बुधवार, 6 जुलाई 2011

आम का अचार

आरम्भिक बरसात को पहला या हल्का झाला पडऩा हमारे यहाँ कहते हैं, सो पड़ गया है पिछले दिनों। इस बार कैरी जमकर आयी हैं। अब मौसम के बहुत से फलों जैसे अमरूद, जामुन, आम आदि एक साल बहुतायात में और एक साल अपेक्षाकृत कम आते हैं। आम के कम आने का साल पिछला था, सो मँहगे मोल बिकता रहा और जल्दी ही दुकानों, ठेलों से बाहर हो गया। इस बार ऐसा नहीं है। गर्मी के आते ही एक के बाद एक मौसम के आम खूब आये और बिके।

पके आमों का आस्वाद लेने के बाद अब आम का अचार डालने का मौसम है। भोपाल की नवबहार सब्जी मण्डी में सुबह चार बजे से आसपास के गाँव के किसान कैरियों की डलिया लिए आ जाते हैं और फिर शुरू होता है उनका सौदा। पौ फटते-फटते किसानों की वापसी होने लगती है और शहर के तमाम हिस्सों के हाट-बाजार के विक्रेता फुर्ती से खरीदी हुई कैरियों की टोकरियाँ लेकर अपनी दुकानों की तरफ लौटते हैं।

हमारे घर के नजदीक शुरू से न्यू मार्केट का सब्जी बाज़ार रहा है। न्यू मार्केट को भोपाल का कनाट प्लेस कहा जाता है। चारों तरफ रौनक, बड़ी-बड़ी दुकानें और भीतर की तरफ, जिसे इनसाइड कहा जाता है, बरसों से सब्जी बाजार लग रहा है। यहीं बीचों-बीच कैरियों की दुकानें सुबह आठ बजते-बजे सज जाती हैं। आठ-दस इस तरह की दुकानों में दो-दो, तीन-तीन दुकानदार काम में जुट जाते हैं। एक कैरियाँ भाव करके तौलता है, दूसरा एक तरफ बैठकर अम-कटने से खटाखट कैरियाँ काट रहा होता है और तीसरा चारों तरफ ज़ोर-ज़ोर से आवाज़ लगाकर ग्राहकों को बुला रहा होता है। हाथ ऊपर उठाये, कैरियाँ साधे दुकानदार का महिलाओं, पुरुषों को लुभा-लुभाकर बुलाना एक अलग ही माहौल रचता है। आज के सुविधाभोगी और अपेक्षाकृत मेहनत से बचने वाले समय में आपके लिए सब तरह की सुविधाएँ हैं।

अपने बचपन की याद है, अचार डालना केवल नानी को आता था, वो कटहल, आम, आँवला, लभेड़े, लाल मोटी मिर्च सभी के अचार डाला करती थीं। लाल मिर्च का सिरके वाला अचार खासतौर पर याद है नानी के हाथ का। पूजा-पाठ वाली नानी बहुत छूत-पाक मानती थीं। हमें भी उनकी रेंज में आने की इजाज़त नहीं थीं। बिना नहाये कभी चौके में नहीं गयीं। नानी कहा करती थीं कि ये सब अचार डालने का काम घिनापन से नहीं किया जाता। सफाई-सुथराई का ध्यान रखना चाहिए। इस मसले पर फटकार देने में वे मुझ से लेकर मम्मी तक को नहीं बख्शती थीं। नानी कानपुर से एक बार अम-कटना खरीदकर लायीं थीं, हमारे यहाँ भोपाल में।

वह अभी भी कहीं रखा है, मगर अब उसका इस्तेमाल नहीं होता है क्योंकि कैरी बेचने वाले के साथ ही काटने वाला भी बैठा होता है। उसको भी चार पैसे का रोजगार है और अपन भी दंद-फंद से बरी। आम के मनचाहे टुकड़े करने का उसको खासा तजुर्बा है। जैसा चाहिए, कटवाकर ले जाइये। लोग भी इन दिनों सुबह से ताजी और अच्छी कैरियों की चाह में बाज़ार पहुँच जाते हैं। अलग-अलग इच्छाओं और पसन्द के हिसाब से, किसी को रेशे वाली कैरियाँ चाहिए तो किसी को गूदे वाली। लगे हाथ वहीं तैयार मसाला, आजकल यह भी रेडीमेड मिलने लगा है, अन्यथा पहले सारे मसाले और उनका अनुपात ही उत्कृष्ट अचार का मापदण्ड हुआ करता था।



सरसों के तेल में कैरी, मसाले सब मिलाकर रखना और फिर धूप, हवा को ज़रूरत के मुताबिक दिखाना। घर में अचार बनने का बड़ा आकर्षण हुआ करता है। बुजुर्गों से लेकर छोटे-छोटे बच्चे तक अचार डाले जाने से खुश रहते हैं। टिफिन में अचार अपरिहार्य है चाहे बच्चे हों या फिर बड़े, सभी इसके चटखारे को स्वाद के धरातल पर अभूतपूर्व मानते हैं। अचार की परम्परा, जाने कब की है। हमारी दादी, नानी, बुआ, ताई, मौसी, भाभी इस हुनर की विशेषज्ञ रही हैं। उन्होंने ही परिवार की स्त्रियों को इसका अनुपात, बनाने, बरतने का तरीका सिखाया है। उनके हाथ और बनाने की लगन में अनूठा स्वाद रहा करता था। एक-दूसरे के घर के अचार को पसन्द करने का भी खूब अन्दाज रहा है। अपने घर से ज्य़ादा दूसरे घर का अचार हमें सुहाया है। आज के समय में हम धीरे-धीरे इन सारी अनुभूतियों से वंचित हो रहे हैं। अब दुकानों में कम्पनियों के शीशीबन्द अचार बिकने लगे हैं। हाथ का हुनर, सुविधाजीवी दौर में रासायनिक प्रक्रियाओं से बनने और आकर्षक पैकिंग में उपलब्ध होने वाले अचारों के आगे हारता जा रहा है।

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