सोमवार, 28 मार्च 2011

रेखा, बच्चन साहब, रजनीकान्त और राणा


कुछ समय पहले ही हमने सुना था कि रोबोट की सफलता के बाद दक्षिण के महानायक रजनीकान्त की एक और बड़ी फिल्म राणा का निर्माण शीघ्र आरम्भ किया जाना घोषित हो गया है। सत्रहवीं शताब्दी के सुल्तान की वीरगाथा पर एकाग्र इस मँहगी फिल्म को तमिल, तेलुगु और हिन्दी तीन भाषाओं में बनाया जाना तय हो गया है। फिल्म के निर्देशन का भार के.एस. रविकुमार को सौंपा गया है जो रजनीकान्त के साथ पहले मुथु, नरसिम्हा और पदयप्पा जैसी हिट फिल्में बना चुके हैं।

राणा फिल्म की परिकल्पना कमोवेश बेन हर फिल्म की तरह है जिसमें हजारों योद्धा, हाथी, घोड़े और तीव्र-प्रभावी स्टंट, एक्शन, जो कि रजनीकान्त जैसे कलाकार की शख्सियत के लिए अपरिहार्य होते हैं, शामिल होंगे। इस बात को अब स्वीकार कर लिया जाना चाहिए, खासकर हिन्दी सिनेमा के भी दर्शकों को कि रजनीकान्त आज के समय में भारतीय सिनेमा के शीर्ष अभिनेता हैं और उनका स्थान, सशक्त छबि, प्रभाव और व्यावसायिक सफलता की तमाम गारन्टियों के साथ सर्वोच्च है। राणा में रजनीकान्त की तीन भूमिकाएँ हैं। वे तीसरी बार तीन भूमिकाएँ करने जा रहे हैं। इससे पहले वे मुंदरु मुगम और जॉन जानी जनार्दन में ट्रिपल रोल कर चुके हैं। इस फिल्म में उनकी बेटी सौन्दर्या टेक्रीकल और स्पेशल इफेक्ट की डायरेक्टर होंगी। फिल्म में संगीत ए.आर. रहमान का होगा।

निर्देशक ने तीनों भूमिकाओं के हिसाब से रेखा, विद्या बालन और दीपिका पादुकोण का चुनाव भी कर लिया था लेकिन अब खबर यह है कि रेखा ने अपने आपको इस फिल्म से अलग कर लिया है। इसका कारण अमिताभ बच्चन का फिल्म में एक कैमियो रोल करना बताया जा रहा है। अमिताभ बच्चन, राणा में एक विशेष भूमिका करने को तैयार हो गये हैं जो इण्टरवल के बाद है।

रजनीकान्त और अमिताभ बच्चन हिन्दी फिल्मों में तीन बार, गिरफ्तार, अंधा कानून और हम में एक साथ काम कर चुके हैं। रजनीकान्त की पिछली फिल्म ऐदिरन में ऐश्वर्य को नायिका के रूप में काम करने के लिए भी बच्चन साहब ने ही प्रोत्साहित किया था। रजनीकान्त का राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय प्रभाव देखकर अमिताभ भी राणा के लिए इच्छुक हुए लेकिन उनकी एंट्री ने रेखा के लिए एक्जिट की स्थितियाँ निर्मित कर दीं।

सुना तो यह जा रहा है कि रेखा ने स्वयं यह पहल की क्योंकि वे बच्चन के साथ कैमरा फेस करना नहीं चाहतीं। हो यह भी सकता है कि जब बच्चन साहब को लिया जा रहा हो, तब उन्होंने यह शर्त रख दी हो कि वे रेखा के साथ काम करने में असहज महसूस करेंगे। बहरहाल बिसरे जमाने के अहसासों ने एक अच्छी खासी फिल्म के लिए फिलहाल संकट खड़ा कर दिया है। पता नहीं निराकरण क्या होगा? रेखा की जगह कौन आयेंगी, क्या हेमा?

शनिवार, 26 मार्च 2011

मोहिनी और मुन्ना की तेजाब


दर्शक के जहन में कब कौन सी फिल्म किस तरह का प्रभाव छोडऩे में कामयाब हो जायेगी, कहा नहीं जा सकता। पिछले दस वर्षों में एन. चन्द्रा नाम के निर्देशक चार-पाँच फालतू सी फिल्में बनाकर अपनी उस पहचान से पूरी तरह खाली हो गये जो उन्होंने अंकुश, प्रतिघात और तेजाब फिल्में बनाकर स्थापित की थी। तेजाब, चन्द्रा की उन्नति का चरम थी, जिसकी चर्चा हम रविवार को अपने समय की किसी चर्चित फिल्म विशेष के सन्दर्भ में कर रहे हैं।

अनिल कपूर और माधुरी दीक्षित अभिनीत फिल्म तेजाब का प्रदर्शन काल 1988 का है। अपने समय में यह फिल्म सुपरहिट थी। अनिल कपूर छा गये थे, माधुरी दीक्षित छा गयी थीं, फिल्म के गाने और संगीत को खासी लोकप्रियता मिली थी। इससे पहले अंकुश और प्रतिघात बना चुके चन्द्रा का तेवर तीव्र प्रभाव वाली हिंसक फिल्मों के माध्यम से अपनी एक अलग जगह स्थापित करने वाले फिल्मकार के रूप में पहचाना गया था। तेजाब में बड़े सितारे थे। सुभाष घई से अपने लिए बड़े ब्रेक का इन्तजार कर रहीं माधुरी के गॉड फादर अचानक ही चन्द्रा हो गये थे क्योंकि इससे माधुरी का भी सितारा बुलन्द हो गया था।

दिशाहीन युवाओं की टोली का हीरो मुन्ना ही फिल्म का नायक है। इन युवाओं के पास करने को कुछ काम नहीं है, भविष्य के लिए मार्गदर्शन नहीं है और जिस तरह के कामों में वे अपना जीवन खपा रहे हैं उससे बनती उनकी अराजक छबि के बीच ही फिल्म की नायिका मोहिनी दृश्य में आती है जिसका धन-लोलुप पिता उसे बेच देना चाहता है। फिल्म का नायक जिद्दी और दुस्साहसी है। अपनी दृढ़ता की रक्षा वह किसी भी स्तर पर हिंसक होकर करता है, मगर उसके पीछे उसका अतीत है। नायक की एक बहन भी है जिसे वह उसकी अपनी क्षमताओं पर दृढ़ होते देखना चाहता है। लोटिया पठान नाम का खलनायक भी है फिल्म में।

छोटे-छोटे हिस्से में अनेक क्षेपक हैं फिल्म के साथ जो घटनाओं को अलग-अलग स्तरों पर आपस में जोड़ते चलते हैं। मुन्ना और मोहिनी का प्रेम, मुन्ना के कॉलेज की छत से कूद जाने के बाद परवान चढ़ता है। एक तरफ मोहिनी का पिता जिसके पीछे एक छिपा हुआ अपराध अपनी पत्नी पर तेजाब डालकर मार देने का है। लोटिया पठान बदले में भरा हुआ है। कई तरह की हिंसक घटनाओं, मारधाड़ और सशक्त क्लायमेक्स के बाद फिल्म का अन्त होता है। एक दो तीन, सो गयी ये जमीं, कह दो के तुम हो मेरी वरना जैसे गाने जावेद अख्तर और लक्ष्मीकान्त प्यारेलाल के गीत-संगीत का कमाल हैं। बाबा आजमी की सिनेमेटोग्राफी अपने सभी दृष्टिकोणों से अच्छी है। अनिल कपूर, माधुरी, किरण कुमार, अनुपम खेर, सुरेश ओबेरॉय, अन्नू कपूर सभी अपने किरदारों मे प्रभावी निर्वाह के कारण आज भी याद हैं।



लम्बी कवायद, तैयारी और रॉ-वन


शाहरुख खान की बहुचर्चित फिल्म रॉ-वन की शूटिंग कुछ समय पहले पूरी हो गयी है और उसका पोस्ट-प्रोडक्शन का काम तेजी से जारी है। इस बीच उन्होंने किसी नयी फिल्म का काम भी हाथ में नहीं लिया और अपने आपको पूरी तरह रॉ-वन के सुपुर्द कर दिया। इस बीच उनके स्पर्धी अपनी स्थितियाँ खूब मजबूत कर चुके हैं। शाहरुख स्पर्धा से बाहर जरूर रहे मगर स्पर्धी कलाकारों से उनका मनमुटाव खूब प्रचार माध्यमों की खबर बनता रहा। बयानबाजियाँ जारी रहीं और विश£ेषण तथा आकलन भी।

रॉ-वन को शाहरुख हिन्दी सिनेमा की अब तक की सबसे अद्वितीय फिल्म बनाकर पेश करना चाहते हैं। अनुमान बताया जाता है कि इस फिल्म के निर्माण में लगभग दो सौ करोड़ खर्च हुए हैं। एक फिल्म बनाने में जितनी बड़ी राशि खर्च होती है, उतने ही बड़े मुनाफे की उससे अपेक्षा भी की जाती है। इस हिसाब से रॉ-वन को लागत से कम से कम पाँच गुनी आय तो अर्जित करना ही चाहिए, साथ ही लगभग दो साल परदे से बाहर रहने वाले शाहरुख की मान-प्रतिष्ठा पर भी मजबूत मुहर लगानी चाहिए।

हालाँकि यह सद्इच्छा है मगर आज तक यह माना गया है कि दर्शक की नब्ज पर सही-सही हाथ रखने का हुनर हमारे फिल्मकारों के एक बड़े प्रतिशत को नहीं आया है। तमाम आधुनिकताओं और दुनिया के शनै-शनै बदलते जाने के शगूफे के पहले सक्रिय निर्देशकों में कम से कम अस्सी प्रतिशत निर्देशकों को दर्शकों की नब्ज का पता होता था, चाहे वो मेहबूब खान हो, शान्ताराम हों, बिमल राय हों, राजकपूर हों, बासु चटर्जी हों, ऋषिकेश मुखर्जी हों या इनकी ही तरह दूसरे निर्देशक। आज फिल्म बनाकर प्रदर्शित करने वाला निर्माता-निर्देशक जितना शुक्रवार के भरोसे है उतना ही शुक्रवार से डरता भी है क्योंकि इस दिन फिल्म रिलीज होती है।

