गुरुवार, 5 अप्रैल 2012

धुंधली स्मृतियों में मोटी अम्माँ

मुझे मोटी अम्माँ की याद धुंधली स्मृतियों में है। मम्मी अक्सर उनके बारे में बताया करती रही हैं। मोटी अम्माँ को मैंने अपनी चार-पाँच साल की उम्र तक देखा है पर मम्मी ने मुझे बाद में बताया था कि मेरे जन्म के दो महीने बाद जब उन्होंने फिर से स्कूल में पढ़ाना जाने शुरू किया था, तब स्कूल से अन्दर जाते हुए वो मुझे मोटी अम्माँ के सुपुर्द कर दिया करती थीं। 

यह बात भोपाल की है, बाल विहार स्कूल की जो उस जगह पर बना हुआ था, जहाँ बाद में उसे तोडक़र कृष्णा टॉकीज बना दिया गया था। टॉकीज से पहले स्कूल ही बरसों से लगा करता था। चौंसठ का साल था। छप्पन में बने मध्यप्रदेश में दूर-दूर से लोग आकर रह रहे थे। हमारे पिताजी और माँ भी, जो कि कानपुर के रहने वाले थे, पहले छोटी बुआ के पास ग्वालियर फिर उसके बाद नौकरी की तलाश में भोपाल आ गये थे। यहाँ पहले मम्मी की नौकरी लगी सरकारी स्कूल में शिक्षिका के रूप में, पापा को नौकरी बाद में मिली आदिम जाति कल्याण विभाग में।

शुरूआत में सरकारी घर नहीं था। चौक में शान्तिलाल जैन जी के यहाँ नव-विवाहित माता-पिता किराये पर रहते थे। वहीं एक-दो घर बदले, इसी बीच मेरा जन्म हुआ। बाद में दक्षिण तात्या टोपे नगर में मम्मी के नाम सरकारी मकान हुआ, छत्तीस बटे चौबीस नम्बर का। यह नम्बर हम सभी को खूब रटा हुआ है। यहीं से मम्मी प्रधान अध्यापिका होते हुए रिटायर हुईं। 

बात मोटी अम्माँ की हो रही थी। नाम के अनुरूप वे मोटी नहीं थीं मगर इसी तरह उनको सब बुलाते थे। बाल विहार स्कूल के मुख्य दरवाजे के किनारे वो एक बाँस की डलिया में बेर, इमली बेचा करती थीं। वो बड़ी दूर पुट्ठा मील के पास रहा करती थीं। जीवनयापन के लिए बच्चों के खाने-पीने का सामन बेचने वो रोज आया करती थीं। मम्मी बतलाती हैं कि मोटी अम्माँ के बेर बड़े स्वादिष्ट हुआ करते थे। वे उन्हें घर में उबालकर डलिया में कपड़े से ढँककर लाती थीं। पूरे समय गीले और मुलायम बने रहने वाले बेर कागज की चुंगी बनाकर उसमें नमक-मिर्च डालकर बेचा करती थीं, जिसे सब खूब चटखारे ले-लेकर खाते थे। 

इन्हीं मोटी अम्माँ की गोद में मैं बना रहता। आधी छुट्टी स्कूल लगने के दो घण्टे बाद हुआ करती थी तब मम्मी तेजी से बाहर आकर मुझे उठा ले जातीं और मुझे दूध पिलाती, फिर मोटी अम्माँ के पास छोड़ जातीं और फिर उसके दो-ढाई घण्टे बाद पूरी छुट्टी होने पर साथ घर ले जाया करतीं। चार-पाँच साल की उम्र में मम्मी का स्कूल बदल गया था, तब मोटी अम्माँ बड़ी दूर पुराने भोपाल से घर महीना-पन्द्रह दिनों में आया करतीं, तो मम्मी से उनकी खूब बातें होतीं। मम्मी उनसे सबके हाल लेतीं और वो भी सबके हाल मम्मी को बतातीं। अक्सर मैं खेल रहा होता या उनके पास बैठता तो बड़े लाड़ से मुझे अपने पास बैठा लेतीं, अपने पान रचे मुँह से खूब चुम्मी लिया करतीं। मुझे उनके मुँह से मद्रासी पान की खुश्बू बड़ी अच्छी लगती। मैं उनसे पान माँगता, वे बड़े प्यार से अपने डोरी वाले बटुए से टुकड़ों-टुकड़ों में कत्था-चूना लगे पान से जरा सा तोडक़र मेरे मुँह में रख दिया करतीं। 

यह मद्रास पान अपनी खुश्बू के साथ आज तक मेरे जहन में बना हुआ है। यों मुझे पान खाने की जरा भी आदत नहीं है मगर यदि आग्रहवश खाना ही पड़ गया तो मद्रास पान ही खाता हूँ। उसका वही पहचाना स्वाद जैसे मुझे उसी छोटी उम्र में ले जाकर खड़ा कर देता है, जहाँ महसूस होता है, मोटी अम्माँ डोरी वाले बटुए को खींचकर खोल रही हैं, पान का टुकड़ा निकाला है और मेरे मुँह में रख दिया है। मैं अपने बचपन, मोटी अम्माँ के उस निश्छल और अगाध स्नेह और दो साल तक अपने आँचल में महफूज़ रखे रहने की याद करके सजल हो उठता हूँ। बरसों पहले मोटी अम्माँ अल्लाह को प्यारी हो गयीं थीं। मुझे लेकिन वो हमेशा याद रहती हैं। ठेठ भोपाली बोली में बात करने वालीं, काला गहरा रंग, हँसी लाजवाब और आसपास से निकलूँ तो भींचकर गोद में बिठा लेने वालीं। मैं कहूँ, मोटी अम्माँ पान दो, इस पर अभी ले मेरे बेटे, फिर उसी तरह छोटा सा बिना सुपारी का कत्था-चूना लगा टुकड़ा और हिदायत यह भी कि बच्चे ज्यादा पान नहीं खाते...............।
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