शुक्रवार, 19 नवंबर 2010

बैण्ड, बाजा, बारात

देवोत्थान एकादशी से शादी-ब्याह के प्रतिबन्ध समाप्त हो गये हैं। एक बार फिर हमारे आसपास चारों तरफ सुबह एवं रातों को बैण्ड-बाजे पर बजती फिल्मी धुनें, नाच-गाना और मस्ती का आलम नजर आने वाला है। सर्दी का मौसम अच्छे खानपान का मौसम भी होता है लिहाजा उस दृष्टि से समय की अनुकूल है। शादी-ब्याह में खिलाए जाने वाले खाने की विविधाताएँ और समृद्ध झाँकी के भी नये-नये मौलिक आकल्पन और पेश करने के ढंग हर बार की तरह इस बार भी बदले होंगे। यह कम दिलचस्प नहीं है कि मनुष्य जीवन के प्रत्येक हिस्से से सिनेमा और खासकर सिनेमा का गीत-संगीत कितना गहरे जुड़ा रहता है। इसके बगैर जीवन में भला कहा रस या रंग दिखायी देता है।

दिसम्बर माह के पहले पखवाड़े में यश चोपड़ा के बैनर की एक फिल्म, बैण्ड बाजा बारात प्रदर्शित होने जा रही है। यह एक खूबसूरत कहानी है जिसमें आजकल के बदले चलन में जहाँ पैसा खर्च करके हर मुसीबत, औपचारिकता, जतन-प्रयत्न और जहमत से बचकर इन्स्टेन्ट अपेक्षाओं के बन चुके रिवाज को दिलचस्प ढंग से दर्शाया गया है। अनुष्का शर्मा, यश चोपड़ा कैम्प की फिल्म रब ने बना दी जोड़ी से परदे पर परिचित हुई थीं। इस बीच उनकी और कोई उल्लेखनीय फिल्म दिखायी नहीं दी। उनको परिचित कराने वाले कैम्प ने एक बार फिर उनको इस फिल्म के माध्यम से मौका दिया है। बैण्ड बाजा बारात में एक युवती और एक युवक शादी-ब्याह के काम को असाइनमेंट की तरह लेते हैं, हर काम आसान करके देते हैं और उसका पैसा लेते हैं।

अब हमारे संस्कारों में जिस तरह की व्यावसायिकता हावी हो गयी है, सारा का सारा फिल्मीकरण हो गया है, ऐसे में जो शेष चीजें खतरें में थीं वे सब भी नयी पीढ़ी ने अपनी तरह से लगभग रेडीमेड सी कर ली हैं। हालाँकि विवाह संस्कारों में भी ऐसे प्रोफेशनलिज्म का आना दूसरी तरह से अच्छा इसलिए लगता है कि इसके बहाने मांग पर ही सही व्यवस्था करने वाले पारम्परिक गीत-संगीत, पुराने जानकारों और पीढिय़ों-परम्पराओं से सीखकर आने वाले लोगों की तरफ जा रहे हैं। राजश्री और यशराज की फिल्मों की कहानी में विवाह अपने व्यापक और विस्तारित आयामों में एक घटनाक्रम, एक प्रसंग की तरह मुकम्मल भव्यता से घटित होने वाला दृश्य बनता है। गीत गाता चल, कभी-कभी, चांदनी, हम आपके हैं कौन आदि बहुत सी फिल्मों के नाम ऐसे वक्त में याद किए जा सकते हैं।

हम एक पूरा बड़ा समय बिसरा गये हैं जिसमें नानी, मौसी, बुआ और भाभियाँ तीज-त्यौहार की कथाएँ कहा करती थीं, बन्ना-बन्नी गाने में परिवार की महिलाओं को दक्षता हासिल होती थी, इसलिए क्योंकि उनको सिखाया जाता था। किस्म-किस्म के पकवानों की वे विशेषज्ञ होती थीं, उनके हाथों में स्वाद बसता था। अब तो सब कुछ बाजार से ले आया जाता है। हिन्दी फिल्मों में कभी-कभार जब ऐसे दृश्य लौटते हैं तो उन फिल्मों की याद दिलाते हैं। बैण्ड बाजा बारात आज के समय की फिल्म हो सकती है जो हमें सिनेमा और हमारी परम्पराओं में बहुत सारे छूटे और बिसरे वक्त को तरोताजा करने में पुनरावलोकन की तरह हो, देखना होगा।

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