यही कारण है कि प्रदर्शन के पहले समानान्तर सौदे होना शुरू हो जाते हैं। रॉ-वन के साथ भी ऐसा ही हुआ है। सोनी चैनल ने अभी से चालीस करोड़ में उसके अधिकार खरीद लिए हैं जबकि अभी फिल्म प्रदर्शन में पूरा साल बाकी है। शाहरुख सचमुच इस फिल्म के जरिए दाँव पर हैं, तनाव में भी जो उनके चेहरे से दिखायी देता है किन्तु वे उतने ही प्रभावी कलाकार भी हैं। रॉ-वन, ऊँचाई भेदने वाला रॉकेट साबित होती है कि नहीं, देखना होगा।

चश्मे बद्दूर फारुख शेख


फारुख शेख का जन्मदिन है, 25 मार्च। ऊपरवाले ने उनके चेहरे को सौम्यता ऐसी बख्शी है कि वे आज भी बड़े सहज, विनम्र और शिष्ट दिखायी देते हैं, तिरसठ साल के होकर भी अपनी उम्र से बीस साल कम, कम से कम। चार दशक पहले वे फिल्मों में आये थे, एम.एस. सथ्यू की गर्म हवा से और कुछ समय पहले ही उन्होंने फिल्म लाहौर में अपनी श्रेष्ठ सहायक भूमिका के लिए भारत के राष्ट्रपति से नेशनल अवार्ड प्राप्त किया है।

सिनेमा, चकाचौंध और आमजन की आम रुचि में बड़ा सीमित है। हम सभी बहुत आगे रहने वाले, अच्छे-बुरे उपक्रम से किसी न किसी रूप में प्रभावित करने वाले और केवल हीरो-हीरोइन के रूप में ही काम करते हुए दो-चार साल में किनारे लग जाने वाले कलाकारों को ही याद रख पाते हैं। नायकों का ऐसा है कि वो बड़ी मुश्किल से मैदान छोड़ते हैं। उनका बाँकपन साठ पार भी कायम रहता है। हीरोइनों के मामले में स्थिति दयनीय और शोचनीय दोनों हैं। दो-तीन साल पर्याप्त हैं। ऐसे में फारुख शेख जैसे कलाकारों को निरन्तर उनकी खूबियों में हम याद रख पायें, यह कहाँ सम्भव है?

फारुख शेख उन कलाकारों में शुमार होते हैं जो बड़े और असाधारण श्रेणी के फिल्मकारों द्वारा अपनी फिल्मों के लिए खास किरदार विशिष्ट हेतु चुने जाते हैं। ऐसे कलाकार किरदार जीते हैं और ये किरदार ही आपके जहन में अपना ऐसा प्रभाव छोड़ जाते हैं जिन्हें आप लम्बे समय तक याद रखते हैं। सथ्यू से लेकर सत्यजित रे, मुजफ्फर अली, हृषिकेश मुखर्जी, केतन मेहता, सई परांजपे, सागर सरहदी जैसे फिल्मकारों की यादगार फिल्मों में काम कर चुके फारुख शेख अपने किरदारों में जुझारू, मध्यमवर्गीय, स्वप्रद्रष्टा और मूल्यजीवी इन्सान के साथ-साथ मनुष्य की फितरत को भी अभिव्यक्ति में बखूबी अंजाम दिया है।

गरम हवा, शतरंज के खिलाड़ी, गमन, नूरी, उमराव जान, चश्मे बद्दूर, साथ-साथ, कथा, बाजार, रंग-बिरंगी, लाखों की बात, अब आयेगा मजा, एक पल, पीछा करो, बीवी हो तो ऐसी, माया मेमसाब आदि फिल्मों में फारुख शेख की विभिन्न उपस्थितियाँ रेखांकित की जाने वाली हैं। पिछले वर्षों में सास बहू और सेंसेक्स, एक्सीडेंट ऑन हिल रोड और लाहौर में फारुख शेख उम्रमुताबिक परिपक्व छबियों में हैं। हास्य भूमिकाओं में उनका सेंस ऑफ हृयूमर गजब का है। चश्मे बद्दूर फिल्म से लेकर चमत्कार सीरियल तक यह बात प्रमाणित है।

शादियाँ कीर्तिमान नहीं एलिजाबेथ की


विश्वप्रसिद्ध अभिनेत्री एलिजाबेथ टेलर की मृत्यु पर प्रचारित होने वाली खबरों में उनकी नौ शादियों को लेकर इस तरह विशेष उल्लेख है जैसे जीवन में उन्होंने बस यही एक असाधारण काम किया हो। बीसवीं शती के उत्तरार्ध में विश्व सिनेमा में एक ऐसी अभिनेत्री की उपस्थिति जिसने अपनी पर्सनैलिटी, अपने सिनेमा और अपनी जीवनशैली से सबसे ज्यादा दुनिया को प्रभावित किया हो, ऐसी कोई बात कहीं चार वाक्यों में भी विश£ेषित नहीं की गयी है। कई बार विशिष्ट आयामों में अत्यन्त व्यापक और निरन्तर स्थायी बनी रहने वाली प्रतिष्ठा अर्जित करने वालों का भी दुनिया से जाना, एक सामान्य घटना ही बन कर रहा जाता है, ऐसी ही वजहों से।

अमरीकन माता-पिता की सन्तान एलिजाबेथ टेलर का जन्म 1930 में लन्दन में हुआ था। नौ-दस साल की उम्र में अपने अविभावकों के साथ वो लास एंजलिस आ गयी थीं। दिखने में आकर्षक और अभिव्यक्ति में भीतर से बड़ी आश्वस्त रहने वाली एलिजाबेथ को छोटी उम्र में ही बाल कलाकार के रूप में एमजीएम अर्थात मेट्रो गोल्डविन मेयर स्टुडियो ने अपनी फिल्मों के लिए लम्बी अवधि का अनुबन्ध दे दिया था। हॉलीवुड सिनेमा में लिज टेलर की यहाँ से एक ऐसी यात्रा शुरू हुई जो आगे चलकर खूब परवान चढ़ी। लेसी कम होम और नेशनल वेल्वेट जैसी फिल्मों ने उनको ऐसा प्लेटफॉर्म दिया जो आगे बड़ा काम आया। 1951 में वे हीरोइन बनीं और ए प्लेस इन द सन से एक नये चमत्कारिक रूप में सामने आयीं।

एलिजाबेथ टेलर ने जब नायिका की भूमिकाएँ करना शुरू कीं तब ज्यादातर फिल्मों में उनको परिपक्व स्त्री के रोल अधिक मिलते थे, अर्थात उम्र से अधिक दिखायी देने वाले किरदार। वे आसानी से ऐसे किरदारों को अपनी अदायगी से प्रभावी बनाती थीं। शारीरिक सौष्ठव और सौन्दर्य में उनका प्रभाव, अपने नायक से कई गुना अधिक हुआ करता था। इसी कारण उनको डॉमिनेटिंग पर्सनैलिटी कहा जाता था। अपने समय में हॉलीवुड की सबसे अधिक प्रभावी नायिकाओं में सोफिया लारेन और एलिजाबेथ टेलर ही शुमार होती थीं।

नौ शादियाँ और आठ पति का कीर्तिमान अपनी जगह है। इसमें गणित असहज इसलिए है क्योंकि रिचर्ड बर्टन से उन्होंने दो बार शादी की। दूसरी बार शादी में रिचर्ड ने एलिजाबेथ को जो हीरा भेंट किया था वो एक लाख पचास हजार डॉलर मूल्य का था। कहा जाता है कि यह हीरा 1621 में शाहजहाँ ने मुमताज को भेंट किया था। बहरहाल विलक्षण होना, अपनी पहचान है। अपने कैरियर में दो बार बटर फील्ड और हूज अफ्रेड ऑफ वर्जीनिया वुल्फ के लिए ऑस्कर हासिल करने वाली एलिजाबेथ ने मुकम्मल शानौ-शौकत को जिया।

क्लियोपेट्रा उनकी एक अनूठी फिल्म है, यों उन्होंने अपने महत्वपूर्ण फिल्मों में काम किया। उनकी ख्याति असाधारण थी, यही कारण था कि उनसे जुड़ी खबरें हिन्दुस्तान तक आती थीं और भले हम उनकी फिल्में न देख पाते हों, उनकी खूबियों, जीवनशैली और खूबसूरती से रोमांचित हुआ करते थे।

रविवार, 20 मार्च 2011

राजिन्दर सिंह बेदी की फागुन

इस रविवार, खास होली का त्यौहार पर राजिन्दर सिंह बेदी की महत्वपूर्ण फिल्म फागुन की चर्चा करना बड़ा प्रासंगिक लगता है। धर्मेन्द्र, वहीदा रहमान, जया भादुड़ी, विजय अरोरा और ओमप्रकाश अभिनीत यह फिल्म 1973 में आयी थी। अपनी कथा वस्तु में यह फिल्म बड़ी मर्मस्पर्शी है, और आम पारिवारिक जीवन में होने वाली घटनाओं के प्रभावों को संवेदनशीलता के साथ देखती है।

जैसा कि नाम से जाहिर है, फिल्म फागुन, होली के दिन एक घटना से एक परिवार, एक जिन्दगी और रिश्तों की क्षतियों का आकलन करती है। फिल्म का नायक एक लेखक है जिसके पास आय के नियमित साधन नहीं हैं। एक धनाड्य परिवार की लडक़ी से उसका प्रेम-विवाह हुआ है। पत्नी से बेहद प्यार करने वाला नायक उसके साथ अपने सास-ससुर के बड़े घर में रहता है मगर उसका स्वाभिमान उसे बराबर आत्मनिर्भर होने के लिए कचोटता है। उसके ससुर और दूसरे सदस्य बातों-बातों में उसका अपमान भी करते हैं मगर अपनी पत्नी के प्रेम में वह सब कुछ सहता है।

इसी परिवार में एक होली के दिन हो रहे उत्सव में नृत्य करती, गाती अपनी पत्नी के प्रति अनुराग में भरकर नायक पिचकारी से रंग डाल देता है। इस घटना से वातावरण स्तब्ध है और नायिका के पिता की भृकुटियाँ तन जाती हैं। अपने पिता की निगाह को देखते हुए नायिका, नायक से कहती है कि तुम्हें क्या हक बनता है रंग डालने का जब एक साड़ी लाकर नहीं दे सकते। नायक ताने से व्यथित होकर घर छोडक़र चुपचाप चला जाता है। इस समय नायिका गर्भवती है। बेटी होती है, उसको पालती है और उसका विवाह करती है। वह अपनी बेटी के पक्ष में दामाद का बड़ा ख्याल रखती है जो दामाद को पसन्द नहीं।

