गुरुवार, 30 जून 2011

मगर, जी कैसे कड़ा किया जाये?


हीरोशिप से कोई रिटायर नहीं होना चाहता। हिन्दी सिनेमा का नायक ताउम्र हीरो बना रहना चाहता है। हीरो बने रहने के लिए उसे अपने से आधी या उससे भी कम उम्र की हीरोइन साथ काम करने को मिल जाये तो फिर कहना ही क्या? अमिताभ बच्चन भी चीनी कम में तब्बू के हीरो बनकर आ गये। यह विश्वास कर पाना बड़ा कठिन हो पाता है कि अब हीरो के बजाय हीरो-हीरोइन का पापा बनकर आना चाहिए।

कई नायक इस तरह की चुनौतियों से जूझकर हार रहे हैं मगर समझौता नहीं करना चाहते। खासतौर पर इनमें संजय दत्त का नाम आता है जो पिछली एक फिल्म ब्ल्यू में लारा दत्ता के साथ रोमांस करते बड़े खराब ढंग से दिखायी दिए। कुछ समय पहले ही गोविन्दा भी नॉटी फॉट्टी में शायद अपने कैरियर की लगभग अन्तिम बाजी हारते दिखायी दिए।

बहुत से नायक ऐसे हैं जिनके सिर से बाल जाते रहे मगर अजय देवगन, गोविन्दा जैसे ये कलाकार यह बात स्वीकारने को तैयार नहीं हैं कि अब दिन लद गये हैं। अनिल कपूर के साथ तो यह समस्या लम्बे समय तक रही। उनकी बेटी सोनम एक तरफ हीरोइन बनकर साँवरिया फिल्म में आ गयी थी दूसरी तरफ वे लम्बे समय से कोई नया काम इसीलिए हाथ में नहीं ले पा रहे थे क्योंकि उनका कैरियर एक अलग मोड़ पर आकर उनके निर्णय का इन्तजार कर रहा था।

कहा जाता है कि उनको नायक या नायिका के पिता का प्रस्ताव बहुत अप्रिय लगता था। वे अपेक्षा करते थे कि निर्देशक कहानी सुनाते हुए उनको बतायेगा कि उनकी हीरोइन कौन है, जबकि निर्देशक उनको यह बताने आता था कि वे हीरो नहीं बल्कि पिता का रोल कर रहे हैं। अपनी उम्र और पीढ़ी में सर्वाधित प्रतिभाशाली अनिल कपूर अभी भी सहज नहीं हो पाये हैं। दो-तीन अच्छी फिल्में उनके हाथ में हैं मगर आखिरकार उनको अपना रास्ता बदलना तो पड़ेगा ही।

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