गुरुवार, 14 जून 2012

सीरज की दुनिया से ..............


सिरेमिक शिल्पकार, चित्रकार और यायावर लेखक मित्र सीरज सक्सेना (नई दिल्ली) ने दो दिन पहले मुझे आकाशवाणी से प्रसारित अपने इंटरव्यू की लिंक भेजी थी। स्तंभ “दुनिया मेरे आगे” (जनसत्ता) में उनकी टिप्पणियों से मैं प्रभावित रहा हूँ, तथापि आज तक मुलाक़ात से वंचित हूँ लेकिन आत्मीयता इतनी गहरा रही है कि जल्द मिलने का योग है। 

फेसबुक में सीरज जी का स्टूडियो जैसे बुला रहा है। काम करते हुए वे और व्यवस्थित रखे हुए उनके शिल्प दोनों में खूब आकर्षण है। उनका इंटरव्यू दो बार सुना। एक बात जो बहुत अच्छी उन्होने बताई, कि बचपन से अपनी माँ को कम करते हुए देखते-देखते उनको प्रेरणा मिली। उन्होने बताया कि वे खूबसूरत आकृति के पकवान बनाया करती थीं, जिसे वे भी सीख गए थे। सचमुच हमारे तीज-त्यौहारों में बनने वाले पकवान में चिड़िया, खिलौने क्या कुछ नहीं होते...! लेखन के बारे उन्होने कहा कि माँ, हमारे मामा, नाना-नानी को चिट्ठी लिखवाया करती थीं उनसे। दृश्य बंध लिखने की प्रेरणा उनको वहाँ से हुई। यह सब सुनते हुए कई बार बचपन में आवाजाही हुई। वृत्तांत की परंपरा में हमारे ही घर से क्या कुछ नहीं आया...!!

एक बड़ी मौजूँ बात उन्होने प्रश्नकर्ता के उत्तर में कही कि अपनी साधना में उन्होने धनोपार्जन की जगह कलाउपार्जन को मूल ध्येय बनाया। सीरज, दुनिया के कई देशों में अपने काम और पुरुषार्थ के ज़रिए हो आए हैं। एक बड़ी संवेदनशील मगर यथार्थपरक बात वे कहते हैं कि समाज में कला के लिए अनुकूल जगह या प्रोत्साहन नहीं है। उसे अपने जीवन का हिस्सा बनाने में लोगों की रुचियाँ नहीं हैं। नाटक, संगीत, कला या नृत्य के बगैर सब कुछ चल रहा है। कलाकार अपनी ज़िद से, अपने आत्मसंतोष के लिए, आत्मसुख के लिए स्पेस क्रिएट करता है। 

सच है, समाज और सरोकारों में कला फैशन की तरह स्वीकारी जा रही है। भद्रावरण वाले लोग कई बार अपनी झेंप मिटाने के लिए इसका हिस्सा होते हैं। उनकी उपस्थिति ऐसे वातावरण में उनको कितनी सार्थकता प्रदान करती है, इसका पता शायद उन्हीं को होगा। यहाँ भी सहभागिता ऐसे वातावरण में अपने होने को, अपनी ही ओर से बे-वजह प्रमाणित करने की है...........

बातचीत में सीरज अपनी साधना को संक्षेप में एक यात्रा की तरह रेखांकित करते हैं, आखिर यायावर जो ठहरे। शुरू में उन्होने बताया है कि वे महू (मध्यप्रदेश) में जन्में और इंदौर में उनकी पढ़ाई हुई, वही कला भी परवान चढ़ी। उनके पिता सेना की नौकरी में रहे हैं, सीरज खुद भी एक ऊर्जस्व फौजी से दीखते हैं। जड़-चेतन से गहरा लगाव उनके ज़मीनी होने की पहचान है। उनकी साधना बहुत सारी जिज्ञासा और सरोकारों का सुरुचिपूर्ण आख्यान प्रतीत होती है, उन और उनके काम, प्रत्यक्षदर्शी होने के बाद बहुत कुछ कह सकूँगा, फिलहाल इतना ही...................

2 टिप्‍पणियां:

ब्लॉ.ललित शर्मा ने कहा…

बहुत खूब, सीरज सक्सेना जैसे शिल्पकार से भेंट कराने के लिए आभार

मिलिए सुतनुका देवदासी और देवदीन रुपदक्ष से
रामगढ में,
जहाँ रचा गया मेघदूत।

सुनील मिश्र ने कहा…

dhanyvad lalit jee.