सोमवार, 30 मई 2011

अदृश्य उपस्थिति और आकलन की सुर्खियाँ

शिल्पा शेट्टी की नाराजगी हो सकता है, मीडिया के प्रति अब कम हो गयी हो। वैसे वे सहज और हँसमुख हैं, मसलों को ज्यादा तूल नहीं देतीं। अपनी हँसी और समझदारी से कठिनाइयों का भी निवारण कर लेती हैं। रिचर्ड गैरे ने एक कार्यक्रम में अकस्मात जब उनको लगभग बुरी तरह भींच कर चूम लिया था, तब भी क्षण भर को हतप्रभ होकर वे हँसने ही लगी थीं। बाद में इस घटना को भी उन्होंने सहज बताया, भले ही मीडिया ने उसको खूब प्रचारित किया, चैनलों ने उसके लाखों री-प्ले किए। विषय ने जब शिल्पा की तरफ से ही उसको तत्परता से ठण्डा होते देखा तो दो-एक दिन खबरे चल-चला के बात खत्म हो गयी।

मीडिया का मसला ऐसा ही है। वह सार्वभौम है, हर जगह उपस्थित और कायम। ऐसी तमाम जगहों पर जहाँ परिन्दा भी पर नहीं मार सकता, वहीं मीडिया की उपस्थिति हो सकती है, कैसे, यह शोध और जिज्ञासा का विषय है। खबरें तो उस बंगले के ड्राइंग रूम से भी निकलकर बाहर आ जाती हैं, जहाँ परिन्दा भी पर नहीं मार सकता। बात हो सकता है, घरेलू स्तर पर चर्चा के दायरे में आती हो मगर उसका बॉक्स बन जाता है। हिन्दी सिनेमा के महानायक सबसे ज्यादा परेशान मीडिया से रहा करते हैं। बेटे के ब्याह में उन्होंने मीडिया तो खैर छोडि़ए कई अपने खास मित्रों शुभचिन्तकों को ही नहीं बुलाया, लेकिन मीडिया ही से वैवाहिक रस्मों के फोटो और दृश्य बाहर आये। मीडिया ने ही इस बात की चिन्ता भी की कि जूनियर बच्चन के परिवार में नयी खुशी कब आयेगी, इस पर भी बिग बी खिन्न रहे। एकाध बार उन्होंने अपने ब्लॉग में यह सब लिखा भी कि मीडिया उनके परिवार के पीछे पड़ा है।

अब एक बार फिर मीडिया से इस बात की खबरें प्रचारित हैं कि ससुर और बहू में परस्पर खिन्नता या खटकने की स्थितियाँ बनी हैं। इसका कारण है मधुर भण्डारकर की नयी फिल्म जिसमें ऐश्वर्य मुख्य भूमिका निबाहने जा रही हैं। जिस तरह की फिल्म की स्क्रिप्ट है उसको देखकर लगता है कि शायद ऐश्वर्य को किरदार के अनुरूप ग्लैमरस दिखना पड़े जो परिवार को कभी पसन्द न आये शायद सो बिग और जूनियर दोनों बी ने इस मसले पर उनसे चर्चाएँ की हैं। ऐश्वर्य के अपने कमिटमेंट निर्देशक के संग हैं। मधुर भी परफेक्शनिस्ट हैं वे अपनी फिल्म के अनुरूप ही काम करेंगे। हालाँकि यह भी एक बात है कि क्या मधुर में इतना दुस्साहस है कि वे बड़े बच्चन की इच्छा के खिलाफ उस तरह का काम ऐश्वर्य से ले पायें जो अपेक्षित है?

गूढ़ प्रश्र हैं, इनका उत्तर वक्त ही बताएगा। मीडिया की सुचिन्तित दृष्टि के पीछे अपने लक्ष्य और आज के स्थापित किए हुए सिद्धान्त हैं, नयी पीढ़ी इस समूचे समय को अपनी तरह से देख और बरत रही है, सो दिखायी देने वाला परिदृश्य और दृश्य दोनों, दुतरफा प्रभाव के साथ भी प्रकट होंगे, आखिर अदृश्य उपस्थिति और आकलन की सुर्खियों पर निर्भर भी तो बहुत कुछ है।

बुधवार, 25 मई 2011

माला सेन और बैण्डिट क्वीन

विख्यात लेखिका माला सेन का निधन पिछले रविवार को मुम्बई में कैंसर की बीमारी से हो गया। उनकी एक महत्वपूर्ण और अन्तर्राष्ट्रीय पहचान बैण्डिट क्वीन की लेखिका के रूप में थी जिस पर प्रख्यात निर्देशक शेखर कपूर ने इसी नाम से एक बहुचर्चित फिल्म का निर्माण किया था। यह फिल्म बॉबी बेदी ने चैनल फोर के लिए बनायी थी। अपने निर्माण के समय से ही विवाद में घिरी इस फिल्म को बनाना शेखर कपूर के लिए टेढ़ी खीर था मगर जीवट के धनी निर्देशक ने कई रुकावटों, विघ्र-बाधाओं और सबसे अहम, खासतौर पर उस समय जीवित फूलन देवी के लगातार प्रतिरोध के बावजूद इसे पूरा किया और प्रदर्शित किया।

सिनेमा में आमतौर पर लेखक को कितनी जगह मिलती है, यह हम सब जानते हैं। हाल ही में जब थ्री ईडियट्स के समय उस लेखक से, जिसकी कृति से प्रेरित होकर विधु विनोद चोपड़ा और राजकुमार हीरानी को यह फिल्म बनाने की सूझी, चोपड़ा का खासा विवाद हुआ था। बातचीत में अचानक अनियंत्रित और आप खो बैठने वाले विधु ने उनको काफी भला-बुरा भी कहा था।

ऐसी मशहूर फिल्में बहुत सी हैं, जिनके लेखक को, लोगों को जानने ही नहीं दिया जाता, जाने क्यों? खैर शेखर कपूर ने माला सेन के साथ ऐसा नहीं किया था। शेखर कपूर ने इस बात को स्वीकार भी किया है कि माला सेन की किताब और उनके लगातार सहयोग और सामंजस्य के बगैर वे बैण्डिट क्वीन नहीं बना सकते थे।

फूलन देवी, फिल्म के बनते हुए जितना गुस्सा शेखर कपूर पर उतारती थीं, उतना ही माला सेन पर भी। बहरहाल इसी बैण्डिट क्वीन से फूलन देवी की कहानी दुनिया तक पहुँची। माला सेन को भी बड़ी पहचान, चर्चा और सुर्खियाँ मिलीं और शेखर कपूर तो खैर इस फिल्म के माध्यम से दुनिया के फिल्मकार हो ही गये।

बैण्डिट क्वीन की चर्चा, लेखिका माला सेन को श्रद्धांजलि देते हुए इसलिए भी हम यहाँ अपने स्तम्भ में कर रहे हैं क्योंकि इसी फिल्म के माध्यम से हिन्दी सिनेमा को सीमा बिस्वास, गोविन्द नामदेव, निर्मल पाण्डे जैसे अनूठे कलाकार मिले। जयन्त देशमुख जैसे कला निर्देशक का पट्टी पूजन इसी फिल्म के माध्यम से हुआ। हिन्दुस्तान में फिल्म की श्रेष्ठता हमेशा व्यावसायिक सफलता से प्रमाणित नहीं होती। अब बल्कि श्रेष्ठ फिल्मों का हश्र ही बुरा और स्थिति चिन्ताजनक दिखायी देती है।

मसूरी में जन्मी माला सेन लम्बे समय बीबीसी से जुड़ी रहीं। वे एक तरह फुलटाइम रायटर थीं। उनकी एक किताब डेथ बाय फायर बहुत चर्चित हुई थी। माला सेन लन्दन से हिन्दुस्तान अपनी चिकित्सा के लिए आयीं थी, यहीं उनका निधन हो गया। एक डकैत से राजनेता बनने तक एक स्त्री के कठिन संघर्ष को उन्होंने अपनी किताब में गम्भीरता के साथ रेखांकित किया था। बैण्डिट क्वीन फिल्म और किताब दोनों की पृष्ठभूमि माला सेन और शेखर कपूर के जिक्र के बगैर पूरी नहीं होती, फूलन देवी तो खैर केन्द्र में हैं ही।

मंगलवार, 24 मई 2011

आमिर, लोकप्रियता और समझदारी

तीन दिन पहले फेसबुक पर लोकप्रियता का एक सर्वे विभिन्न अखबारों की प्रमुख खबर बना जिसमें यह बताया कि मौजूदा दो-तीन सितारों में फेसबुक में सबसे ज्यादा लोकप्रियता आमिर खान की है। दरअसल आज के समय में सारी की सारी स्पर्धा तीन परिपक्व उम्र नायकों के इर्द-गिर्द आकर सिमट गयी है।

इसमें वरीयता क्रम से देखें तो आमिर खान, फिर सलमान खान और फिर शाहरुख खान का नाम आता है। हिन्दी फिल्मों में भी ये कलाकार इसी क्रम से आये थे। आमिर मुम्बई के हैं, नासिर हुसैन परिवार से हैं, उनको अच्छी फिल्में मिलीं, अच्छी फिल्में चुनना उनको आयीं। हालाँकि हमेशा ऐसा नहीं रहा कि उन्होंने अच्छा ही चुनाव किया हो। उनकी विफल फिल्में भी हैं और ऐसी भी जो उम्मीद के मुताबिक नहीं चल पायीं।

सलमान खान भी मुम्बई के ही हैं, जाहिर है। वे अपने बल पर खड़े हुए। सहायक भूमिकाओं, बीवी हो ऐसी की भूमिका से होते हुए केन्द्रीय भूमिकाओं में आये और आज अपने आसपास के सभी कलाकारों में सबसे अच्छे वक्त पर काबिज हैं। तीसरे शाहरुख खान दिल्ली से मुम्बई आये। उनको कुछ निर्देशकों का समर्थन था, कुन्दन शाह, अजीज मिर्जा जैसे मध्यवर्गीय सिनेमा बनाने वाले निर्देशक जिनके पास कभी सुपरहिट फार्मूला नहीं रहा, लेकिन इन्हीं की फिल्मों चाहे वो कभी हाँ कभी ना हो या राजू बन गया जेंटलमेन, शाहरुख ने अपने कैरियर के लिए लगभग करो या मरो शैली में काम किया। खूब काम करके उनकी वकत बनी। ग्रे शेड की भूमिकाओं अंजाम, बाजीगर, डर ने उनको एकदम सफल और लोकप्रिय बनाया और वे जमे जमाये कलाकारों के लिए भी चुनौती बन गये।

अब लेकिन स्थितियाँ विपरीत हैं। तीनों खान खासे स्थापित हैं, आपस में एक-दूसरे से श्रेष्ठ साबित होने की चुनौती उनके सिर पर लगातार सवार है, आपस में रिश्ते स्वस्थ नहीं हैं। हमेशा सुर्खियों को प्रस्तावना से उपसंहार तक की सार्थकता मानने वाला इलेक्ट्रॉनिक मीडिया अपने लिए जवाब निकलवाता ही रहता है। सुर्खियाँ बनती रहती हैं, विवाद खत्म नहीं होते।

आमिर बाकी दो कलाकारों से जरा बड़े भी हैं उम्र में और उनके जवाब संयत होते हैं। बहुत सा काम वो मुस्कराकर चलाते हैं। आमिर हमेशा चाहते हैं कि उनके पक्ष में उनकी फिल्में ही बोलें, जो कि एक अच्छे कलाकार का गुण भी है, सो लोकप्रियता उनके पास ज्यादा है, होनी चाहिए। सलमान की ही तरह उनकी सामाजिक जागरुकता भी सराही जाती है।

अपनी पीढ़ी में वो एक ऐसे कलाकार हैं जो सिनेमा माध्यम और उसके प्रभाव को भलीभाँति समझते हैं। ऐसा कलाकार भला क्यों न लोकप्रिय होगा, दरअसल आमिर खान लोकप्रिय होने की पूरी प्रक्रिया से वाकिफ हैं।

सोमवार, 23 मई 2011

राष्ट्रीय पुरस्कार और दबंग

भारत सरकार के 58वें राष्ट्रीय पुरस्कारों के ऐलान में सलमान खान की फिल्म दबंग को सर्वश्रेष्ठ फिल्म का पुरस्कार दिए जाने का निर्णय बहुत वर्षों पहले राजकुमार सन्तोषी की फिल्म घायल को सर्वाधिक राष्ट्रीय पुरस्कार मिलने की याद भी दिलाता है। उस समय जूरी के अध्यक्ष दादामुनि अशोक कुमार थे। अशोक कुमार ने उस समय घायल फिल्म की व्याख्या करते हुए कहा था कि यह फिल्म सामाजिक विद्रूपताओं के साथ-साथ सामाजिक उत्तरदात्विों के साथ-साथ चुनौतियों और अन्याय से लडऩे के लिए असाधारण जीवट को भी फिल्म के नायक में व्यक्त करती है।

दबंग को मिलने वाला पुरस्कार दबंग के बारे में एक बार फिर से सोचने का मौका देता है। यों इस फिल्म को इस साल बहुत सारे पुरस्कार मिले हैं। फिल्म के निर्माता, अवार्ड फंक्शन में कई-कई श्रेणियों का पुरस्कार लेने उठ-उठकर थक जाया करते थे लेकिन उनकी विनम्रता काबिले तारीफ है। कहीं-कहीं पुरस्कारों में आसानी से नजर आ जाने वाले पक्षपात के चलते पुरस्कार किसी और फिल्म को दे दिए जाने की स्थितियों को भी उन्होंने सहजता से लिया। उन्होंने स्वीकार किया कि इस फिल्म को सबसे बड़ा पुरस्कार को दर्शकों ने, जनता ने दे दिया है। मंच के पुरस्कार उस विराट समर्थन का अनुसरण भर हैं।

दबंग की कहानी एकदम दूसरी अनेक फिल्मों से मिलती नहीं है। उसका नायक बचपन से ही एक अलग ही किस्म की मस्ती को जीने वाला किरदार है जिसके जीवन में उसकी सगी माँ सब कुछ है लेकिन उसने दूसरी शादी कर ली है अपने और बेटे के अस्तित्व के वास्ते। सौतेला भाई पिता की तवज्जो पाता है तो बालक चुलबुल को ईढ़ नहीं होती। वह बड़े आराम से कहता और जताता है कि आगे चलकर वही सबका उद्धारक होगा। पुलिस की नौकरी में यह नायक साहस-दुस्साहस दोनों का प्रतीक है। आम आदमी की चार बुराइयाँ उसमें भी हैं। खास तौर पर रिश्वत की आदत को फिल्म की स्क्रिप्ट में व्यंग्य की तरह लिया गया है। पाण्डे जी रोमांस में भी लीन हैं, जितना एक मनुष्य उनके बस में है और जितना पुलिस के दबदबे से सम्भव हो वो भी।

सलीम साहब को वह दृश्य सलमान के लिए बहुत मर्माहत करता है जिसमें माँ के मर जाने पर वह अचानक फूट-फूटकर रो पड़ता है। सलमान खान एक पूरी फिल्म को अब जिस आत्मविश्वास में लगभग सहजता और ट्विस्ट ेकरते हुए निभा ले जाते हैं वह अनूठा है। वास्तव में यह बड़ा कमाल है कि हजारों-लाखों की भीड़ किसी स्टेज पर सलमान से एक ही मांग करती है, शर्ट उतारने की और उन्हीं चाहने वालों के लिए यह महानायक पल भर में ऐसा करते हुए भीड़ पर शर्ट उछाल देता है। उस वक्त जरा दर्शकों का ब्लड प्रेशर नापना चाहिए।

दबंग को राष्ट्रीय पुरस्कार देना, एक तरह से जनता की, दर्शक की इच्छा, उसके निर्णय और उसकी मान्यता पर सहमत होना है। सलमान, बड़ा अच्छा समय है, आगे-पीछे दूर-दूर तक सब खाली है, एक ही हो, दबंग, दबंग।



रविवार, 22 मई 2011

फिल्म संगीत अब शून्य सम्भावना

हाल ही में इस खबर ने, जिसका उल्लेख हमने कुछ दिन पहले सुभाष घई निर्मित और रितुपर्णो घोष निर्देशित फिल्म नौका डूबी और उसके हिन्दी संस्करण कश्मकश पर लिखते हुए किया था, कि सुभाष घई ने इस फिल्म के हिन्दी संस्करण के लिए गुलजार साहब से गीत लिखने का अनुरोध किया और यह भी कि संगीत रचना में भी टैगोर की संगीत परम्परा की खुश्बू महसूस की जा सके, हम अपने शहर की सबसे अच्छी और यथा समृद्ध म्युजिक शॉप में इस लालच से गये कि इस फिल्म का संगीत खरीदा जाये, नौका डूबी के नाम से मिले या कश्मकश के नाम से क्योंकि दोनों ही संस्करणों का संगीत काफी दिन पहले जारी हो गया था।

दोनों ही फिल्मों, टैगोर के एक सौ पचासवें जन्मवर्ष का उपलक्ष्य आदि, आदि समझाते हुए इन दोनों फिल्मों के नाम बताकर पूछा कि गानों की सीडी मिलेगी। जवाब न में था। खास बात यह थी बहुत ताजा मसला था, इतना ज्यादा समझाने और उसके बाद ना-उम्मीद होने का अनुमान न था मगर वही हुआ। लेकिन उनका यह भी कहना हुआ कि अब संगीत का बाजार खत्म सा है। सीडीज़ हम नहीं लाते क्योंकि उनको कोई खरीदता नहीं है, लिहाजा बेचा जाना सम्भव नहीं है। ढेर लगाकर क्या फायदा? आजकल जमाना एम पी-3 का हो गया है। बीस-पचीस रुपए में सौ-पचास गाने की डिमाण्ड रहती है। ऐसे में कौन लेगा गानों की सीडी सौ-डेढ़-दो सौ रुपए में?