फिल्म के क्लायमेक्स में फिर एक होली है जिसमें फिर उत्सव का माहौल है। दामाद, अपनी सास पर रंग डाल देता है मगर दामाद के व्यवहार से दुखी नायिका उसे भला-बुरा कहती है। बेटी हतप्रभ है, दुख का माहौल है मगर इसी वक्त नायिका का पति अपने हाथ में एक साड़ी लिए लौट आया है। अपने कहे कड़वे शब्द का पश्चात पूरे जीवन करती नायिका के चेहरे पर प्रायश्चित है। पिया संग खेलो होली, फागुन आयो रे, गाने का नेपथ्य है और जीवन के उत्तरार्ध में लौटे नायक ने अपनी पत्नी को रंग लगा दिया है। मन को झकझोरकर रख देने वाला चरम है मगर फिल्म सुखान्त है।

धर्मेन्द्र, फिल्म के आरम्भ में पन्द्रह मिनट और अन्त में लगभग दस मिनट हैं मगर पूरी फिल्म में उनके कैरेक्टर का प्रभाव लगातार बना रहता है। वहीदा रहमान ने अकेलेपन की पीड़ा और पछतावे को मर्मस्पर्शी ढंग से जिया है। विजय अरोरा और जया की भूमिकाएँ सामान्य हैं। एक लेखक राजिन्दर सिंह बेदी की फिल्म है जो अपने कथ्य से दर्शक के मन को छूती है।

गुरुवार, 17 मार्च 2011

टेलीविजन कार्यक्रमों की स्वनियमन संहिता

बात जिक्र योग्य है कि संसद में इस बात पर पिछले कुछ समय से चर्चा की जाने लगी है कि टेलीविजन के चैनल आपस में स्पर्धा और आगे निकलने की होड़ में अश्लील और बुरे कार्यक्रम दिखा रहे हैं। ऐसे कार्यक्रमों की भरमार हो गयी है जिनमें स्त्रियों की छबि को खराब ढंग से प्रस्तुत किया जा रहा है। भारत सरकार का सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय भी इस बात को लेकर चिन्तित है मगर चीजें उसके नियंत्रण से बाहर हैं क्योंकि टेलीविजन कार्यक्रमों के लिए सेंसर बोर्ड नहीं है। इसी कारण इस बात का फैसला जल्दी ही लिया जा रहा है कि टेलीविजन कार्यक्रमों की स्वनियमन संहिता बनायी जायेगी।

पिछले दिनों संसद में शरद यादव ने शून्यकाल में प्रभावी ढंग से इस सवाल को उठाया था कि विभिन्न मनोरंजन चैनलों पर अश्लील और अभद्र कार्यक्रम पेश किए जा रहे हैं। उनका यह भी कहना था कि जब सेंसर बोर्ड इसे नियंत्रित या अनुशासित नहीं कर सकता तो उसे भंग कर दिया जाना चाहिए। हालाँकि बाद में सूचना एवं प्रसारण मंत्री ने जानकारी दी कि टेलीविजन चैनलों के लिए कोई सेंसर बोर्ड नहीं है। इस समय सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय तीस सौ चैनलों की निगरानी कर रहा है। इसी श्रृंखला में राज्य और जिला स्तर पर भी समितियाँ कार्यक्रमों की निगरानी करती हैं।

शरद यादव ने बाजार की होड़ और भेड़चाल का फायदा उठाते हुए मनोरंजन के नाम पर भद्दे और अश£ील कार्यक्रमों को पेश करने के लिए चैनलों की भत्र्सना की और कहा कि साफ दिखायी दे रहा है कि महिलाओं की मर्यादा को ताक पर रख दिया गया है। देश की संस्कृति, भाषा और तहजीब को बनाये रखने के लिए ऐसे अभद्र कार्यक्रम पेश करने वाले चैनलों को बन्द कर देने की मांग भी उन्होंने की।

यह बात सही है कि चैनलों की अपनी स्वेच्छारिता और उन्मुक्तता अतिरेक के किसी भी स्तर को पार करने का दुस्साहस करने में पीछे नहीं है। इनके पास कोई सामाजिक-सांस्कृतिक उद्देश्य या सरोकार नहीं हैं। लोकप्रियता के शिखर से ज्यादा सम्पन्नता और वैभव के शिखर पर झण्डा गाडऩा ही लक्ष्य रह गया है। भारत सरकार की प्रस्तावित स्वनियमन संहिता बेलगाम चैनलों को नियंत्रित कर पायी तो ही इसकी सार्थकता सिद्ध होगी।

बुधवार, 16 मार्च 2011

धारावाहिकों में खलनायक की आमद

मूढ़तापरक सृजन का साक्षी होना कई बार सजा काटने की तरह होता है। छोटे परदे के सामने बैठना ऐसी ही सजा काटने सरीखा है। हालाँकि ऐसे सौभाग्य नित्य-प्रति नहीं मिलते मगर परिवार के साथ सामूहिक भागीदारी जिसमें मुख्य रूप से खाना, खाना होता है, ऐसे वक्त में इस तरह की महान अनुभूतियाँ होती हैं। भाँय-भाँय करता संगीत, दोहराये जाते दृश्य, झन्न-फन्न, शूँ-शाँ, ढिच-ढिच की ध्वनियों के बीच रह-रहकर स्थिर होते चेहरे, उनकी बचकानी कुटिलताएँ बर्दाश्त कर पाना बड़ा मुश्किल होता है।

ऐसा लगता है कि उन सभी का अभिनन्दन किया जाये, उन लाखों-करोड़ों लोगों का जो लोग इसे बड़े चाव से बर्दाश्त करते हैं और वह भी भी पूरी एकाग्रता के साथ। बहरहाल, दो दिन पहले फुलवा धारावाहिक देखते हुए खलनायक की आमद वाले दृश्य से ऐसे ही दो-चार होना पड़ा। जिसमें गाँव के शोषक जमीदार और उसका बेटा, खलनायक का महिमा मण्डन कर रहे थे और दृश्य में चेहरा छोड़ हर भाग से उसका उघाड़ा शरीर दिखाया जा रहा था। वह नहा रहा था, कपड़े पहन रहा था, पूजा कर रहा था, रावण का मुखौटा लगाये था। इन्हीं दृश्यों के साथ उसका महिमा मण्डन पूरा हुआ और वह एकदम से उछलकर सक्रिय हो गया। घोड़े पर बैठ गया और दौड़ पड़ा अपने दो आदमियों के साथ एक निरीह कमोवेश मरे-मराये आदमी को मारने के लिए।

यह दृश्य ब्रेक के बाद का पूरा समय लील गया और जब खलनायक का चेहरा सामने आया तो चिकना-गोरा और चॉकलेटी। इतनी देर से प्रतीत यह होता रहा जैसे दिवंगत खलनायक अमरीश पुरी की आमद किसी फिल्म में होती थी, वैसा कुछ बाहुबली सामने आने वाला है, मगर यह सिनेमाछाप नकल बड़ी हास्यास्पद साबित हुई। शाम से लेकर देर रात तक इसी तरह धारावाहिक कर्कश ध्वनि में दिल-दिमाग की बत्ती गुल किए रहते हैं। धारावाहिकों के स्तर को नियंत्रित करने के लिए कोई सेंसर बोर्ड नहीं है, दुखद है। गजब का स्वेच्छाचार चैनल बरत रहे हैं।

इसके बरक्स कछुआ चाल से ही सही स्वस्थ और संजीदा मनोरंजन देने में सब टीवी चैनल का ग्राफ लगातार ऊपर जा रहा है। इस चैनल की तरफ स्तरीय मनोरंजन और जीवन मूल्यों के आकाँक्षी हर दर्शक को आना चाहिए।

मंगलवार, 15 मार्च 2011

आलम आरा के अस्सी साल

दो दिन पहले भारत की पहली बोलती फिल्म आलम आरा के प्रदर्शन के अस्सी साल पूरे हुए हैं। 14 मार्च 1931 को मुम्बई के मेजेस्टिक सिनेमा में इसे प्रदर्शित किया गया था। जैसे-जैसी सिनेमा की शताब्दी नजदीक आ रही है, वैसे-वैसे इस तरह की घटनाएँ सौ साल के सिनेमा के गौरवशाली क्षणों की याद दिलाकर मन में गौरव की अनुभूति कराती हैं। सिनेमा का आरम्भ मूक फिल्मों के जरिए हुआ था। दादा साहब फाल्के ने राजा हरिश्चन्द्र का निर्माण 1913 में किया था।

लम्बे समय तक हमारे यहाँ तब फिल्म को साथ खड़े होकर समझाने की प्रक्रिया चलती रही थी। सिनेमा का समग्रता में आनंद दर्शकों को प्रदान करना, तब का सिनेमा बनाने वालों की ज्यादा संजीदा और गम्भीर जिम्मेदारी हुआ करती थी। चेष्टाओं और हावभाव के साथ हिलते ओठों को व्याख्या के माध्यम से, वाद्यों से उत्पन्न संगीत के माध्यम से सम्प्रेषित किया जाता था। अठारह साल का अन्तराल सिनेमा को सवाक होने में लगा जो कि आसान काम नहीं था। उस समय सिनेमा बनाना जुनून की तरह था और उपकरण के लिए विदेश जाना होता था। भारतीय सिनेमा के पितामह, अपना सामान बेचकर सिनेमा बनाया करते थे। दस तरह की तकलीफें उठाकर परदे पर सजीव आकृतियों को खड़ा करते थे।

आलम आरा बनाने वाले फिल्मकार आर्देशिर ईरानी ने मास्टर वि_ल, जुबैदा, पृथ्वीराज कपूर, वजीर मोहम्मद खान, जगदीश सेठी और एल.वी. प्रसाद के साथ यह फिल्म बनायी थी। एक सौ चौबीस मिनट की इस फिल्म में हिन्दी-उर्दू मिश्रित संवादों का प्रयोग किया गया था। आर्देशिर ईरानी का जन्म 1860 में हुआ था। बीस साल के होते-होते कई तरह के अनुभवों से गुजरे मसलन कैरोसिन तेल बेचने से लेकर पुलिस इन्स्पेक्टर बनने तक मगर उनका दिमाग सिनेमा की तरफ था सो 1905 में अमरीका की यूनिवर्सल कम्पनी की फिल्मों के डिस्ट्रीब्यूटर बन गये। एक मित्र के साथ उन्होंने 1914 में मुम्बई का अलेक्जेण्ड्रा सिनेमा घर खरीद लिया। 1926 में ईरानी ने इम्पीरियल फिल्म कम्पनी बनायी और फिर पचास साल लगातार खूब काम किया, अनेक मूक फिल्में बनायीं, जिसमें वीर अभिमन्यु पहली फिल्म थी।

