रविवार, 9 अक्तूबर 2011

बेटियाँ और हमारी अस्मिता


मध्यप्रदेश में मुख्यमंत्री की गम्भीर पहल पर बेटियों के जीवन, दुनिया को देख पाने की स्थितियों और उनकी अस्मिता के प्रति अपना गहरा आदर प्रकट करने वाला एक अच्छा अनुष्ठान पिछले दिनों आरम्भ हुआ है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कुछ वर्षों से इस प्रकल्प को प्रकट करते हुए, इस दिशा में उन सार्थक योजनाओं को बनाने और जनहित में लागू करने का काम प्रशासनिक व्यवस्था को सौंपा, जिनके माध्यम से ऐसी परिपाटी, अविभावकों और समाज के सामने आयी जिसको जानने और समझने से इस अवधारणा को सकारात्मक बल मिला कि बेटी बोझ नहीं है। बेटी के होने की खबर परिवार और बुजुर्गों में मुँह बनाने या बिसूरने का सबब नहीं है।

बेटी इस मध्यप्रदेश में जन्म लेती है तो उसकी फिक्र मध्यप्रदेश के मुखिया को है, जन्म से लेकर विवाह तक और उसके आत्मनिर्भर लक्ष्यों तक। यह अनुष्ठान एक बड़ा काम है जो समाज को मानसिक रूप से साक्षर और समझदार बनाने के काम आयेगा, उनकी धारणाओं को सुधारने का काम करेगा। मुख्यमंत्री की इस हार्दिक उदारता के साथ समाज और परिवार की अपनी भूमिका और महत्वपूर्ण हो जाती है। परिवार और समाज की अपनी दुधारी धारणाएँ जीवन-व्यवहार में खूब देखने में आती हैं। माँएँ, पिता, बेटी के भी माता-पिता होते हैं और बेटों के भी। परिवारों में बेटी और बेटे भी एक साथ हुआ करते हैं। दाल और रोटी में सबसे ज्यादा घी केवल बेटे के लिए ही जरूरी नहीं होता। तीज-त्यौहार पर अच्छे कपड़ों पर केवल बेटों का ही अधिकार नहीं होता। अपढ़ समाज में पुत्रों को ही पट्ठा बनाने का दकियानूसीपन ही कई बार उन माता-पिताओं को हताशता है जिन्हें बुढ़ापे में कोने-छाते में पड़ा छोड़ दिया जाता है।

बेटी का जन्म होते ही माता-पिता सबसे पहले इसी चिन्ता में डूब जाते हैं कि यह हमारे जोड़े हुए धन के पास से चले जाने का कारण बनेगी। उनकी खुशी व्यर्थ ही काफूर हो जाती है जबकि सोचने वाली बात यह है कि बेटी ही ताजिन्दगी माता-पिता की खैरियत लिया करती है और विदा होने के बाद भी अपनी आत्मा अपने माता-पिता के पास ही छोड़ जाती है। प्रशासनिक सेवा, पुलिस सेवा, खेल, साहित्य, संस्कृति, सिनेमा, विज्ञान, राजनीति, चिकित्सा, तकनीक और भी जाने कितने आयामों में बेटियाँ ही हमें गौरवान्वित करती हैं। भारतीय परम्परा में नदियाँ हमारी महान अस्मिता का परिचायक हैं। मध्यप्रदेश में नर्मदा, ताप्ती, बेतवा, शिप्रा नदियों से हम उसी तरह गौरवान्वित होते हैं। ऊँचे पहाड़ों पर अनादिकाल से अवस्थित देवी मन्दिरों पर हम श्रद्धा से मत्था टेकने जाते हैं और अपना जीवन सँवारते हैं।

एक फूल दो माली में एक गाना है, मेरा नाम करेगा रोशन, जग में मेरा राजदुलारा। नाम तो राजदुलारी भी रोशन करती है, साहब और वह भी कुछ अधिक सुखद अनुभूतियाँ प्रदान करने के साथ। कभी-कभी फिल्म का एक गाना याद आता है, मेरे घर आयी एक नन्हीं परी। ऐसा ही एक खूबसूरत गाना, फिल्म दिल एक मन्दिर में भी है, जूही सी कली मेरी लाडली नाजों की पली मेरी लाडली। हिन्दी फिल्मों में बेटियों की भूमिकाएँ अनूठी गढ़ी गयी हैं। हृषिकेश मुखर्जी की फिल्म आशीर्वाद में नायक अशोक कुमार का अपनी बेटी से अपार स्नेह देखते बनता है।

काबुलीवाला में एक पठान एक बच्ची को देखकर अपनी बेटी को याद करता है। ममता फिल्म में एक स्त्री अपनी बेटी के लिए जो संघर्ष करती है, वो मर्माहत करता है। गुलजार की फिल्म परिचय में धानी सी दीदी के जिम्मे सब भाई-बहन हैं। ब्रम्हचारी में सब अनाथ बच्चों की देखभाल उनमें सबसे बड़ी बच्ची किया करती है। दो कलियाँ में हमशक्ल बेटियाँ हैं जो अपने माता-पिता को मिलाती हैं। कमल हसन की फिल्म चाची चार सौ बीस में नायक अपनी बेटी को कितना चाहता है, वही बेटी अपने पिता को स्त्री वेश में भी पहचान जाती है। विशाल भारद्वाज की फिल्म ब्ल्यू अम्ब्रेला में भी एक चतुर बेटी ही लालची बनिए को उसके किए की सजा दिलवाती है।

उदाहरण बहुत से हैं, याद करें तो चर्चा विस्तार लेती ही रहेगी, मगर मध्यप्रदेश में बेटियों के लिए, बेटी है तो कल है, नाम का अनुष्ठान उन तमाम पिछड़ी और दकियानूसी मान्यताओं से हमें उबारने का गम्भीर और संजीदा जतन है, जिन्हें सदियों से हम अपने सिर पर किसी न किसी रूप में लादे हुए हैं, शिक्षा और आधुनिकता भी जिसकी सफाई पूरी तरह नहीं कर पायी है।

कोई टिप्पणी नहीं: