मंगलवार, 27 दिसंबर 2011

सत्यदेव दुबे का निधन रंगमंच की अपूरणीय क्षति


पण्डित सत्यदेव दुबे का निधन हिन्दी रंगमंच और उसके सशक्त-सबल पक्ष को होने वाली असाधारण क्षति है, यह बात उनके नहीं रहने की खबर सुनते ही तत्काल ज़हन में कौंधती है। कुछ समय से वे बीमार थे। लगभग दो साल पहले मुम्बई में पृथ्वी थिएटर ने उनके प्रति आदरांजलि व्यक्त करते हुए एक लगभग सात दिन का रंग समारोह भी आयोजित किया था, जिसमें उनके अवदान पर प्रदर्शनी भी लगायी गयी थी। दुबे जी दशकों से मुम्बई रह रहे थे और हिन्दी रंगमंच और सार्थक सिनेमा के लिए काम कर रहे थे। प्रख्यात फिल्मकार श्याम बेनेगल से उनकी गहरी मित्रता थी, श्याम बाबू दुबे जी की कलम के पारखी और समर्थक थे। दुबे जी ने श्याम बाबू, गोविन्द निहलानी और महेश भट्ट के लिए अंकुर, निशान्त, भूमिका, जुनून, कलयुग, आक्रोश, मण्डी और मंजिलें और भी हैं फिल्मों की पटकथाएँ और कुछ के संवाद लेखन का काम भी किया था।

अविभाजित मध्यप्रदेश के बिलासपुर जिले में 12 मार्च 1936 को जन्मे पण्डित सत्यदेव दुबे की शिक्षा-दीक्षा बिलासपुर सहित नागपुर और जबलपुर में भी हुई थी। सेंट जेवियर्स कॉलेज मुम्बई से स्नातक होने के बाद वे हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय सागर में अंग्रेजी से स्नातकोत्तर करने आ गये। बाद में बिलासपुर में कुछ समय पढ़ाने के बाद लगभग पचास वर्ष पहले वे मुम्बई आ गये और रंगमंच से जुड़ गये। दुबे जी ने सौ से भी अधिक नाटकों का निर्देशन किया जिसमें हिन्दी, अंग्रेजी, मराठी और गुजराती भाषा के नाटक शामिल हैं। पण्डित सत्यदेव दुबे ने सातवें-आठवें दशक में समकालीन भारतीय नाटककारों के साथ ही विदेशी रचनाकारों की श्रेष्ठ कृतियों को हिन्दी रंगमंच पर लाने में अपना मूल्यवान योगदान किया। अंधायुग उनकी पहली बड़ी रंगमंचीय प्रस्तुति थी, जो रंग-इतिहास की एक बड़ी घटना मानी जाती है। इसका मंचन मुम्बई में 1962 में हुआ था। 

पण्डित सत्यदेव दुबे समकालीन रंगकर्मियों और उनकी कृतियों के बीच अपनी सर्जना के माध्यम से एक ऐसे सेतु बने जिसने हिन्दी रंगमंच को समृद्ध करने में अपनी अहम भूमिका निभायी। विजय तेन्दुलकर, बादल सरकार, आद्य रंगाचार्य, गिरीश कर्नाड, धर्मवीर भारती, मोहन राकेश आदि भारतीय कृतिकारों के साथ ही पिरान्देल्लों, इब्सन और चेखव जैसे नाटककारों की महत्वपूर्ण कृतियों को भारतीय परिवेश और समकालीनता में इस तरह प्रस्तुत और सम्प्रेषित किया, जिसने उनकी प्रतिष्ठा रंग जगत में बहुत बढ़ायी। दुबे जी भारतीय रंगकर्मियों के बीच बड़ी आदर और श्रद्धा की निगाह से देखे जाते रहे। उनके द्वारा निर्देशित नाटकों में अंधायुग, हृयवदन, आधे अधूरे, सखाराम बाइण्डर, एवं इन्द्रजित, प्रतिबिम्ब, विरासत आदि प्रमुख हैं। उन्होंने तकरीबन पचास हिन्दी और अंग्रेजी नाटकों में अभिनय भी किया। दिलीप चित्रे की फिल्म गोदाम और श्याम बेनेगल की फिल्म निशान्त में उन्होंने अभिनय भी किया।

भारत सरकार द्वारा पण्डित सत्यदेव दुबे को पिछले साल ही पद्मभूषण से विभूषित किया गया था। दुबे जी पूरी तरह मूडजीवी व्यक्ति थे। कलाकारों में उनके व्यक्तित्व और गुण को लेकर बड़ा सम्मान रहा है, यद्यपि वे अपने मन और जीवन के एक तरह से राजा थे। यह उल्लेखनीय है कि उनकी शिष्य परम्परा बड़ी लम्बी रही है। महान अभिनेता स्वर्गीय अमरीश पुरी उनको हमेशा अपना गुरु मानकर जब तक जिए, उनका बड़ा ख्याल रखते रहे। दुबे जी फक्कड़ इन्सान थे और खुद उन्हें या उनके आसपास को उनके गुस्से का पूर्वाभास नहीं हुआ करता था। इसके बावजूद सच्चे तौर पर उनके अपने, वास्तव में उनके अपने थे, जो दुबे जी से सीखे ज्ञान को शिरोधार्य करते थे और कृतज्ञ रहते थे। जब श्याम बेनेगल भारत एक खोज का निर्देशन कर रहे थे तब दुबे जी ने उनसे साफ-साफ कह दिया था कि सीरियल में चाणक्य की भूमिका मैं ही करूँगा और इसके लिए उन्होंने पहले से ही अपने आपको उस गेटअप में तैयार कर लिया था। गिरीश कर्नाड, श्याम बाबू, अमरीश पुरी, गोविन्द निहलानी या महेश भट्ट उनका इतना आदर करते थे कि उनकी किसी बात को न नहीं कह पाते थे, यह बात भी साथ में जोडऩी चाहिए कि पण्डित जी के एक्सीलेंस पर भी उनको गहरा विश्वास था। 

दुबे जी का अध्ययन बड़ा गहन था। उन्होंने भारतीय भाषाओं के तीन पीढिय़ों के नाटककारों की कृतियों का गहरा अध्ययन किया था। पूरे जीवन, पूरी तन्मयता से नाटकों को समर्पित रहने वाले पण्डित सत्यदेव दुबे ने हिन्दी रंगमंच को विशिष्ट गरिमा प्रदान करने का काम अपने सृजन से किया था। रंग-सामग्री के सही मुकामों की जाँच परख तथा चयन में उनकी रंग-दृष्टि अचूक और बेजोड़ थी। अभिनव रंग-रुझानों के प्रवर्तन और नवीन रंग चेतना के विकास में पण्डित जी का योगदान अतुलनीय है। वे संवेदनशील कृतियों के साथ सूक्ष्मग्राही कलात्मकता और कल्पनाशील बरताव के कारण हमेशा जाने, जाते रहे।
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शनिवार, 24 दिसंबर 2011

शैतानी के खेल

आजकल कुनकुनी दोपहर बड़ी सुहाती है। हर दफ्तर में दोपहर का आधा घण्टा भोजनावकाश का रहा करता है। लोग उसका मौसम जरा पहले से काफी बाद तक मनाया करते हैं। बीच-बीच में भी जितने बार किसी न किसी बहाने से कुर्सी से उठने का मौका मिल गया तो बोनस ही हुआ। बहरहाल ऐसी ही एक दोपहर अपने ऑफिस के पीछे जाकर कुछ देर को खड़ा हुआ। सौ कदम की दूरी पर ही वहाँ एक नाला बरसों से बहा करता है। काला गन्दा पानी ठहर-ठहरकर बहता है। कचरा, पन्नी, कभी-कभार मरे प्राणी भी पड़े-बहा करते हैं उसमें। उसी नाले के ऊपर लोहे का अर्धचन्द्राकार सेतु सरीखा बना हुआ है। वहीं काफी बगुले इकट्ठा होते हैं। कुछ-कुछ खाते-पाते रहते हैं मगर दस-पन्द्रह की संख्या में उनका उड़-उडक़र आता जमावड़ा देखकर अच्छा लगता है। उस दिन भी ऐसा ही था। मैंने देखा जरा दूरी पर सात-आठ साल के दो बच्चे खड़े हैं, उनमें से एक गुलेल ताने एक आँख बन्द किए किसी बगुले पर निशाना साध रहा था। मुझे लगा कि कुछ ही पल में आश्वस्त होते ही वो गुलेल में फँसाया कंकड़ किसी न किसी बगुले की तरफ मार ही देगा। अपनी ही जगह से मैंने जोर से डपटा तो दोनों निशाना छोडक़र भाग गये।

