गुरुवार, 14 फ़रवरी 2013

अपने विरोधाभासों से जूझती फिल्म


विश्वरूप को उससे जुड़े लोगों के बहुत सारे प्रभावों से बचाकर देख पाना मुश्किल होता है, इसीलिए वह निराश करती फिल्म लगती है। अगर हमें पहले से कमल हसन के बारे में जानकारी न हो तो इस फिल्म को देखना एक तरह से अपने धीरज की परीक्षा देना आसान जान पड़ता है लेकिन एक अभिनेता के रूप में उनके विलक्षण गुणों की जानकारी के साथ इस फिल्म का अवलोकन एक साधारण अनुभव के रूप में बदल जाता है।

एक फिल्म जिस तरह आरम्भ हो रही है, जिस तरह फिल्म का नायक पन्द्रह मिनट में स्थापित किया जा रहा है, उस सुरुचिपूर्ण स्थान से यह फिल्म बीसवें मिनट बाधित हो जाती है। ऐसा लगता है कि यह चार बड़े पैराग्राफों का कठिन सा निबन्ध है जिसमें उपसंहार ही निहित नहीं है। फिल्म निर्माण में बहुत बड़ी राशि का व्यय होता है, लेकिन जिस तरह से मँहगी फिल्में विफल होती जा रही हैं, व्यय, अपव्यय में बदल गया है। आधुनिक हथियार, आतंकवाद, जोखिमपूर्ण कारनामे, मारधाड़ और हत्याओं के वीभत्स दृश्य इस फिल्म की खासियतें नहीं हैं। 

आरम्भ में एक नोट डाल दिया गया है जिसमें वीभत्स दृश्यों के लिए सावधान किया गया है लेकिन यह बात जोड़कर कि टेलीविजन चैनलों में ऐसा पहले से ही दिखाया जाता है। नायक एक नृत्य प्रशिक्षक है जो लड़कियों को नृत्य सिखाता है, पहले परिचय में देहिक नजाकत और लोच से भरा दिखायी देने वाला यह आदमी पन्द्रह मिनट के बाद पहले आतंकवादी फिर सुरक्षा अधिकारी के रूपों में बदलता नजर आता है। यह फिल्म उस दुनिया के नजदीक जाने की कोशिश करती है, जहाँ जेहाद ही जिन्दगी का पर्याय है, फिल्म थोड़ी समझदारी से उस परिवेश में भी जाती है जहाँ इस पूरे जुनूनी माहौल में बचपन और स्त्री की मनःस्थितियाँ किस तरह की हैं?

कमल हसन के बारे में क्या कहा जाये, पहले पन्द्रह मिनट उनका कौशल है क्योंकि उस भूमिका के लिए उनको पण्डित बिरजू महाराज ने प्रशिक्षित किया, उसके बाद उनकी भूमिका उनके अनुभव और परिपक्वता का खराब सा प्रमाण देती है। हमें शेखर कपूर की कुछ दृश्यों में अच्छी उपस्थिति को महत्व का मान लेना चाहिए, व्यक्तिशः राहुल बोस ने अपना काम खूब अच्छी तरह किया है, खासतौर पर उत्तरार्ध में अपनी आवाज बदलकर इसके साथ-साथ जयदीप अहलावत की लम्बी और प्रभावी भूमिका उनके गैंग ऑफ वासेपुर के पहले भाग की याद दिलाती है। वास्तव में जयदीप एक किरदारजीवी कलाकार हैं। उनकी पर्सनैलिटी ग्रे-शेड में उनको खूब मैच करती है। 

हमारे सिनेमा में जिस तरह से अभिनेत्रियों की जगह सिमटती जा रही है, विश्वरूप उसका भी प्रमाण है। अपनी फिल्मों में नायिका के साथ अन्तरंग दृश्यों को लेकर उनका अपना बोध है। इस फिल्म में भी उसे शूट किया गया था मगर सम्पादन में ये दृश्य निकाल दिये गये हैं लेकिन इन्हें फिल्माया गया था लिहाजा अन्त में नामावली के समय हॉल के बाहर जाते दर्शक को ठहरा देने में इनका इस्तेमाल कर लिया गया है।

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