है लेकिन कर्मदाता नहीं होती, वो जन्मदाता है। तो इसीलिए कितना भी गुरु कर दे, कोई-कोई गुरु इतने तकदीर वाले होते हैं कि जैसे केलूचरण महापात्र। जितनी भी शिष्याएँ निकली हैं, जितने भी शिष्य निकले हैं सबने नाम किया, चाहें संयुक्ता पाणिग्रही हों, चाहें प्रोतिमा बेदी हों, चाहें कुमकुम मोहन्ती हों, चाहें उनका बेटा हो शिबू, और वो क्या नाम है, डोना, वो क्रिकेट खेलते हैं सौरव, उनकी पत्नी, सारे बच्चे लोग अच्छा डांस कर रहे हैं। ऐसे गुरु भी जिनका कि भाग्य हो, ऐसे शिष्य उनका नाम रोशन करें, भाग्यवान हैं। हमारे पण्डित बिरजू महाराज के भी अनेक शिष्य हैं। बहुत अच्छे शिष्य निकले उनके, बहुत अच्छा कर भी रहे हैं वो। अब गायन मे पण्डित ओंकारनाथ जी के शिष्य हैं, वो लोग सर्विस में चले गये क्योंकि उनको रुपया मिल जाता है उनके खर्च के लिए, पन्द्रह हजार-बीस हजार। और आजकल मँहगाई इतनी बढ़ गयी है, कि घर का किराया ले लीजिए, कि घर का खाना ले लीजिए, कि बच्चों की पढ़ाई ले लीजिए, सब इतना ज्य़ादा हो गया है कि वो लोग कड़ी से कड़ी मेहनत करके घर को चलाते भी हैं और उसी मे शिक्षा भी देते हैं। मैं बुरा नहीं कहती हूँ शिक्षकों को, उनकी भी अपनी बहुत $जरूरतें हैं। हर लोग तो लाख रुपया, दो लाख रुपया नहीं ले सकता या पाँच लाख रुपया लेकिन जो लोग बहुत अच्छे हो गये हैं जिनके पास करोड़ों सम्पतित है, उन लोगों को आज जो भारतीय संगीत की इज्ज़त दब रही है, जो माहौल है, ऐसा चलेगा, उतने ही बच्चे हमारे बरबाद होंगे। उन्हे अच्छी ची$ज सुनाने-सुनने का मौका मिलना चाहिए। जैसा कि स्पिक मैके कर रहा है, यूनिवर्सिटीज और स्कूल में, कॉलेज मे प्रोग्राम करते हैं, बहुत अच्छा लेक्चर डिमॉस्ट्रेशन देना, उन्हें समझाना, वैसा हम लोग प्रयत्न कर रहे हैं कि ऐसी कोई और भी संस्था बनना चाहिए जिसमें लोग वर्कशॉप करवाएँ, चाहें भोपाल हो, इन्दौर हो, मुम्बई हो। मैंने भी वर्कशॉप किया, मुम्बई में जाकर नेहरु सेंटर में। सभी लोग आए, बच्चियाँ भी, आरती अंकलीकर से लेकर अश्विनी भिड़े भी, पद्मा तलवलकर, सब लोग आये, बहुत लोग आये मगर सात दिन के अन्दर, पाँच दिन के अन्दर हम कितनी ची$जें उन्हें बता सकते हैं। गायकी का रूप या भाव नहीं बता सकते जब तक बैठकर कुछ दिन नहीं सीखेंगे। यदि रेकॉर्ड से सीखेंगे तो भी मैं कैसे उसको कहती हूँ, यह थोड़ी पता लग पायेगा। तो बच्चों को गवर्नमेेंट हेल्प करे या कम्पनी$ज हेल्प करेें क्योंकि देखिएगा, एक गुरु को भी तो कुछ चाहिए। फ्री तो आ नहीं सकते। अपना खर्चा-वर्चा लगा के आएँ, उनको रहने का, सात-आठ दिन का जैसा, उनकी इज्ज़त हो, उसके ऊपर तो खर्च होगा लेकिन वो बच्चे जो सीखेंगे, कुछ सार्थक रहेगा। इसके ऊपर ध्यान देना चाहिए। सीखने-सिखाने वाले सब लोगों को अच्छी राह दिखानी चाहिए, अच्छी राह पर चलना चाहिए।
पिताजी की याद.......