तर्क और दलीलों के साथ बाजार और लोगों की अभिरुचि पर इतनी लम्बी बात होती चली गयी पर व्यर्थ में हुई यह कहना उपयुक्त न होगा। इसने एक चिन्ता तो सामने रख ही दी। सचमुच अब म्युजिक सीडी के बाजार पर भी खासा कुहासा छाया है। एक बार विख्यात गजल गायक पंकज उधास ने भी कहा था कि कैसेट का दौर चला गया है पूरी तरह। अब लोग कैसेट खरीदते नहीं हैं, बिकते नहीं हैं और बनते भी नहीं हैं। फिल्म संगीत को सुनने का शगल अब किसी का नहीं रहा, नये फिल्म संगीत की बात हो रही है। हमारे एक आत्मीय गजलकार मित्र कहते हैं कि पच्चीस सालों से हमारी रोजी-रोटी पुराने गानों को गाकर चल रही है।

आज का संगीत कोई सुनना ही नहीं चाहता। इस समय जो लोग फिल्में बना रहे हैं उनके पास संगीत को लेकर कोई चिन्ता नहीं है। वे गीत-संगीत को फुलझड़ी और पटाखा की तरह बनाते और इस्तेमाल करते हैं। चलने और छूटने तक ही मजा, बाद में बुहारकर किनारे कर दिया जाता है। इस दुर्दशा के लिए भी शायद यही जिम्मेदार भी हैं।

शनिवार, 21 मई 2011

रजनीकान्त और अंधा कानून

रजनीकान्त की पहली हिन्दी फिल्म अंधा कानून का निर्देशन टी. रामाराव ने किया था। इस फिल्म 1983 में आयी थी। तब रजनीकान्त को हिन्दी सिनेमा के दर्शक जानते नहीं थे। व्यावसायिक रूप से सफल अंधा कानून कोई बहुत श्रेष्ठ फिल्म नहीं थी लेकिन उसकी चर्चा इस रविवार हम इसलिए कर रहे हैं क्योंकि रजनीकान्त गम्भीर स्वास्थ्य संकट से जूझ रहे हैं।

दक्षिण भारत में अपने दर्शकों के इस सबसे ज्यादा चहेते अभिनेता का जीवन संघर्ष, उपलब्धियों और जमीन से जुड़े रहने की मिसाल है। रजनीकान्त जैसा असर और सफलता की आँख मूँद गारण्टी अमिताभ बच्चन के पास भी, रजनीकान्त स्तर की कभी नहीं रही।

अंधा कानून की कहानी उसी तरह की है, जिस तरह की अमूमन फिल्में सत्तर के दशक की पहचान थीं। हालाँकि यह बाद की फिल्म है मगर हीरो, विलेन, बदला, आँखमिचौली और चकमा देने की सारी शैलियाँ इस फिल्म में उस खास अन्दाज में फिल्मायी गयी थीं जिसके लिए दक्षिण भारत का सिनेमा की टेक्रीक तक आज भी कोई नहीं पहुँच पाया।

इस फिल्म में तीन खलनायक हैं जो एक परिवार में हमला कर बड़ी बेटी का बलात्कार करते हैं और वह मर जाती है। छोटी बहन और भाई गवाह हैं। अपनी बहन की हत्या का बदला दोनों का संकल्प है। छोटी बहन, जो बड़ी बनकर पुलिस इन्स्पेक्टर बनती है, कानून के जरिए अपराधियों को सजा दिलवाना चाहती है और भाई कानून तोडक़र, जैसे को तैसा और खून का बदला खून की शैली में।

प्रेम चोपड़ा, डैनी और प्राण खलनायक हैं। भाई बड़ा होकर रजनीकान्त है और बहन हेमा मालिनी। एक कहानी अमिताभ बच्चन, माधवी और अमरीश पुरी की समानान्तर रूप से इस फिल्म में चलती है। भाई, एक-एक करके दो बुरे आदमियों को मार देता है। अब बहन, भाई के पीछे है, उसको अपराध करते हुए पकडऩा चाहती है। अमिताभ बच्चन का किरदार भी कानून का सताया है। बहन का बदला लेने वाला भाई और यह किरदार मिलकर तीसरे खलनायक को उसी रास्ते से उसके अन्त तक पहुँचाते हैं जिस पर इनकी आस्था है।

अंधा कानून को दर्शकों ने अमिताभ बच्चन, हेमा मालिनी जैसे सितारों के साथ रजनीकान्त की उपस्थिति के लिए खास इस कारण पसन्द किया था, कि यह सितारा एक्शन, मारधाड़, पिस्तौल चलाने, सिगरेट उछालकर लाइटर से सुलगाने अन्दाज में अनोखा था। यह अन्दाज तक या अब भी किसी हिन्दी फिल्मी सितारे का नहीं हुआ।

आज भी दर्शक रजनीकान्त को परदे पर यह सब करते देखकर मजा लेते हैं। अंधा कानून, भाई-बहन की नोंकझोंक के दृश्यों में भी दर्शकों को पसन्द आयी थी। दर्शक-पाठक इस फिल्म के साथ अपनी यादों को ताजा करते हुए रजनीकान्त के बेहतर और जल्द स्वास्थ्य लाभ की कामना कर सकते हैं जिनकी नयी बड़ी और महात्वाकाँक्षी फिल्म राणा का सेट उनका इन्तजार कर रहा है।



शुक्रवार, 20 मई 2011

किस्मत का सूरज और पश्चिम की दिशा

सूर्योदय का अस्तित्व पूरब दिशा से ही जुड़ा है। हालाँकि ऐसा कभी नहीं हुआ कि सूरज, पूरब दिशा के बजाय किसी और दिशा से उदित हुआ हो फिर भी बड़े विस्मय से भरी चीजों के लिए सूरज के पश्चिम से उदय होने का उदाहरण दिया जाता है। मायानगरी में अक्सर बड़े अचम्भे हुआ करते हैं। अच्छा काम करने वाले अच्छे माने जाते हैं तो कई बार अच्छा काम करने वालों का काम ही खारिज कर दिया जाता है और वह हादसे से जूझता हुआ अपना विफल आकलन करता रह जाता है।

कई बार व्यर्थ का काम ही सिर चढक़र बोल जाता है तो भी लोग चकित रह जाते हैं। किस्मत का फैसला फिल्म जगत में जितने ज्यादा आश्चर्य के साथ हुआ करता है, उसके तो न जाने कितने उदाहरण होंगे। इधर अभिनेता तुषार कपूर और उनकी बहन एकता कपूर जनता के फैसले से चकित हैं। उनके सारे ताजे काम विफल साबित हो गये हैं। बहन एकता ने टीवी सीरियलों में अज्ञात कारणों से हासिल की सफलता का इतना सुख भोगा, इतनी सम्पन्नता देखी कि उनका मन सीरियलों से कमाये लाभ को फिल्म बनाकर और भी कई गुना ज्यादा में तब्दील करने का मन हो गया।

यह वाकई किसी चमत्कार से कम नहीं है कि आधा दरजन सीरियल किसी निर्मात्री के चैनलों पर चल रहे हैं, उनकी दिन रात शूटिंग चल रही है। एक ही कलाकार अनेक जगह काम आ रहे हैं, एक सा सेट और सामान, लोकेशन आंशिक परिवर्तन के बाद ज्यों की त्यों इस्तेमाल हो रही है। अनेक तरहों से बचत है और अनेक तरहों से लाभ हैं। इस तरह एकता की बालाजी टेलीफिल्म्स ने अपना अर्जित किया बहुत सा फिल्म निर्माण में लगाया। व्यर्थ की फिल्में बनायीं और नये जमाने के अपराधों को केवल सनसनी के लिहाज से, समाधान के लिहाज से नहीं, माहौल का लाभ लेने के लिए इस्तेमाल किया। टीवी धारावाहिक निर्माण से पराभव और फिल्म निर्माण के क्षेत्र में विफलता लगभग एक साथ शुरू हुई हंै।

सनसनी और सुर्खियों से हाइप खड़ा करने का फौरी लाभ लेने तक ही अपने काम को लेकर गम्भीर नजर आने वाली एकता को शायद अब एकला चलो रे की स्थितियों में आना पड़े। छोटे परदे के वे सारे सितारे जो कभी एकता के एक इशारे को अपना अहोभाग्य समझते थे, हिचकोले खाते जहाज से कूद गये हैं। एकता इस बदले हुए समय में फिर से आजमाइश करने की कोशिश कर रही हैं मगर सच यह है कि उनके निर्णय, उनकी पहल को समय लगातार खारिज कर रहा है।

