सोमवार, 7 नवंबर 2011

तीन देवियाँ और एक देव


भारतीय सिनेमा के बड़े कलाकारों-फिल्मकारों का यादगार काम देखने का मन सिनेमा की शताब्दी की बेला में निरन्तर हुआ करता है। ऐसे ही अब से लगभग पैंतालीस साल पहले की एक फिल्म तीन देवियाँ देखने का मन हुआ। महानायकों में हम अपने बीच दिलीप कुमार और देव आनंद की यशस्वी उपस्थिति को लगातार पाते हैं। देव आनंद की उल्लेखनीय फिल्मों में कुछ फिल्में ऐसी भी हैं, जो उनके छोटे भाई विजय आनंद के अलावा दूसरे निर्देशकों गुरुदत्त, अमरजीत, राज खोसला, नासिर हुसैन आदि ने भी बनायी हैं। तीन देवियाँ के निर्माता-निर्देशक अमरजीत हैं। एक दिलचस्प मगर एकाग्र रखने वाली फिल्म है तीन देवियाँ जिसमें नायक की कठिन परीक्षा है। सच्चे प्रेम को पहचानना और अपनी जिन्दगी के फैसले सोच-समझकर ले पाना दोनों ही कठिन काम हैं। तीन देवियाँ फिल्म का अन्त इसी पर केन्द्रित है।

तीन देवियाँ का नायक देव कोलकाता के म्युजिक शॉप में काम करता है जहाँ साज बेचे जाते हैं। उसका मालिक आई.एस. जौहर बड़ा सहृदय है। जब उसे पता चलता है कि देव शायर है, गाता है, संगीत जानता है तो वह उसे प्रोत्साहित करता है और दोस्त की तरह बर्ताव करता है। जौहर की मदद से ही देव की रचनाओं की किताब छपकर आ जाती है और वह लोकप्रिय हो जाता है। उसके जीवन में तीन स्त्रियाँ हैं, एक है नंदा जो उसके पड़ोस में रहती है, जिससे उसे पहले प्यार हो जाता है। नंदा की सादगी और देव के साथ उसका निश्छल प्रेम उसे आकृष्ट करता है। एक शाम वह दूसरी नायिका कल्पना से मिलता है जो अभिनेत्री है। उससे पहले उसकी नोकझोंक होती है, फिर आकर्षण। तीसरी नायिका सिमी है जिसे राधा भी कहा जाता है। सिमी, देव के म्युजिक शॉप से पियानो खरीदती है और देव उस पियानो को सिमी के घर लाकर बजाकर बताता है।

देव, एक मध्यमवर्गीय महात्वाकाँक्षी युवा है, जिसके अपने सपने हैं, उन्नति और अवसरों की दुनिया के ख्वाब हैं, पैसा और रसूख की चाह भी। एक तरफ नंदा उसी की तरह सहज-सामान्य है, दूसरी तरफ कल्पना रसूखवाली और सिमी बौद्धिक माहौल में देव की प्रतिष्ठा जमाने वाली। जाहिर है, दोनों भी देव की मोहब्बत की आकाँक्षी हैं और देव सब जानबूझकर भी उनके जीवन, तन्हाइयों, सपनों का हिस्सा बना हुआ है। उसके अपने असमंजस हैं मगर तीनों देवियों की मोहब्बत में अलग-अलग दुनिया बसती है। देव आखिर सब जगहों से होता हुआ अन्त में नंदा के पास लौटता है, चेतकर, सबक लेकर, थोड़ा-बहुत भटककर।

तीन देवियाँ फिल्म देखते हुए हमें एक तरह की रूमानी खुश्बू महसूस होती है। इसका कारण यह है कि नायक रोमांटिक छबि वाला है, खूबसूरत नंदा हैं, शोख कल्पना और मोहक सिमी। इस फिल्म की एक खासियत यह भी है कि ज्यादातर कलाकार अपने मूल नाम के साथ ही हैं। आय.एस. जौहर का किरदार भी फिल्म में नायक की जिन्दगी के उत्कर्ष में अपनी अहम भूमिका अदा करता है। इस फिल्म को देखते हुए हालाँकि इस बात पर दर्शक की धारणा पक्की हो जाती है कि देव का सच्चा प्यार नंदा ही है मगर वह देव को कल्पना और सिमी के साथ रोमांटिक होते हुए देख भी मुग्ध होता है। फिल्म की खूबी यही है कि फिल्म कठिन नहीं है। नंदा का किरदार अपनी गरिमा का है, कल्पना और सिमी में देव के प्रति आकर्षण है मगर वे उसके जीवन में व्यवधान की तरह उपस्थित नहीं हैं। देव का अन्त में नंदा के पास लौटना सुखद है।

फिल्म के गाने खूबसूरत हैं, जिसका श्रेय गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी और संगीतकार सचिनदेव बर्मन के साथ ही गायक किशोर कुमार, मोहम्मद रफी, लता मंगेशकर और आशा भोसले को जाता है। लिखा है तेरी आँखों में किसका अफसाना, ऐसे तो न देखो के हमको नशा हो जाये, ख्वाब हो तुम या कोई हकीकत कौन हो तुम बतलाओ, अरे यार मेरी तुम भी हो गजब, गाने इतने बरसों में हम लगातार सुनते रहे हैं, फिल्म के साथ उनको देखना-सुनना बड़ा मनभावन लगता है। लिखा है तेरी आँखों में गाना एक खेत में भुट्टे खाते हुए देव आनंद और नंदा पर फिल्माया गया है, इसमें लता और किशोर की आवाज जिस तरह गूँजकर हमारे मन में विन्यस्त होती है, गहरा असर छोड़ जाती है। तीन देवियाँ देखना, वाकई पुरानी अनुभूतियों को दोहराने के साथ ही एक बार फिर उस रस-रूमान को अपनी नब्ज में महसूस करने की तरह है।


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