आर्देशिर ईरानी की फिल्मों के जरिए ही जेबुन्निसा, सुलोचना रूबी मेयर्स, याकूब खान, ई. बिलीमोरिया, डी. बिलीमोरिया और जाल मर्चेन्ट जैसे कलाकारों को प्लेटफॉर्म मिला। लगभग सवा सौ से ज्यादा मूक फिल्म बनाने वाले ईरानी ने आलमआरा फिल्म को सवाक् रूप में प्रस्तुत करके सभी को अचम्भित कर दिया था। दर्शक विस्मित और सुखद आश्चर्य से हतप्रभ थे कि परदे पर किस तरह हमारे जैसी दिखायी देने वाली आकृतियाँ बोलने भी लगी हैं।

सोमवार, 14 मार्च 2011

रणवीर सिंह और बैण्ड बाजा

सिनेमा सचमुच किस्मत गढ़ता है पर कभी-कभी यह काम चमत्कारिक ढंग से होता है। इस ढंग से कि किसी को भी उम्मीद नहीं होती, क्या होने वाला है, किसका सितारा अचानक बुलन्द हो जायेगा, कौन ढलान पर फिसलता ही चला जायेगा, इतना नीचे उतरेगा कि सीढिय़ाँ भी कम पड़ जायेंगी। लेकिन यह बात रणवीर सिंह और उनकी को-स्टार अनुष्का शर्मा के बारे में जरा विपरीत जान पड़ती है। इस समय दोनों का सितारा बुलन्द है। दोनों का गॉड फादर यशराज बैनर है और दोनों ही यश चोपड़ा को मन ही मन दुआ देते फूले नहीं समा रहे हैं।

अनुष्का शर्मा का तो ठीक है उन्हें दो साल पहले शाहरुख खान के साथ रब ने बना दी जोड़ी में काम करने का मौका मिल गया था और बादशाह के होते हुए भी उन्होंने अपने काम और किरदार से अपनी जगह बना ली थी। यही कारण था कि उनको आगे भी काम मिला और खास बैण्ड बाजा बारात जैसी फिल्म मिली जिसमें उनके साथ एकदम नये सितारे रणवीर सिंह थे। इस फिल्म का निर्देशन करने वाले मनीष शर्मा की बड़े युवा और काबिल निर्देशक बनकर सामने आये। बैण्ड बाजा बारात के प्रदर्शन के लगभग तीन माह पहले यश चोपड़ा जी से इन्दौर में एक लम्बी बातचीत हुई थी तब उन्होंने बड़े आत्मविश्वास के साथ इस फिल्म का जिक्र किया था। स्टार कास्ट पूछने पर उन्होंने अनुष्का के साथ रणवीर सिंह का नाम बताया तो सहसा विश्वास नहीं हुआ कि हम एक ऐसी फिल्म के बारे में बात कर रहे हैं जो आश्चर्यचकित कर देने वाली सफलता बैनर और टीम को दिलायेगी।

एक बड़ी सहज सी फिल्म किस तरह नयी पीढ़ी के साथ-साथ और दर्शकों की भी निगाह चढ़ गयी, वाकई यह चमत्कार सा ही है। रणवीर सिंह एक मेहनती और भावुक इन्सान होने के साथ-साथ लगन के साथ काम करने वाला युवा कलाकार है। बैण्ड बाजा बारात के लिए उसने कई अवार्ड जीते और हर अवार्ड पर खुशी के आँसू बहाये। इसकी भीगी आँखें, भीतर की सहजता को बयान करती हैं। दुआ करते हैं कि यह ऊर्जावान कलाकार मुम्बइया सिनेमा की भेड़चाल का शिकार न हो।

बैण्ड बाजा बारात की सफलता के बाद यशराज फिल्म्स ने रणवीर सिंह को तीन फिल्मों का ऑफर दिया है जिसमें से एक के निर्देशक मनीष शर्मा ही हैं, बैण्ड बाजा वाले और दूसरी का निर्देशन शाद अली करेंगे। रणवीर सिंह के रूप में ऐसे युवा की हिन्दी फिल्मों में आमद है जो चांदी का चम्मच मुँह में लेकर नहीं आया है। भरोसा किया जा सकता है कि यह कलाकार अपनी प्रतिभा से सफलताएँ अर्जित करेगा और कुछ वर्ष अपनी छबि को समृद्ध करने में लगायेगा।

रविवार, 13 मार्च 2011

सिनेमाघर खाली, कौन बजाये ताली

सिनेमाघर के बेरौनक होने की बात हालाँकि हमने कुछ ही दिन पहले की थी, मगर अब स्थितियाँ और भी बिगड़ गयी हैं। हाल यह हो रहा है कि दर्शक के अभाव में फिल्मों के शो निरस्त हो रहे हैं। पिछले दिनों इन्दौर में ऐसा ही हुआ। ये फासले फिल्म को देखने के लिए जब कुल चार दर्शक थिएटर में दाखिल हुए तो मालिकों को लगा कि इतनी बुरी स्थिति में तो फिल्म दिखाना ही बड़े घाटे का सौदा है। औसतन एक फिल्म के प्रदर्शन का बिजली के खर्च सहित अन्य खर्च मिलाकर जो व्यय होता है वह लगभग दो हजार रुपयों का होता है, अर्थात एक दिन का हिसाब दस-पन्द्रह हजार रुपए। ऐसे में अगर दो हजार के भी टिकिट न बिकें तो फिल्म चलाने से क्या फायदा। यही कारण रहा कि हफ्ते-हफ्ते फिल्म के शो केंसिल हो गये।

खेलों और गर्मियों ने सिनेमा उद्योग के ये महत्वपूर्ण दो महीने अपने नाम कर लिए हैं। वैसे जो दशा, स्तर और परिणाम हमारे सिनेमा का है, उसी तरह का परिणाम खेलों का भी है। देश की जनता, एक बड़ा प्रतिशत जंग खायी देह और चेष्टाओं के वशीभूत टेलीविजन के सामने मुग्धभाव से पड़ी अपने खिलाडिय़ों की दुर्दशा देखा करती है। जनता, खेल में टीम हार जाये तो भी और जीत जाये तो भी, एक ही तरह की जिन्दगी जिया करती है, उसके जीवन में कोई तब्दीली नहीं आती लेकिन दीवानगी, साहब ऐसी है कि जिसे इसमें रुचि नहीं है, जिसे ताजा रुझान पता नहीं है, वह सभी को सबसे ज्यादा पिछड़ा नजर आता है।

खेल का आतंक वाकई ऐसा है कि निर्माता-निर्देशक इस माहौल में जरा सा भी जोखिम लेना नहीं चाहते। फिल्में बड़ी भी प्रदर्शित नहीं की जातीं और छोटी भी। अब्ड-डब्ड टाइप कचरा फिल्मों का कारोबार चलता रहता है, कहाँ आयीं, कहाँ गयीं, कोई जान नहीं पाता। ट्रेड मैगजीन में आगामी छ: माहों में प्रदर्शित होने वाली फिल्मों की जानकारी आती है। देखा गया है कि मार्च-अप्रैल में गेम, फरार तक पाँच-सात सामान्य फिल्मों के नाम हैं जो प्रदर्शित होंगी। किस परिणाम को प्राप्त होंगी, यह हमें अन्दाजा लगा लेना चाहिए। फिल्म देखना जेब में एक बड़े डाके के बराबर है। थिएटर में जाने से पहले आपकी झामा-तलाशी हो जाती है। पाँच-सात गुना भाव में खाने-पीने की चीजों का मनचाहा मुनाफा, परिसर में वाहन रखने का मनचाहा शुल्क वसूली और भारी-भरकम टिकिट दर, मिलाकर एक फिल्म ही लगभग दो सौ में एक आदमी को पड़ती है।

अब दर्शक अपनी जेब को सहलाकर तय कर रहा है कि लुटे कि नहीं, सो लौट रहा है। सिनेमाघर खाली हैं, अब कौन बजाये ताली?

देव आनंद की यादगार फिल्म "काला बाज़ार"

इस रविवार हम पचास साल पहले की फिल्म काला बाजार की चर्चा कर रहे हैं जो नवकेतन प्रोडक्शन्स की एक महत्वपूर्ण फिल्म थी। हमारे दर्शक-पाठक देव आनंद को एक महानायक के रूप में बेहतर जानते हैं। उनके छोटे भाई विजय आनंद को शायद कम जानते हों मगर शौकिया अभिनेता और गम्भीर निर्देशक के रूप में उनकी अनेक फिल्में उनकी दृष्टि को प्रमाणित करती हैं। काला बाजार की कहानी, पटकथा और निर्देशन का भार विजय आनंद ने ही सम्हाला था। दोनों के सबसे बड़े भाई चेतन आनंद थे जिन्होंने हकीकत और हीर-राँझा जैसी फिल्मों का निर्देशन किया था। काला बाजार में तीनों ही हैं, खासकर बड़े भाई चेतन आनंद जिन्होंने नायक का मुकदमा लडऩे वाले एक वकील का किरदार निभाया है।

काला बाजार, सिनेमा के सम्मोहन और उसके कारोबार से जुड़े टिकिटों की काला बाजारी में लगे लोगों के जीवन को दर्शाती फिल्म है। इसी माहौल में हम फिल्म के नायक को देखते हैं जो एक पुराने बदमाश को पीट-पाटकर, धमकाकर अपना वर्चस्व कायम करता है। इस फिल्म का एक खूबसूरत मगर दार्शनिक मोड़ यह है कि एकतरफा प्रेम में डूबा नायक, किसी दूसरे से प्यार करने वाली नायिका का पीछा करते हुए ऊटी चला जाता है और लगातार उसे प्रभावित करने, मोहने की कोशिश करता है। उसका प्रेमी विलायत गया है, जिसे बाद में किसी विदेशी लडक़ी से प्यार हो जाता है। प्रेमी की भूमिका विजय आनंद ने निभायी है।