आमिर और सलमान : अन्दाज अपना-अपना

यह सचमुच अपने-अपने अन्दाज की बात है। आमिर खान और सलमान खान आपस में मित्र हैं। दोनों एक-दूसरे की क्षमता और ताकत को जानने-समझने वाले। सलमान जानते हैं कि आमिर नो-डाउट श्रेष्ठ हैं सो वे उनके साथ कभी छेड़छाड़ नहीं करते, बल्कि अपने रिश्तों को हमेशा सहज और सुचिन्तित रूप से अच्छे बनाये रखने की सजगता बरतते हैं। आमिर खान भी यह जानते हैं कि सलमान खान आज के समय में जनता के सितारे हैं, एक हॉट प्रॉपर्टी।

लोकप्रियता के लिहाज से सलमान आमिर से बहुत आगे हैं। उनका दर्शक वर्ग ज्यादा व्यापक है और बच्चों से लेकर जवाँ तक जिस तरह पीढ़ी उनकी दीवानी है, वह आमिर को अचम्भित करने वाली बात नहीं लगती बल्कि वे इस बात को मानते हैं कि सलमान ने इस मुकाम को बनाने और बनाये रखने में बड़ी मेहनत की है। दोनों मिलकर वक्त-वक्त पर शाहरुख खान को जरूर निशाने पर लेते हैं क्योंकि शाहरुख अलग लाइन चलने वाले और क्षमताओं तथा उपलब्धियों के अहँकार से ज्यादा घिरे रहते हैं कुछ वर्षों से। इसी कारण उनकी प्रतिक्रियाएँ भी असंयत और कमोवेश नाराज करने वाली होती हैं।

यह योग दिलचस्प है कि आमिर और शाहरुख ने कभी साथ काम नहीं किया। यह भी संयोग है कि सलमान, आमिर के साथ अन्दाज अपना अपना में काम कर चुके हैं और शाहरुख खान के साथ कर्ण-अर्जुन सहित दो-तीन फिल्में। हाल ही में शादी-ब्याह के मसलों को लेकर मस्ती-मजाक भरी चुहलबाजी आमिर खान की तरफ से सलमान खान को और प्रत्युत्तर में सलमान की तरफ से आमिर खान को हुई है। आमिर खान, सलमान के ब्याह न करने को लेकर फिक्रमन्द हैं, वे कहते हैं कि सलमान हाँ तो कहे, लड़कियों की लाइन लगा दूँ और जवाब में सलमान आमिर के लिए कहते हैंं कि मेरा वश चले तो आमिर के हाथ बांध दूँ ताकि वे अब तीसरी शादी न कर सकें।

सलमान की शादी की जिज्ञासा दर्शकों को भी खूब होगी, आमिर अकेले ही नहीं हैं मगर यह अब यक्ष प्रश्र हो गया है। सलमान के पिता सलीम साहब ने एक बार बातचीत में कहा था कि सलमान के लिए उसकी माँ आदर्श है। वो सोचता है कि उसकी माँ की ही तरह उसकी पत्नी हो जो कि अब आज के जमाने में मुश्किल है।

पता नहीं उसकी यह तलाश पूरी होगी या नहीं, वो अब शादी करेगा या नहीं। उम्र और समझ के लिहाज से वे सलमान को बहुत परिपक्व मानते हैं और कहते हैं कि वो अपने भाइयों के बच्चों के साथ बहुत मस्त रहता है। जिन्दगी, विवाहित जिन्दगी के प्रति उसकी अब क्या मान्यताएँ हैं, यह न तो वह बताता है और हमारे लिए भी उसे इस बात के लिए कुरेदना ठीक नहीं।



बुधवार, 18 मई 2011

नौका डूबी, टैगोर को आदरांजलि

गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर का एक सौ पचासवाँ जन्मवर्ष देश में मनाया जा रहा है। कला-संस्कृति के क्षेत्र में बहुत से नवाचार इसी परिप्रेक्ष्य में हो रहे हैं। देश और राज्य की सरकारें भी टैगोर के साहित्य के विविध आयामों में प्रस्तुतियों की सम्भावनाओं को मंच तक लाने का काम कर रही हैं। संस्थाएँ और सृजनधर्मी भी अपने उपक्रम कर रहे हैं। रवीन्द्रनाथ टैगोर का व्यक्तित्व और कृतित्व इतना विराट था कि उन्होंने सृजन की अपार सम्भावनाओं का ऐसा विहँगम पीढिय़ों को दिया, जो अनूठा और अमर है।

कथा, कविता, संगीत, चित्र, सिनेमा आदि जाने कितने आयामों में गुरुदेव का कृतित्व हमें चमत्कृत करता है। महान फिल्मकार सत्यजित रे ने गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर के जन्मशताब्दी वर्ष में उनकी तीन लघु कहानियों पर तीन लघु फिल्में एक पैकेज में बनायीं। नाम रखा तीन कन्या यानी थ्री डाटर्स। इसकी कहानियाँ थी, पोस्ट मास्टर, मोनिहार और समाप्ति। इसके अलावा चारुलता और फिर बाद में घरे-बाइरे फिल्में भी रे ने टैगोर की कृतियों पर ही बनायीं। रे ने टैगोर पर भी एक लघु फिल्म बनायी थी, जो सम्भवत: अकेली श्रेष्ठ फिल्म है।

सत्यजित रे बहुआयामी प्रतिभा के धनी थे। वे अपनी फिल्मों पर पूरी मेहनत करते थे। वस्त्र विन्यास, संगीत रचना, नामावलियाँ, पटकथा, संवाद, कहानी और निर्देशन और भी जो कुछ बचा-छूटा जो उनको अपने लिए अपरिहार्य लगता हो। अबके अर्थात एक सौ पचासवें साल में एक सराहनीय उपक्रम सुभाष घई ने किया, जो उनकी उस दृष्टि को रेखांकित करता है जिसके चलते उन्होंने एक विशेष समय में एक महत्वपूर्ण होने के संसाधन जुटाये, खासतौर पर आर्थिक और वह भी बिना किसी रचनात्मक हस्तक्षेप के।

घई ने मुक्ता आर्ट्स के बैनर पर टैगोर की लघु कथा नौका डूबी पर प्रख्यात बंगला निर्देशक ऋतुपर्णो घोष से एक फिल्म बनवायी। यह फिल्म 1912 में प्रकाशित टैगोर के लघु कथा संग्रह गाल्पो-गुच्चो की एक कहानी पर आधारित है।

नौका डूबी में प्रसेनजित, रिया और राइमा सेन ने काम किया है। इस फिल्म की पिछले अन्तर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह में बड़ी सराहना हुई है। सुभाष घई ने संजीदा हिन्दी दर्शकों के लिए इसे कश्मकश नाम से हिन्दी में भी डब किया। नौका डूबी के जरिए ही पहली बार घई और गुलजार आपस में जुड़े क्योंकि घई ने उनसे इस फिल्म के लिए विशेष रूप से रवीन्द्र संगीत के प्रभाव और अनुभूति वाले गीत लिखने के लिए अनुरोध किया। गुलजार ने यह काम मनोयोग से किया है। वे स्वर्गीय बिमल राय की शिष्य परम्परा के विशिष्ट फिल्मकार हैं और परिवेश को लेकर उनकी दृष्टि अनूठी।

यह फिल्म 20 मई को देश भर में रिलीज हो रही है। आज के समय में इस उपक्रम को सकारात्मक दृष्टि के साथ देखा जाना चाहिए।

सोमवार, 16 मई 2011

मनोरंजन के मुहावरों से दूर फिल्में

आजकल की फिल्मों में मनोरंजन को लेकर न तो लेखक चिन्ता करना चाहता है, न कलाकार और न निर्देशक। निर्माता की सारी चिन्ता इसी में रहती है कि फिल्म पिट गयी तो क्या होगा, जाहिर है सबसे बुरा उसी का होगा क्योंकि पैसा वही लगा रहा है। कलाकार के नाज-नखरे, ऐशो-आराम, खुद और चार लग्गू-भग्गुओं का खर्च भी उसी के माथे है, और भी तमाम सब। दूसरा निर्देशक है जिसके सिर पर तलवार लटकी है, निर्माता की, कि मुनाफे वाला काम करके देना है नहीं तो खैर नहीं। वह लेखक से खूब सिर खपाकर निर्माता के भरोसा करने लायक पटकथा लिखवाकर काम करता है।

कलाकार सुरक्षित हैं, जमकर पैसा तय कर लिया गया है, ले लिया गया है, अब काम अपनी तरह से होगा। संजीदा और समर्पित कलाकार होगा तो अनुशासन का पालन करेगा, अपने किरदार पर ध्यान देगा और हर शॉट के लिए मेहनत करेगा। ऐसा भला न हुआ तो उसी के डमरू पर निर्देशक को नर्तन करना पड़ेगा। ऐसे में जो फिल्म बनकर आयेगी, वह जैसी भी होगी, दर्शकों आप ही के हवाले है। आप तय ही नहीं कर पाओगे कि देखूँ या नहीं क्योंकि भारी भरकम टिकिट पर पैसा वसूल की गारन्टी नहीं है। एक अच्छी फिल्म भले दो दिन आनंद में न रखे लेकिन एक बुरी फिल्म भुगतकर एकाध सप्ताह तो दर्शक पछताता ही है, जेब सहला-सहलाकर।

