रविवार, 13 मार्च 2011

सिनेमाघर खाली, कौन बजाये ताली

सिनेमाघर के बेरौनक होने की बात हालाँकि हमने कुछ ही दिन पहले की थी, मगर अब स्थितियाँ और भी बिगड़ गयी हैं। हाल यह हो रहा है कि दर्शक के अभाव में फिल्मों के शो निरस्त हो रहे हैं। पिछले दिनों इन्दौर में ऐसा ही हुआ। ये फासले फिल्म को देखने के लिए जब कुल चार दर्शक थिएटर में दाखिल हुए तो मालिकों को लगा कि इतनी बुरी स्थिति में तो फिल्म दिखाना ही बड़े घाटे का सौदा है। औसतन एक फिल्म के प्रदर्शन का बिजली के खर्च सहित अन्य खर्च मिलाकर जो व्यय होता है वह लगभग दो हजार रुपयों का होता है, अर्थात एक दिन का हिसाब दस-पन्द्रह हजार रुपए। ऐसे में अगर दो हजार के भी टिकिट न बिकें तो फिल्म चलाने से क्या फायदा। यही कारण रहा कि हफ्ते-हफ्ते फिल्म के शो केंसिल हो गये।

खेलों और गर्मियों ने सिनेमा उद्योग के ये महत्वपूर्ण दो महीने अपने नाम कर लिए हैं। वैसे जो दशा, स्तर और परिणाम हमारे सिनेमा का है, उसी तरह का परिणाम खेलों का भी है। देश की जनता, एक बड़ा प्रतिशत जंग खायी देह और चेष्टाओं के वशीभूत टेलीविजन के सामने मुग्धभाव से पड़ी अपने खिलाडिय़ों की दुर्दशा देखा करती है। जनता, खेल में टीम हार जाये तो भी और जीत जाये तो भी, एक ही तरह की जिन्दगी जिया करती है, उसके जीवन में कोई तब्दीली नहीं आती लेकिन दीवानगी, साहब ऐसी है कि जिसे इसमें रुचि नहीं है, जिसे ताजा रुझान पता नहीं है, वह सभी को सबसे ज्यादा पिछड़ा नजर आता है।

खेल का आतंक वाकई ऐसा है कि निर्माता-निर्देशक इस माहौल में जरा सा भी जोखिम लेना नहीं चाहते। फिल्में बड़ी भी प्रदर्शित नहीं की जातीं और छोटी भी। अब्ड-डब्ड टाइप कचरा फिल्मों का कारोबार चलता रहता है, कहाँ आयीं, कहाँ गयीं, कोई जान नहीं पाता। ट्रेड मैगजीन में आगामी छ: माहों में प्रदर्शित होने वाली फिल्मों की जानकारी आती है। देखा गया है कि मार्च-अप्रैल में गेम, फरार तक पाँच-सात सामान्य फिल्मों के नाम हैं जो प्रदर्शित होंगी। किस परिणाम को प्राप्त होंगी, यह हमें अन्दाजा लगा लेना चाहिए। फिल्म देखना जेब में एक बड़े डाके के बराबर है। थिएटर में जाने से पहले आपकी झामा-तलाशी हो जाती है। पाँच-सात गुना भाव में खाने-पीने की चीजों का मनचाहा मुनाफा, परिसर में वाहन रखने का मनचाहा शुल्क वसूली और भारी-भरकम टिकिट दर, मिलाकर एक फिल्म ही लगभग दो सौ में एक आदमी को पड़ती है।

अब दर्शक अपनी जेब को सहलाकर तय कर रहा है कि लुटे कि नहीं, सो लौट रहा है। सिनेमाघर खाली हैं, अब कौन बजाये ताली?

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