वह लौटकर फिल्म की नायिका को यह बात बताता है, नायिका के मन की देहरी पर नायक खड़ा है, जिसे बस उसकी ओर से अनुमति देने की ही देर है, और फिर गाना है, सच हुए सपने तेरे, झूम ले ओ मन मेरे। वहीदा रहमान इस भूमिका में बड़े गहरे उतरकर अपने किरदार को जीती हैं। काला बाजार का नायक बुराई के रास्ते को छोडऩा चाहता है। वह अपने साथियों के साथ, सफेद बाजार स्थापित करता है और सबको दुकानें दिलवा देता है, एक मसीहा रूप। लेकिन बुराई आसानी से पीछा नहीं छोड़ती, नायक को जेल हो जाती है। उसका मुकदमा वही वकील लड़ता है जिसका कभी उसने नोटों से भरा बैग चुराया था, मगर बाद में आत्मग्लानि में उसे वापस जाकर सौंप दिया था।

शैलेन्द्र, एस.डी. बर्मन, मोहम्मद रफी, आशा भोसले, गीता दत्त, सुधा मल्होत्रा के गाने अनूठेपन के कारण याद हैं, खोया-खोया चांद, रिमझिम के तराने ले के आयी बरसात आदि। न मैं धन चाहूँ, गाना उस वक्त मर्म को छू जाता है जब नायक की माँ, बहन और छोटा भाई भगवान के सामने बैठकर यह गाना गा रहे हैं और नायक घर में कालाबाजारी के धन से सामान लेकर घर में आता है। इस गाने के बीच देव आनंद के चेहरे के भाव असहजता और ग्लानि को प्रभावी ढंग से व्यक्त करते हैं।

एक और गाना, एक रुपए का सिक्का हाथ में लिए नायक गाता है, सूरज के जैसी गोलाई, चन्दा सी ठण्डक है पाई, चमके तो जैसे दुहाई, यह गाना एक कॉमेडियन के साथ दिलचस्प ढंग से फिल्माया गया है। फिल्म कई तरहों से यादगार है, खास एक दृश्य का जिक्र जरूरी है, जिसमें प्रीमियर शो पर नरगिस, अनवर हुसैन, मेहबूब खान, सोहराब मोदी, राजकुमार, मेहताब जैसे यादगार सितारे कार से उतरकर सिनेमाघर में जाते हुए दिखायी देते हैं और हजारों की भीड उनका इस्तकबाल करती है।

शुक्रवार, 11 मार्च 2011

खलनायक गोगा कपूर की चुपचाप मृत्यु

बहुत सी खबरों के छूट जाने और फिर कई दिन बाद मालूम होने का दुख होता है, खासकर सिनेमा में अब ऐसी घटनाएँ मुम्बई में घटित होकर एक छोटा सा समाचार भी बन नहीं पातीं। अखबार में भूले-भटके चार लाइन से ज्यादा के समाचार प्रकाशित हो नहीं पाते क्योंकि घटनाओं को अब संजीदगी से लेने का चलन नहीं रहा। स्पेस अब एक बड़ी समस्या है और राजनैतिक तथा खेल आदि की घटनाओं और गतिविधियों में सबसे ज्यादा एकाग्र पत्रकारिता मनोरंजन, साहित्य और कला के क्षेत्र में बीमारी-हारी, मान-सम्मान, पुरस्कार या निधन या दशा-दुर्दशा पर उतनी संजीदगी दिखा नहीं पाती।

यही कारण है कि गोगा कपूर का निधन किसी की जानकारी में नहीं आ सका। मुम्बई में वरिष्ठ पी.आर.ओ. आर.आर. पाठक, गोगा कपूर के गहरे मित्र रहे हैं। चालीस साल से पीआरशिप कर रहे, दस से भी अधिक भाषाओं के जानकार पाठक जी ने अनेक बार गोगा कपूर के स्वभाव, संघर्ष और किस्मत के बारे में बताया। इस दशक के दर्शक हो सकता है गोगा कपूर को नहीं जानते हों मगर दशक के ठीक पहले तक वे खूब देखे गये हैं। मुख्यत: तो नकारात्मक चरित्रों में उनकी खासी पहचान रही है। बहुत सारी फिल्में उन्होंने की हैं और आखिरी बार उनको डी और दरवाजा बन्द रखो फिल्मों में देखा गया था। उनकी पहचान यह भी रही है कि उन्होंने अमिताभ बच्चन के साथ बहुत काम किया, फिल्मों में उनकी बहुत मार खायी लेकिन अमिताभ बच्चन के वे उतने ही अजीज भी रहे हैं।

गोगा कपूर आरम्भ में रंगमंच से जुड़े थे। बहुत से नाटकों में उन्होंने काम किया। खास सत्तर के दशक में अंग्रेजी नाटकों में उनके किरदार बहुत प्रभावी होते थे। वे खासे लम्बे थे और प्रभावशाली आवाज के मालिक थे। इकहत्तर के साल में वे जलवा फिल्म से सिनेमा में आये। इस दौर में प्रकाश मेहरा, यश चोपड़ा और मनमोहन देसाई अमिताभ बच्चन के लिए जिस तरह की फिल्में बना रहे थे, जैसी उनकी छबि गढ़ रहे थे, उस माहौल में एक साथ आठ-दस-बारह बदमाशों की पिटाई के दृश्य बहुत लोकप्रिय हुआ करते थे। ऐसे गुण्डे-बदमाशों में गोगा कभी आँख में पट्टी लगाये, कभी कोई अलग तरह का स्वांग रचे दीखते थे।

खून-पसीना फिल्म के कॉमिक गीत, बनी रहे जोड़ी राजा रानी की जोड़ी रे, में वे प्रमुख हिस्सा होते हैं। गोगा कपूर ने अपने कैरियर में तकरीबन सौ से भी ज्यादा फिल्मों में काम किया जिनमें कयामत से कयामत तक, खून पसीना, जंजीर, कुली आदि शामिल हैं। तूफान फिल्म में वे अमिताभ बच्चन के अपोजित मुख्य खलनायक थे।

गुरुवार, 10 मार्च 2011

नेपथ्य में जा रहे हैं गाने वाले

फिल्मों में लोकप्रियता और सक्रियता के समय सीमित होते हैं। सितारा कब किसका बुलन्द होगा, कितने समय तक बुलन्द रहेगा, बाद में क्या होगा, कुछ कहा नहीं जा सकता। यहाँ पिछले दो दशक में समय इतना बदल गया है कि न तो आपस में किसी के व्यक्तिगत रिश्ते बन पाते हैं और न ही लोकाचार निबाहने का शिष्टाचार बाकी रह गया है।

अपने जमाने के एक अच्छे गीतकार योगेश से एक किताब के सन्दर्भ में बातचीत हो रही थी। वक्त पर मदद करने और बाद में भूल जाने की पारस्परिकता की भिन्न वृत्तियों को लेकर बात चली तो उन्होंने पिछले समय तक बड़े सक्रिय और लम्बी पारी जमे रहने वाले गीतकार को लेकर कहा कि मैं उनके पिता का मित्र रहा जो स्वयं बड़े गीतकार थे, बाद में मैंने बेटे से भी वैसी ही आत्मीयता निभायी लेकिन आगे चलकर उनके लिए मेरे संग सामान्य सरोकार रखना भी मुश्किल हो गया। यहाँ तक कि किसी ने मेरा पता या नम्बर जानना चाहा तो सहज विनम्रता से कह दिया करते, मैं सम्पर्क में लम्बे समय से नहीं हूँ, मुझे मालूम नहीं है।

सिनेमा के हर पक्ष में कई-कई तरह की स्थितियाँ यूँ ही चलती रहती हैं। पड़ोस में कौन रहता है, जानते हुए भी न बताने की चतुराई रखते हुए विवशता के साथ असमर्थता जताना, कम खूबी नहीं है, इस व्यावसायिक जगत की। स्थितियाँ गीत लेखक के साथ नहीं बल्कि संगीतकार, गायक कलाकार तक ऐसी ही हैं। एक जमाना था जब नौशाद, हेमन्त कुमार और एस.डी. बर्मन के स्कूल और अनुशासन से ही निकलकर लक्ष्मीकान्त-प्यारेलाल, कल्याणजी-आनंद जी बाहर आये थे और इनके समर्थन से ही अपनी दुनिया देखने का सिलसिला बनाया था। रफी, मन्नाडे, किशोर और मुकेश जी के रिश्ते हमेशा परस्पर बड़े अच्छे रहे, साथ में कई बार एक साथ इन्होंने गाया और व्यवहार भी निभाया।

आज ऐसा नहीं है। सुर-संग्राम, संगीत का महासंग्राम अब ऐसा होने लगा है कि सबकी एक-दूसरे के प्रति त्यौरियाँ चढ़ी रहती हैं। अभिजीत, सोनू निगम, मीका, अनु मलिक, कैलाश खेर जैसे कलाकार मिनट भर में दो-दो बात करने उतारू हो जाते हैं, ऊपर वाला जाने, सचमुच या सुनियोजित। शान, शंकर महादेवन, सुखविन्दर, दलेर में अपनी विनम्रता है मगर ये भी कब किसकी चपेट में आ जायें कहा नहीं जा सकता। महिला पाश्र्व गायिकाओं में अब कविता कृष्णमूर्ति और अलका याज्ञिक का बाजार ठण्डा हो गया है और कमोवेश श्रेया घोषाल भी उसी राह पर हैं।

सोनू निगम अपनी छबि में एक अलग रूपक रचे दिखायी देते हैं, गाने अब उनको भी बहुतायात में नहीं मिल रहे। पहलवान सुखविन्दर व्यावसायिक होने के बावजूद अपने हँसमुख स्वभाव और याराना अन्दाज से खूब पूछे जाते हैं। इस समय बाजार में जैसी उनकी मांग है, वैसी किसी की नहीं।

बुधवार, 9 मार्च 2011

हास्य धारावाहिकों में मौलिकता के प्रश्र

सिनेमा और टेलीविजन में परस्पर अपने किस्म के विरोधाभास हैं। सबसे ज्यादा सुरक्षित टेलीविजन के चैनल और उसके धारावाहिक हैं जिनके अपने संघर्ष ज्यादा बड़े या विकराल नहीं हैं। इसके बरक्स सिनेमा के अपने जोखिम बड़े ज्यादा हो गये हैं। टेलीविजन का नफा और नुकसान, उसी तरह का है जो कौए की उस कहानी से मिलता-जुलता है जिसमें वह चोंच के कंकड़ मटके में डाल-डालकर पानी को अपने तक ले आता है और प्यास बुझाता है और सिनेमा का नफा-नुकसान, प्रतिशत में नफा का बहुत कम और अन्देशे से भरा हुआ और नुकसान का बहुत ज्यादा, गारण्टी की तरह।

