रविवार, 26 सितंबर 2010

मेरा गाँव मेरा देश

राज खोसला की अब से लगभग चालीस साल पहले आयी फिल्म मेरा गाँव मेरा देश, कहानी, पात्रों का अभिनय, गीत-संगीत और कसे निर्देशन की वजह से खासी सफल रही थी। इस फिल्म का प्रदर्शन काल 1971 का है। यह वह समय था जब भारतीय सिनेमा के सदाबहार सुपर सितारे धर्मेन्द्र की लोकप्रियता चरम पर थी। उनकी पिछली फिल्में रामानंद सागर निर्देशित आँखें और ओ.पी. रल्हन निर्देशित फूल और पत्थर को बड़ी व्यावसायिक सफलताएँ मिली थीं और इण्डियन जेम्सबॉण्ड के रूप में धर्मेन्द्र को सिनेमा के प्रचार माध्यमों में खूब प्रचारित किया जाता था। धर्मेन्द्र की तुलना उनसे पहले के किसी सितारे से नहीं होती थी, बाद में बहुत से सितारों की तुलना उनसे जरूर की जाती थी।

मेरा गाँव मेरा देश फिल्म उस दौर में बनी थी जब चम्बल के बीहड़ों से लेकर देश के दूसरे उत्तरपूर्वी राज्यों में डाकुओं का बड़ा आतंक था। उस दौर की ऐसी फिल्मों में सुनील दत्त, विनोद खन्ना और स्वयं धर्मेन्द्र भी डाकुओं के किरदार में खूब पसन्द किए जाते थे मगर इस फिल्म में धर्मेन्द्र हीरो थे। इस फिल्म का नायक अजीत परिस्थितियों की वजह से छोटी सी उम्र से ही चोरी करने लगता है और आये दिन सजा काटता है। एक बार वह चोरी करके भाग रहा होता है, तभी एक रिटायर्ड फौजी उसे पाँव मारकर गिरा देता है और पुलिस के हवाले करता है। यही फौजी बाद में उसे छुड़ाकर अपने घर भी ले आता है और वह सुधर सके और गाँव में आये दिन बरपने वाले डाकुओं के आतंक से मुक्ति दिला सके, इस इरादे से अपने यहाँ रख लेता है।

अजीत, पहले तो फौजी से बहुत चिढ़ता है मगर धीरे-धीरे उसके मन में उसके प्रति आदर पनपता है और फौजी को वह अपने अविभावक की तरह मानने लगता है। अजीत का, गाँव की लडक़ी अंजू से प्रेम भी हो जाता है। इस गाँव में लूटमाट और हत्या के अनेक अपराध आये दिन डाकू जब्बर सिंह और उसके गिरोह के डाकू करते हैं। अजीत इन डाकुओं के खिलाफ पूरे गाँव वालों को संगठित करता है और उसका बहादुरी से मुकाबला करके उस आतंक को समाप्त करता है।

मेरा गाँव मेरा देश की एक सबसे बड़ी खासियत उसका पूर्णत: मनोरंजक होना था, वहीं भावुकता के स्पर्श भी फिल्म से दर्शकों को जोड़ते हैं। एक विक्षिप्त बुजुर्ग महिला का अजीत को बेटा मानना और बेटा कहकर बुलाना ऐसा ही प्रसंग है। नायक अजीत के नायिका अंजू को लुभाने के प्रसंग भी दिलचस्प हैं। सोना लइजा रे चांदी लइजा रे, कुछ कहता है ये सावन, मार दिया जाए या छोड़ दिया जाए गाने आज भी याद रहते हैं।

धर्मेन्द्र एक बहादुर नायक के रूप में टक्कर की मारधाड़ डाकू जब्बर सिंह बने विनोद खन्ना से करते हैं तो दर्शक सिनेमाहॉल में जमकर तालियाँ बजाया करते थे। हाँ रिटायर फौजी जसवन्त सिंह बने जयन्त का अन्दाज भी गजब प्रभावी फिल्म में नजर आता है।

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