उनको भागते देख मुझे हँसी आ गयी और याद आ गया अपना बचपन। ऐसा ही कुछ करते हुए अपना बचपन भी बीता है। उस समय पास-पड़ोस और मुहल्ले के चाचा, बाबा इस कृत्य को शैतानी का खेल मानते थे। तब उनके इस फतवे पर बड़ी झुंझलाहट हुआ करती थी। गुलेल कोई बना-बनाया नहीं मिलता था। उसके लिए काफी जतन करना होता था। अँगूठे और उसके पड़ोस की उंगली की तरह लकड़ी को हम केटी कहा करते थे। उसकी तलाश बड़ी मुश्किल से पूरी होती थी। किसी न किसी पेड़ की डाल में ढूँढकर निकालनी होती थी, बड़ी मुश्किल से काटते थे, फिर पास से किसी साइकिल की दुकान से दस-पन्द्रह पैसे में ट्यूब को फीतेनुमा कटवाकर लाते थे। कंकड़ फँसाने के लिए मोची से चमड़े का चोकोर टुकड़ा कटवाते थे। इन सबको लेकर भी फीतेनुमा ट्यूब के बीचोंबीच चमड़े का टुकड़ा फँसाकर दोनों छोरों को केटी के सिरों पर अलग-अलग बांधकर फिर चिडिय़ा, तोता, गिरगिट पर निशाना साधकर बड़ा मजा आता था। इसको बनाते में कई बार हाथ में चोट भी लग जाती थी पर हम सभी दोस्तों के पास गुलेल का जुगाड़ होता था। मस्ती-मजे में अपने किसी दोस्त के पुट्ठे पर छोटा-मोटा कंकड़ मारकर हँसा करते थे। जाहिर है यह खेल शैतानी का खेल कहा जाता था। वक्त रहते यह सब छूट गया। बगुला मारने वाले छोकरों के हाथ गुलेल देखकर बचपन में जैसे जाकर लौट आये।

वैसे बचपन में जितने खेलों में अपनी महारथ याद आती है, उन सभी को करीब-करीब शैतानी का खेल करार ही दे दिया गया था। चालीस साल पहले पास-पड़ोस के रिश्ते बड़े मायने रखते थे। कोई न कोई चाचा या भैया डाँट-फटकार और मारपीट के लिए पूरे मुहल्ले की ओर से अधिकृत होते थे। हममें से कोई भी इसका शिकार हो जाया करता था। उस समय हम कंचे खेलते थे जो खालिस जीत-हार का खेल हुआ करता था। डालडे के खाली डिब्बों में कंचों का संग्रह किया करते थे। यह खेल भी शैतानी का खेल माना जाता था। गिल्ली-डण्डा अपना खुद बनाते थे और खेलते थे, उसे भी शैतानी का खेल कहा जाता था क्योंकि उससे किसी की भी आँख फूट जाने का खतरा होता था। गर्मियों के मौसम में बाँस की लग्गी बनाकर घरों के पीछे से कैरी चुराने और नमक के साथ खाने की मस्ती भी शैतानी कहलाती थी। घर के पास बिजली घर से चुपचाप अल्यूमीनियम का तार चुराते थे। रोज दोपहर को सोन पपड़ी-गजक करारी वाला सिर पर थाली लेकर निकलता था, उससे आधी तौल सोन पपड़ी लेकर मिल-बाँटकर खाते थे। वह भी मुहल्ले के मारते खाँओं की निगरानी में आ गया था। याद है एक बार पच्चीस-पचास ग्राम के तार के चक्कर में आधा किलो वजन का बड़ा तार खींच लाये थे जिस पर सोनपपड़ी वाले ने धमकाया था, तो बहुत डर गये थे और कई दिन उसके आने के समय पर घर के भीतर चले जाते थे।

आज उस तरह का बचपन भी नहीं है और न ही उस तरह की शैतानी के खेल और न ही वैसा हौसला। आपस की दोस्ती जिस तरह बचपन में तब निभायी जाती थी, आज उसका एक उदाहरण भी देखने को नहीं मिलता। अब तो भलाई के लिए डाँटने या मारने का अधिकार घरवालों को ही नहीं है, बच्चों से डर लगता है। मुहल्ले में भी ऐसा कोई हित-चिन्तक शायद ही मिले। गुलेल, गिल्ली-डण्डा, कंचे, पतंग, गुलाम डण्डी जैसे खेल भी समयातीत हो गये। अब खेल से खिलवाड़ जैसा डर बन गया है इसीलिए खेल की अवधारणा बचपन और किशोरावस्था से एक तरह से गायब ही हो गयी है।




सोमवार, 19 दिसंबर 2011

16 दिसम्बर 2011 - मेहबूब स्टुडियो, मुम्बई


श्रद्धांजलि : देव साहब

हिन्दुस्तानी सिने-प्रेमियों, देव साहब को जानने वाले प्रशंसकों का एक बड़ा वर्ग इस बात से अब तक भी इत्तेफाक नहीं रख पाता होगा कि वे अब हमारे बीच नहीं हैं। हिन्दुस्तान के लोगों के मानस पटल पर उनकी छबि इसी सचाई के साथ अंकित है कि वे अमेरिका विमान से गये हैं। मन में यह भरोसा बना हुआ है कि अमेरिका से हिन्दुस्तान आने वाले जहाज से वे कभी भी लौट आयेंगे। एक महान अभिनेता की कायिक अनुपस्थिति के सच को यही अवधारणा बार-बार झुठलाती है। 

एक द्वन्द्व सा चलता रहेगा उनके चाहने वालों के मन में। इसी सब के बीच जब मालूम हुआ कि देव साहब की श्रद्धांजलि सभा 16 दिसम्बर को शाम पाँच से सात बजे तक मेहबूब स्टुडियो में हो रही है तो मुम्बई एक दिन बाद जाने के बजाय एक दिन पहले जाने की इच्छा को देव साहब के विशेष सहयोगी रहे मोहन भाई के आत्मीय आग्रह से बल मिला। मेहबूब स्टुडियो में कहा जाता है, देव साहब का मनपसन्द मेकअप रूम था। कितनी ही फिल्मों की शूटिंग उन्होंने भारत के महान फिल्मकार मेहबूब खान साहब के बनाये इस स्टुडियो में की थी। 16 दिसम्बर वो दिन था जब यहाँ हम उनकी स्मृतियों को पुष्पांजलि अर्पित करने आये थे।

एक ऐसी अवधारणा थी कि समय से जरा पहले चले जाना चाहिए क्योंकि मित्रों, सहयोगियों, जानने-पहचानने वालों का सैलाब यहाँ टूट पड़ेगा, इसीलिए समय से और एक घण्टे पहले जाकर बैठा। देव साहब की एक बड़ी सी तस्वीर लगी थी। सामने फूलों के गुलदस्तों से एक परिधि बनायी गयी थी। अर्पित करने के लिए फूल-पंखुडियाँ रखे हुए थे। देव साहब के शोकाकुल बेटे सुनील, परिवार के सदस्यों के साथ सभी की संवेदनाओं को ग्रहण कर रहे थे। भावुकजन उनके कंधों और पीठ को थपथपा रहे थे। परिजनों में देव साहब के बड़े भाई चेतन साहब और छोटे भाई विजय साहब के पुत्रगण, भांजे शेखर कपूर शामिल थे। एक तरफ गम्भीर और संवेदन-स्वर में एक महिला गायिका कबीर के भजन धीमे-धीमे गा रही थीं। माहौल में अवसाद था, दुख था लेकिन दुख में सब साथी थे, आपस में एक-दूसरे के, सभी को देव साहब के जाने का गम था।

शम्मी कपूर साहब के बेटे आदित्य राजकपूर आरम्भ से थे और लगातार देर तक रहे। विशिष्टजनों का आना शुरू हुआ तो रात्रि आठ बजे के बाद तक जारी रहा। कबीर बेदी, सिमी ग्रेवाल, मुमताज, बिन्दु, आशा सचदेव, रणधीर कपूर, ऋषि कपूर, राजीव कपूर, टीना अम्बानी, जीनत अमान, वहीदा रहमान, हेमा मालिनी, शेखर सुमन, सतीश कौशिक, आमिर खान, भरत कपूर, मुकेश ऋषि, दिव्या दत्ता, आशुतोष गोवारीकर, विधु विनोद चोपड़ा, जगदीप और उनके बेटे जावेद-नवेद, प्रेम चोपड़ा, यश चोपड़ा, बॉबी देओल, प्रसून जोशी, राजेश रोशन, अमित खन्ना, रमेश सिप्पी, किरण जुनेजा, हनी ईरानी, तब्बू, अब्बास-मस्तान, फरदीन खान, राममोहन, हरीश पटेल, अभिषेक बच्चन आदि निर्देशक, कलाकार, गीतकार, संगीतकार और कुछ के साथ उनके परिजन सभी यहाँ अपना कीमती वक्त निकालकर एक महान कलाकार को आदरांजलि देने आये।


 दो हिस्सों में सभी आगन्तुकों के बैठने की व्यवस्था की गयी थी। लगभग सभी चैनलों, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, मेगजीन, प्रेस और एफ एम रेडियो के प्रतिनिधि और अनेक वरिष्ठ पत्रकार भी यहाँ आये। देव साहब के परिवार के इस गहरे दुख में सहभागी होने का उनके अपनों के लिए यह पहला मौका था और सभी ने यहाँ आकर संवेदनशीलता और शिष्टाचार का परिचय दिया। मित्रों की छोटी-छोटी बैठकों में देव साहब को सब याद कर रहे थे, उनकी बातें कर रहे थे, उनसे जुड़ी यादों का स्मरण कर रहे थे। देव साहब की सामने लगी बड़ी सी तस्वीर को देखते हुए लग रहा था कि इस सम्मोहक चेहरे से जैसे स्मृतियों के वृहत आयाम खुल रहे हों, खूब सारे रास्तों से जैसे वो सब गाने टहलते हुए आ रहे हों जो देव साहब पर फिल्माये गये।

मुझे फिल्म माया का वो गाना इन दो-तीन घण्टों में लगातार याद आता रहा, कोई सोने के दिलवाला, कोई चांदी के दिलवाला, शीशे का है मतवाले मेरा दिल, महफिल ये नहीं तेरी, दीवाने कहीं चल...........................

