गुरुवार, 20 दिसंबर 2012

पुस्तक चर्चा : महात्मा गांधी और सिनेमा


वरिष्ठ फिल्म समालोचक जयप्रकाश चौकसे की नयी किताब महात्मा गांधी और सिनेमा, हिन्दी सिनेमा के परिदृश्य पर महात्मा गांधी के प्रभाव का गम्भीर आकलन करती है। जयप्रकाश चौकसे की आधी सदी बराबर सिने-सर्जना इन्दौर में हुई है और वे अब कुछ वर्षों से मुम्बई में रहते हैं, इन्दौर उनकी आवाजाही निरन्तर है क्योंकि जड़ें वहीं हैं मगर सिनेमा के हिन्द महासागर को वे अपने सुदीर्घ अनुभव और दृष्टि से अधिक नजदीक से देखते हैं इन दिनों। इस किताब का विचार वहीं से पनपा, यह बात और है कि इस किताब ने उनकी मुम्बई और इन्दौर की परस्पर निरन्तर यात्रा में अपना स्वरूप गढ़ा।

महात्मा गांधी के जीवनकाल में सिनेमा पैंतीस वर्ष की उम्र का ही हो पाया था। आरम्भ मूक सिनेमा से हुआ था। राजा हरिश्चन्द्र पहली फिल्म थी, हिन्दुस्तान के सिने इतिहास की। फिर सिनेमा को ध्वनि मिली और अपनी परम्परा तथा चेतना से अपनी क्षमताओं को मजबूत करने में लगे सिनेमा में एक पौराणिक फिल्म रामराज्य के बारे में कहा जाता है कि गांधी जी ने वह फिल्म देखी थी। विजय भट्ट की इस फिल्म को उन्होंने सराहा था। एक तथ्य यह भी है कि गांधी जी की भेंट विश्व के महान कलाकार और सहज करुणा तथा हास्य के जनक चार्ली चेपलिन से भी एक मुलाकात 1931 में हुई थी। यही साल सिनेमा में ध्वनि के आगमन का भी था और पहली बोलती फिल्म आलमआरा इसी साल रिलीज हुई थी। एक तरफ वह विलक्षण कलाकार था जो दुनिया में अपनी लोकप्रियता का परचम फहरा रहा था तो दूसरा हिन्दुस्तान की स्वतंत्रता का एक विनम्र मगर जीवट से ओतप्रोत स्वप्रद्रष्टा था। गांधी जी मशीनीकरण के समय से मजदूर हाथों और उनके जीवन को होने वाली हानि से व्यथित थे, यह बात उन्होंने चार्ली चेपलिन से कही भी थी कि एक मशीन पन्द्रह मजदूरों के हाथ काम छीन रही है। यही बात आगे चलकर चार्ली की एक फिल्म मॉडर्न टाइम्स में मूल विषय बनी कि इन्सान मशीनों का गुलाम हो गया है और अपने ही हाथ गवाँ बैठा है।

यह बात सच है कि महात्मा गांधी सिने-प्रेमी नहीं थे। उनके पास इतना समय या अवकाश नहीं था कि वे उसका सदुपयोग फिल्म देखने में करते। उनके पास फिल्म देखने से ज्यादा ज्वलन्त और जरूरी काम थे जिनमें वे व्यस्त रहते थे, शेष समय उनके अपने पुरुषार्थ का था जिसमें बहुत सारे काम मसलन चरखा, अध्ययन, विचार, बातचीत और आत्मचिन्तन शामिल थे। इसके बावजूद, सिनेमा से निरन्तर निरपेक्ष रहते हुए भी कैसे सिनेमा ने महात्मा से किस तरह का विचार लिया, किस तरह की फिल्में बनीं जो कहीं न कहीं गांधी जी की विचारधारा, स्वप्र और आचरण से प्रेरित थीं, यह देखने की कोशिश अपनी किताब महात्मा गांधी और सिनेमा में जयप्रकाश चौकसे ने की है। उन्होंने यह काम उतनी ही बेलागी और साफगोई से किया है जिसके लिए वे और उनका लेखन जाना जाता है। उन्होंने किताब में सर रिचर्ड एटिनबरो का उदाहरण भी दिया कि उन्होंने चार्ली चेपलिन और गांधी दोनों पर सिनेमा बनाया।

