रविवार, 13 नवंबर 2011

भूपेन हजारिका : थम गया, स्वर का अपार विस्तार


भूपेन हजारिका के निधन से फिर एक खालीपन का एहसास होता है। सीधे तौर पर तो नहीं मगर उनकी आवाज़ को सुनते हुए यह महसूस होता था कि सचिन देव बर्मन और हेमन्त कुमार की स्वर-सलिला का ही एक तरह से अनुसरण करता हुआ महसूस होता था उनका स्वर। सचिन देव बर्मन पहले संगीतकार थे, उसके बाद पाश्र्व गायक। पाश्र्व गायक के रूप में खासतौर पर माझी गीतों और जीवन के यथार्थ पर उनका स्वर हमें गहरे बेधता था। हेमन्त कुमार की आवाज़ भी अपने समकाल में क्षणभंगुर जीवन की बहुत सी सचाइयों को उन गीतों में अधिक प्रभाव के साथ व्यक्त करती थी, जो वे गाते थे। 

शब्दों को आवाज़ और संगीत कितना अमरत्व प्रदान करते हैं, यह बात हम यहीं पर शायद ज्य़ादा बोध के साथ स्वीकार करते हैं। भूपेन हजारिका का सृजन हालाँकि पचास के दशक से आरम्भ हो गया था मगर ऐसे अनुसरण में वे बड़े बाद में शामिल हुए। देश की आज़ादी के बाद उनकी सक्रियता शुरू हुई। वैसे उन्होंने तेरह वर्ष की उम्र में 1939 में इन्द्रमालती फिल्म में बाल कलाकार के रूप में काम किया था। भूपेन हजारिका युवा उम्र में पढ़ाई-लिखाई के लिहाज से भी बेहद प्रतिभाशाली थे। आज़ादी के पहले ही बनारस विश्वविद्यालय से उन्होंने डिग्री हासिल कर ली थी। उन्होंने कोलम्बिया यूनिवर्सिटी से, द रोल ऑफ मास कम्युनिकेशन इन इण्डियाज़ एडल्ट एजुकेशन में डॉक्टरेट उपाधि भी प्राप्त की। यह सब करने के बाद उन्होंने अपनी पहचान फिल्म संगीत के क्षेत्र में कायम की। 

असम में उनका लम्बा समय व्यतीत हुआ था। वहीं उनका भाषा-संस्कार और सांस्कृतिक सरोकार समृद्ध हुए। महान सन्त शंकर देब और माधब देब की रचनाओं को उन्होंने अनूठी कल्पनाशीलता से संगीतबद्ध करते हुए अपनी पहचान बनायी। भूपेन हजारिका की स्वर-संगीत सर्जना पर असम के बिहू नृत्य, बान गीत और बार गीत जो खासतौर से इन्हीं सन्तों की वाणी रही, इसके अलावा ब्रम्हपुत्र नदी का महात्म्य भी उनके अपने परिवेश के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण सिद्ध हुआ। भूपेन हजारिका के संगीत निर्देशन में लता मंगेशकर, तलत महमूद, आशा भोसले, किशोर कुमार और मुकेश जैसे महान गायकों ने भी पाश्र्व गायन किया। भूपेन हजारिका हिन्दी सिनेमा के बड़े कैनवास पर कल्पना लाजमी के ज़रिए आये। 

कल्पना लाजमी भी असम मूल की हैं और उन्होंने अपनी सभी फिल्मों के लिए भूपेन हजारिका की आवाज़ और संगीत को एक तरह से अपरिहार्यता की तरह लिया। कल्पना उनसे 1977 में जुड़ी थीं, उनकी सहायक बनकर। कल्पना लाजमी ने शुरू में धीरेन गांगुली पर एक वृत्त चित्र बनाया, बाद में ब्रम्हपुत्र पर एक लघु फिल्म बनायी। एक पल, रुदाली और दरमियाँ कल्पना की बड़ी और चर्चित फिल्में थीं, लोहित किनारे टीवी सीरियल भी। बाद में उन्होंने दमन भी बनायी और चिंगारी भी। 

भूपेन हजारिका, कल्पना के इन्हीं कामों के साथ भारतीय दर्शक समाज में जिनमें ज्य़ादातर संगीतप्रेमी, हिन्दी भाषी क्षेत्रों के दर्शक-श्रोता शामिल थे, उन सभी के अपने हो गये, उनसे जुड़ गये। उन्होंने सई परांजपे की फिल्म साज और मकबूल फिदा हुसैन की चर्चित फिल्म गजगामिनी का संगीत निर्देशन भी किया और गजगामिनी में गाया भी। गांधी टू हिटलर पाश्र्व गायक के रूप में उनकी आखिरी फिल्म रही। इस फिल्म के लिए उन्होंने गांधीजी का प्रिय भजन वैष्णव जन गाया था। 

यहीं पर उनकी कुछ प्रमुख असमी फिल्मों का जिक़्र करते हुए 1975 की फिल्म चमेली मेमसाब फिल्म का उल्लेख भी आवश्यक है, जिसमें उनका सृजन बहुत महत्वपूर्ण था। इसी फिल्म का एक गाना भूपेन हजारिका ने कमल गांगुली और कोरस के साथ गाया था, बड़ा दुर्लभ, बड़ा यादगार - इंसाँ इंसाँ के लिए, जीवन, जीवन के लिए, ज़रा सी हमदर्दी का वो, क्यों हकदार नहीं, ओ बंधु.....। प्रमुख असमी फिल्मों में सिराज, पियोली फूकन, एरा बातोर सुर, शकुन्तला सुर, प्रतिध्वनि, का सावित्री, चिक मिक बिजुली, अपरूपा, स्वीकारोक्ति में शामिल हैं। तितास एकटि नदीर नाम, हित्विक घटक की 1973 की एक प्रमुख उल्लेखनीय बंगला फिल्म थी, जिसमें भूपेन हजारिका ने गाया था। 

भूपेन हजारिका का सचमुच विस्तार अपार था। 1992 में कल्पना लाजमी की फिल्म रुदाली को अन्तर्राष्ट्रीय-राष्ट्रीय स्तर के फिल्म समारोहों में बेहद सराहा गया था। यह फिल्म एक स्त्री के विचलन, द्वन्द्वभरी जि़न्दगी और निरन्तर पस्त पड़ते अन्त:सम्बल को बड़े सशक्त प्रभाव के साथ व्यक्त करती थी। डिम्पल ने यह भूमिका निभायी थी जिसके लिए उनको राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला था। उन पर, एक बार लता मंगेशकर और एक बाद भूपेन हजारिका के स्वर में फिल्माया गाना, मन हूम हूम करे, घबराये ही इस वक्त ज़हन में जैसे बैठा हुआ है, अपनी ध्वनियों के साथ। एक मर्मस्पर्शी आवाज़ के ठहर जाने का हाहाकार मन में है। 

भूपेन हजारिका के नहीं रहने की सचाई के बीच यही मन:स्थिति है। अपने चहेतों में वे भूपेन दा के नाम से जाने और सम्बोधित किए जाते थे। वे प्रतिभासम्पन्न थे और उन्होंने अपना व्यक्तित्व स्वयं गढ़ा था। उनका स्मरण मात्र ही उनकी छबि को हमारे सामने जिस तरह लाता है, वह पहचान आगे भी हमेशा रहेगी। जो अमर सृजन उनका है, दरअसल उसी से उनकी स्मृतियाँ हम सबके बीच सदैव ताज़ा रहेंगी। भूपेन दा दुख देकर भी हममें जिए रहेंगे..............।

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