गुरुवार, 30 जून 2011

सत्तर के दशक का मोहपाश


ऐसा लगता है कि सौ साल के सिनेमा में सत्तर का दशक ही ऐसा था जिसमें चमत्कार हुए। फराह खान ने ओम शान्ति ओम के जरिए इस आइडिया को क्या कैश कराया, सब के सब इस दशक के पीछे ही पड़ गये। व्यावसायिक सफलता का फार्मूला सभी को अब सत्तर के साल में ही दिखायी देने लगा है। यह ऐसी मुन्नी हो गयी कि पूरी भीड़ ही इसके इर्द-गिर्द नाच रही है। बुड्ढा होगा तेरा बाप इसका ताजा उदाहरण है।

सत्तर के दशक में अपने आगमन से लेकर पराभव तक की स्थितियों में पहुँचने वाले महानायक खुद अपने समय को याद कर रहे हैं। पुरी जगन्नाथ दक्षिण के सिनेमा के फिल्मकार हैं, पहले उनको सत्तर के दशक के सिनेमा की स्थितियाँ समझायी गयी होंगी फिर कहा गया होगा कि जो कुछ भी आपके दिमाग में है, वो छोंको, बघारो लेकिन कढ़ाई सत्तर के दशक की ही रहेगी, सो पैंसठ साल की उम्र में मुकद्दर के सिकन्दर वाले अमिताभ बच्चन को आप दो दिन बाद देख डालिए और अपनी राय दीजिए।

ओम शान्ति ओम से लेकर दबंग तक यह फार्मूला खूब परवान चढ़ा है। सलमान खान दबंग के जरिए एक बड़ी आतिशबाजी का मजा लेकर सत्तर के दशक के फण्डे को वहीं छोडक़र रेडी से बॉडीगार्ड तक आज के समय के सिनेमा को आजमाने के उत्साह में लग गये हैं लेकिन उस दशक के तिलों से तेल निकालने का मोह कुछ निर्माता-निर्देशक अभी भी नहीं छोड़ पाये हैं। सिनेमा में सत्तर का दशक कोई मापदण्ड या लैण्डमार्क नहीं है। वास्तव में या कहें दरअसल, अच्छा सिनेमा सत्तर के दशक के पहले तक ही बनता रहा है। उन दशकों में हमारे माहिर न जाने क्यों जाना नहीं चाहते।

यह बात सही है कि सत्तर के दशक में सिनेमा में व्यावसायिक सफलता और सितारा हैसियत एक नये चार्म पर दिखायी दी मगर एक्सीलेंस ऑफ सिनेमा के लिए तभी से जगह कम पडऩे लगी। आज जगह पूरी तरह जिस तरह की फिल्मों ने घेर ली है, उसके उदाहरण हर शुक्रवार को पेश हुआ करते हैं। हम-आप सब इसके गवाह भी हैं।

1 टिप्पणी:

कला रंग ने कहा…

aaj to pahle jyada high technic hai fir bhi nakal ki jaroorat pad rahi hai. aisa kyon?