महात्मा गांधी और सिनेमा के बारह अध्यायों में विस्तार से इस बात का विवेचन किया गया है कि सिनेमा के जन्म और विकास के साथ-साथ महात्मा गांधी का देशव्यापी अनुष्ठान और जनजाग्रति का उपक्रम किस तरह परवान चढ़ा। कैसे अपने समय की यादगार फिल्मों के किरदारों की छवि और वेशभूषा महात्मा गांधी की छबि और वेशभूषा से मेल खाती रहीं। किस तरह सत्य का आग्रही नायक हमारे सिनेमा में हुआ, किस तरह हिंसा के विरुद्ध आत्मबल और जीवट काम आया। किस तरह सामाजिक बुराइयों और कुरीतियों को आइना दिखाने का काम सिनेमा में हुआ और किस तरह जागरुकता के लिए महात्मा गांधी ने देशव्यापी यात्राएँ कीं, गाँव-गाँव जाकर एक-एक आदमी से संवाद स्थापित करने का प्रयत्न किया और उनके दुख-सुख को नजदीक से जाना। यही दुख-सुख सिनेमा का विषय भी बने, उत्कृष्ट कथाएँ लिखी गयीं जिनके चरित्रों को बड़े-बड़े अभिनेताओं ने परदे पर साकार किया। जीवन का गीत-संगीत अर्थवान हुआ और मनुष्य के यथार्थ के विहँगम बिम्ब हमने सिनेमा के परदे पर देखे।

अध्याय दो में जयप्रकाश चौकसे ने महात्मा गांधी की इन्दौर यात्रा का जिक्र किया है। महात्मा गांधी 1918 में इन्दौर आये थे। वे वहाँ हिन्दी साहित्य सम्मेलन में भाग लेने पहुँचे थे। उस समय पहला विश्वयुद्ध समाप्त ही हुआ था। चौकसे लिखते हैं कि भारतीय सिनेमा को कवि हृदय, लेखक और फिल्मकार देवकी बोस गांधी जी की कृपा से ही मिला। जिस समय गांधी जी ने असहयोग आन्दोलन की अलख जगा रखी थी उसी समय देवकी बोस ने चण्डीदास और विद्यापति जैसी फिल्में बनाकर इस आन्दोलन को रचनात्मक बल देने का काम किया। देवकी बोस पहले गांधी जी के असहयोग आन्दोलन से जुड़े थे। जयप्रकाश चौकसे, व्ही. शान्ताराम को भी कहीं न कहीं गांधी जी की दृष्टि का समर्थक मानते हैं और अपनी किताब में उल्लेख करते हैं कि शान्ताराम ने अपनी लम्बी सार्थक पारी में अनेक गांधीवादी फिल्मों का निर्माण किया।

महात्मा गांधी और सिनेमा उन अर्थों में एक पठनीय किताब बनती है जिसको केन्द्र में रखकर लेखक ने सौ साल के सिनेमा से बहुत महत्वपूर्ण कुछ पक्ष सोदाहरण उठाये हैं  और बड़ी सार्थकता के साथ उन्हें व्यक्त किया है। लेखक ने तर्कशास्त्र से परे व्यवहारिक समानता को अपने लेखन का आधार बनाते हुए इस विधा में निरन्तर लेखन के अपने लम्बे अनुभवों का बेहतर प्रस्तुत करने का सफल जतन किया है। यह किताब इस विशेष समय में, जब हम सिनेमा की सदी मना रहे हैं, एक उल्लेखनीय विश्लेषणात्मक  कृति के रूप में सामने आती है, जिसे पढऩा उस बोध से अपने आपको प्रत्यक्ष करना है, जिस पर हम अमूमन विचार नहीं करते। पुस्तक का आवरण प्रसिद्ध चित्रकार प्रभु जोशी ने तैयार किया है।
 