पहले के अनुभवी निर्देशकों में मनोरंजन तत्वों के लेकर कई तरह के मुहावरे हुआ करते थे। चिन्नप्पा देवर दक्षिण के जाने-माने निर्देशक थे, उन्होंने हाथी मेरे साथी बनायी तो हाथियों को इस तरह पेश किया कि राजेश खन्ना से ज्यादा श्रेय वे ले गये और फिल्म हिट हो गयी। निर्देशकों ने ही हीरो से ज्यादा हास्य अभिनेताओं मेहमूद, जॉनी वाकर और खलनायकों कन्हैयालाल, हीरालाल, के.एन. सिंह, चरित्र अभिनेता अशोक कुमार, मोतीलाल, बलराज साहनी को अपनी फिल्मों में ऐसी भूमिकाएँ दीं, कि लोग उनके लिए फिल्म देखने गये और नायक-नायिका और उनकी कहानी गौण हो गयी। छत्तीसगढ़ के दो से भी कम फीट आकार के नत्थू दादा को राजकपूर ने मेरा नाम जोकर में जोकर बनाया तो बाद में वे दो सौ फिल्मों में अपने जौहर दिखाकर दर्शकों को कौतुहल से भर देने में कामयाब रहे।

ऐसा अनेक बार हुआ जब दर्शकों ने ऐसे कलाकारों के दृश्य विशेष को बहुत पसन्द किया और उसके लिए फिल्म देखने दोबारा गये। जैकी श्रॉफ की एक फिल्म तेरी मेहरबानियाँ में एक कुत्ता अपने मालिक के तीन हत्यारों का बदला लेता है और हर सफलता पर मालिक की समाधि पर माला चढ़ाता है। सफलता के फार्मूले और फार्मूला फिल्में अपना वजूद रखा करती थीं। अब सिनेमा का कारोबार जोखिम से भरा है। एक रुपए की लागत में शायद बीस पैसे लौट रहे हैं।

रविवार, 15 मई 2011

पारम्परिक खलनायकों से खाली होता सिनेमा


पिछले दिनों हिन्दी फिल्मों के खलनायक शक्ति कपूर भोपाल आये थे। एक जमाना था जब उनका आगमन बड़ी सम्भावनाओं के साथ हुआ था। शुरूआत में उनका नाम सुनील कपूर था। अर्जुन हिंगोरानी उनके गॉड फादर थे जिन्होंने उनको अपनी फिल्म खेल खिलाड़ी का, से चांस दिया था। पहली फिल्म बड़ी ऊर्जा के साथ उन्होंने की। बाद में ज्यादा नहीं चल पाये तो सोचा नाम बदल लूँ सो शक्ति कपूर हो गये।

शक्ति कपूर होने से चल निकले हों, ऐसा नहीं है मगर तब के बड़े खलनायकों अमजद खान, कादर खान, मदन पुरी और अमरीश पुरी की गैंग के गुण्डे की भूमिकाएँ करते-करते अपनी क्षमताएँ बढ़ाते रहे। अभिनेत्री पद्मिनी कोल्हापुर की बड़ी बहन शिवांगी से शादी की। आगे काम करते हुए लाइम लाइट में आये। सुभाष घई, फिरोज खान, राजकुमार कोहली, राज सिप्पी आदि के साथ काम करते हुए शक्ति ने अपने को मजबूत किया। सत्ते पे सत्ता, उनकी एक अच्छी फिल्म थी। बाद में डेविड धवन ने उनको राजा बाबू से फूहड़ और घटिया संवादों और हावभावों से हँसाने वाला कॉमेडियन बना दिया। यह लाइन शक्ति को खलनायकी से ज्यादा रास आयी।

शक्ति कपूर मुख्य खलनायक नहीं बन पाये मगर वरिष्ठ खलनायकों के रिटायर होने से उनको जो जगह मिल सकती थी, वह धारा बदल लेने से नहीं मिल पायी। इधर सिनेमा पारम्परिक खलनायकों से खाली होता चला गया। पहले मदन पुरी गये, फिर सबसे ज्यादा शक्तिशाली अमजद खान चले गये। कादर खान, घटिया कॉमेडी के परोसदारों में शक्ति कपूर से आगे निकल गये। तब सबसे अच्छा वर्चस्व अमरीश पुरी का स्थापित हुआ। अमरीश पुरी की खासियत थी, उनका थिएटर कमिटेड होना, किरदारों में उतर जाने की खासी क्षमता और मेहनत का परिचय देना और सशक्त निर्देशकों का पसन्दीदा कलाकार होना।

अमरीश पुरी ने इस अवसर को पूरा अपने पक्ष में इस्तेमाल किया और लगभग एक दशक से भी ज्यादा समय तक एकछत्र राज किया। यह उनकी खूबी ही कही जायेगी कि वे जब तक जीवित रहे तब तक लाइम लाइट में रहे, उनके पूछ-परख और सम्मान बना रहा, उनको अवसर मिलते रहे। उनके नहीं रहने के बाद जैसे हिन्दी सिनेमा से खलनायक इरा ही खत्म हो गया। धीरे-धीरे स्थिति यह आ गयी कि सिनेमा सशक्त खलनायक से रहित नजर आने लगा। इधर न तो मजबूत हीरो रहे और न ही उनको टक्कर देने वाला मजबूत खलनायक।

पिछले दस-बारह सालों में जो कलाकार हीरो बनकर आये, उन्होंने जायका बदलने के लिए बीच-बीच में नकारात्मक भूमिकाएँ कीं, जैसे जैकी श्रॉफ, संजय दत्त, अजय देवगन लेकिन सशक्त खलनायक की परिपाटी फिर कायम नहीं हो पायी। आज का सिनेमा न तो कायदे की हीरोशिप का है और न याद रह जाने वाली खलनायकी का।

श्याम बाबू की मण्डी और उसके ज्वलन्त सवाल

सत्तर के दशक में जिस नये सिनेमा का आगमन हुआ, वह एक दशक में ही काफी परवान चढ़ा। सत्यजित रे, मृणाल सेन, श्याम बेनेगल, आरम्भ में उनके सिने-छायाकार और बाद में निर्देशक गोविन्द निहलानी आदि फिल्मकारों ने बाजारू सिनेमा में बहते पैसे और निरर्थकता के बरक्स कम खर्च का ध्यान खींचने वाला, चर्चा और बहस खड़ी करने वाला सिनेमा दर्शकों को दिया। एक दशक में इस तरह के सिनेमा का अपना वजूद बना, वह भी इतने कम समय में। इसी आत्मविश्वास की एक और फिल्म का नाम है मण्डी जो दर्शकों ने 1983 में देखी थी। इसके निर्देशक श्याम बेनेगल थे।

मण्डी, जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, वेश्याओं के जीवन के सबसे अस्थिर पहलू पर आधारित है। महानगरों का सच है, वहाँ का सबसे चर्चित बाजार जहाँ जीवन और अस्मिता का सबसे बड़ा संकट है। रसिया वृत्ति का मनोरंजन नाच गाने से ही नहीं होता, न ही यहाँ कला या विरासत के संरक्षण की कोई स्थितियाँ है, रंगीन जिन्दगी चेहरा बदलकर जी जाती है, उस समय के अपने आश्वासन, वादे और भरोसे होते हैं मगर बाद भी फिर चेहरा बदलते ही समाज की चिन्ता होने लगती है, उसके रसातल में जाने का डर सताने लगता है। शाबाना आजमी ने इस फिल्म में रुक्मणी का किरदार निभाया है, जिसकी चिन्ता केवल उसकी बढ़ती उमर ही नहीं बल्कि उन दस-बीस औरतों की दिशाहीनता भी है, जिनको आगे का कुछ पता नहीं। रुक्मणी सबका भरोसा है मगर उसके पैरों तले जमीन आये दिन उखड़ती है जब समाज सेवकों को ऐसा काम करने वाली औरतों को शहर से खदेड़ देने का परोपकार सवार होता है।

मण्डी की सबसे बड़ी खासियत उसकी चुस्त पटकथा होना है। हमें लगातार सामाजिकता और लोकलाज के सवालों पर उस तरह के किरदार दिखायी देते हैं जिनका एक पैर जमीन पर और एक दलदल में फँसा हुआ है। उस दृष्टि से फिल्म दोहरे चरित्रों पर व्यंग्य भी करारा है। पण्डित सत्यदेव दुबे और शमा जैदी ने फिल्म को पटकथा के जरिए ही असरदार बनाया है। शाबाना आजमी, स्मिता पाटिल, अमरीश पुरी, अनीता कँवर, सोनी राजदान, कुलभूषण खरबन्दा, हरीश पटेल, सतीश कौशिक, सईद जाफरी, ओम पुरी, नीना गुप्ता, इला अरुण, श्रीला मजुमदार जैसे बहुत महत्वपूर्ण कलाकार इस फिल्म को अपने किरदारों के साथ यादगार बनाते हैं।

