मंगलवार, 2 नवंबर 2010

फिल्मों का चलना, न चलना

फिल्मों की सफलता की स्थितियों में जितना असमंजस पिछले पन्द्रह बीस सालों में दिखायी देता है, वैसा उसके पहले कभी नहीं था। मशहूर फिल्मकार यश चोपड़ा ने पिछले दिनों एक विशेष बातचीत में यह बात की थी कि अब फिल्मों के साथ सिनेमाघरों में दिनों तक चलने का चलन पूरी तरह समाप्त हो चला है। एक जमाना था जब खुद उनकी वक्त, दीवार, त्रिशूल और कभी-कभी जैसी फिल्मों में चलते रहने का रेकॉर्ड कायम किया था। उन्होंने यह भी बताया कि किस तरह उनके बेटे आदित्य चोपड़ा की फिल्म दिलवाले दुल्हनियाँ ले जाएँगे, निरन्तर मुम्बई में चल रही है। आज स्थितियाँ यह हैं कि एक फिल्म का जीवन कुल मिलाकर अधिकतम दो माह भी नहीं है शायद।

दबंग जैसी सफल, सुपरहिट फिल्म खूब अच्छी ओपनिंग के बाद भी महीने भर के पहले ही सिनेमाघरों से बाहर हो गयी। जल्दी ही निर्माताओं ने उस फिल्म के डीवीडी और सीडी जारी कर दिए। चैनलों में भी वह शेड्यूल होने की स्थितियों में है। कोई भी चैनल छाती ठोंककर फिल्म एलाउंस कर सकता है। सिनेमा और उसके अस्तित्व की क्षणभंगुरता शोचनीय है। सिनेमा की स्थितियाँ भी दयनीय हैं। हमारे दर्शकों के बीच से जिस तरह सिनेमा का प्रभाव धीरे-धीरे समाप्त हुआ है, वह आश्चर्यजनक है। अब दर्शक की मनपसन्द के नायक-नायिका नहीं रहे। गाने और घटनाओं में दर्शकों को कोई आकर्षण नहीं है। किसी भी किस्म का किरदार दर्शकों को याद नहीं रहता। निर्देशक अपने नाम से पहचाना नहीं जाता।

हीरोइनों की स्थिति सबसे ज्यादा चिन्ताजनक है, जिनका कैरियर बमुश्किल दो-तीन साल का ही है। इनमें से भी पता नहीं कितनी आयटम सांग पर नाचने लगी हैं। उनके चेहरे भी अब पहचाने नहीं जाते। इनमें से कई के फोटो, अखबारों के व्यावयायिक पेजों पर किसी न किसी ज्वेलरी, मोबाइल कम्पनी या अन्य उत्पाद के ब्रांड एम्बेसेडर बनने के साथ धीरे-धीरे धूमिल हो जाया करते हैं। आगे बढऩे की सीढिय़ाँ संदिग्ध हैं, पीछे जाने की सडक़ पर उल्टा चलने का अभ्यास जैसा सिनेमा हो गया है बहुधा। सिनेमा से चैनल तक सरलीकरण का विस्तार ऐसा है कि हम बड़ी जल्दी जल्दी बड़े भाव से घटी दर तक आते हुए लोगों को देखते हैं। जितने आयामों के साथ सिनेमा बनता है, उन सबमें बावजूद तकनीक के बड़े बेहतर हो जाने, संसाधन बड़े श्रेष्ठ हो जाने के बाद भी कमिटमेंट की भारी कमी है।

हर आदमी खूब समय दे रहा है जी-जान से लगा हुआ है मगर किसी भी बड़े लक्ष्य के साथ नहीं। लक्ष्य स्पष्ट नहीं हैं लिहाजा लेबल ऑफ एक्सीलेंस भी कुछ नहीं है। फिल्म का चलना, न चलना इन्हीं यथार्थों के बाहर की सचाई है।

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