गुरुवार, 15 दिसंबर 2011

फिल्मकार जिन्होंने देव आनंद में एक महानायक को गढ़ा



देव आनंद साहब के बारे में एकदम से यह कहना अपराध सा लगता है कि अब उनकी स्मृतियाँ ही शेष हैं। जाने क्यों यह बात कहने के पहले बहुत देर तक आश्वस्त होने की बेचैनी बनी रहती है। सचाई ऊपरवाले के कठोर फैसले की तरह ही है, उसने कट् बोल दिया और जैसे पल भर में दृश्य बदल गया। चैनलों में बार-बार हर फिक्र को धुँए में उड़ाता चला गया गाने के मुखड़े और अन्तरे दोहराये-चोहराये जा रहे हैं। पुराने रेकॉर्डेड इन्टरव्यू अंशों में चलाये जा रहे हैं। अन्तिम दिनों के राज-रहस्य की बातें हो रही हैं, अखबारों ने भी अगले दिन ही एक-एक पन्ना उनकी स्मृति को समर्पित कर दिया। इस पूरी तत्परता में वो बहुत सारी महत्व की बातें गौण हो गयीं, जो देव आनंद की जड़ों को सँवारने और उनको भरपूर शक्ति देने के लिए उत्तरदायी हैं। उनकी सक्रियता काल से लेकर पूरे लगभग तीन दशक ऐसे हैं जिनके सहारे देव आनंद अकेले अपनी राह बनाते चले गये और वह भी आसपास की चकाचौंध और रोशनी से निष्प्रभावी रहे बगैर।

यह तो खैर सभी जान गये कि हम एक हैं से उनका कैरियर 1946 में शुरू हुआ। चालीस के दशक में वे मुम्बई आये थे। एक नौकरी मिली थी पर बड़े भाई फिल्में बना रहे थे। रहन-सहन और अन्दाज-ओ-अदा में अपने समय के खूबसूरत और हँसी में मोहित कर देने वाले देव साहब को अपनी संस्था नवकेतन स्थापित करने में चार साल का समय ही लगा लेकिन इसी बीच गुरुदत्त और राज खोसला से उनकी दोस्ती ने उनका बड़ा काम किया। चेतन आनंद उस समय सफल फिल्म के लिए प्रयासरत थे। उन्होंने अपने भाई के आत्मविश्वास को देखा, उसे परखा तो उनको लगा कि एक अच्छा रास्ता मिल सकता है। चेतन आनंद को अपने मँझले भाई देव में पचास के दशक का नौजवाँ उसी तरह दिखा, आसपास के पढ़े-लिखे युवा, स्वप्रद्रष्टा की तरह सोचने वाला, रास्ता चलने वाला। उन्होंने अपनी दृष्टि देव आनंद पर केन्द्रित की और छ: साल की अवधि में 1950 से 56 के बीच चार फिल्में बनायीं। ये थीं, अफसर, आंधियाँ, टैक्सी ड्रायवर और फंटूश। इन फिल्मों की कहानियाँ सीधी-सादी थीं मगर नायक अपने किरदारों के साथ प्रतिबद्ध भाव से जुड़ा दिखायी देता था। फिल्मों के गाने और संगीत फिल्मों की एक खास विशेषता हुआ करते थे। फिल्म आंधियाँ में तो चेतन आनंद ने उस्ताद अली अकबर खाँ को संगीत निर्देशक का भार सौंपा था। फंटूश के बाद चेतन आनंद ने फिर अपने भाई के लिए दो फिल्में बीस साल के अन्तराल बाद बनायीं। ये फिल्में थीं, जानेमन और साहब बहादुर। इन फिल्मों को हालाँकि वो सफलता नहीं मिली फिर भी शुरू की चार फिल्मों के माध्यम से जो नायक हमारे सामने आया, वह दरअसल इसी अवधि में देव आनंद की दूसरे खास निर्देशकों के साथ बनकर आने वाली दूसरी फिल्मों के साथ समृद्ध और परिपक्व हुआ।

देव आनंद की विख्यात फिल्मकार और विलक्षण अभिनेता गुरुदत्त से मित्रता भी कैरियर से शुरूआत की ही है। गुरुदत्त ने देव साहब के लिए दूसरे बैनर की फिल्म भी निर्देशित की और अपने बैनर पर एक निर्माता के रूप में फिल्म बनायी और निर्देशन का दायित्व दूसरे निर्देशकों को दिया। देव साहब के लिए उन्होंने दो फिल्में निर्देशित कीं। ये फिल्में थीं, बाजी और जाल। दोनों का निर्माण क्रमश: हुआ, 1951 और 52 में। तब गुरुदत्त को मुम्बई आये चार-पाँच साल ही हुए थे। बतौर सहायक निर्देशक उन्होंने अमिय चक्रवर्ती की फिल्म गल्र्स स्कूल और ज्ञान मुखर्जी निर्देशित बॉम्बे टॉकीज की फिल्म संग्राम में अपनी शुरूआत की थी। देव साहब की पहली फिल्म हम एक हैं के निर्देशक पी.एल. सन्तोषी थे और फिल्म के कोरियोग्राफर गुरुदत्त थे। यहीं पर दोनों की मित्रता हुई जो आगे चलकर खासी परवान चढ़ी, जिसका परिणाम, जैसे कि जिक्र हुआ पहले बाजी और फिर जाल के रूप में सामने आया। विख्यात फिल्म समालोचक मनमोहन चड्ढा ने हिन्दी सिनेमा का इतिहास नामक अपनी पुस्तक के एक खण्ड में लिखा है कि बाजी की कहानी गुरुदत्त और बलराज साहनी ने मिलकर लिखी थी और पटकथा तथा संवाद पूरी तरह बलराज साहनी के ही थे। बाजी एक भटके हुए युवा की कहानी थी जो जुआरी है और अपने दाँव पर अहँकार करता है मगर महात्वाकाँक्षा और मोहब्बत के बीच वो ऐसी आपाधापी में फँस जाता है कि गुनहगार आरोपित हो जाता है। उसके षडयंत्र के निकलने की जद्दोजहद को दर्शाती थी यह फिल्म वहीं जाल में देव आनंद की भूमिका पूरी तरह ग्रे-शेड लिए हुए है जिसका हृदय परिवर्तन ही आखिरी में जाकर होता है। यहीं से हम यह भी देख पाते हैं कि उनकी फिल्मों के साथ सचिन देव बर्मन जैसे माधुर्य रचने वाले संगीतकार भी कैसे साथ हो गये थे। 


 देव साहब के कैरियर में निर्देशक राज खोसला का रोल भी बड़े महत्व का है। यदि हम सोलवाँ साल को छोड़ भी दें तो मिलाप, सी.आई.डी., काला पानी और बम्बई का बाबू को भुला नहीं सकते। ये सारी की सारी फिल्में 54 से 60 के दौर में आयी थीं। राज खोसला उस समय के दौर में अपेक्षाकृत युवा थे। मिलाप एक सीधी-सादी प्रेम कहानी थी जिसका नायक अपनी प्रेमिका के साथ बेहतर जीवन के सपने देखता है मगर जमाने की रफ्तार के साथ कदम मिलाना कठिन है, भटकाव के लिए रास्ते तैयार हैं। हाँ इसी समय में हम यह भी जोड़ते चलें कि देव साहब की नायिकाओं में गीता बाली, कल्पना कार्तिक, निम्मी, सुरैया के नाम जुड़ते जा रहे थे। खलनायक के रूप में कृष्ण निरन्जन सिंह लगभग मुख्य होने लगे थे। अच्छा ड्रामा खड़ा होता था क्लायमेक्स में। सी.आई.डी. तो खैर अलग तरह की फिल्म थी। देव आनंद का कैरेक्टर सकारात्मक था, दृश्य में सारा जोर चातुर्य और तार्किकता पर था। राज खोसला हिचकॉक को अपना प्रेरणास्रोत मानते थे, उनकी तरह रहस्य रचते थे। अपराधी पकड़ा कैसे जायेगा, सारा जोर, सारा दिमाग इसी पर लगाया जाता था। काला पानी और बम्बई का बाबू में भी हम एक नायक का संघर्ष, उसके अन्तद्र्वन्द्व बड़ी ही कुशलता से गढ़े हुए देखते हैं। देव आनंद एक कलाकार के रूप में पूरे अंजाम तक बखूबी पहुँचते हैं, इन फिल्मों में भी। 

