रविवार, 7 अगस्त 2011

भोली सूरत दिल के खोटे


इस रविवार एक खूबसूरत फिल्म की चर्चा करने का मन हुआ है जिसका नाम है अलबेला। अब से साठ साल पहले प्रदर्शित यह फिल्म न केवल अपने समय की सुपरहिट थी बल्कि जिस तरह का पहले हमारे यहाँ हिन्दी सिनेमा में रिवाज था, मैटिनी शो में दोबारा प्रदर्शित करने का या कुछ साल बाद फिर से सिनेमाघर में किसी सुपरहिट फिल्म की याद ताजा कराकर उसके प्रति दर्शकों का फिर रुझान बढ़ाने का, इस तरह से अलबेला जितनी बार रिलीज हुई, खूब देखी गयी।

देखने की वजह सबसे पहली होती थी, इस फिल्म के नायक भगवान दादा, जो कि फिल्म के निर्माता और निर्देशक भी थे, दूसरी इस फिल्म की भोली-भाली मासूम सी कहानी और उसी फ्लो में मन को हिला कर रख देने वाली टे्रजिडी, फिर प्यारे-प्यारे गाने और मन मगन कर देने वाले डांस। यह एक छोटे से, गरीब से आदमी, एक क्लर्क के सपने को बयाँ करती है जो नाचने-गाने का शौकीन है और वह सपना देखता है कि एक दिन वह बड़ा स्टार बनेगा। भगवान दादा ने यह भूमिका निभायी है। फिल्म की नायिका गीता बाली हैं जिन्होंने एक सितारा भूमिका की है।

गरीब नायक प्रेम के ख्वाब देखता है मगर त्रासदी तब की फिल्मों में इतने वास्तविक ढंग से लिखी जाती थीं कि दर्शक भी नायक के दुख से दुखी हो जाया करता था और उदास होकर सिनेमाघर से बाहर निकलता था। यहाँ भी परिस्थितियाँ हैं, प्रतिरोधी चरित्र हैं और बुरे भी। भगवान दादा की नाच अदा अनूठी थी, वे साधारण नैन-नक्श और छोटे कद के गब्दू टाइप कलाकार थे, हीरो जैसे गुण न होते हुए भी वे इस फिल्म में हीरो बनकर आते हैं और खूब पसन्द किए जाते हैं। भोली सूरत दिल के खोटे, नाम बड़े और दर्शन छोटे, शाम ढले खिडक़ी तले तुम सीटी बजाना छोड़ दो और शोला जो भडक़े जैसे गाने आज भी हमें बिसरे नहीं लगते बल्कि लगभग हमें उस दौर में खींच ले जाते हैं जब के ये गाने थे।

अलबेला के सभी गीत राजेन्द्र कृष्ण ने लिखे थे और रामचन्द्र चितलकर ने संगीत तैयार किया था। जिन्होंने फिल्म अलबेला देखी होगी उन्हें, शोला जो भडक़े गाने का फिल्मांकन आज भी याद होगा, उसकी गति, खासतौर पर लाइट्स का इस्तेमाल और हवाइयन डाँस कोरियोग्राफी। प्रतिमा देवी, बद्री प्रसाद, निहाल, दुलारी, सुन्दर आदि फिल्म के प्रमुख कलाकार थे। भगवान दादा की ठुमके लगाने की मौलिक अदा ही हमारे बच्चन साहब की नृत्य कला पर हावी है। यह बात बच्चन साहब स्वयं भी स्वीकारते हैं।

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