बाबू रामदास राय मेरे पिताजी का नाम था। मेरे पिताजी तो हर बखत याद आते हैं। हम लोग गाँव में रहते थे। जमींदारी थी, थोड़े हिस्से की। आधी हमारी और आधी हमारे रिश्तेदारों की जो दादा-परदादा के जमाने से चली आ रही थी। बाद में पिताजी वो सब हमारे परिवार में रखकर के बनारस चले आये थे। काशी आने के बाद ही हमारे घर में गाने-बजाने का माहौल बना। पहले पापा ने सीखा, मेरे को भी आ गया। तो पापा की तो हर बखत याद आती है। जिस समय मैंने सीखा उस समय वो कठिन दौर निकल चुका था जब लड़कियों को गाने-बजाने से रोका जाता था। पण्डित मदन मोहन मालवीय की बेटियाँ सीख रही थीं, इधर महाराष्ट्र में लोग निकल गये थे हीराबाई बड़ोदेकर, केसर बाई, गंगूबाई हंगल ये लोग निकल चुकी थीं। सिद्धेश्वरी देवी भी गा रही थीं लेकिन ये लोग राज दरबार में भी गाती थीं मगर मेरे पिताजी ने और मेरे पति ने कहा, नहीं, हम राज दरबार में नहीं गाएँगे। चाहें वो लाखों दे देते, करोड़ों दे देते, नहीं जाते।
कलाकार का सच्चा धर्म
एक कलाकार का सच्चा धर्म यही है कि वो अपनी सत्यता को न छोड़े। सत्य का जीवन में पालन करे। जहाँ तक हो सके, हम यह नहीं कहते कि कृष्ण, राम सब सामने खड़े हैं लेकिन मैं उन्हें मानसिक रूप से मानती हूँ। उनका जो रूप है उसकी मैं पूजा करती हूँ क्योंकि उन्होंने बहुत बड़ा कार्य किया है। वो मोक्ष दिए कि नहीं दिए लेकिन इतने बड़े हो गये हैं कि उन्हें हमें मानना पड़ता है। उनकी बातों को अपने शास्त्रों के अनुसार अपनी रामायण में, अपनी गीता में जो पढ़ते हैं तो कुछ तो किया है उन्होंने। ऐसे तो कोई निकालेगा नहीं उनकी किताबें। चाहे हिन्दू हों या मुसलमान हों, पहले हम लोगों में कितना मेल था, इतना मेल रहता था, आज के जीवन में देखिए छोटी-छोटी सी बात पर कटुता बढ़ती चली जा रही है। पहले उस्ताद लोग भी बहुत ही सीधे थे और बहुत ही सच्चे थे। जिसको भी वे सचमुच मानते थे कि ये लडक़ा या लडक़ी ठीक है, उसे आशीर्वाद देते थे नहीं तो उसको तुरन्त कहते थे कि न, अभी तुम बाहर जाने लायक नहीं हो। अभी तुम गुरु या उस्ताद से सीखो। ये ची$ज ठीक करो, वो तुम्हारी तानें ठीक नहीं हैं, स्वर सही नहीं हैं, ताल ठीक नहीं है, ये सब वो लोग बताते थे। आज किसी बच्चे को कह दो तो वो कहेगा, वाह, मैं कोई खराब थोड़े ही हूँ, मैं तो बढिय़ा हूँ। ऐसे में कौन बोलेगा भला, झगड़ा मोल लेगा। भाई आप जानिए, आपका काम जाने। तो इस तरह से चलता है ये समाज, ये दुनिया। कुछ न कुछ ऋतु बदलती रहती है।
ईश्वर के बारे में
भइया ईश्वर के बारे में तो बहुत..........हम तो हर बखत उनको याद करते हैं। थोड़ा मेडिटेशन, खरज, ऊँकार मेरा तो संगीत ही पूजा है। उसी से मैं उन्हें सजाती हूँ, उसी से फूल चढ़ाती हूँ और न मेरे पास फूल है न पत्ती है। उनका तो हर वक्त हृदय में वास रहता है, जैसे माँ सरस्वती हैं, शिव हैं मेरे आराध्य, उनका ध्यान तो रखना ही पड़ता है।
दुनिया को कैसे खूबसूरत बनाया जा सकता है?
दुनिया को खूबसूरत बनाया जा सकता है, कि सब लोग बहुत प्यार-मोहबबत के आदमी हो जाएँ, बहुत सच्चाई आ जाए सबमें और बहुत शालीनता, खासकर के लड़कियों में भी और लडक़ों में भी। उद्दण्ड रहकर के दुनिया को बिगाडऩा ठीक नहीं है। उद्दण्डता कभी ठीक नहीं रही है क्योंकि मैंने सुना है कि जो उद्दण्ड होते थे वो मार दिए जाते थे या खतम कर दिए जाते थे या जेल बन्द कर दिया जाता था। जैसे कंस हुए। हुआ कि नहीं उनका खात्मा। कृष्ण ने किया जिनके वे मामा थे। लेकिन ये नहीं है कि कृष्ण सखियों के साथ दौड़े भी, रासलीला भी किया, खेल भी किए मगर आन्तरिक उनका ये था कि सबको अपने में बुला रहे हैं, अपने पास बुला रहे हैं। मतलब यही था कि मेरे में वो हो जाएँ। तो आपमे, हमारे में सब जगह तो भगवान बसे हुए हैं फिर क्यों लोग एक दूसरे के शत्रु इस तरह से बनते जा रहे हैं? दुनिया को खूबसूरत बनाना है तो सबको एक ही विचार ले करके चलना होगा, चाहे वो किसी भी जाति के हों। मैं यह नहीं कहती कि अमीर और गरीब पहले भी रहे हैं। क्या राम के वक्त धोबी, नाई नहीं था? क्या वो पालकी उठाने वाला आदमी नहीं था? क्या वो राजा बन जाता था? नहीं। राजा राज करते थे, प्रजा को देखते थे और प्रजा को अपना बेटा, अपनी बेटी, अपनी सन्तान मानते थे पर आज के $जमाने में पहले अपने ही पास सब भर लेते हैं मगर उसके बाद खाली हाथ चले जाते हैं। वो भी बेकार है। लेकिन भगवान जब किसी को कुछ देता है तो तुम्हें भी कुछ देना चाहिए। सब लेकर नहीं जाना चाहिए और ले के जाएगा कहाँ से? हम तो खाली हाथ आये थे और खाली हाथ चले जाएँगे। कहा है न मुट्ठी बांधे आते हैं और खाली हाथ चले जाते हैं। आप देखिए छोटा बच्चा पैदा होता है तो मुट्ठियाँ उसकी बंधी होती हैं और जब जाता है आदमी तो हाथ खाली रहता है। तो अगर अच्छा काम करके हम जाएँगे तो सैकड़ों वर्ष हमे लोग याद रखेंगे और यदि हम किसी की बुराई, किसी का ये, किसी की चोरी, किसी का कजरा, किसी का खून, किसी को मारा तो वो बदनाम ही रह जाएगा। इसलिए सब कोई जब तक मिलेंगे नहीं, एक जने कुछ नहीं कर सकते हैं। मगर मैं तो अपने बच्चों को, श्रोताओं को अपने सामने जो होते हैं, यही कहती हूँ कि आपस का प्यार रखो अगर तुम्हें किसी से कुछ बुराई है तो मुँह पर ही बोल दो कि अच्छा नहीं लगा हमें। मन में मैल रखकर कभी जीवन चल नहीं सकता। दोस्त भी मानते हो और मैल भी रखते हो, ऐसा क्यों है? और सबमें संगीत है। आप अगर सही नहीं चलिएगा तो लुढक़ जाइएगा। लोग कहेंगे कि बेताले चल रहे हैं। अगर स्वर में नहीं बोले, बाँ बाँ बाँ बाँ किए तो सब