पुस्तक - महात्मा गांधी और सिनेमा
लेखक - जयप्रकाश चौकसे
मूल्य - 295 रुपये
प्रकाशक - मौर्य आर्ट्स प्रा.लि. मुम्बई
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मंगलवार, 18 दिसंबर 2012

ग्वालियर का तानसेन समारोह: एक अविरल परम्परा की दिखायी देती सदी


सदियों की अनुभूति गौरव प्रदान करती है। किसी परम्परा का अविरल बने रहना और उसी के साथ-साथ हमारी अपनी चेतना का संगत करना, फिर उसी अनुभूति को थामे-थामे बहुत दूर नहीं, कुछ जरा पास ही दिखायी देती सदी को महसूस करना एक विलक्षण अनुभव है। 88 साल के तानसेन संगीत समारोह के विषय में सोचते हुए ऐसे अनुभव स्वाभाविक हैं। मध्यप्रदेश में तानसेन समारोह विदा होते साल का सबसे महत्वपूर्ण, सबकी चिन्ता और श्रद्धा में शामिल एक ऐसा उत्सव है जिसके लिए हम सभी पूरे साल सचेत रहते हैं। जैसे-जैसे इस समारोह की उम्र समृद्ध हो रही है, वैसे-वैसे एक पूरा का पूरा परिप्रेक्ष्य ही इस समारोह की गरिमा के प्रति अपने उत्तरदायित्वबोध को भी ज्यादा सजग बनाता जाता है।

तानसेन समारोह में अब एक तरह से देखा जाये तो लगभग पूरे नौ दशक ही पूर्णता के हो गये हैं। इस गरिमामयी संगीत प्रसंग का आदि अपने आपमें अनेक जिज्ञासाएँ जगाता है। एक बड़ा पुराना इतिहास है जिसके पन्ने बादामी होकर एक तरह से कालजयी दस्तावेज बनकर रह गये हैं। उन पन्नों पर अपनी स्मृतियों, कल्पनाओं और कौतुहल का हस्त-स्पर्श हमें गरिमाबोध से भर देता है। हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत परम्परा की महान विभूतियों ने तानसेन संगीत समारोह के मंच पर एक महान गायक को अपनी श्रद्धांजलि डूबकर दी है। ऐसे अनेक विलक्षण कलाकार हैं जो अपने जीवनकाल में एक से अधिक बार इस मंच पर अपनी गरिमा विस्तार के क्रम में आये हैं। पहली बार जिन्हें यह सौभाग्य की तरह मिला होगा, दोबारा जब आये होंगे तब आत्मविश्वास को बढ़ा हुआ महसूस किया होगा और तब भी जब एक आश्वस्त सी प्रस्तुति करके स्वयं भी अपने आपको तृप्त करके गये होंगे।

तानसेन संगीत समारोह में गायन और वादन की विविधताओं में भी अपना एक आदरसम्मत अनुशासन रहा है जिसका पालन मूर्धन्य कलाकारों ने किया है। एक लगभग शती की आवृत्ति का अपना विहँगम है। संगीत की अस्मिता से जुड़े सभी कलाकार इस पुण्य उत्सव में आये हैं। बड़े बरसों पहले निष्णात और विद्वान कलाकार इस बात को रेखांकित करते थे कि वे तानसेन संगीत समारोह के मंच पर अपनी सहभागिता के लिए उसी तरह की प्रतीक्षा करते रहे हैं जिसका अर्थात लगभग मनोकामना से है क्योंकि एक महान कलाकार की स्मृतियों की देहरी पर शीश नवाना सच्चे कलाकारों का स्वप्न हुआ करता है। इस समारोह की सुदीर्घ परम्परा बीसवीं शताब्दी के महान संगीत रसिकों, श्रद्धालुओं और कला को संरक्षण प्रदान करने वाले राजाओं की देन है। यह परम्परा, क्रमशः कला और कला के संरक्षण के प्रति जवाबदेह रहने वाले लोगों और संस्थाओं के साथ-साथ सरकार जिसकी ओर से संस्कृति विभाग ने विनम्रतापूर्वक इसकी निरन्तरता को चिरस्थायी बनाये रखने, उसे सतत परिपक्व और नवाचारों से युक्त करने का प्रयास किया, इन सभी से स्पन्दित होती आयी है।