धारावाहिक को आप घर में बैठे से लेकर पसरे तक देख सकते हैं और खाते हुए से लेकर उनींदे होते हुए भी। नींद लग गयी और बचा हुआ छूट गया तो भी कोई नुकसान नहीं और वक्त-बेवक्त बिजली चली गयी तो भी कोई मलाल नहीं लेकिन सिनेमा देखने के लिए चलकर जाना होता है, मिलकर जाना होता है और बड़ी जेब-क्षति में आना होता है, उस पर भी मनमाफिक मनोरंजन न हुआ तो सिनेमा देखने के निर्णय, प्रेरणा, जिद और मजबूरी पर लम्बी बहस घर में चलती है। धारावाहिक को जनता में बर्दाश्त करने का माद्दा भी खासा होता है। देखने वाला गरियाता हुआ, उससे असहमत होता हुआ भी उसको देखता चला जाता है। बुरा होगा तो बुराई करते हुए देखा जायेगा और अच्छा हुआ तो तारीफ करते हुए देखा जायेगा। ऐसे में कभी-कभी हास्य धारावाहिक अपना मजमा अलग जमाने में कामयाब हो जाते हैं।

हास्य धारावाहिक बनाना कठिन काम होता है क्योंकि अब हमारे यहाँ हँसने की न तो स्थितियाँ बहुत अनुकूल बची हैं और न ही परिस्थतियाँ। लिखने वाले भी उतने गहरे नहीं कि स्तरीय हास्य का शऊर हो। अब श्रीलाल शुक्ल, राग दरबारी नहीं लिखेंगे और न ही दिवंगत शरद जोशी ये जो है जिन्दगी। इसके बावजूद सब चैनल यथासम्भव स्तरीय और अनुकूल परिस्थितियों के हास्य को अपने धारावाहिकों में स्थापित करने की कोशिश करता है। हालाँकि यह चैनल दर्शकों के रीमोट में आसानी से न तो सेट होता है और न ही दबता है मगर फिर भी इस चैनल के धारावाहिकों ने धीरे-धीरे अपना दर्शक बनाया है। पहले केवल एक धारावाहिक ऑफिस-ऑफिस देखने दर्शक इस चैनल तक जाते थे मगर अब तारक मेहता का उल्टा चश्मा से लेकर मिसेज तेन्दुलकर तक कई धारावाहिकों से दर्शक जुड़े हैं।

कुछ समय पहले लापतागंज धारावाहिक ने दर्शकों को एक बार फिर अपने से जोड़ा और इन दिनों इस चैनल पर भरपूर स्तरीय मनोरंजन है। हास्य धारावाहिकों में मौलिकता के पश्र शाश्वत हैं मगर यहाँ हम जो धारावाहिक देख रहे हैं, वो मानवीय समाज की समग्रता में सकारात्मक उपस्थिति और घटनाओं से कथाएँ और प्रसंग रचते हैं, यह काम सबसे अलग रेखांकित होना चाहिए।

मंगलवार, 8 मार्च 2011

खेल की गरमी, सिनेमा बेहाल

खेल और सिनेमा के परस्पर रिश्तों के दिलचस्प तथ्य और घटनाएँ हैं। अतीत की बातें बहुत सी हैं मगर वर्तमान में होता यह है कि जब खेल हो रहा होता है तब सिनेमा बड़ी आर्थिक हानियों का शिकार हुआ करता है। खेल का जोर कुछ ऐसा हो गया है कि निर्माता पहले से ही अनुमान लगा जाते हैं कि ऐसे माहौल में अपनी फिल्म रिलीज करना कितना बड़ा जोखिम है। बड़ी-बड़ी फिल्में बुरे-बुरे हश्र को प्राप्त होती हैं। मँहगी फिल्में बनाने वाले ऐसे जोखिम से बचना चाहते हैं इसलिए अपनी फिल्मों की प्रदर्शन तिथियाँ आगे बढ़ा दिया करते हैं।

छोटी फिल्मों का जहाँ तक सवाल है, तो क्या लाभ, क्या हानि? वे फिल्में सिनेमाघर को रोशन करती अवश्य हैं मगर हॉल खाली रहता है। कभी-कभार ऐसे जोर में कुछ अच्छी फिल्में भी आकर लग जाया करती हैं जिनकी चर्चा कुछ प्रतिशत दर्शकों को सिनेमाघर तक ले आती है मगर सराहना का प्रतिशत ऊँचा रहने के बावजूद आर्थिक लाभ तो नहीं ही होता। खेल के माहौल में फिल्म प्रदर्शित करने का जोखिम उठाया ही नहीं जाता, ऐसा नहीं है मगर इसके नकारात्मक परिणाम ही ज्यादा होते हैं। गर्मी के मौसम में अपने घर में टेलीविजन पर मैच देखना, खेलप्रेमियों का प्यारा शगल है। खेल प्रेमी यह शगल काम की जगहों पर भी फरमाते हैं, यह अलग बात है मगर बड़ा पैसा खर्च करके फिल्म देखने जाना कोई पसन्द नहीं करता।

मार्च का महीना इसी लिहाज से पूरी तरह खाली है। कोई खास फिल्म अब रिलीज नहीं हो रही। हिन्दी फिल्मों की अभिनेत्रियों को मैच देखने का खासा शौक है। शौक खेल का देखने से भी आगे जा चुका है। अभिनेत्रियाँ टीमें खरीद रही हैं, मैच करवा रही हैं और अपने मूल काम को छोडक़र इसकी राजनीति में बढ़-चढक़र हिस्सा ले रही हैं। शाहरुख खान जैसे अभिनेता भी इसी काम में जुटे हैं। शर्मिला टैगोर और जीनत अमान के जमाने से लेकर दीपिका पादुकोण तक मैच-प्रेमी अभिनेत्रियों के नामों की लम्बी सूची है।

अभिनेत्रियों का खिलाडिय़ों से रोमांस भी रहा है और शादियाँ भी हुई हैं। सितारा क्रिकेटर बड़ी अभिनेत्रियों के साथ रोमांस करके दुतरफा ख्यातियाँ हासिल कर चुके हैं। वह आकर्षण आज भी कम नहीं हुआ है।
सिनेमा मनोरंजन का एक अलग और विशिष्ट तरह का माध्यम है और खेल, अपने चाहने वालों में गहरे रोमांच का सबब। दोनों की अपनी ख्यातियाँ, ग्लैमर और रोमांच हैं, मगर यह भी उतना ही सच है कि खेल की गरमी, सिनेमा को अब सबसे ज्यादा बेहाल करती है और पसीना लाती है।

सोमवार, 7 मार्च 2011

हमारे सिनेमा में स्त्री की जगह

विश्व महिला दिवस पर बात करने के लिए इससे समीचीन विषय और क्या हो सकता है कि हम यहाँ पर अपने सिनेमा में स्त्री की जगह पर अपनी स्मृतियों को झकझोरें। भारतीय सिनेमा, दरअसल एक बड़ी परम्परा का रूप है। एक वर्ष बाद ही उसका सौंवाँ वर्ष शुरू हो जायेगा। सौ साल के आकलन के लिए बहुत सी चीजें हैं, पर स्त्री की जगह को लेकर एक सतत विचार हमारे सिनेमा में हमेशा फलीभूत हुआ है। बहुत से ऐसे लोग जो सिनेमा को बीते कल से आज तक का माध्यम मानकर उसमें स्त्री की दुखद दर्शनीय या अनावृत्त स्थितियों के बहाने इस पूरी मान्यता को खारिज करने के बारे में सोचें मगर इस परम विश्वास को मानकर चलना ही होगा कि अछूत कन्या फिल्म से लेकर कम से कम मृत्युदण्ड फिल्म तक सिनेमा में स्त्री के महत्व को प्रभावी ढंग से, संवेदनशीलता के साथ निबाहा गया है।

किसी भी रचनात्मक माध्यम में श्रेष्ठता या एक्सीलेंस निरन्तरता के आग्रह या यथार्थ के साथ ही स्थापित होता है। भारत में सिनेमा का बनना ही एक पुनीत और उद्देश्यपूर्ण विचार के साथ आरम्भ हुआ। दादा साहब फाल्के ने राजा हरिश्चन्द्र बनायी, उसमें भी स्त्री अपने सशक्त रूप में मौजूद थी। यह प्रेरणा हमारी परम्पराओं से आयी है जहाँ स्त्री का अपना आध्यात्मिक तेज और प्रकाश है, वहीं से सांस्कृतिक माध्यम प्रेरणाएँ ग्रहण करते हैं और वहीं से महिमा अपना विस्तार लेती है। प्रस्तुतिकरण हमें उस पूरी मान्यता से सहमत करता है जिसे हम एक अनुशासन में देखते हैं।

आरम्भ में सिनेमा निर्माण घरानों की पहचान हुआ करता था। निर्देशक एक तरह से फिल्म का नियंता हुआ करता था। सिनेमा की शुरूआत से ही विभिन्न विषयों के माध्यम से स्त्री की सामथ्र्य, उसके संघर्ष, उसकी विजय और उसकी संवेदनाओं को आधार बनाने की परम्परा डाली गयी। ऐसी बहुत सारी फिल्में हैं, जो इस मान्यता को सही ठहराती हैं, सबका जिक्र सीमित शब्दों के इस स्तम्भ में सम्भव नहीं है मगर हम दहेज, दुनिया न माने, आदमी, जीवन नैया, किस्मत, नजमा, औरत, मदर इण्डिया, चन्द्रलेखा, परिणीता, बिराज बहू, सुजाता, बन्दिनी, साहब बीवी और गुलाम, पाथेर पांचाली, तीन कन्या, मेघे ढाका तारा, अनुपमा, मिली, दामुल, मिर्च मसाला, रुदाली, भूमिका, आरोहण, राव साहब, चक्र, परमा, छत्तीस चौरंगी लेन, हजार चौरासी की माँ, आराधना, अमर प्रेम, ममता, खामोशी, उपहार, दामिनी, तपस्या जैसी कितनी ही फिल्मों को याद कर सकते हैं। हमेंं इन फिल्मों को याद करते हुए इन फिल्मों के निर्देशक, अभिनेत्रियों को भी याद करना चाहिए जिनके निभाए किरदारों के कारण ही हम आज इन फिल्मों को भूल नहीं पाते।

