शुक्रवार, 1 जून 2012

कोसते रहने का जरिया

क्या इस बात पर आपका अथाह विश्वास है कि कोसते रहने से उम्र बढ़ती है? पुराने जमाने में बद्दुआओं का बुरा नहीं मानने के लिए बड़े-बुजुर्ग इस बात को कह दिया करते थे, कि कोसने से कुछ नहीं होता बल्कि उम्र बढ़ती है। सरकार की शायद यही अवधारणा होगी तभी खुद को कुसवाने के लिए बारहमासी एजेण्डा योजनाबद्ध ढंग से एक के बाद एक सरकाया जाता है। पुलिस शातिर अपराधी को अक्सर रात-बिरात ही धर-दबोचती है। सोया आदमी मरे बराबर, ऐसी पूरब में कहावत प्रचलित है। अच्छे-अच्छे ऐसे ही धरे गये जब वे सो रहे थे। मुँह धुलाकर चाय पिलाने का काम फिर हिरासत में ही। 

पेट्रोल के दाम भी रात बारह बजे से बढ़ाये जाते हैं। पेट्रोल के दामों का रात बारह बजे से क्या रिश्ता है यह आज तक समझ में नहीं आया। हाँ, डंके की चोट पर दोपहर को ऐलान कर दिया जाता है कि दरे रात बारह बजे से लागू हो जायेंगी। पपड़ी छिला, छटपटाया आदमी सीधे गाड़ी पेट्रोल पंप पर लगा देता है। पूछो कि आज कितना भरा लोगे तो चिढक़र जवाब देता है जितना भरा लेंगे उतना ही फायदा सही, कल से तो ऐसी तैसी होनी ही है। सब लोग हतप्रभ हैं कि यह केन्द्र सरकार के तीन साल पूरे होने का कांग्रेचुलेशन है, वह भी इतना लाजवाब। ऐसी बिलबिलाहट भरी वृद्धि पहले कभी नहीं की। अच्छी प्रगति है जो साढ़े सात पर जाकर प्रमाणित हुई है। तजुर्बेकार दाढ़ी खुजाकर कहते हैं कि इसका मतलब आगे दस रुपये तक भी बढ़ा करेगा। 

अपने प्रमोशन को लेकर मैं अपने एक आत्मीय से दुखड़ा रो रहा था तो उन्होंने चिढक़र कह दिया कि यार तुम्हारा प्रमोशन गरीबी हटाओ नारे की तरह है। आज तक चर्चा में बना हुआ है मगर गरीबी दूर नहीं हुई। बात मौजूँ थी। अपन जबरन रो रहे थे कि इक्कीस साल से एक ही जगह पड़े हैं। वाकई बड़े दुख से छोटे दुख को बड़ा सम्बल मिलता है। खाँसी का मरीज, कुकुर खाँसी के मरीज को देखकर अपनी छाती सहलाता है कि गनीमत है, ये नहीं हुआ। हमको मनोज कुमार की फिल्म रोटी कपड़ा और मकान की याद आ रही है। मँहगाई मार गयी गाने की एक-एक लाइन दोहराने का मन किया है। प्रेमनाथ पर कुछ लाइनें थीं, पहले मुट्ठी विच पैसे लेकर, थैला भर शक्कर लाते थे, अब थैले में पैसे जाते हैं, मुट्ठी में शक्कर आती है। वही वेदना आज फिर हरी हो गयी है। सुधीर मिश्रा की फिल्म इस रात की भले सुबह न हुई हो मगर पेट्रोल के दाम बढऩे वाली रात की सुबह तो होनी थी, हाहाकार से भरी। 

हर अखबार का मत्था जनता के साथ है। चैनल भी इस चाबुक के प्रति खासे आलोचनात्मक हैं। लेकिन जिस तरह प्रलय, भूकम्प, सुनामी, ज्वालामुखी और इसी तरह की कई मानवहन्ता विपदाओं के साथ आते और अपना काम करके चला जाते हैं, उसी तरह दाम बढ़ाकर सरकार बिलबिलाहट का तमाशा देखने में लग गयी है। कई बार मनुष्यों को हानि पहुँचाने वाले जघन्य लोग और प्राणी भी उतना करके अजीब से सन्नाटे में चुपचाप ऐसे बैठे दिखायी देते हैं जैसे गहरे चिन्तन में हों। लोग अपना जहाँ लुटाये बैठे हैं और ये मौन-मुद्रा में आ गये हैं। कितनी ही हिन्दी फिल्में पहले मँहगाई को अपना अहम विषय माना करती थीं। मँहगाई की निंदा करना, जनता के साथ होना होता था। यह फौरी तौर का ऐसा दर्द निवारक फार्मूला है कि रोता हुआ आदमी भी जख्म सहलाता हुआ, आँखों में आँसू भरकर मुस्कराने का जतन करता है। लेकिन यह सब अब ऐसा एनेलजेसिक हो गया है जिसका असर खत्म होते ही फिर जख्म हरा हो जाता है, दुखने लगता है और विलाप करने का जी करता है।

मँहगाई का ऐसा ही हाल है। विरोध में होना, निंदा करना, पुतले जलाना, फेसबुक में बन पड़े उससे भी ज्यादा दम दिखाना, ट्विटर में प्रतिक्रिया देना यह सब दर्द निवारक गोली का सेवन करने जैसा है। हर चपत में हम यह किया करते हैं। दो-तीन दिन में झाड़-पोंछकर खड़े हो जाते हैं, बिल्कुल यूज-टू टाइप। इस बार भी ऐसा ही है। एक कुटुम्ब में, अलग-अलग उम्र में, अलग-अलग ढंग से पेट्रोल के दाम बढऩे की दुर्घटना का आकलन हो रहा है। अपनी-अपनी समझ और दुनिया देखने की वरीयता के अनुकूल बातें की जा रही हैं। सरकार, सरकार की नीति, उसके नायक-खलनायकों की खूबी-खामी पर घर में ही कई बार साढ़े सात रुपए की पीछे ताल ठुँकने लगता है। नतीजा कुछ नहीं निकलता। पेट्रोल तो डेढ़ कम अस्सी का हो गया। 

सबने बस में, कार में, दफ्तर में, विपक्ष में, रेस्टोरेंट में, खोमचे में, सुबह से दोपहर तक चाय पीते हुए, फिर उसके बाद रात में गन्ने का रस, जूस पीते हुए, आइसक्रीम खाते हुए यही बात की। लोग हमेशा कहते हैं कि खुशी बाँटने से बढ़ती है और दुख बाँटने से कम होता है। पेट्रोल के दाम बढऩे के बाद से पूरा देख एक-दूसरे के दुख को तेजी से बाँटने में लगा हुआ है मगर दुख कम होने का नाम ही नहीं ले रहा। दाम को बढऩा था, सो बढ़ गया। रेल ने प्लेटफॉर्म छोड़ दिया जैसे अनारकली डिस्को चली गाना। अब हम सब भी अपने आपको इस भाव के अनुकूल कंधे से कंधा मिलाकर चलने के लिए तैयार कर लेते हैं। बहुत देर बिलबिला लिए, अब सब भूलकर मुस्कराते हैं।

कोई टिप्पणी नहीं: