सोमवार, 6 सितंबर 2010

एक मुलाक़ात

सिर उठाकर
उनसे अक्सर कहता हूँ
एक मुलाक़ात
तुमसे हो
कहीं अपनेपन में

धूप निहारती हो तुम्हें
जब मुंदी आँखें
घिरी हों बिखरी जुल्फों से
सोयी नहीं हो मगर
नींद के बहाने लिए
चुप मन में

एक लिखी पास हो और
एक हो जाग कर
याद की हुई
चिट्ठी पढ़ देंगे या
कह देंगे
एक बार जीवन में

हम सुनेंगे धड़कनों में
चहकते पंछियों का स्वर
आ गयी आवाज़ जो
दौड़े चले जायेंगे
पीछे-पीछे वन में....

2 टिप्‍पणियां:

राजभाषा हिंदी ने कहा…

अच्छे अहसास को संजोया है इन पंक्तियों में।

हिन्दी का प्रचार राष्ट्रीयता का प्रचार है।

हिंदी और अर्थव्यवस्था, राजभाषा हिन्दी पर, पधारें

सुनील मिश्र ने कहा…

आपका आभारी हूँ.