यहाँ पर नासिर हुसैन और सुबोध मुखर्जी का जिक्र एक साथ आता है। इसलिए कि चर्चा करने को तीन फिल्में हैं और तीनों से नासिर हुसैन जुड़े हैं, दो से सुबोध मुखर्जी क्योंकि सुबोध मुखर्जी बतौर निर्देशक दो फिल्में करते हैं और नासिर हुसैन बतौर लेखक तीनों और निर्देशक के रूप में एक फिल्म देव आनंद के लिए निर्देशित करते हैं। ये फिल्में हैं मुनीम जी, पेइंग गेस्ट और जब प्यार किसी से होता है। इनमें से जब प्यार किसी से होता है ही नासिर हुसैन की फिल्म थी। मुनीम जी और पेइंग गेस्ट में किरदार अपनी भूमिका के साथ तय है जबकि जब प्यार किसी से होता है में देव आनंद का बड़ा खूबसूरत और निस्सीम रूमानी विस्तार है। तीनों ही फिल्मों में खूबसूरत गाने हैं, मधुर संगीत है क्योंकि देव आनंद के अन्दाज को किशोर कुमार और मोहम्मद रफी अपने-अपने अन्दाज से जोडऩे में सफल हो रहे हैं। इन फिल्मों के गीत शैलेन्द्र, साहिर, मजरूह सुल्तानपुरी, हसरत जयपुरी लिख रहे हैं और संगीत में बर्मन दा के साथ-साथ अब शंकर-जयकिशन का नाम भी जुड़ रहा है। नायिकाओं में नूतन हैं, नलिनी जयवन्त हैं, आशा पारेख हैं। यहाँ तक आते-आते सचमुच देव आनंद अपनी छबि, अपनी पहचान और अपने प्रभाव के एकदम अलग आदमी बनकर उभरे थे। उस समय का उनका प्रशंसक वर्ग उनकी चाल-ढाल, उनके बाल, हँसी और अन्दाज का जैसे दीवाना हो गया था। ढीली पतलून और उसके भीतर कमीज करने वाला युवा तब देव साहब से ही प्रेरित और प्रभावित हुआ करता था। देव आनंद की एक विशेषता यह भी मानी जाती थी कि वे अपनी फिल्मों में नायिका को उसके सौन्दर्य, सम्मोहन और भरपूर क्षमताओं में विन्यस्त होने का पूरा अवसर देते थे। वे दूसरे नायकों की तरह कभी भी अपनी फिल्म को केवल नायकप्रधान पहचान के साथ पहचाने जाने में भरोसा नहीं करते थे। नूतन जैसी शालीन और मर्यादित अभिनेत्री भी देव आनंद के साथ बहुत सहज और बराबर का सहभागी होने की आजादी का प्रमाण देती थीं।

देव आनंद के कैरियर में उनके छोटे भाई निर्देशक विजय आनंद का जो योगदान रहा है, उसे बहुत सारे जानकार और आलोचक बिना किसी लाग-लपेट के स्वीकार करते हैं। वास्तव में विजय आनंद ने दूसरे निर्देशकों से अलग देव आनंद को पहचाना और परिभाषित किया। देव आनंद के लिए उनकी लिखी पटकथा का सिर्फ एक ही गुण था और वह था उसका हमेशा सशक्त होना। बाकी सारी विशेषताएँ इस गुण के साथ ही संवेदना, प्रेम, जज्बात, अभिव्यक्ति और अन्य अनेकानेक आयामों के साथ प्रकट होते हमने देखीं। जाहिर है, प्रमाण हैं बहुत सारी उल्लेखनीय, सफल और लैण्डमार्क फिल्में। विजय आनंद ने देव साहब को लेकर 1957 से 70 तक सात फिल्में निर्देशित कीं। ये फिल्में हैं, नौ दो ग्यारह, काला बाजार, तेरे घर के सामने, गाइड, ज्वेलथीफ, जॉनी मेरा नाम और तेरे मेरे सपने। विजय आनंद की निर्देशकीय दृष्टि की परख बहुत आलोचकों को थी। वो मानते थे कि देव साहब के कैरियर में ये फिल्में एक अलग प्रवाह देने का काम कर रही हैं। यहीं पर हम शीला रमानी, वहीदा रहमान, नंदा, वैजयन्ती माला, मुमताज और हेमा मालिनी को उनकी नायिकाओं के रूप में देखते हैं। नौ दो ग्यारह का पूरा अन्दाज अलग है जबकि काला बाजार में फिर एक भटका हुआ युवा है जिसकी बीमार माँ और सीधी-सच्ची बहन भगवान के सामने धन और रतन के बजाय प्रभु के चरणों की धूल से ही तर जाने वाला गीत गा रहे हैं, ठीक उसी वक्त वह बुरे कामों से कमाया हुआ धन लेकर चोरी से घर में दाखिल हो रहा है और उसके कानों में वो गीत गूँजता है, वह सीढिय़ों से फिसलकर घिर जाता है। फिसलकर भटके हुए नायक को वापस लेकर आता है प्रेम। गाइड तो जैसे लैण्डमार्क है ही। ऐसा लगता है कि गाइड अकेली ऐसी फिल्म है जिस पर गम्भीरता के कई हजार शब्द लिखे जा सकते हैं। वहीदा रहमान काला बाजार से गाइड तक क्या खूब लगती हैं, खासकर जब वे लच्छू महाराज के सिखायी कथक की भाव मुद्राओं का प्रयोग अपने नृत्य में करती हैं। ज्वेलथीफ में देव आनंद हैं मगर श्रेय सारा अशोक कुमार के नामे है, एक अलग अन्दाज का सस्पेंस जो दिलचस्प भी है। जॉनी मेरा नाम दो भाइयों की गजब केमेस्ट्री है। हम देव साहब के साथ उनकी फिल्मों में प्राण साहब को जुड़ते देखते हैं जिन्हें देव साहब ने हमेशा बड़े भाई का मान दिया। तेरे मेरे सपने में तो खैर विजय आनंद खुद एक डॉक्टर की भूमिका में कमाल करते हैं। 


 देव आनंद का पूरा मैनरिज्म इन फिल्मों का गढ़ा हुआ है। निश्चित रूप से और भी बहुत सी फिल्में हैं जो यहाँ चर्चा के दायरे विशेष के कारण उल्लेख में नहीं आ सकी हैं अन्यथा हम बात करते हुए अमरजीत निर्देशित हम दोनों, हृषिकेश मुखर्जी निर्देशित असली नकली सहित कुछ और फिल्मों की बात भी करते। सत्तर के दशक के बाद एक आयाम वह भी शुरू होता है जब चेतन और विजय आनंद ने देव साहब को लेकर फिल्में नहीं बनायीं। तब देव साहब ने नवकेतन संस्था के बैनर पर स्वयं फिल्में निर्देशित कीं और दूसरे निर्देशकों की फिल्मों में भी काम किया। वे ही गीतकार नीरज से ऐसे प्रभावित हुए कि अपनी अनेक फिल्मों के लिए तमाम यादगार गीत लिखवाये, शोखियों में घोला जाये फूलों का शबाब गीत इस टिप्पणी लेखक से भी कभी भुलाया नहीं जाता। कुल मिलाकर दिलचस्प यह भी है कि इस पूरे दौर में कई महानायकों का उद्भव और पराभव होता रहा। राजेश खन्ना भी आये और गये, अमिताभ बच्चन भी आ गये मगर सदाबहार और बेफिक्र देव आनंद ने हरे राम हरे कृष्ण, प्रेम पुजारी, गेम्बलर, छुपा रुस्तम, बनारसी बाबू, हीरा पन्ना, अमीर-गरीब, वारण्ट, देस परदेस, लूटमार, मनपसन्द आदि फिल्मों में काम करते हुए इसी साल आयी फिल्म चार्जशीट तक अपना दखल एक लीजेण्ड की तरह बनाये रखा। देव आनंद दरअसल एक मजबूत बुनियाद से खड़े इन्सान और कलाकार थे इसीलिए वे कभी थके नहीं और न ही निराश हुए। काम और सक्रियता आदमी को किस तरह जिलाये रखती है, उसका देव आनंद से बड़ा सुदाहरण शायद ही कोई हो।
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मंगलवार, 6 दिसंबर 2011

एक खुली किताब की तरह धर्मेन्द्र का व्यक्तित्व


धर्मेन्द्र का व्यक्तित्व एक खुली किताब की तरह है। वे हमारी-आपकी तरह सहज और सीधे-सादे इन्सान हैं। फिल्म मे उनका आना, यूँ किसी बड़े सुयोग या चमत्कार से कम न रहा है। फगवाड़ा, पंजाब के एक छोटे से गॉंव ललतों में उनका बचपन बीता। बचपन से उनको सिनेमा का शौक था। अपने तईं जब उनको मौका मिलता था, तब तो सिनेमा वे देखते ही थे, इसके बाद अपनी माँ और परिवार के सदस्यों के साथ भी वे फिल्म देखने का कोई अवसर जाने नहीं देते थे। कई बार यह भी होता था कि जिस फिल्म को वे पहले देख चुके होते थे, उसको देखने उनके परिवार का कोई सदस्य जाता था, तो उसके साथ भी जाने की जिद करते थे। नहीं ले जाया जाता था, तो पीछे-पीछे चलने लगते थे। आखिरकार ले जाये जाते थे।