तानसेन संगीत समारोह की भौतिक जगह भले ही परिस्थितियों और भावनाओं से कुछ जरा-बहुत उठी-बैठी या कुछ कदम चलकर थमी हो, इसकी गरिमा के प्रति भावनात्मक जवाबदारियों और सोच में विस्तार ही हुआ है। एक बड़ी मेहनत, इच्छाशक्ति और एक तरह से वृहद, सच्ची और निष्कलुष सहभागिता के लिए उठाये जोखिमों का भी सु-परिणाम बहुत अच्छे तरीके से सामने आया है। इस पुण्य-पुनीत प्रसंग से समाज अपनी सारी सहजताओं के साथ जुड़े यह विनम्र कर्तव्य रहा है। विगत वर्षों में यह कर्तव्य और आकांक्षा साकार हुई है। संस्कृति विभाग शतायु होते इस समारोह के वैभव को और अधिक विस्तीर्ण करने के लिए निरन्तर कुछ आयामों को विस्तारित कर रहा है। ग्वालियर संगीत की साधना और समर्पण की नगरी है, राजा मानसिंह तोमर जिनकी विरासत इस अनमोल निधि को अक्षुण्ण और संरक्षित करने के लिए आज भी स्मरणीय है और संगीत सम्राट तानसेन, उनके गुरु स्वामी हरिदास जैसे साधकों से इस परम्परा को मिला अमरत्व हम सभी के लिए भी सदा प्रबल ऊष्मा की तरह है, इसे हम अत्यन्त विनम्रता के साथ मानकर समारोह सदी को देख रहे हैं..........................

बुधवार, 12 दिसंबर 2012

जाने कैसे सपनों में खो गयी अखियाँ

पण्डित रविशंकर का निधन कला जगत की एक असाधारण क्षति है। देश के कला रसिकों और जिज्ञासुओं की स्मृतियों में उनकी यादगार सभाएँ हमेशा ध्वनित होती रहेंगी। एक सितार वादक के रूप में उनकी जगह अद्वितीय रही है और उनका यश दो सदियों तक विस्तीर्ण है जिसमें इस सदी का पूरा एक दशक शामिल है।
कुछेक विरोधाभासों के साथ ही कुछ-कुछ विलक्षण साक्ष्य भी हैं जो हमारी चेतना में हमेशा बने रहते हैं। सिनेमा में शास्त्रीय संगीत के कलाकारों की सृजनात्मक उपस्थिति बड़ी दुर्लभ रही है।

 पण्डित भीमसेन जोशी से लेकर उस्ताद बड़े गुलाम अली खाँ और पण्डित शिव शर्मा से लेकर पण्डित हरिप्रसाद चैरसिया और अनेक कलाकारों का वक्त-वक्त पर सिनेमा से जुड़ाव रहा है लेकिन सेकेण्डों और चन्द मिनटों में पूरे होने वाले एक दृश्य के अनुरूप सीमा में बंधकर रचना किये जाने का बन्धन अनुभूति के चरम तक जाने वाले शास्त्रीय संगीतज्ञों के लिए मुश्किल रहा है, यही कारण है कि ये सरोकार लम्बे समय नहीं चले। फिर भी ऐसे महत्वपूर्ण कलाकारों ने जब और जितना सिनेमा के लिए रचा वह इतिहास बनकर रह गया और बड़े महत्व के साथ उसका समय ने साक्ष्य भी रखा और उल्लेख भी किया।

पण्डित रविशंकर का योगदान भी इस नाते अतुलनीय है कि उन्होंने अपने मित्रों के आत्मीय आग्रह पर कुछ फिल्मों से जुड़ना स्वीकार किया और उन फिल्मों के लिए उनके द्वारा की गयी संगीत रचना अविस्मरणीय रही है। महान फिल्मकार सत्यजित रे के साथ उनका जुड़ना भी ऐसी ही घटना रही है। पण्डित रविशंकर के रूप में रे बाबू को अपनी कल्पना के संगीत का चितेरा मिल गया था जब उन्होंने अपनी पहली महानतम फिल्म पाथेर पांचाली का निर्माण किया। इस फिल्म की गणना सर्वकालिक है और विश्वसिनेमा के इतिहास की श्रेष्ठ फिल्मों में उसकी गणना भी होती है। 