लगभग पन्द्रह वर्ष पहले प्रकाश झा ने मृत्युदण्ड के माध्यम से एक सशक्त विषय को छुआ था और समकालीन स्थितियों के परिप्रेक्ष्य में स्त्री के अपने समाज, सम्मान और अस्मिता की स्थितियों और यथार्थ को प्रभावी ढंग से व्यक्त किया था। बाद में राजकुमार सन्तोषी ने लज्जा में अपनी बात कमजोर ढंग से रखी। हम आज के सिनेमा को अब खासकर उस सारे प्रभाव से मुक्त देखते हैं, जिसके माध्यम से हम कुछ बात कर पाते। अतीत हमें फिर भी रोमांचित करता है, गर्वित भी।

रविवार, 6 मार्च 2011

दक्षिण का सिनेमा और बॉलीवुड

इन दिनों सलमान खान की फिल्म रेडी की शूटिंग जोरों पर है। इसको मई के अन्तिम सप्ताह मेंं रिलीज करने की तैयारी है। इसके अलावा एक और फिल्म बॉडीगार्ड की शूटिंग भी चल रही है जिसे आने वाले अगस्त में प्रदर्शित किया जायेगा। सलमान खान, दबंग के बाद और निर्विवाद नम्बर वन साबित हुए हैं। अरबाज खान इस बात को मानते होंगे कि दबंग बनाते वक्त फिल्म के ऐसे ऐतिहासिक परिणाम की उम्मीद शायद उनको भी न हो। प्रदर्शन के बाद दुनिया बदली हुई है।

इस समय सलमान के पास अपने कैरेक्टर को भीतर उतारने के लिए भरपूर वक्त है, उन्होंने चुनिन्दा दो-तीन फिल्में इसी वजह से अपने हाथ में ले रखी हैं ताकि उनकी स्थापित छबि लगातार मजबूत हो और सफल फिल्मों के चलते स्पर्धी दूर-दूर तक नजर न आयें। बॉडीगार्ड फिल्म उनके बहनोई और एक दशक पहले के सितारे अतुल अग्रिहोत्री द्वारा निर्मित की जा रही है। वाण्टेड, सलमान की दबंग से पहले की सफल फिल्म साउथ की हिट फिल्म का रीमेक थी। सलमान अभी भी दक्षिण की फिल्मों के रीमेक में ही काम कर रहे हैं।

बॉलीवुड में प्रतिभाशाली निर्देशक और उनके साथ जुडऩे वाले निर्माता इन दिनों लगातार दक्षिण की सुपरहिट फिल्मों पर अपनी निगाह रखे हुए हैं। हमारे बीच एक और सुपरहिट फिल्म गजनी इस बात का उदाहरण है जिसने आमिर खान को एक अलग छबि में दर्शकों तक पहुँचाया। जाहिर है, ऐसी भूमिका, उनके कैरियर में पहली बार आयी थी। दक्षिण का सिनेमा, अपने प्रस्तुतिकरण, प्रभाव और खास एक्शन की वजह से अपने क्षेत्र में व्यावसायिक रूप से बड़ा लोकप्रिय है। यह बात भी उतनी ही सच है कि दक्षिण में सिनेमा और दर्शकों के सरोकार जितने पारस्परिक हैं, उतने ही सचेता और सांस्कृतिक भी। यही कारण है कि वहाँ फिल्में सिनेमाघर में पचास दिन भी पूरे कर लेती हैं तो उसके पोस्टर शहर भर में लगाकर जश्र मना लिया जाता है। बड़ी सफलताओं का तो कहना ही क्या। उतनी जागरुकता हिन्दी फिल्मों के लिए कम देखी जाती है।

तमिल, तेलुग फिल्में खासतौर पर बड़ी व्यावसायिक सफलता पर आकर्षित करती हैं। मलयालम सिनेमा का कलापक्ष और उसकी पारम्परिकता प्रभावित करती है। कन्नड़ सिनेमा में एक तरह की अनुकरणीय निरन्तरता है, वह मलयालम और तेलुगु सिनेमा का एक तरह का सहचर जैसा है। हाल ही में एक समाचार और सुर्खियों में आया जिसके अन्तर्गत तेलुगु की ब्लॉकबस्टर और नेशनल अवार्ड प्राप्त हिट फिल्म मगदीरा को हिन्दी में बनाने की तैयारी की जा रही है और इसका निर्देशन वही एस.एस. राजमौली करने जा रहे हैं जिन्होंने इसे मूल भाषा में निर्देशित किया था। पाठकों के आकलन के लिए बता दें कि पहले इस भूमिका के लिए हिृतिक रोशन से बात की गयी थी मगर अन्तत: रणबीर कपूर मुख्य भूमिका निबाहने जा रहे हैं।

शनिवार, 5 मार्च 2011

संजीव-जया-मेहमूद की यादगार नौकर

तीन दशक पहले 1979 में प्रदर्शित फिल्म नौकर की चर्चा इस रविवार हम कर रहे हैं। हिन्दी सिनेमा हर काल में किसी न किसी सोद्देश्य फिल्म का साक्षी अवश्य होता है। बाजारवाद और स्पर्धाएँ हर माध्यम का एक दूसरा ही दृश्य हमारे सामने खींचती हैं मगर हर दौर में ऐसे कुछ लोग मिल जाते हैं, जो भले अपने काम से बड़ा धनसंचय न कर पाएँ मगर उनका किया हुआ हमेशा याद जरूर रहता है। इस्माइल मेमन निर्देशित फिल्म नौकर तब के दौर की एक ऐसी ही उल्लेखनीय फिल्म है। हालाँकि 79 का साल सफल सिनेमा लिहाज से कमजोर था फिर भी उसी साल यश चोपड़ा की काला पत्थर और सई परांजपे की स्पर्श फिल्में भी रिलीज हुई थीं।

नौकर, एक भावनात्मक कहानी से बुना गया तानाबाना है। अमर एक विधुर है, रईस है, उसकी एक छोटी बच्ची है। साथ में एक नौकर दयाल है जो बचपन का दोस्त है मगर उसकी तवज्जो रईस की निगाह में मित्र और भाई की तरह ही है। ऐसी कहानी हमें उस दुर्लभ पुराने समय की याद दिलाती हैं, जब घर के नौकरों में अपने मालिक के प्रति गजब आदर और बच्चों के प्रति स्नेहिल वात्सल्य भाव हुआ करता था। परिवार में उनकी सुनी जाती थी और बच्चों को इस बात की हिदायत होती थी, कि नौकर के साथ गलत बर्ताव न करें। खैर, नौकर की कहानी में परिवार का अमर पर दबाव है कि वो शादी कर ले। बहुत सारे प्रस्ताव हैं। आखिर एक प्रस्ताव पर बात बनाने की कोशिश है। बमुश्किल राजी अमर, अपनी बेटी और दयाल के साथ लडक़ी देखने जाता है।

अमर एक संवेदनशील व्यक्ति है, उसको लगता है कि शादी के बाद उसकी बेटी का हो सकता है, उस तरह ख्याल न रखा जाये। वह यह भी सोचता है कि देखते समय चेहरे और व्यवहार से किसी का भी स्थायी आकलन नहीं किया जा सकता। रास्ते में उसको एक दिलचस्प ख्याल आता है। वह दयाल से कहता है कि तू अमर बन और अमर खुद दयाल बनकर चलता है। दयाल बमुश्किल राजी होता है। लड़कियों के घर पहुँचकर स्थितियाँ और सच्चाइयाँ सामने आती हैं। आखिर अमर को वो गीता पसन्द आती है जो उस घर की नौकरानी है। नौकर बना अमर उसको अपनी पत्नी बना ले आता है और अमर बने दयाल की शादी उस लडक़ी से होती है, जिसका रिश्ता अमर के लिए आया था।

नौकर एक बड़ी सहज फिल्म है, जो देखते हुए बहुत आनंदित करती है। मुख्य रूप से यह जया बच्चन, संजीव कुमार और मेहमूद की फिल्म है, मगर मेहमूद अपनी रेंज से पूरी फिल्म में अपना बड़ा प्रभाव छोड़ते हैं। अमर, दयाल बनकर गया है, उसे सर्वेन्ट क्वार्ठर में ठहरा दिया जाता है और दयाल जो अमर के रूप में है, वह बंगले में ठाठ-बाठ के साथ। वो दृश्य बहुत हँसाते हैं जब नौकर बने संजीव कुमार, मालिक बने मेहमूद के पाँव दबाते हैं। ललिता पवार, मीना तलपदे और मधु मालिनी फिल्म के सहायक कलाकार हैं। फिल्म के गाने बहुत अच्छे हैं, एक गीत, पल्लो लटके, बड़ा चर्चित हुआ था जो संजीव और जया पर फिल्माया गया था।

शुक्रवार, 4 मार्च 2011

सिनेमा तकनीक और व्यवहार का शब्द-ज्ञान

प्रसिद्ध कला निर्देशक जयन्त देशमुख से एक बार लम्बी बातचीत हो रही थी, उस वक्त उन्होंने अपनी एक बड़ी आकाँक्षा बतायी। उन्होंने कहा कि मेरी हार्दिक इच्छा है कि वक्त मिलने पर मैं एक ऐसे काम को जरूर करूँ या उस काम में मदद करूँ जिसके माध्यम से सिनेमा के विविध आयामों में नये आने वाले, आकर काम करने वालों को व्यवहार में प्रयोग होने वाले शब्दों की जानकारियाँ हों। हमारे बीच सिनेमा एक ऐसा आकर्षक माध्यम लगातार बना हुआ है जिससे हर वो आदमी जुडऩा चाहता है जो इसे गम्भीरता से अपनी जीविका बनाना चाहता है, साथ ही वे लोग भी जुडऩे के मोह से अपने आपको दूर नहीं रख पाते जिन्हें फौरी, सामयिक या एक भाषा में कहें तो शौकिया शगल के चलते यह माध्यम जुडऩे के लिए सुहाता है।