उन्होंने स्वयं ही बताया कि बचपन में सुरैया के वे इतने मुरीद थे कि चौदह वर्ष की उम्र में उनकी एक फिल्म दिल्लगी उन्होंने चालीस बार देखी थी। सिनेमा हॉल के भीतर फिल्म प्रदर्शन की जादूगरी बचपन में उनके भीतर कौतुहल पैदा करती। वे सोचते थे कि कैसे एक जगह से रोशनी निकलकर परदे पर गिरती है और तमाम लोग चलते-फिरते दिखायी देने लगते हैं। ऐसी पहेलियों और जिज्ञासाओं ने धर्मेन्द्र के मन में फिल्मों के प्रति आकर्षण को काफी बढ़ाने का काम किया।

धर्मेन्द्र आजादी के पहले जन्मे थे। बचपन में प्रभात फेरियों में जाना उनको खूब याद है। उनके पिता केवल कृष्ण देओल कट्टïर आर्य समाजी थे, सख्त भी। वे अपने पिता को काफी डरते थे। उनसे सीधे बात करने की हिम्मत उनकी कभी न पड़ती। जो बात भी उनको कहनी होती वाया माँ ही कहते थे। अपनी माँ के प्रति उनकी गहरी श्रद्घा रही है। उनकी बात करते हुए धर्मेन्द्र बहुत भावुक हो जाते हैं। वे बतलाते हैं कि माँ से मैं अक्सर अपने इस सपने के बारे में कहता था कि मुझे फिल्मों में काम करना है, हीरो बनना है।

उस समय मैं अभिनेता श्याम और दिलीप कुमार का बड़ा फैन था। भोली भाली माँ तब अक्सर मुझसे कह दिया करती, बेटा अरजी भेज दे। अब माँ को क्या पता कि यह काम अरजी भेजकर नहीं मिलता, लेकिन उनके नितान्त भोलेपन के पीछे की सद्इच्छा और आशीर्वाद ने ही मुझे प्रेरित किया। मैं तब अक्सर पास के रेल्वे स्टेशन पैदल जाकर फिल्म फेयर ले आया करता था। उसमें फिल्मी सितारों के चेहरे देखकर रोमांचित हुआ करता था।

एक बार एक अंक में नये सितारों की जरूरत का विज्ञापन निकला था और उसमें नये चेहरों की आवश्यकता का विज्ञापन प्रकाशित हुआ था। मेरे एक मित्र ने मुझे वो फिल्म फेयर लाकर दिया था। जब उसने यह बात बतायी तो एकबारगी मन को लगा जैसे माँ का कहा ही सच होने जा रहा है। मैंने माँ के ही आशीर्वाद से तब अपनी अरजी भेज दी थी।

अरजी भेजने के बाद धर्मेन्द्र उस समय की बेसब्री से प्रतीक्षा करने लगे, जब उन्हें बुलाया जाता। समय गुजरता रहा। उनके हिसाब से तो यह काम तुरन्त ही हो जाना था मगर देश भर से आवेदन बुलाये गये थे। कई स्तरों पर बायोडेटा छाँटे भी गये मगर यह किस्मत की कहानी ही कह सकते हैं कि अन्तिम रूप से बुलाए जाने के लिए चयनित नामों में धर्मेन्द्र का नाम भी शामिल था।

वे अपनी माँ का आशीर्वाद लेकर मुम्बई आये। इस यात्रा के लिए उनको फस्र्ट क्लास का टिकिट और फाइव स्टार होटल में ठहरने के इन्तजाम के साथ बुलाया गया था। फिल्म फेयर कलाकार की खोज कॉन्टेस्ट मे उनका आना और चयनित होना भी सचमुच माँ के आशीर्वाद का ही नतीजा था। वे इसके लिए फिल्म फेयर के तब के सम्पादक पी. एल. राव को याद करना नहीं भूलते। यह 1958 की बात है।

चयन तो उनका हो गया और फिल्म फेयर ने अपने जो स्टार घोषित किए उनमें धर्मेन्द्र भी शामिल थे मगर उनको एकदम से काम नहीं मिला। धर्मेन्द्र की पर्सनैलिटी कसरती जवान की सी थी। चीते के पंजे की तरह उनके हाथ, चौड़ा सीना, सख्त और सम्मोहन मसल्स और मछलियाँ देखकर दबी जुबान से लोग उन्हें पहलवानी का परामर्श भी देते थे। धर्मेन्द्र लेकिन जिद के पक्के थे। उन्होंने तय कर लिया था, कि अब आ गया हूँ तो वापस नहीं जाऊँगा, यहीं कुछ करके दिखाऊँगा।

ऐसे ही स्टुडियो के चक्कर लगाते, यहाँ से वहाँ आते-जाते उन्हें कई बार अर्जुन हिंगोरानी टकरा जाया करते थे। तब वे भी हीरो बनने के लिए प्रयास कर रहे थे। अर्जुन हिंगोरानी से बार-बार आमना-सामना होने से एक दूसरे से मुस्कराहट का आदान-प्रदान हुआ, फिर दोस्ती हो गयी। दोनो अपने संघर्ष और किस्से आपस में बाँटा करते। एक बार अर्जुन हिंगोरानी ने धर्मेन्द्र से कहा, यदि मैं हीरो न बन पाया तो फिल्म बनाना शुरू कर दूँगा और यदि मैं फिल्म बनाऊँगा तो हीरो तुम्हें ही लूँगा।

समय और संयोग अपनी रफ्तार से जैसे इसी योग की तरफ प्रवृत्त हो रहे थे। एज ए हीरो, अर्जुन को फिल्में नहीं मिली और वे निर्माता-निर्देशक बन गये। उन्होंने पहली फिल्म शुरू की दिल भी तेरा, हम भी तेरे। अर्जुन ने अपने वचन का पालन अपने दोस्त से किया और धर्र्मेन्द्र को हीरो के रूप में साइन किया। उस समय साइनिंग अमाउंट इक्यावन रुपए था और साथ में थीं, चाय, नाश्ते की सुविधाएँ। यह फिल्म बनी और प्रदर्शित हुई। इस फिल्म को मिली सफलता ने हिन्दी सिनेमा में एक ऐसे सितारे की आमद की थी जो अपनी पूरी शख्सियत में नितान्त नैतिक, विश्वसनीय और अपना सा नजर आता था।

पहले से ही तमाम बड़े सितारों की उपस्थिति में यदि धर्मेन्द्र ने दर्शकों को प्रभावित किया तो उसके पीछे उनकी इसी छबि, इसी पर्सनैलिटी का योगदान था। परदे पर किरदार निबाहते हुए उनका संवाद बोलना, हँसना-मुस्कराना और विशेष रूप से रूमानी दृश्यों में अपनी आँखों के सम्मोहक इस्तेमाल को दर्शकों ने बहुत पसन्द किया। उन पर फिल्माए गीतों में उनको अभिनय करते देखना, उनका गाते हुए चलना या कह लें चलते हुए गाना एक अलग ही किस्म के रोमांटिसिज्म को स्थापित करने मे सफल होता था।

अपनी पहली फिल्म मे ही धर्मेन्द्र ने जिस तरह की अपनी पहचान स्थापित की, वह दीर्घस्थायी हुई। दिलचस्प बात यह भी रही कि अर्जुन हिंगोरानी और धर्मेन्द्र की दोस्ती बड़ी मजबूती के साथ स्थापित हुई। उस समय की एक अहम फिल्म शोला और शबनम में भी धर्मेन्द्र को अर्जुन हिंगोरानी ने ही निर्देशित किया था। यह फिल्म सशक्त कहानी, जज्बाती फलसफ़े और मधुर गीत-संगीत की वजह से काफी सफल रही थी। अर्जुन हिंगोरानी ने फिर अपनी हर फिल्म में उनको नायक लिया, जैसे कब क्यों और कहाँ, कहानी किस्मत की आदि तमाम फिल्में। आज भी यह दोस्ती वैसी ही है।

मैं 8 दिसम्बर को धरम जी के ऐसे कई जन्मदिवसों का प्रत्यक्षदर्शी हूँ जिसमें अर्जुन हिंगारोनी उनसे मिलने आये, और जिस प्यार और यार के ढंग से बातें होते हुए सुनों तो सुखद विस्मय ही होता है। अर्जुन हिंगोरानी कहते हैं, मेरा यार वर्सेटाइल एक्टर है। उस जैसा एक्टर, उस जैसा इन्सान आज मिलना मुश्किल है। उसमें असाधारण प्रतिभा है जिसका इस्तेमाल तो अभी हुआ भी नहीं है। उस जैसा इन्सान हमेशा अपने चाहने वालों के दिलों में मौजूद रहता है। यह वाकई सच बात है।

