गुरुवार, 7 अप्रैल 2011

तमन्नाएँ आधी-अधूरी मगर फिर भी



अक्सर कलाकारों का ख्वाब किसी विशेष चरित्र को निबाहना होता है। इसके लिए वे हर वक्त तैयार होते हैं मगर वैसे किरदार उनको निभाने को मिल नहीं पाते। लम्बे समय ये ख्वाब अधूरे रहते हैं। पूरे किसके होते हैं पता नहीं पर अधूरे ख्वाबों का जिक्र वक्त-वक्त पर हुआ करता है। साथ-साथ काम करना भी इसी तरह का ख्वाब है। बहुतों का पूरा होता है मगर जाने कितने खास लोगों का पूरा नहीं हो पाता। इसी फिल्म इण्डस्ट्री में हमारे सामने सबसे बड़ा दुस्साहस सुभाष घई ने किया था, राजकुमार और दिलीप कुमार को साथ लेकर, सौदागर फिल्म बनाकर। वाकई यह दुर्लभ था। दिलीप कुमार अपने फन के उस्ताद थे और राजकुमार के मूड का कभी भरोसा नहीं रहा। दोनों के साथ बराबर का काम करते हुए कितनी बार घई को पसीना छूटा होगा, वे ही जानते हैं।

सुभाष घई के साथ अमिताभ बच्चन ने कभी काम नहीं किया उसी तरह हृषिकेश मुखर्जी के साथ हेमा मालिनी की कोई फिल्म नहीं आयी। कालीचरण के समय से सुभाष घई एक बार जो सितारा निर्देशक बने तो उनका जलवा आज तक बरकरार है। युवराज तक देखें तो उनकी मेकिंग अपने आपमें बड़ी भव्य और कैनवास विराट होता है। वे एक-एक दृश्य के फिल्मांकन से लेकर संगीत के बारीक पक्ष तक रुचि लेते हैं। अपने माध्यम के प्रति ऐसे गहरे निर्देशक के साथ महानायक बच्चन के काम करने के योग नहीं आये। कमाल है।

साजन फिल्म से सफल निर्माता बने सुधाकर बोकाड़े ने भी ख्वाब देखा था कि वे एक फिल्म दिलीप कुमार के निर्देशन में बनाएँगे। उन्होंने धूमधाम से कलिंगा का मुहूर्त भी किया और वह फिल्म बनने भी चली मगर आधी बनते-बनते उसको ऐसा ग्रहण लगा कि ठहर कर रह गयी। बोकाड़े इस फिल्म से दाँव पर लग गये। बाद में उन्होंने फिल्म बनाने से ही तौबा कर ली। आमिर खान और अमिताभ बच्चन का साथ काम करना भी इसी तरह का किस्सा है। कभी ऐसा योग नहीं आया।

इन्द्र कुमार ने ऐसी पहल की मगर वह भी पहल ही होकर रह गयी। अभी सुना है थ्री ईडियट्स और पीपली लाइव के वक्त बच्चन साहब और आमिर खान ने फिर इस ख्वाब को याद किया। पता नहीं एक अन्तराल और एक दूरी बनाए रखकर कैसे हाथ मिलाने का उपक्रम किया जाता है?

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