जयन्त देशमुख का यह विचार या प्रस्ताव वास्तव में मौलिक है और इस तरह के प्रयोग अब तक हुए नहीं हैं। भारत सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय का एक संस्थान नई दिल्ली में है, विज्ञान एवं तकनीकी शब्दावली आयोग। इस आयोग में कुछ महती काम हुए हैं। दस वर्ष पहले आयोग ने देश भर के सिने-विशेषज्ञों, लेखकों एवं व्यवहारिक जानकारों के एक समूह को दो बार बुलाकर कार्यशाला का आयोजन किया था, इसका उद्देश्य यह था कि सिनेमा एवं नाटकों मेें प्रक्रियाधीन समय में प्रत्येक पक्ष में परस्पर बोले जाने वाले, आदेशित किए जाने वाले और व्यवहारसंगत शब्दों का एक परिभाषा कोष तैयार किया जाये। उस समिति में मनमोहन चड्ढा, श्रीवर्धन त्रिवेदी, किशोर वासवानी, यह टिप्पणीकार एवं और भी कई जानकार लोग शामिल थे। बाद मे उन्होंने सिनेमा और नाटक के परिभाषा कोषों पर दो पुस्तकें भी प्रकाशित की थीं, जो आयोग में विक्रय के लिए उपलब्ध भी हैं।

एक कला निर्देशक के रूप में जयन्त देशमुख की अपनी एक अलग दृष्टि है। वह मुम्बई में रहते हुए, मुम्बइया सिनेमा में एक आर्ट डायरेक्टर के रूप में काम करते हुए भी एक अलग तरह की रचनात्मकता का गहरा जानकार और अनुभवी है। उनका ऐसा विचार वास्तव में ऐसे अधकचरे लोगों के लिए बड़ा काम का है जो अज्ञान और अल्पज्ञान के चलते अपढ़ साबित होते हैं और उपहास या अपमान का पात्र बनते हैं। जयन्त देशमुख को वास्तव में इस काम को मुख्य रूप से जल्दी ही अपने हाथ में लेना चाहिए। चार रचनात्मक सहायक या लेखक उनकी इस काम में सहायता कर सकते हैं जो वास्तव में जयन्त की परिकल्पना के साथ गम्भीर और प्रतिबद्ध हों। आर्ट डायरेक्शन का क्षेत्र फिल्म में स्क्रिप्ट के अनुकूल परिकल्पना और सर्जना का अहम माध्यम है, इस क्षेत्र में कड़े परिश्रम और एकाग्रता के साथ उत्कृष्टता की चुनौतियाँ हैं मगर साथ ही, श्रेष्ठ परिणाम पर अपने सुख भी कम नहीं हैं।

आरक्षण की प्रेस वार्ता के समय एक सवाल पर प्रकाश झा ने श्रेय से दूर खड़े जयन्त को आवाज देकर बुलाया और अमिताभ बच्चन और दूसरे प्रमुख सितारों सहित अपने पास बैठाया और उनको इस बात का श्रेय दिया कि राजनीति से लेकर आरक्षण तक उनका काम जयन्त ही कर रहे हैं। बहरहाल, एक प्रतिष्ठित कला-निर्देशक को यह सारस्वत काम अंजाम तक पहुँचाना चाहिए।

गुरुवार, 3 मार्च 2011

ऑस्कर का सपना और बेहतर सिनेमा

भारतीय सिनेमा में सबसे ज्यादा हिन्दी सिनेमा के कर्णधारों में से कुछ को इस बात की फिक्र प्राय: सताती है कि उनकी फिल्म को ऑस्कर मिले। बड़ी-बड़ी पत्रकार वार्ताओं में भी फिल्मकारों से इस बात को लेकर सवाल किए जाते हैं और उनके जवाब लिए जाते हैं। ऑस्कर के लिए किसी हिन्दी फिल्म की प्रविष्टि भेजने की तैयारी मात्र या सुगबुगाहट को ही ऐसी चर्चा मिल जाती है जैसे ऑस्कर बस मिलना तय ही हो गया हो।
जब ऑस्कर से आरम्भिक रूप से ही बाहर हो जाने का यथार्थ सामने आता है, तब निराशाएँ चारों तरफ अपने पैतरें फैलाती हैं, खिसियाहट होती है और एकबारगी पुनर्आकलन सा होने लगता है।

अंगूर खट्टे हैं की तर्ज पर बातें कहीं जाती हैं जो हेड लाइन बनती हैं मगर कुल मिलाकर बात यह सामने आती है कि हमारा काम या हम खुद एक फिल्मकार, फिल्मकर्मी या सर्जक के रूप में अभी ऑस्कर में श्रेष्ठता के लिए स्पर्धियों के बराबर नहीं है कहीं न कहीं। तभी बड़े प्राथमिक स्तर पर वापस लौटने के अप्रिय प्रसंग झेलने पड़ते हैं। हालाँकि ऑस्कर कोई मापदण्ड नहीं है, हमारी श्रेष्ठता का, यह बात हिन्दी फिल्मों के बड़े से बड़े कलाकार प्राय: किया करते हैं।

ऑस्कर हमारी मंजिल होनी भी नहीं चाहिए, ऐसा भी बहुतेरे कहते हैं मगर बावजूद उसके ऑस्कर हमारे लिए आकर्षण और अचम्भा भी है। वह हमें अपने से मुक्त नहीं करता, तभी आमिर खान जैसे सितारे अपनी फिल्मों को ऑस्कर में भेजने के लिए बाकायदा गम्भीर भी रहते हैं।

इस बार ही पीपली लाइव के लिए प्रयास हुआ था लेकिन वह फिल्म भी शुरूआत में ही रिजेक्ट हो गयी। एक राष्ट्रीय दैनिक के प्रथम पृष्ठ पर अगले दिन एक कार्टून प्रकाशित हुआ जिसमें दरवाजे के बाहर नत्था को फेंक दिया गया है और गिरा पड़ा नत्था कह रहा है, गरीब के साथ यही सलूक किया जाता है। ऑस्कर का आकर्षण सबसे ज्यादा हिन्दी सिनेमा में है। यद्यपि हिन्दी से इतर भाषायी फिल्मों में ज्यादा श्रेष्ठ और उत्कृष्ट फिल्में बना करती हैं।

खासतौर पर तकनीक और व्यावसायिक आग्रहों को समझने वाली फिल्म का निर्माण दक्षिण में सबसे ज्यादा होता है, उसमें भी तमिल और तेलुगु सिनेमा सबसे आगे है। बंगला, उडिय़ा, मलयालम और असमिया फिल्में स्क्रिप्ट के स्तर पर उत्कृष्ट निर्माण होती हैं। वे अच्छे दर्शक के मन तक भी सीधे और गहरे पहुँचती हैं लेकिन वहाँ ऑस्कर को लेकर कोई सम्मोहन नहीं है।

किसी भी परीक्षा में कमतर तैयारी या कमजोर कायिक उपस्थिति से बेहतर, उसमें सहभागिता नहीं करना होना चाहिए और ऑस्कर अब तक न मिल पाने का गम भी नहीं होना चाहिए। चिन्ता दरअसल उत्कृष्टता या एक्सीलेंस की, की जानी चाहिए।

बुधवार, 2 मार्च 2011

अपने तेवर से अनुशासित कलाकार नाना पाटेकर

नाना पाटेकर को यदि अपने तेवर से अनुशासित कलाकार कहा जाये, तो शायद कोई अतिश्योक्ति न होगी। इसी महीने उनकी एक उल्लेखनीय फिल्म शागिर्द रिलीज हो रही है। नाना इसमें अपने उसी तेवर के साथ हैं, जिसकी वजह से दर्शक उनको इतने वर्षों में जानते आये हैं। यह वाकई बड़ी खास बात लगती है कि नाना को दर्शक नाना की तरह ही देखना चाहता है। वह नाना जो अंकुश से हिन्दी फिल्मों में एक अलग ही लकीर खींचने आया था। नाना को हिन्दी फिल्मों में आये लगभग तीन दशक होते आ रहे हैं।

पच्चीस साल पहले अंकुश में हमने उन्हें चार-पाँच ऐसे युवाओं के बीच देखा था जो दिशाहीन हैं और अराजक जिन्दगी जी रहे हैं, उनका स्वयं अपने आपसे विश्वास उठा हुआ है। ऐसे में उनका जीवन एक बुजुर्ग स्त्री और उसकी बेटी की वजह से सन्मार्ग की तरफ आता है, इतनी शक्ति हमें देना दाता, मन का विश्वास कमजोर हो ना, गाना हमें व्हीं शान्ताराम की फिल्म दो आँखें बारह हाथ की याद दिलाता है जिसका गाना, ऐ मालिक तेरे बन्दे हम, आज भी अपने भीतर एक तरह का स्फुरण पैदा करता है। अंकुश वैसी फिल्म नहीं थी कि उस बुजुर्ग स्त्री के घर जाने वाले युवाओं को उसकी बेटी से प्रेम हो जाये। एक अलग ही तरह की कहानी फिल्म की थी, जिसमें ये युवा एक बार फिर तब अराजक और नियंत्रण से बाहर हो जाते हैं जब उस बुजुर्ग स्त्री की बेटी का बलात्कार हो जाता है। नाना पाटेकर ने अपनी भूमिका में उस फिल्म से जो अर्जित किया उसको आज तक भरसक निबाह रहे हैं।

इस बीच नाना को कितनी ही तरह की भूमिकाएँ करने को मिलीं और उन्होंने अपने उसी चेहरे से सबको निभाया भी फिर वो चाहे सलाम बॉम्बे हो, दीक्षा हो, प्रहार हो, तिरंगा हो, दिशा हो, खामोशी द म्युजिकल हो, थोड़ा सा रूमानी हो जाएँ हो, राजू बन गया जेंटलमेन हो, अपहरण हो, वेल्कम हो या, राजनीति हो या और भी तमाम फिल्मेें जो इस वक्त उल्लेख से छूट गयीं। नाना सबको अपनी तरह जीते आये। दर्शक को हमेशा उनका किरदार पसन्द आया। उनकी एक फिल्म अब तक छप्पन जरूर दर्शकों को देखनी चाहिए, भले ही वो उतनी न चली हो, मगर नाना, उसमें वाकई एक-एक दृश्य और संवाद में कमाल करते हैं।

शार्गिद, नाना को एक बार फिर एक्शन के तेवर में लेकर आ रही है। राजनीति के बाद शागिर्द में हमें वे फिर एक बार अपनी उम्र से जरा पीछे दिखायी देंगे।