गुरुवार, 21 अक्तूबर 2010

उल्टे पैर भागता सिनेमा

इन दिनों एक्शन रीप्ले के प्रोमो टेलीविजन चैनलों पर दिखाये जा रहे हैं जिसमें अभिनेता अक्षय कुमार गरदन तक लम्बे बालों, चुस्त पैण्ट-बेलबॉटम के साथ चटख रंगी बुशर्ट में नजर आते हैं। ऐश्वर्य उनकी हीरोइन हैं, वे भी चालीस साल पुराने सिनेमा की छबि के आसपास तैयार दीखती हैं। सत्तर के दशक के सिनेमा की याद दिलाने वाली यह एक और फिल्म है जिसे प्रचारित करते हुए, बड़े सोफेस्टिकेटेड वे में कहा जाता है, ये सेवंटीज़ की फिल्मों की याद दिलाने वाली फिल्म है। क्या दिलचस्प अन्दाज है, फिल्म कॉमेडी है, चालीस साल पुराने वातावरण को याद किया गया है, आज की आधुनिकता को धकेल कर चालीस साल पहले के बदलते जमाने को दिखाया गया है, गोया अब यह असुरक्षित और अन्देशे से भरे सिनेमा के नियति सी हो गयी है।

सेवंटीज़ का सिनेमा, याद दिलाया जा रहा है, आपका, हम सबका मुँह मोडक़र पीछे की तरफ घुमाया जा रहा है। सबसे पहला इस तरह का उपक्रम फराह खान ने किया था ओम शान्ति ओम बनाकर। शाहरुख खान की फिल्म थी। पैसा भरपूर खर्चने की पूरी आजादी थी। किंग खान का वक्त उससे पहले जरा कठिन सा चल रहा था और फराह को इस कठिन समय में समर्थन देकर वे अपने लिए भी आने वाले समय को लेकर उम्मीद से हो गये थे। फिल्म चल गयी और सत्तर के दशक का शिगूफा कामयाब हो गया। बीच में ऐसा प्रयोग किसी और ने नहीं करना चाहा क्योंकि यह फार्मूला सदा काम आयेगा, इसका विश्वास किसी को नहीं था। अभी दो महीने के भीतर दो ऐसी फिल्में इसी सेवंटीज, पैटर्न की एकदम से आयीं और सफल हो गयीं जिनमें से एक तो सलमान की फिल्म दबंग थी और दूसरी अजय देवगन की फिल्म वन्स अपॉन टाइम एट मुम्बई।

दबंग की सफलता ने सचमुच अचम्भा खड़ा किया, खासकर बॉक्स ऑफिस पर बेपनाम कलेक्शन के साथ। दबंग के साथ बात यह थी कि वह मँहगी बनी भी थी, सो पूरब की कहावत की तरह जितना गुड़ डाला उतनी ही वो मिठाई भी। वन्स अपॉन टाइम एट मुम्बई की सफलता में आश्चर्य यह था कि वह बहुप्रचारित नहीं थी और उन एकता कपूर की फिल्म थी जिनके सितारे सीरियल से लेकर सिनेमा तक बड़े गर्दिश में चल रहे हैं। उनके लिए इस फिल्म की सफलता का बड़ा अर्थ निकला। अब हम चौथी सेवंटीज़ पैटर्न की फिल्म एक्शन रीप्ले कुछ दिन में देखेंगे जिनमें हिप्पीनुमा हीरो है। विपुल शाह की यह फिल्म है, वे भी खासे खर्चीले हैं और अक्षय उनके लिए लकी भी।

अगर यह भी चल गयी तो फिर जल्दी ही भेड़चाल मचने में देर न लगे शायद। जहाँ तक हम दर्शकों का सवाल है, हम सिनेमा को गुजिश्ता वक्त की तरफ उल्टे पैर भागता देख कर अचरज ही कर सकते हैं, और क्या?

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