इन सबके बीच नसीरुद्दीन शाह, डुंगरूस का अविस्मरणीय किरदार जीते हैं, एकदम चुप, बिना आवाज के हर बाई का हुक्म बजाने वाला, लेकिन कभी-कभी जब देर रात पीकर भड़ास निकालता है तो रुक्मणी से लेकर सभी बाइयों के नाम लेकर खरी-खोटी सुनाता है। डुंगरूस से लेकिन सब प्यार करते हैं, वो सबके काम आता है। वो दृश्य अनूठा है जब शहर से बाहर कर दी गयीं वेश्याओं के साथ न जाने वाले डुंगरूस कई दिन बाद जब उन्हें दूर से आता हुआ दिखायी देता है, तो सबकी खुशी का ठिकाना नहीं रहता। नसीर के न भुलाये जा सकने वाले कैरेक्टरों में से है ये एक डुंगरूस। कहा जाता है कि यह नाम बिलासपुर के किसी व्यक्ति का था जो पटकथा लेखक पण्डित सत्येदव दुबे ने यहाँ इस्तेमाल किया। मण्डी का अन्त निराशाजनक है, समाधानरहित।

शुक्रवार, 13 मई 2011

आल्वेज़ ऐसा क्यों होता है.. .. ..

आल्वेज ऐसा नहीं होता था पर अब काफी समय से होने लगा है। टेलीविजन पर फिल्मों की झलकियाँ चलती हैं तो बहुत कुछ मूढ़तापूर्ण दिखायी देता है। शाहरुख खान की कम्पनी ने एक फिल्म बनायी है जिसका नाम है, आल्वेज कभी-कभी। नाम सुनकर ही आश्चर्य से भर गया क्योंकि जहन में यश चोपड़ा की फिल्म कभी-कभी का एक अच्छा असर अभी तक है। अब ये आल्वेज कभी-कभी का मसला क्या है, आसानी से समझ न आया। खैर बादशाह की फिल्म है। बादशाह इस समय बहुत सारी चुनौतियों से जूझ रहा है।

सबसे बड़ी चुनौती बादशाहत की है जो चार-पाँच साल से लगातार झोल खा रही है। इसके साथ-साथ आमिर, सलमान आदि के साथ शाब्दिक ताल भी ठोंकना पड़ती है अक्सर। हमेशा सामने वाले के दहले को भी नहला समझना और अपने नहले को दहला ही मानना, यह भी अच्छे खासे तनाव का कारण है। समय व्यतीत होता जा रहा है, फिल्में आ नहीं रहीं जबकि स्पर्धी अपना परचम फहराने में लगे हैं। दूसरों की तीन फिल्में आ जाती हैं तब बादशाह की एक आती है। अस्सी-सौ सिगरेटें रोज पीने की कतिपय खबरों से अलग अचरज होता है कि एक अच्छा-खासा किस्मत का धनी कलाकार किस तरह अपने को रिड्यूज करने में लगा है, सेहत और समझ के साथ।

आल्वेज कभी-कभी में खुद नहीं हैं, मगर खुद की फिल्म है, इसलिए थोड़ा-बहुत तो रहना ही होगा सामने न सही, परोक्ष ही सही। आल्वेज ऐसा क्यों होता है, आल्वेज वैसा क्यों होता है की फिलॉसफी के साथ बादशाह फिल्म का माहौल बना रहे हैं, उधर रॉ-वन विलम्बित हो रही है। गजब भूत है अंगरेजी का हिन्दी सिनेमा पर। बरफी से मीठी और स्वादिष्ट चॉकलेट बतायी जा रही है। लव यू मिस्टर कलाकार की पब्लिसिटी एक चैनल पर चल रही थी और अमृता राव कह रही थीं, कि सूरज जी ने फिल्म के निर्देशक एस. मनस्वी पर भरोसा इन्वेस्ट किया। भरोसा क्या वाकई पूँजी की तरह इन्वेस्ट होता है, अपन को पता न था।

फिल्म जगत में हो सकता है, होता होगा, तभी न सूरज बडज़ात्या ने किया। यह अमृता राव जानती हैं। आल्वेज सब कुछ अंगरेजी में ही है, हिन्दी की सम्पदा खत्म भले न हुई हो, मगर पीढिय़ों ने, माध्यमों ने अब इसे औपचारिकता के लिहाज से केवल 14 सितम्बर के लिए ही रख छोड़ा है। सिनेमा भाषा को मेट रहा है। आल्वेज ऐसा ही हो रहा है, सचमुच शाहरुख खान, कभी-कभी ही नहीं।

मंगलवार, 10 मई 2011

सफलता-विफलताओं के अग्निपथ


कुछ ट्रेड मैगजीन ने हाल में लगातार असफल हो रही फिल्मों को लेकर खासी चिन्ता व्यक्त की है। पिछले दो-तीन माहों में जिस तरह की फिल्में आयीं, वे बहुत बड़े बजट, बहुत बड़े कलाकार, बहुत बड़े फिल्मकार या बहुत बड़े दावों वाली फिल्में नहीं थीं मगर जिस तरह उन फिल्मों में कुछ लीक से अलग हटकर चेहरे नजर आ रहे थे, उसको देखकर लगता था कि सम्भवतः बनाने और काम करने वालों को उनके तेवर और अव्यक्त मगर प्रतीत होते दावों के अनुरूप सफलता मिल ही जाये। लेकिन ऐसा हुआ नहीं और सभी फिल्में एक-एक करके गिरती चली गयीं चाहे फिर वो शोर इन द सिटी हो या चलो दिल्ली।

एक तरफ एक भी बड़ी फिल्म का न आना और जिन छोटी फिल्मों के अच्छे कारोबार का भरोसा था, उनका ध्वस्त हो जाना, एक अलग तरीके निराष माहौल को सामने ले आया है। दिलचस्प यह है कि इन सबके बावजूद रोज ही मायानगरी मुम्बई में बी और सी ग्रेड फिल्मों के मुहूरत हो रहे हैं। इन दिनों एक बात और देखने में यह आ रही है कि भोजपुरी फिल्मों का बाजार भी अब ठण्डा पड़ गया है। भोजपुरी फिल्मों के सो-काल्ड महानायक रविकिषन और मनोज तिवारी दूसरी धाराएँ तलाष कर रहे हैं। मनोज तिवारी तो खैर किस्मत के धनी थे कि उनको एक साथ ऐसी सफलताएँ मिलीं कि रविकिषन का उठा बाजार भी प्रभावित हो गया। मनोज तिवारी के पहले रविकिषन भोजपुरी सिनेमा के स्वयंभू मसीहा जैसे बने रहा करते थे। वे अपनी बातचीत में भी गर्व से यह कहा करते थे कि उनकी सक्रियता और सहभागिता से ही भोजपुरी सिनेमा बुलन्द हुआ है और उसी वजह से लाखों लोगों के घर की रोजी-रोटी चल रही है।

इधर लगातार एकरसता और सफल फार्मूले को उबाऊपन की हद तक दोहराये-चोहराये जाने के कारण उत्तरपूर्व के दर्षक भोजपुरी सिनेमा से भी उकता गये। यही कारण है, कि अब भोजपुरी फिल्मों को दर्षक नहीं मिल रहे। इसका नुकसान दो हीरो को हुआ, हीरोइनों का वजूद यहाँ भी नहीं बन पाया था, सो उनकी कोई कहानी नहीं बन सकी। वाकई सफलता और विफलता का माध्यम जिस अग्निपथ से होकर गुजरता है, उसे फिल्म बनाने वाले या काम करने वाले जानकर भी नहीं जानते। सिनेमा का बाजार सबसे बुरे दौर से गुजर रहा है। फिल्में अपनी गारण्टियाँ खुद खो रही हैं। दर्षक ने टेलीविजन से लेकर अपने मोबाइल के स्क्रीन तक गानों और झलकियों को रिड्यूज़ कर लिया है। यह सूक्ष्मता सिनेमा के लिए कितनी हानिकारक है, यह अभी सिनेमा बनाने वाले शायद जान न पायें।

सोमवार, 9 मई 2011

संगीतकार उत्तम सिंह कहाँ हैं.......?