कहेंगे बड़ा बेसुरा बोल रहा है भैया। ऐसी औरतें भी हैं और पुरुष भी हैं। तो स्वर और लय तो हर एक की जिन्दगी में है मगर उसकी खोज करना पड़ता है। अरे अभी तो एक ही जिन्दगी हमारे लिए कम है कि ठीक से जी सकें। इसके लिए कई जीवन चाहिए हमें। न मेरा रियाज ही पूरा हुआ और न मेरी शिक्षा ही पूरी हुई। मैं इसके बारे में क्या बोलूँ? जो मेरे गुरु ने बताया, जो हमारे बाप, माँ, दादा, दादी ने बताया उन्हीं की बात सार्थक है, मेरी अपनी बात तो कुछ कहने की ही नहीं है, उसके लिए तो एक जीवन और चाहिए तब शायद अपनी बात बता सकें। ये सब सुनी सी, देखी सी और सिखायी बात मैं कर रही हूँ। मेरे में कुछ नहीं है। मेरा सब कुछ अर्पण है मेरे गुरु और मेरे भगवान के ऊपर। मैं कुछ नहीं हूँ। और जो करते हैं वही करते हैं। अभी कोई बात कहना है और गला बन्द हो जाए, बोल ही न पाएँ तो कोई तो है सब करने वाला जिसको हम देख नहीं पा रहे मगर है कोई। तमाम दिमाग, आँख, नाक, कान ये सब बनाया है ईश्वर ने। जानवरों को बनाया, कितने जीव बनाए, करोड़ों जीव-जन्तु। ये किसने बनाया? उसका अगर दर्शन हो जाए, उसकी खोज हो जाए तब तो हम बोलने लायक नहीं रहेंगे। हम तो कहीं चले जाएँगे कैलाश पर्वत। फिर आप लोग हमें छू नहीं सकते, बोलना तो बड़े दूर की बात है। लेकिन जब हम जीवन में रह रहे हैं, संसार के जीवन में तो हमें सब कुछ करना पड़ता है। कभी-कभी झूठ भी बोलना पड़ता है। लोग खूब फोन करते हैं तो बेटी से कहते हैं, कह दो सो गयी हैं, कहीं चली गयीं हैं। भगवान का नाम लेते हैं दस बार कि मैंने झूठ बोल दिया। उचित नहीं है यह लेकिन क्या करें, परेशान हो जाते हैं। एक तो उमर भी हो गयी है न, इस उमर में औरतों के लिए, जबकि पचास बरस मे वो बुड्ढी हो जाती हैं, लडक़े तो साठ-पैंसठ बरस में भी लडक़े ही रह जाते हैं। ऐसा कुछ ईश्वर ने बनाया कि पचास बरस में वो बुड्ढी ही कहलाती हैं लेकिन कोई अस्सी बरस, अठहततर बरस, उन्यासी बरस में इतना साहस करके आते हैं तो इसीलिए कि हमारे लिए संगीत को सर्वोपरि रहना चाहिए। ये कभी नीचे नहीं जा सकता। हमारे लिए हमारे पिता से मिली हिम्मत सबसे बड़ी ची$ज है। यह भगवान की दी हुई है कि गुरु की दी हुई है कि पापा की दी हुई है, पता नहीं मगर मैं हिम्मत कभी नहीं हारती। मेरा तो दो साल पहले बायपास ऑपरेशन हुआ उसके बाद हम तो तीन महीने में ही चले गये थे फ्रांस, लन्दन और इटली और अमेरिका प्रोग्राम करने। तो मतलब हिम्मत रखते हैं और उसी हिम्मत से भगवान आप लोग तक हमें पहुँचाए हैं।
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