भारतीय सिनेमा में धर्मेन्द्र के व्यक्तित्व की स्थापना देखा जाये तो स्वयंसिद्घा प्रतिभा की स्थापना है। धर्मेन्द्र फिल्म जगत में सपने और उम्मीदें लेकर आये थे। उनका कोई गॉड फादर यहाँ नहीं था जो उनके लिए सिफारिश करता। उनको शुरूआत में जिस तरह का संघर्ष करना पड़ा, वो कम नहीं है। जब भी वे थक-हारकर निराश होते थे तो उनको अपनी माँ की उम्मीदों से भरी आँखें याद आ जाती थीं। यही स्मरण उनको एक बार फिर संघर्ष के लिए स्फूर्त कर देता था। अपने लम्बे संघर्ष मे धर्मेन्द्र ने सिनेमा के पूरे जगत को बहुत धीरज के साथ देखा और परखा।

ऐसे कई निर्देशक थे जो आगे चलकर धर्मेन्द्र के शरणागत हुए मगर संघर्ष के वक्त उनका रुख कुछ दूसरा ही होता था। जिस फूल और पत्थर फिल्म ने समकालीन परिदृश्य में धर्मेन्द्र की दुनिया को एक रात में बदल देने का काम किया था, उस फिल्म के निर्देशक से ही धर्मेन्द्र के कड़वे अनुभव रहे मगर बड़े दिल के धर्मेन्द्र ने आगे भी किसी तरह का प्रतिवाद नहीं किया। इस फिल्म का वो शॉट सबसे ज्यादा प्रशंसनीय और मानवीर होकर उभरा था जिसमें नशे से लबालब नायक अपने घर लौटता है तो बाहर पेड़ के नीचे उसको जानने-पहचानने वाली बूढ़ी औरत बरसात और ठंड से ठिठुरती नजर आती है। यह हीरो कुछ पल को वहाँ ठिठकता है और फिर अपनी कमीज उतारकर उस बुढ़ी औरत के ऊपर डालकर लडख़ड़ाते कदमों से घर की ओर बढ़ जाता है। इस एक दृश्य ने इस महानायक के मानवीय पहलू को ही एक तरह से रेखांकित किया था। अपनी जिन्दगी में ऐसी मानवताएँ धर्मेन्द्र ने कई बार व्यक्त की हैं।

दरअसल धर्मेन्द्र शख्सियत ही उस तरह की है, जिनके सामने हर वो आदमी गहरे प्रायश्चित की मुद्रा में नतमस्तक हुआ है जिसे किसी जमाने में धर्मेन्द्र के आने वाले कल का अन्दाजा ही नहीं था। धर्मेन्द्र अपने बड़े से कमरे में सामने दीवार पर लगी माँ की तस्वीर देखकर भावुक होकर बताते हैं कि सफलता के बाद पंजाब से माँ जब बम्बई पहली बार मेरे पास आयीं तो रेल से उतरने के बाद उन्होंने मेरी फिल्म के बड़े-बड़े पोस्टर देखे तो मारे खुशी के उनके आँसू निकल आये और मूच्र्छा भी आ गयी। बाद मे उन्होंने जिस तरह से मुझे प्यार दिया, उसे बता पाना कठिन है। अपने पिता से खूब डरने के बावजूद धर्मेन्द्र उनका बहुत आदर करते रहे हैं। फिल्म के बारे मे उनसे बात करना तो दूर, सोचना तक धर्मेन्द्र के लिए तब सम्भव नहीं था।

वे बतलाते हैं कि बचपन से ही वे अपने पिता के पैर घण्टों दबाया करते थे। देर तक दबाते हुए थक जाता था तब भी वे नहीं कहते थे कि बस हुआ। बाद में जब बम्बई आ गया तो वह अवसर ही जाता रहा। फिर पिताजी जब बम्बई आये तक मैं पाँच-पाँच शिफ्टों में काम कर रहा था। देर रात अक्सर घर लौटता था, कई बार सुबह देर तक सोया करता। ऐसे ही एक दिन देर रात शूटिंग से लौटा, तो उस समय हल्की सी ले रखी थी। पिताजी के कमरे के सामने से निकला, तो न जाने कैसे पैर दबाने की याद हो आयी। मैं वैसे ही धीरे-धीरे उनके कमरे की ओर बढ़ चला और पलंग पर उनके पैर के पास बैठकर पैर दबाने लगा। पिताजी उस समय जाग रहे थे। मुझे पैर दबाता देख, वे बोले, अगर तेरे को पीने के बाद पैर दबाने की याद आती है तो रोज पिया कर.........।


पर्सनैलिटी में ग्रीक देवता से मजबूत धर्मेन्द्र


धर्मेन्द्र की फिल्मोग्राफी बड़ी समृद्ध है। शायद ही ऐसा कोई श्रेष्ठ निर्देशक हो, जिनके साथ उन्होंने काम न किया हो। सीक्वेंस में देखें तो निर्माताओं में, निर्देशकों मे, साथी कलाकारों में, नायिकाओं मे ऐसे अनेक नाम सामने आते हैं जिनके साथ अपने कैरियर में कई बार, अनेक फिल्मों में उन्होंने काम किया। यह निश्चित रूप से धर्मेन्द्र की प्रतिभा और व्यवहार के साथ-साथ व्यावसायिक सुरक्षा के विश्वासों के कारण ही सम्भव हो सका। मोहन कुमार, मोहन सैगल, राज खोसला, बिमल राय, हृषिकेश मुखर्जी, असित सेन, रमेश सिप्पी, दुलाल गुहा, जे. पी. दत्ता, अनिल शर्मा, ओ. पी. रल्हन, मनमोहन देसाई, रामानंद सागर, चेतन आनंद, विजय आनंद जैसे कितने ही निर्देशक होंगे जिनके साथ धर्मेन्द्र ने अपने समय की यादगार फिल्में की हैं।

धर्मेन्द्र के कैरियर का शुरूआती दौर बहुत ही विशेष किस्म की अनुकूलता का माना जाता है। यह वह दौर था जब उन्होंने अपने समय की श्रेष्ठï नायिकाओं के साथ अनेक खास फिल्मों में काम किया। लेकिन इस दौर में जिन नायिकाओं के साथ उनकी शुरूआत हुई, उनके साथ आगे काम करने के लगातार मौके आये। जैसे नूतन के साथ बन्दिनी मे, माला सिन्हा के साथ आँखें, अनपढ़ में, मीना कुमारी के साथ चन्दन का पालना, बहारों की मंजिल, मझली दीदी, फूल और पत्थर, मैं भी लडक़ी हूँ, काजल में, प्रिया राजवंश के साथ हकीकत में, शर्मिला टैगोर के साथ सत्यकाम, अनुपमा, चुपके चुपके, देवर, मेरे हमदम मेरे दोस्त मे, नंदा के साथ आकाशदीप में, आशा पारेख के साथ आये दिन बहार के, आया सावन झूम के, मेरा गाँव मेरा देश में, राखी के साथ जीवनमृत्यु और ब्लैक मेल में, हेमा मालिनी के साथ नया जमाना, राजा जानी, प्रतिज्ञा, ड्रीम गर्ल, चाचा भतीजा, शोले, चरस, जुगनू, सीता और गीता, दोस्त, तुम हसीं मैं जवाँ, द बर्निंग ट्रेन, दिल्लगी, बगावत, रजिया सुल्तान में, सायरा बानो के साथ रेशम की डोरी, आयी मिलन की बेला, ज्वार भाटा में, वहीदा रहमान के साथ खामोशी, फागुन में, सुचित्रा सेन के साथ ममता में, रेखा के साथ झूठा सच, गजब, कहानी किस्मत की, कर्तव्य में उनकी जोडिय़ाँ बड़ी अनुकूल और परफेक्ट भी प्रतीत होती हैं।

एक्शन फिल्मों में धर्मेन्द्र की उपस्थिति दर्शकों के लिए एक बड़े सम्बल का सबब बनती है। आम आदमी के जेहन में एक आदर्श नायक की जो छवि होती है उसे धर्मेन्द्र सबसे ज्यादा सार्थक ढंग से परदे पर प्रस्तुत करते हैं। वे पुलिस अधिकारी बनें या डॉन, चोर बनें या डाकू, सी. बी. आई. अधिकारी बनें या सेना के जवान सभी में अपना गहरा प्रभाव छोड़ते हैं। उनकी सिनेमा में सफलता का कारण ही यही रहा है कि उनको दर्शकों ने हर रूप में स्वीकारा है।

धर्मेन्द्र से समय-समय पर अनेक मुलाकातों में उनकी कई फिल्मों को लेकर चर्चा हुई है। अक्सर चर्चाओं में यह बात साबित हुई है कि उन तमाम फिल्मों में जिसमें उन्होंने संवेदनशील किरदार किए हैं, वे किरदार उनकी आत्मा से बड़े गहरे जुड़ गये हैं। उनसे अक्सर गुलामी, हथियार, समाधि, नौकर बीवी का आदि फिल्मों की चर्चा करना दिलचस्प रहा है। त्यागी, अपनों से मिलने वाले दुख को बर्दाश्त करने, गरीबों, कमजोरों और मजलूमों की लड़ाई लडऩे वाले किरदारों में वे अपने आपको गहरे इन्वाल्व कर लेते हैं। ऐसा साफ लगता है कि पर्सनैलिटी में ग्रीक देवता सा मजबूत और सम्मोहक दिखायी पडऩे वाला यह इन्सान हृदय से अत्यन्त कोमल, भावुक और निर्मल है।

शुक्रवार, 2 दिसंबर 2011

द डर्टी पिक्चर


हालाँकि प्रचार के माध्यम से तूफान खड़ा करने की शुरूआत तभी से कर दी गयी थी जब इस फिल्म को एकता कपूर ने बनाने की घोषणा की थी। निर्देशक मिलन लूथरिया के साथ उनकी एक फिल्म वन्स अपॉन टाइम एट मुम्बई को अपेक्षाकृत सफलता मिली थी जो शायद एकता की फिल्म निर्माता के रूप में पहली सफलता थी। मिलन के साथ ही उन्होंने तत्काल ही एक फिल्म और घोषित कर दी जिसके बारे में शुरू में ही प्रचारित कर दिया गया कि यह फिल्म सिल्क स्मिता के फिल्मी कैरियर से प्रेरित है। 

हिन्दी दर्शकों के लिए सिल्क स्मिता का नाम इसलिए भी उतना परिचित न था क्योंकि दक्षिण भारत के सिनेमा की यह सेक्स सिम्बल के नाम से अस्सी के दशक में ख्यात वो कलाकार थी जो परदे पर एक-दो गानों के फिल्मांकन तक ही सीमित थी लेकिन अब से तीस साल पहले सिल्क को अंग प्रदर्शन से जरा भी परहेज नहीं था, वह अपनी सीमाओं में ही अतिरेक का पर्याय थी और उस वक्त दक्षिण से वयस्कों का सर्टिफिकेट प्राप्त फिल्मों की एक बाढ़ सी आयी थी, लिहाजा तब के युवा दर्शक कुछ-कुछ सिल्क स्मिता को जानते थे। सिल्क स्मिता के साथ हिन्दी फिल्म जानी दोस्त में एकता कपूर के पिता जीतेन्द्र ने भी एक-दो गानों में ठुमके लगाये थे। हो सकता है, सिल्क को उसकी दुर्भाग्यपूर्ण मृत्यु के सत्रह साल बाद फिल्म बनाकर उसके बहाने अपनी फिल्म को सुर्खियाँ प्रदान करने और कम खर्च में अधिक लाभ कमाने का आइडिया भी एकता को उन्हीं के जरिए मिला हो। बहरहाल मृत्यु के बाद ही लोगों की स्मृतियों से लोप हो जाने वाली सिल्क स्मिता को जानने के लिए अब की पीढ़ी ने इन्टरनेट पर उन्हें खूब सर्च किया और कुछ समय के लिए ही सही ऐसा प्रासंगिक बना दिया, जिसकी कल्पना सिल्क को शायद जीते-जी न हो। हो सकता है कुछ दर्शकों को बालु महेन्द्रु की फिल्म सदमा याद हो जिसमें कमल हसन के साथ उनका एक गाना-डाँस भी बहुत चर्चित रहा था।

द डर्टी पिक्चर, एक सीमित क्षमताओं वाली महात्वाकांक्षी अभिनेत्री की त्रासदी की कहानी कहती है। दक्षिण के एक छोटे से गाँवनुमा कस्बे से एक ऐसी युवती के सपनों की यात्रा शुरू होती है जिसके साथ आरम्भ से ही ग्रहण साये की तरह चल रहा है। वह अपनी माँ का प्रतिकार कर घर से भाग जाती है और फिल्मों में काम करना चाहती है। तीस साल पहले का वातावरण है, सिनेमा की जहाँ शूटिंग हो रही है, वहाँ काम के लिए लड़कियाँ लाइन से खड़ी हैं, उन्हें आवाज़ पर रिजेक्ट और सेलेक्ट किया जा रहा है। यहीं पर रेशमा भी रिजेक्ट होती है। फिल्मों में काम की चाह रखने वाली यह भावी अभिनेत्री कहती है कि वह कुछ भी करने को तैयार है। चयन करने और रिजेक्ट करने वाला व्यक्ति उसे पाँच रुपए देकर कहता है, खाना खा लेना, यहाँ समय खराब मत करना। लेकिन रेशमा उस खाने के पैसे से दोसा खरीदते-खरीदते तब के सुपर स्टार सूर्या की फिल्म देखने टॉकीज में दौड़ पड़ती है। लगातार काम पाने का जुनून उसको अपने चहेते अभिनेता के साथ एक गाने में एक्स्ट्रा कलाकार की तरह एक दिन ला खड़ा करता है, जहाँ से उसके जीवन का सफर शुरू होता है।

फिल्म में शुरूआत में ही एक कुण्ठित निर्देशक भी परिचित करा दिया जाता है जिसकी निगाहों में ऐसी लड़कियों का कोई वजूद नहीं है। वह शूट किया हुआ एक दृश्य भी फिल्म से हटा देता है। ऐसे में जब फिल्म को दर्शक नहीं मिलते तब निर्माता उस हटाये हुए उत्तेजक गाने को जोडक़र फिल्म दोबारा प्रदर्शित करता है और फिल्म चल निकलती है। यही निर्माता रेशमा को ढूँढता है और खोज निकालता है। सबसे पहले भरपेट खाना खिलाता है फिर अपनी इच्छा की भूमिका देता है, जिसके लिए वह भी खुशी-खुशी तैयार है। वही रेशमा को सिल्क नाम देता है। सिल्क स्मिता के साथ भी यह कहानी जुड़ी है कि चार दिनों की भूखी सिल्क को उससे मिलने वाले पहले निर्माता ने भरपेट खाना खिलाया था, जिसके बाद ही वह उसकी जरूरत के अनुकूल फिल्म में काम करने को राजी हो गयी थी। द डर्टी पिक्चर की सिल्क भी इस घटना के बाद कामयाबी की सीढिय़ाँ चढऩे लगती है मगर उसकी भी कीमत चुकाते हुए। छोटी सी उम्र से ही मन ही मन सूर्या नाम के एक्टर से प्यार करने वाली रेशमा, अब सिल्क होने के बाद उसकी नजदीकी है। दोनों के रिश्तों को लेकर गॉसिप लिखने वाली एक महिला पत्रकार है जो हर वक्त सिगरेट पिया करती है। सूर्या का छोटा भाई है, वह भी सिल्क के प्रति आकर्षित है। दूसरी तरफ पहली फिल्म से ही सिल्क को नापसन्द करने वाला निर्देशक, हमेशा ही उसे निकृष्ट मानता चला आ रहा है उसके वर्चस्व को स्वीकार नहीं कर पा रहा है। 

एक मुकम्मल फिल्म में अपनी सीमित जगह के बावजूद अपने सेक्स सिम्बल वजूद से लोगों की नींद हराम कर देने वाली सिल्क आखिरकार अपने सभी चहेतों की आँखों की किरकिरी बनने लगती है। सूर्या से लेकर उसका भाई और दूसरे निर्देशक उससे किनाराकशी कर लेते हैं। वह कुण्ठा और काम न होने की स्थितियों में शराब का सहारा लेती है। कुछ बुरे फिल्म बनाने वालों की संगत में उसे बेइज्जती और अपमान का शिकार भी होना पड़ता है। गहन अवसाद में बड़े नाटकीय ढंग से वह निर्देशक उसके करीब आता है जो उससे हमेशा नफरत करता है मगर सिल्क एक दिन सुबह अपने घर मृत पायी जाती है। पास में नींद की गोलियों की शीशी खुली पड़ी है। एक कहानी खत्म होती है, वो जो एक ग्रहण आरम्भ से सिल्क के साथ चल रहा होता है, यहाँ अधिक स्याह रूप ले लेता है। यह दृश्य बहुत भारी भी हो जाता है।

द डर्टी पिक्चर, सिल्क स्मिता से जोडक़र प्रचारित किए जाने के अपने निरर्थक तरीके के बावजूद मिलन लूथरिया की एक अच्छी और महत्वपूर्ण फिल्म है। हालाँकि इसे इस तरह अच्छा या महत्वपूर्ण कहना यह प्रश्र खड़े कर सकता है क्योंकि फिल्म में लगातार घटिया और आपसी अन्तरंग रिश्तों को इस तरह रस लेकर संवादों की रचना की गयी है कि सिनेमाहॉल में भी दर्शक उसका आनंद खूब समर्थन करते हुए उठाते हैं लेकिन फिल्म में एक सीमित क्षमताओं वाली युवती के दुस्साहस और सिनेमा की पुरुषप्रधान दुनिया में सारी हकीकतों को जानते-बूझते उसे अपनी शर्तों पर शरणागत करके रख देने वाले जीवट का प्रदर्शन बड़ा प्रबल है। यह बात बड़ी सार्थक और सच है कि यह विद्या बालन की फिल्म है क्योंकि सिल्क की भूमिका उन्होंने की है। सिल्क स्मिता, सुन्दर नहीं थीं, साँवली थीं, वे अभिव्यक्ति में केवल एक सुघढ़ देहयष्टि थीं लेकिन विद्या बालन उनसे बहुत आगे हैं। विद्या ने रेश्मा से सिल्क तक भूमिका बिना कोई छबि या पहचान, अपने दिमाग में रखे निभायी है। छरहरी विद्या ने इस भूमिका को चुनौती की तरह लिया है। शायद उन्हें अगले किरदार बड़ी मुश्किल से ऐसे कोई मिल पायें जिससे वे और दर्शक दोनों उनकी छबि से निजात पा सकें । 

