बुधवार, 12 दिसंबर 2012

जाने कैसे सपनों में खो गयी अखियाँ

पण्डित रविशंकर का निधन कला जगत की एक असाधारण क्षति है। देश के कला रसिकों और जिज्ञासुओं की स्मृतियों में उनकी यादगार सभाएँ हमेशा ध्वनित होती रहेंगी। एक सितार वादक के रूप में उनकी जगह अद्वितीय रही है और उनका यश दो सदियों तक विस्तीर्ण है जिसमें इस सदी का पूरा एक दशक शामिल है।
कुछेक विरोधाभासों के साथ ही कुछ-कुछ विलक्षण साक्ष्य भी हैं जो हमारी चेतना में हमेशा बने रहते हैं। सिनेमा में शास्त्रीय संगीत के कलाकारों की सृजनात्मक उपस्थिति बड़ी दुर्लभ रही है।

 पण्डित भीमसेन जोशी से लेकर उस्ताद बड़े गुलाम अली खाँ और पण्डित शिव शर्मा से लेकर पण्डित हरिप्रसाद चैरसिया और अनेक कलाकारों का वक्त-वक्त पर सिनेमा से जुड़ाव रहा है लेकिन सेकेण्डों और चन्द मिनटों में पूरे होने वाले एक दृश्य के अनुरूप सीमा में बंधकर रचना किये जाने का बन्धन अनुभूति के चरम तक जाने वाले शास्त्रीय संगीतज्ञों के लिए मुश्किल रहा है, यही कारण है कि ये सरोकार लम्बे समय नहीं चले। फिर भी ऐसे महत्वपूर्ण कलाकारों ने जब और जितना सिनेमा के लिए रचा वह इतिहास बनकर रह गया और बड़े महत्व के साथ उसका समय ने साक्ष्य भी रखा और उल्लेख भी किया।

पण्डित रविशंकर का योगदान भी इस नाते अतुलनीय है कि उन्होंने अपने मित्रों के आत्मीय आग्रह पर कुछ फिल्मों से जुड़ना स्वीकार किया और उन फिल्मों के लिए उनके द्वारा की गयी संगीत रचना अविस्मरणीय रही है। महान फिल्मकार सत्यजित रे के साथ उनका जुड़ना भी ऐसी ही घटना रही है। पण्डित रविशंकर के रूप में रे बाबू को अपनी कल्पना के संगीत का चितेरा मिल गया था जब उन्होंने अपनी पहली महानतम फिल्म पाथेर पांचाली का निर्माण किया। इस फिल्म की गणना सर्वकालिक है और विश्वसिनेमा के इतिहास की श्रेष्ठ फिल्मों में उसकी गणना भी होती है। 


 पण्डित रविशंकर, रे बाबू के साथ इसीलिए जुड़ सके क्योंकि उनकी रचनात्मक स्वतंत्रता का रे बाबू ने भी बड़ा आदर किया। सत्यजित रे अपने सिनेमा की सम्पूर्ण आत्मा से पूरी तरह जुड़ते थे इसीलिए अनुकूल संगीत परिवेश और प्रासंगिकता को लेकर विशेष रूप से पण्डित रविशंकर के प्रति वे एक तरह से निश्चिंत रहते थे। यही कारण रहा कि रे बाबू की बाद की तीन फिल्मों अपराजितो, पारस पाथर और अपूर संसार का संगीत भी पण्डित रविशंकर ने दिया। यह सान्निध्य इन चार फिल्मों की सभी विशेषताओं के साथ संगीत रचना में भी बड़ी खूबियों से भरा है। बाद में पण्डित रविशंकर की दुनिया के असीम विस्तार के बाद उनके पास उतना समय नहीं रहा और रे बाबू को भी उनका विकल्प नहीं मिल सका। परिणाम यह हुआ कि बाद में सत्यजित रे ने अपनी फिल्मों के लिए स्वयं संगीत तैयार करना शुरू किया।

अपनी फिल्म अनुराधा के लिए संगीतकार के रूप में पण्डित रविशंकर की सहमति विख्यात फिल्मकार हृषिकेश मुखर्जी को भी उसकी पटकथा सुनाते हुए सहज ही मिल गयी थी। अनुराधा, बलराज साहनी, लीला नायडू की एक यादगार फिल्म है जो एक प्रतिभाशाली स्त्री की घर में घुलकर रह गयी स्वतंत्रता और सृजनात्मक क्षमताओं की फिक्र बड़े मर्मस्पर्शी ढंग से करती है। इस फिल्म के गाने जाने कैसे सपनों में खो गयी अखियाँ, साँवरे काहे मोसे करो जोरा जोरी, कैसे दिन बीते कैसी बीती रतियाँ, सुन मेरे लाल यूँ न हो बेहाल, बहुत दिन हुए तारों के देश में, हाय रे वो दिन क्यों न आये आज भी स्मरण करो तो अनुभूतियों के विविध रंगों का एहसास होने लगता है, ये गाने लता मंगेशकर, मन्ना डे, महेन्द्र कपूर ने गाये थे। 


जब गुलजार मीरा फिल्म बना रहे थे तब उनकी हार्दिक इच्छा थी कि इस फिल्म के सारे गाने लता मंगेशकर गायें और संगीत रचना पण्डित रविशंकर करें लेकिन संगीत निर्देशन के ही मसले पर उनके लिए अपनी यह आकांक्षा पूरी करना मुश्किल हो गया। बाद में मीरा के लिए पण्डित रविशंकर ने ही संगीत तो दिया लेकिन सारे गाने गाये वाणी जयराम ने, एक गाने को छोड़कर जिसे पण्डित दिनकर कैकिणी ने गाया था।

1 टिप्पणी:

Rahul Singh ने कहा…

सन 1957 में बनी अर्न सक्‍सडॉर्फ की स्‍वीडिश फिल्‍म के प्रदर्शन से बस्‍तर, गढ़ बेंगाल निवासी दस वर्षीय बालक चेन्‍दरू अंतरराष्‍ट्रीय स्‍तर पर प्रसिद्ध हुआ। फिल्‍म का नाम 'एन डीजंगलसागा' ('ए जंगल सागा' या 'ए जंगल टेल' अथवा अंगरेजी शीर्षक 'दि फ्लूट एंड दि एरो') था। फिल्‍म में संगीत पं. रविशंकर का है, उनका नाम तब उजागर हो ही रहा था। इस फिल्‍म के बाद उनकी चर्चा आम हुई.