 पण्डित रविशंकर, रे बाबू के साथ इसीलिए जुड़ सके क्योंकि उनकी रचनात्मक स्वतंत्रता का रे बाबू ने भी बड़ा आदर किया। सत्यजित रे अपने सिनेमा की सम्पूर्ण आत्मा से पूरी तरह जुड़ते थे इसीलिए अनुकूल संगीत परिवेश और प्रासंगिकता को लेकर विशेष रूप से पण्डित रविशंकर के प्रति वे एक तरह से निश्चिंत रहते थे। यही कारण रहा कि रे बाबू की बाद की तीन फिल्मों अपराजितो, पारस पाथर और अपूर संसार का संगीत भी पण्डित रविशंकर ने दिया। यह सान्निध्य इन चार फिल्मों की सभी विशेषताओं के साथ संगीत रचना में भी बड़ी खूबियों से भरा है। बाद में पण्डित रविशंकर की दुनिया के असीम विस्तार के बाद उनके पास उतना समय नहीं रहा और रे बाबू को भी उनका विकल्प नहीं मिल सका। परिणाम यह हुआ कि बाद में सत्यजित रे ने अपनी फिल्मों के लिए स्वयं संगीत तैयार करना शुरू किया।

अपनी फिल्म अनुराधा के लिए संगीतकार के रूप में पण्डित रविशंकर की सहमति विख्यात फिल्मकार हृषिकेश मुखर्जी को भी उसकी पटकथा सुनाते हुए सहज ही मिल गयी थी। अनुराधा, बलराज साहनी, लीला नायडू की एक यादगार फिल्म है जो एक प्रतिभाशाली स्त्री की घर में घुलकर रह गयी स्वतंत्रता और सृजनात्मक क्षमताओं की फिक्र बड़े मर्मस्पर्शी ढंग से करती है। इस फिल्म के गाने जाने कैसे सपनों में खो गयी अखियाँ, साँवरे काहे मोसे करो जोरा जोरी, कैसे दिन बीते कैसी बीती रतियाँ, सुन मेरे लाल यूँ न हो बेहाल, बहुत दिन हुए तारों के देश में, हाय रे वो दिन क्यों न आये आज भी स्मरण करो तो अनुभूतियों के विविध रंगों का एहसास होने लगता है, ये गाने लता मंगेशकर, मन्ना डे, महेन्द्र कपूर ने गाये थे। 


जब गुलजार मीरा फिल्म बना रहे थे तब उनकी हार्दिक इच्छा थी कि इस फिल्म के सारे गाने लता मंगेशकर गायें और संगीत रचना पण्डित रविशंकर करें लेकिन संगीत निर्देशन के ही मसले पर उनके लिए अपनी यह आकांक्षा पूरी करना मुश्किल हो गया। बाद में मीरा के लिए पण्डित रविशंकर ने ही संगीत तो दिया लेकिन सारे गाने गाये वाणी जयराम ने, एक गाने को छोड़कर जिसे पण्डित दिनकर कैकिणी ने गाया था।

मंगलवार, 4 दिसंबर 2012

तलाश : सूझ और समझ से बनी एक सधी हुई फिल्म


रीमा कागती निर्देशित फिल्म तलाश को देखना सिनेमा में, खासकर इस दौर के सिनेमा में एक नये अनुभव से गुजरना है। तलाश में रीमा कागती या जोया अख्तर या फरहान अख्तर या अनुराग कश्यप के नामों तक वे ही लोग पहुँच पाते हैं जिन्हें सिनेमा में नायक-नायिका के अलावा भी बहुत कुछ जानने की जिज्ञासा खास इस बात के लिए होती है कि वास्तव में यह फिल्म किस तरह की दृष्टि और समझ का परिणाम है। आमतौर पर दर्शक के पास इतनी तैयारी या फुरसत नहीं होती और सिनेमाहॉल में परदे की तरफ एक बार देखकर खो सा गया दर्शक अन्त तक तय नहीं कर पाता कि उसने अपने आनंद और मनोरंजन के नाम पर क्या प्राप्त किया या क्या खोया.. .. .. ..

