शनिवार, 19 फ़रवरी 2011

बासु चटर्जी की अविस्मरणीय फिल्म "स्वामी"

रविवार को फिल्म विशेष के पुनरावलोकन के तारतम्य में इस बार हम विख्यात निर्देशक बासु चटर्जी की फिल्म स्वामी की चर्चा कर रहे हैं। इस फिल्म का निर्माण 1977 में हेमा मालिनी की माँ जया चक्रवर्ती की निर्माण संस्था जया सारथी कम्बाइन्स के बैनर पर हुआ था। दौर बहुल सितारा फिल्मों का था, अमिताभ बच्चन जैसे अभिनेता दीवार से ऊँचाई पर पहुँच चुके थे, शोले आ चुकी थी। मनमोहन देसाई और प्रकाश मेहरा के साथ यश चोपड़ा जैसे प्रतिष्ठित निर्देशक इस दौर में अपना परचम फहरा रहे थे, उसी गहमागहमी में बासु दा की यह प्यारी और अच्छी सी फिल्म स्वामी आयी थी।

स्वामी में हिन्दी सिनेमा के दर्शकों ने पहली बार कन्नड़ के प्रख्यात अभिनेता-रंगकर्मी गिरीश रघुनाथ कर्नाड को नायक के रूप में देखा। शाबाना आजमी फिल्म की नायिका थी। यह फिल्म एक नायिका को पारिवारिक अनुशासन में विवाह होने के उपरान्त प्रेमी की दुनिया में अपने छूटे अपने मन से उत्पन्न विचलन को व्यक्त करती है। नायिका सौदामिनी का विवाह से पहले एक प्रेमी नरेन्द्र होता है जिसे वह भुला नहीं पाती। सुदूर गाँव में एक पारम्परिक और पारिवारिक कुटुम्ब में वह बहू बनकर आती है जहाँ उसे घुटन महसूस होती है। वह परिवार और पति घनश्याम से अपने तादात्म्य स्थापित कर पाने में बहुत कठिनाई महसूस करती है। उसे अपने पति की सौतेली माँ और रिश्ते-नातों से निबाह करना कठिन हो जाता है।

इधर नरेन्द्र भी सौदामिनी को भूल नहीं पाता। वह उपाय करता है कि किसी तरह सौदामिनी के घर जाकर उससे मिले और विवाह के बावजूद उसके मन में सौदामिनी को लेकर जो भावनाएँ हैं, उसे व्यक्त करे, उसकी आत्मीयता हासिल करे। परिवेश में असहज और माहौल से असहमत सौदामिनी एक बार फिर नरेन्द्र के बहकावे में आ जाती है और उसके साथ चले जाना चाहती है लेकिन नैतिकता और आदर्श के साथ-साथ दृढ़ आचरण की मिसाल घनश्याम, सौदामिनी को रेल्वे स्टेशन से घर वापस ले आता है और नरेन्द्र रेल में बैठा अकेला लौट जाता है।

शरतचन्द्र चटर्जी के उपन्यास पर बनी इस फिल्म की पटकथा मन्नू भण्डारी ने लिखी थी। स्वामी अपने समय की एक खूबसूरत और मन में गहरे उतर जाने वाली फिल्म है। इस फिल्म के गीत अमित खन्ना ने लिखे थे और राजेश रोशन ने संगीत दिया था। येसुदास की आवाज में, का करूँ सजनी, आये न बालम, सौदामिनी के विरह और बेचैनी का एक तरह से उसके सामने प्रतिबिम्ब बनकर दृश्य में सार्थक होता है। बासु चटर्जी, एक मर्मस्पर्शी कहानी को अपनी रचनात्मक दृष्टि से एक अनूठे तानेबाने में रचकर साकार करते हैं। फिल्म में उत्पल दत्त, शशिकला और धीरज भी अपनी भूमिकाओं में कहानी का सहज और प्रभावी हिस्सा बनकर प्रभावित करते हैं। यह फिल्म देखना, सचमुच एक अनूठा अनुभव साबित होता है।

1 टिप्पणी:

Patali-The-Village ने कहा…

पुरानी हिंदी फ़िल्में काफी अच्छी हुआ करती थी|