फिल्म में शेष कलाकारों में ले-देकर बस तीन नाम हैं, नसीरुद्दीन शाह, इमरान हाशमी और तुषार। नसीर इस फिल्म में सुपर स्टार सूर्या की भूमिका में हैं मगर साठ पार के इस प्रतिभाशाली कलाकार का चयन इस फिल्म और इस किरदार के अनुकूल नहीं लगता। वे हर दृश्य में चेहरे से हाल ही में सो-कर उठे हुए से लगते हैं। इमरान हाशमी का किरदार फिल्म में लगातार ग्रे-शेड में है जो फिल्म की नायिका से सीधा जुड़ता है लेकिन अन्तिम दो रीलों में वे सहानुभूति वाली अपनी छबि में ही दरअसल कमाल करते हैं। वह दृश्य महत्वपूर्ण है जब सिल्क को बाहों में लिए वे उसकी नब्ज देखते हैं जिसमें जीवन का कोई संकेत नहीं है। यही किरदार, सिल्क का अन्तिम संस्कार उसकी माँ की उपस्थिति में करता है। द डर्टी पिक्चर, इमरान के किरदार के आत्मकथ्य से शुरू होकर उसी के पूर्ण विराम पर पूरी होती है। यह फिल्म एक बार इस नाते जरूर देख लेनी चाहिए क्योंकि यह एक कठिन सफर की चेतावनियों को भी अपने साथ लेकर चलती है। यद्यपि फिल्म को पूरा देखना और पास बैठे कुछ दर्शकों की राय में बर्दाश्त करना आसान भी नहीं है। चौथाई भरे हॉल में कुछ दर्शक फिल्म खत्म होने के पन्द्रह मिनट पहले से ही जाने भी लगे थे। हिम्मत करके ऐसी फिल्म को पूरा देख लेना चाहिए, भले ही यह बहुत विशिष्ट फिल्म न हो। 

हाँ, तुषार अपनी बहन की इस फिल्म में सबसे मामूली भूमिका में हैं, पटकथा लेखक की। फिल्म के दो गाने चर्चित और हिट जैसे ही हैं, हमारे दर्शक सुन ही रहे हैं प्रोमो में। एक निर्देशक के रूप में मिलन लूथरिया को इस फिल्म के सशक्त पक्षों के लिए पूरा श्रेय है। तीस साल पहले के समय को वे बड़ी वास्तविकता के साथ सामने लाते हैं, माहौल, लोग, प्रवृत्तियाँ और कृपण सी भीड़भाड़ जिसमें जूझती है, जिन्दगी कोई, सिल्क सी...................

सोमवार, 21 नवंबर 2011

रविवार-सोमवार और जिन्दगी के विरोधाभास



रविवार और सोमवार के बीच अजब विरोधाभास हुआ करता है। खासकर अपने शहर भोपाल में देखा करता हूँ बरसों से। रविवार अवकाश का दिन होता है, चहल-पहल से भरा हुआ। किसी को भी काम पर जाना नहीं होता, कुछेक अपवादों को छोडक़र। अपनी तरह लोग उठते हैं, रोज की तरह दिन के साथ व्यतीत नहीं होते बल्कि दिन को अपनी तरह बरतते हैं। सबसे खास बात तो यह कि रोज की अपेक्षा बाजार ज्यादा रौनक के साथ सजता है। बहुत सारे छोटे और मझौले दुकानदारों को अवसर मिलता है, शहर में आकर अपना सामान बेचने का। सब्जी बाजार जाने कितनी लाइनों और सडक़ों में बँटा दिखायी देता है। वहीं अनाज और राशन की छोटी-छोटी दुकानें जिनमें रंग-बिरंगे मसालों का अपना विन्यास। ठेलों पर दिन भर बनते भजिए, समोसे और चटख रंग वाली जलेबियाँ। 

साप्ताहिक हाट का यह अलग आकर्षण है। सर्दी का मौसम है, बरसात के मौसम में बोयी और उगायी गयी सब्जियों की बहार हैं। भाजियों की आमद खासतौर पर भरपूर है। खासतौर पर देसी चीजें खूब आ और बिक रही हैं, देसी का अपना आकर्षण है, देसी मेथी, देसी मूली, देसी गाजर, देसी टमाटर, देसी गोभी की बहारें सुबह से ही सब्जी पसन्द और खासकर छाँटबीन कर खरीदारी करने वालों को रविवार के दिन खूब मौका देती हैं। घरों की कारें, मोटरसाइकिले, स्कूटर जो कि अब शहर में अपेक्षाकृत बहुत ही कम बचे हैं, सभी जैसे शाम होते-होते बाजार की सभी पार्किंग को लबालब भर दिया करते हैं। इसी खासी आपाधापी में व्यवस्था सुधारने निकलती ट्रैफिक पुलिस क्रेन पर सवार, माइक पर दाँए-बाँए, आमने-सामने गाडिय़ों के नाम और नम्बर लाउडस्पीकर में चिल्लाती और लगभग डाँट पिलाती हुई सडक़ों पर चारों तरफ परिक्रमा करती दिखायी देती है। लटकी-झूलती, नियम तोड़ती मोटरसाइकिलें और उनके पीछे भागते, घिघियाते या अन्त में जुर्माना भरते उनके मालिक और इन सबसे अलग, इन सबका मजा लेते तमाशबीन।

रात तक रविवार अपनी रौनक में होता है। मौसम सर्दी का है, बाजार में गजक आ गयी है। ग्वालियर से लेकर मुरैना तक की गजब का अपना आकर्षण और स्वाद है। पहले गजक के साथ रेवडिय़ों के भी चहेते हुआ करते थे, लेकिन अब रेवडिय़ाँ बिकने के बजाय, कहावतों और मुहावरों में ज्यादा इस्तेमाल होने लगी हैं। रात को आइसक्रीम की समृद्ध और भव्य दुकानों के सामने जैसे अलग ही तरह की रोशनाई दिखायी देती है। पहनावा, फैशन और जीवनशैली के विविध रूप यहाँ आते-जाते लोग निहारते नहीं अघाते। महानगरों की तरह शहरों में अब रविवार को घर पर खाना बनाने से निजात दिलाने की आपसी समझ बहुत जगह बन जाती है तो फिर ऐसे परिवार रात्रि भोजन या डिनर फिर बाहर ही करते हैं। रविवार के दिन सिनेमाघर में भी परिवार ज्यादा आजादी और आराम के साथ आया-जाया करते हैं। 

सोमवार की शाम जैसे रविवार के बिल्कुल उलट स्वरूप में होती है। एक दिन पहले की भरपूर सक्रियता और देर रात तक लगे रहने के बाद सोमवार को दुकानदार आराम करते हैं। इसी कारण एक दिन पहले जो सडक़, जो फुटपाथ और जो दुकानें जनता-जनार्दन से पल भर को फुरसत नहीं पा रही थीं, वे एक दूसरी ही स्थिति में नजर आती हैं। दुकानें बन्द होती हैं। इस यथार्थ को जानने वाला भी बाजार नहीं आता लिहाजा एक अजीब सा सूनापन या कह लीजिए सन्नाटा व्याप्त रहता है सब तरफ। कई बार ऐसे माहौल में घूमते हुए एक अजीब सा एकाकीपन महसूस होता है। हमारे आसपास से होकर कोई निकल नहीं रहा होता है। वाहनों का शोर अपेक्षा कम हो रहा होता है। फेरीवालों की आवाजें सुनायी नहीं पड़तीं। एक दिन पहले का कोलाहल और एक दिन बाद की शान्ति सचमुच परस्पर प्रतिरोधी लगती हैं। 

जिन्दगी अपनी सहजताओं, मन-बहलाव और इस दुनिया का हिस्सा बने रहने के लिए ही तो कितने सारे रंग रचती है। हम मनुष्यों के ही सृजित किए हुए ये सारे किस्से और हिस्से हैं। कभी चहल-पहल, शोर और जीवन की अपनी मनभावन विविधताओं से जैसे हमको साँस लेने की गुंजाइशें मिलती हैं। उस समय भीड़ ही हमको ऊर्जा देती है। कभी आसपास का अकेलापन, भरपूर सन्नाटा और खुद अपने को सुनायी देती पदचाप में भी घुटन और साँस लेने में तकलीफ महसूस होती है। जीवन का यह भी एक रंग है.........................