मुम्बई पृष्ठभूमि में है और समुद्र के किनारे स्याह रात तेज रफ्तार से आयी एक कार अपने चलाने वाले के साथ अनियंत्रित होकर सीधे समुद्र में जा गिरती है। यह एक सितारे की मौत है और यहीं से मौत की वजह जानने का रहस्य फिल्म को लेकर चल पड़ता है। फिल्म का नायक जो कि एक पुलिस अधिकारी है, उसे यह प्रकरण सुलझाना है लेकिन उसके भटकाव में खुद उसकी जिन्दगी का हादसा भी साथ है। वह अपनी पत्नी के साथ सहज नहीं है। कहानी के मूल में एक स्त्री है जो जीवित नहीं है मगर नायक के साथ उसका मिलना-जुलना और घटनाक्रमों के सूत्रों से जुड़ते जाना रहस्य में एक दिलचस्प पहलू है।


नायक पुलिस अधिकारी अपनी पत्नी के आवेगों और उसको बहकाने का माध्यम बनी एक औरत फ्रेनी से बेइन्तहा चिढ़ता है और ठीक लगभग उसी वक्त वो एक दिवंगत छाया के साथ रहस्यों को सुलझाने के साथ-साथ अपना अकेलापन और आँसू भी बाँट रहा है। तलाश में मुम्बई के रेड लाइट एरिया  के जीवन और वहाँ की कंजस्टडनेस जिसमें भय, असुरक्षा, घुटन और दुर्घटनाएँ साँस ले रही हैं, बड़े सजीव चित्रित होते हैं। आमिर खान फिल्म में ऐसे पुलिस अधिकारी बने हैं जो पूरी फिल्म में एक बार रेड लाइट एरिया के गुण्डे को मारते हैं, शेष पूरी फिल्म में तफ्तीश और सवाल-जवाब लगातार हैं। सिनेमा के हीरो की मौत के पीछे अन्त में जो कारण और खुलासे हैं वे सनसनीखेज नहीं है बल्कि इन्सानी लोभ-लालच और भरोसे तथा धोखेबाजी के इर्द-गिर्द घूमते हैं।

तलाश का रहस्य और अगले घटनाक्रम के प्रति जिज्ञासा बने रहना प्रमुख पहलू है। निर्देशक रीमा कागती ने इसे अन्त तक बनाये रखने में अपनी प्रतिभा का पूरा परिचय दिया है। वे आमिर खान कैम्प की लेखिका हैं और तलाश उनका पहला निर्देशन। उनका काम ठीक से हो जाये इसीलिए आमिर खान ने जोखिम से बचते हुए ऐसे कलाकारों, लेखकों, निर्देशकों को जोडक़र फिल्म को सम्हाला है, जिनके नाम शुरू में आये हैं। कहानी, पटकथा, संवाद लेखन में जोया, फरहान, अनुराग और आमिर के हस्तक्षेप दिखायी देते हैं।

आमिर खान ने अपनी भूमिका को तो केन्द्र में रखा ही है लेकिन अलग-अलग स्थान पर रानी मुखर्जी और करीना कपूर की भूमिकाएँ भी अर्थपूर्ण लगती हैं। गैंग ऑफ वासेपुर से चर्चित नवाजुद्दीन, तैमूर की भूमिका में सबसे अलग और अकेला कन्ट्रास्ट हैं। उनकी भूमिका नकारात्मक है और उनका किरदार एक पैर से चलने में असहज भी है लेकिन एक शातिर वृत्ति के इन्सान को उन्होंने बखूबी जिया है। फिल्म का गीत-संगीत पक्ष, जावेद अख्तर और राम सम्पत के बावजूद बड़ा कमजोर है। तलाश, संवादों और जिज्ञासाओं में सुरुचि पैदा करती है, कुल मिलाकर तीन सितारे वाली फिल्म है। यह सूझ और समझ से बनी एक सधी हुई फिल्म कही जा सकती है।