फिल्मों की दुनिया अजीब ही है। यहाँ बेहतर को मौके मिलते हैं और बुरे-बदतर को वक्त के साथ बिसरा दिया जाता है। लेकिन इसी के साथ ही एक सच यह भी है कि यहाँ बड़े आष्चर्यजनक ढंग से बेहतर भी लाइन हाजिर होकर रह जाता है और बुरे-बदतर चलते रहा करते हैं। अभी एक दिन यष चोपड़ा की लगभग पन्द्रह साल पहले की फिल्म दिल तो पागल है, का एक गाना सुना, घोड़े जैसी चाल, हाथी जैसी दुम, ओ सावन राजा कहाँ से आये तुम, तो लता जी की याद हो आयी, उदित नारायण याद आ गये। गीतकार आनंद बख्शी याद आ गये जो हमारे बीच अब नहीं हैं और फिर याद आये उत्तम सिंह।

इतने सारे चर्चित नाम-चेहरे ताजा हुए तो फिर दिल तो पागल है के और भी गाने सुनने की चाह हुई। सभी सुन डाले, भोली सी सूरत आँखों में मस्ती दूर खड़ी शरमाए, दिल तो पागल है दिल दीवाना है, मुझको हुई न खबर चोरी-चोरी छुप-छुपकर, अरे रे अरे ये क्या हुआ मैंने न ये जाना आदि। इन सब गानों को सुनते-सुनते जहन में पूरी तरह उत्तम सिंह आकर ताजा हो गये। ध्यान किया कि शायद इन पन्द्रह सालों में इस अत्यन्त माधुर्यभरे संगीतकार ने पाँच फिल्में भी न की हांेगी। क्यों ऐसा हुआ कि दिल तो पागल है से इतनी बड़ी ऊँचाई, लोकप्रियता, मान-सम्मान-प्रतिष्ठा हासिल करने के बावजूद उनको और काम न मिला। नहीं अन्दाज लग पाया कि कैसे वे उस कैम्प में दोहराए नहीं गये जहाँ से उनके जीवन भर की मेहनत परवान चढ़ी थी। व्यक्तिषः मुझे वह पूरा दौर याद आ गया जब दिल तो पागल है फिल्म आयी थी। इस फिल्म का संगीत सचमुच उन्होंने दिल से, डूबकर रचा था।

शाहरुख खान, माधुरी दीक्षित, करिष्मा कपूर एक अजीब से त्रिकोण का हिस्सा बने किरदार के रूप में सामने थे। प्रेम त्रिकोण में गजब की फिलाॅसफी उस समय साठ साल के होते यष जी ने रची थी। फिल्म का नाम और सामान्य प्रचार में किसी ने नहीं जाना था, कि इस फिल्म को अनेक आयामों में हिट हो जाना है। ऐसी चर्चा हासिल करनी है जो अपने आसपास के तमाम युवा और सफल निर्देषकों को हतप्रभ कर दे, यष जी के काम से। इसमें कोई शक नहीं कि फिल्म का गीत-संगीत लोकप्रियता में बराबर का सहभागी हुआ था। इसीलिए उस वक्त के उत्तम सिंह जैसे रचनाधर्मी और गहरे संगीत-साधक की याद अचानक आ जाना स्वाभाविक था। बाद में उन्होंने जो कुछ फिल्में कीं उनमें तनूजा चन्द्रा निर्देषित दुष्मन और डाॅ. चन्द्रप्रकाष निर्देषित पिंजर थीं।

आज ऐसे वक्त में जब फिल्म संगीत ही नहीं, समूची फिल्म संस्कृति ही क्षणभंगुरता का षिकार है, संगीत भला कहाँ याद रहेगा। जाने क्यों नहीं अच्छे संगीत को अच्छे सिनेमा की जरूरत समझने वाले फिल्मकारों को उत्तम सिंह जैसे उत्तम और गुणी संगीतकार याद नहीं आते?

शुक्रवार, 6 मई 2011

चैनलों के लिए आचरण संहिता


मनोरंजन चैनलों की अराजक मानसिकता और अश£ीलता को लेकर हम लोग बहुत चर्चा करते हैं। सिनेमा का मसला तो ऐसा है कि यदि आप सिनेमाघर जाकर उसे देख रहे हैं तो पूरे समय आपको जो दिखाया जा रहा है, वह आपको भुगतना ही है, भले आप उससे सहमत हों या न हों, पसन्द आये या न आये। पैसा खर्च किया है तो उठकर आने का मन नहीं करेगा।

आधा सिनेमा देखकर लौटने की कुण्ठा भी अलग ही होती है मगर चैनल का रिमोट तो आप ही के हाथ में होता है। आप चाहे तो बदल सकते हंै, चाहे तो देखते रह सकते हैं। जो कुछ भी चैनल दिखाते हैं उसके सभी आयामों मेें आपकी सहमति या स्वीकृति है तो फिर वो आपके काम का है ही। यदि सपरिवार या दो-चार लोग मिलकर देख रहे हैं तो राय में भेद हो सकता है, चैनल बदलने की मांग उठ सकती है। बहुमत हुआ तो बदल दिया गया, नहीं हुआ तो यह हुआ कि चलने दो यार, मजा आ रहा है। जो असहमत होगा, वह अपने आपसे सवाल करता रह जायेगा कि अर्चना के अट्टहास में काहे का मजा, कॉमेडी सरकस के विदूषकों की घटिया कॉमेडी में काहे का मजा?

नयी फिल्मों के गाने चैनलों में आते रहना, फिल्मों की पब्लिसिटी का एक अच्छा जरिया है। अब फिल्म बिना किसी सार्थक पटकथा के बनती है, लिहाजा, उसके सशक्त संवादों या दृश्यों के माध्यम से पब्लिसिटी करने से बेहतर आयटम सांग या उसी तर्ज का गाना दिखाना ज्यादा आसान होता है। मुन्नी से लेकर शीला तक हमारे घरेलू दर्शक भी जैसे इन सबके आदी हो गये हैं। भारत सरकार ने मनोरंजन चैनलों के लिए आचरण संहिता बनायी है। जब बनायी जा रही थी तब हमने अपने स्तम्भ में इस विषय में लिखा था। अब जब बनकर तैयार हो गयी है, तब भी हमें इसकी चर्चा लाजमी लगती है।

आपत्तिजनक दृश्यों और संवादों को लेकर समय-समय पर आने वाली शिकायतों के तारतम्य में आई.बी.एफ. ने एक स्वनियामक दिशा-निर्देशक और शिकायत निपटारा पद्धति को मंजूरी दे दी है। ये व्यवस्थाएँ चैनलों को रचनात्मक सुझाव देंगी और उनकी अनुत्तरदायी स्वेच्छारिता पर अंकुश भी लगायेंगी। अब यदि दर्शक चैनलों के विरुद्ध इस तरह की शिकायत करेंगे तो उस पर आई.बी.एफ. कार्रवाई करेगा। निश्चित ही इससे कहीं न कहीं चैनलों को इस बात का बोध होना शुरू होगा कि कहीं न कहीं उनके काम की मॉनिटरिंग हो रही है, उन्हें अपने मनचाहे का स्पष्टीकरण देना पड़ सकता है।





बुधवार, 4 मई 2011

सलमान फिर रेडी हैं.. .. ..


सलमान खान की फिल्म रेडी के प्रदर्शन की तैयारियाँ की जा रही हैं। एक महीने बाद इस फिल्म को प्रदर्शित किया जाना है। मनोरंजन का एक चैनल इस फिल्म के एक निर्माता भूषण कुमार की खूब खिंचाई करते हुए बार-बार इस फिल्म के प्रदर्शन पूर्व परिणामों को लेकर विरोधाभासी कार्यक्रम प्रसारित किया करता है मगर सलमान के प्रशंसकों का वर्ग इतना बड़ा है कि चैनल को इससे कोई फायदा न होगा। जाने क्यों वह निर्माता के रूप में भूषण कुमार की पिछली फिल्मों के आँकड़े दिखाकर यह साबित करना चाहता है कि इसका प्रभाव रेडी पर भी पड़ेगा।

जिन सलमान की पिछली फिल्म दबंग ने बॉक्स ऑफिस पर आश्चर्यजनक आय अर्जित करके दिखायी, उन सलमान की रेडी की चर्चा करते हुए चैनल उनकी पिछली फिल्म मैं और मिसेज खन्ना का उदाहरण पेश करता है, वह वाण्टेड की सफलता की बात नहीं करता और न ही दबंग को लेकर कुछ कहता है, चैनल का सारा जोर हर तरह रेडी के विरुद्ध प्रचार करना है। चैनल इस तरह अक्षय कुमार की पिछली फिल्म पटियाला हाउस को लेकर भी इसी तरह का प्रचार अभियान चला चुका है, जो योग से एक निर्माता के रूप में भूषण कुमार की भी फिल्म थी।

दर्शक इस बात को अच्छी तरह समझते हैं कि ऐसे दुष्प्रचार की आमतौर पर वजहें क्या होती हैं। निश्चित रूप से इसके पीछे व्यावसायिक स्पर्धाएँ और हित-स्वार्थ होंगे जिनमें हो सकता है, वे सारे लोग व्यवधान बने हों जिनकी आलोचना की जा रही है। आज के समय में निष्पक्षताओं के बजाय एक ऐसी आक्रामकता प्रचार-प्रसार माध्यमों का हिस्सा बनती जा रही है जहाँ हर काम को एक ही नजरिए से देखे जाने का चश्मा है। उद्देश्यों और इच्छाओं का पूरा होना, न होना ही प्राय: इन बातों का कारक हुआ करता है। लेकिन उस समय अजीब स्थितियाँ होती हैं जब दुष्प्रचार, दोषारोपण और मिथ्या थोपन का उत्तर एकदम उलट परिणामों से मिलता है।

रेडी का निर्माण किसी भी तरह की असावधानी के चलते या नुकसान उठाने के लिए नहीं किया गया है। यह दक्षिण की एक हिट फिल्म का रीमेक है और इस फिल्म के निर्माण में स्वयं सलमान खान ने रुचि ली है तथा स्क्रिप्ट से लेकर लोकेशन तक अपना सकारात्मक दखल किया है। सलमान अब जान गये हैं कि वे दर्शकों के सर्वप्रिय अभिनेता हैं, वे दबंग से मिले रुतबे को दर्शकों के समर्थन से ही अपने पक्ष में इस्तेमाल करना जानते हैं। वे रेडी हैं, फिर जल्द आने के लिए।

विषमताओं से जूझने की सहजता


मनुष्य अनुकूलताओं का अपने जीवन में इतना आदी हो जाता है कि उसे प्रतिकूलताएँ असहज बना देती हैं। ऊपर वाले की व्यवस्था ऐसी है कि वो यथासम्भव हर इन्सान को यथासम्भव अनुकूलताओं में रखता है। इससे परे की स्थितियाँ क्षणिक या तात्कालिक होती हैं। स्थितियाँ ऐसी होती हैं कि उसका निदान भी सुझा दिया जाता है। ताला यदि बन्द मिलता है तो उसकी चाबी ढूँढऩे से मिल जाये, ऐसी व्यवस्था होती है। कठिनाइयों का भी ऐसा ही है, यदि अपवाद को छोड़ दिया जाये। कहीं-कहीं कठिनाइयाँ और प्रतिकूलताएँ जीवन का स्थायी भाव भी हो जाया करती हैं लेकिन यह मनुष्य ही है जो उससे लगातार लड़ता है, अपना संघर्ष जारी रखता है। उसकी जिजीविषा इसी बात से प्रमाणित भी होती है।

जूझना, जीतने का आत्मविश्वास है। इस तरह की झलकियाँ, छोटे-छोटे अच्छे और मनभावन दृष्टान्त हमें इन दिनों छोटे परदे पर सब चैनल में प्राय: देखने को मिलते हैं। यह एक ऐसा चैनल है जो लम्बे समय से तमाम दूसरे रसूख वाले, साधन सम्पन्न चैनलों से जूझ रहा है, उनके साथ चलने, उनके बराबर खड़ा होने के लिए। यह काम उसके लिए आसान नहीं था। इस चैनल के मालिक अधिकारी ब्रदर्स ने अपने कैरियर की शुरूआत फिल्म निर्माण से की थी। पाँच-सात फिल्में बनाकर उन्होंने इस रास्ते को छोडऩा उचित समझा क्योंकि उनको इसमें ज्यादा सफलता नहीं मिली। उसी बीच चैनलों का खुलना शुरू हुआ। अधिकारी ब्रदर्स ने अपना चैनल बहुत बाद में खोला मगर उसकी शुरूआत से ही वे स्वस्थ और आदर्श मनोरंजन का ऐसा मापदण्ड लेकर चले कि सही रास्ते पर कदम बढ़ाने के बावजूद सफलता यहाँ भी खासी दूर रही।

इस बात की प्रशंसा की जानी होगी कि तमाम विपरीत परिस्थितियों, नुकसान, घाटे और हानियों के बावजूद इस चैनल ने अपनी लीक को नहीं छोड़ा। इधर कुछ समय से हम देख रहे हैं कि सब चैनल खूब लोकप्रिय हो गया है। एक तरफ दूसरे चैनल, दूसरे घराने और उससे जुड़े कलाकारों की एकरसता, उबाऊपन से दर्शक आजिज आ गया है, वहीं सब चैनल को देखना बहुत सारे घरों की आदत बन गया है। यह कमाल किया है, चैनल के सीरियल लापतागंज ने। शरद जोशी की रचनाओं और प्रेरणाओं से बना यह धारावाहिक श्रेष्ठ है वहीं तारक मेहता का उल्टा चश्मा, मिसेज तेन्दुलकर आदि धारावाहिकों का भी बड़ा दर्शक वर्ग है। इन धारावाहिकों के कथानक में हमें अपना जीवन दिखता है, अपने संघर्ष, अपने सुख-दुख और खुशियाँ। ये धारावाहिक हमें स्वयं को उनके बीच होने के अहसास से जोड़े रखते हैं। विषमताओं से जूझने की सहजता अनूठी है, इन प्रस्तुतियों में।

रविवार, 1 मई 2011

प्रतिबद्ध फिल्मकार को फाल्के अवार्ड


भारत सरकार ने प्रख्यात फिल्मकार, लेखक-निर्माता-निर्देशक के. बालाचन्दर को दादा साहब फाल्के अवार्ड दिए जाने का निर्णय लिया है। राष्ट्रपति के हाथों प्रदान किया जाने वाला दस लाख रुपए का यह सम्मान भारतीय सिनेमा का सर्वोच्च गरिमापूर्ण सम्मान है जो सिनेमा के क्षेत्र में जीवनपर्यन्त और प्रामाणिक सृजन के लिए प्रदान किया जाता है। के. बालाचन्दर का इस सम्मान से सम्मानित होना, एक ऐसे फिल्मकार के प्रति समाज का आदर व्यक्त करना है जिसने सिनेमा जैसे माध्यम के प्रति पचास साल की अपनी निरन्तरता में प्रतिबद्धता और सामाजिक हित को सर्वोपरि रखा।

के. बालाचन्दर को तमिल, तेलुगु, कन्नड़ और हिन्दी में अनेक उत्कृष्ट फिल्में बनाने का श्रेय है और कमल हासन, रजनीकान्त, सुजाता, एस.वी. शेखर जैसे कलाकारों को सेल्युलायड पर बड़ी प्रतिष्ठा प्रदान करने में अहम योगदान। कुछ सप्ताह पहले ही एक रविवार को अपने स्तम्भ में हमने के. बालाचन्दर की एक यादगार हिन्दी फिल्म एक दूजे के लिए पर चर्चा की थी। हिन्दी सिनेमा देखने वाला दर्शक इस महत्वपूर्ण फिल्मकार को हो सकता है नहीं जानता हो मगर दक्षिणभाषायी सिनेमा में बालाचन्दर साहब के जिक्र के बिना सिनेमा की सार्थक चर्चा असम्भव है।

के. बालाचन्दर का जन्म 1930 में तंजावुर में हुआ था। अन्नामलाई यूनिवर्सिटी से सन इक्यावन में साइंस ग्रेजुएट होने के बाद वे भारत सरकार के महालेखाकार विभाग में पन्द्रह साल नौकरी में रहे। इसी बीच उनका रुझान रंगमंच की तरफ हुआ, वे लेखन और निर्देशन दोनों रुचियों के व्यक्ति थे। कृष्ण पंजू का सर्वर सुन्दरम और फणि मजुमदार का मेजर चन्द्रकान्त उनके उल्लेखनीय नाटक थे जो 1964 में उन्होंने मंचित किए। इसी साल वे एम.जी. रामचन्द्रन की फिल्म दैवथई से एक पटकथाकार के रूप में जुड़े और सिनेमा की अपनी सृजन यात्रा आरम्भ की। कुछ समय बाद अपनी निर्माण संस्था कवितालय की स्थापना करके फिर उन्होंने अपने आपको पूरी तरह फिल्म के प्रति समर्पित कर दिया।

1965 में उनकी पहली फिल्म नीर कुमिझी आयी। के. बालाचन्दर की उल्लेखनीय फिल्मों में भामा विजयम, इरु कोदुकल, अपूर्व रागांगल, मीठी मीठी बातें, मारो चरित्र, अकालि राज्यम, इंगु ओरु कन्नगी, थन्नीर थन्नीर, प्यारा तराना, पोइक्कल कुथिराई, जरा सी जिन्दगी, अछामिल्लई अछामिल्लई, सिंधु भैरवी, ओरु विडु इरु वसल, एक नयी पहेली शामिल हैं। साठ के दशक में के. बालाचन्दर ने प्रमुख सामाजिक विषयों-मुद्दों पर महत्वपूर्ण फिल्में बनायीं जिनको तमिलनाडु सरकार ने कल्याणकारी कार्यक्रमों में खूब शामिल किया, ऐसी फिल्मों में संयुक्त परिवार, विधवा विवाह, स्त्री अस्मिता, दहेज समस्या, गांधी-मूल्य, न्याय पालिका आदि विषय उल्लेखनीय रहे।

इक्यासी वर्ष के के. बालाचन्दर को मिलने वाला यह प्रतिष्ठित सम्मान उनके सुदीर्घ और सार्थक अवदान के प्रति सामाजिक कृतज्ञता है।