सोमवार, 30 सितंबर 2013

केतन मेहता की दशरथ माझी

लम्बे समय बाद एक बार केतन मेहता के सक्रिय होने की खबर है। वे उस अनोखे इन्सान पर फिल्म बनाने जा रहे हैं जिसने अपनी पत्नी के प्रेम में पहाड़ काटने का साहस किया था। बहुत से लोग दशरथ माझी का नाम जानते होंगे। अब वे जीवित नहीं हैं लेकिन उनकी ही यह गाथा है कि मजदूरी करते हुए एक दिन अपनी पत्नी की परेशानी से द्रवित होकर उन्होंने पहाड़ काटकर रास्ता बनाने का असाधारण फैसला किया था और सब काम छोड़कर इस काम में जुट गये थे। दशरथ माझी ने आखिरकार अपनी जिद और जीवट का प्रमाण दिया और वह रास्ता चैड़ा कर दिया जहाँ से उनकी पत्नी को आने-जाने में चोट लग जाया करती थी। 

इस जिद को पूरा करने में बीस से भी ज्यादा साल तो लग गये लेकिन बिहार के गया जिले के गहलौर गाँव के इस लोहपुरुष ने इतने लम्बे समय में एक भी क्षण अपनी जिद और जुनून को शिथिल नही होने दिया। यह जरूर दुखद रहा कि तंग पहाड़ को खोल देने का काम जब पूरा हुआ तब तक उनकी पत्नी इस दुनिया से जा चुकी थीं। उन्हें इस बात का दुख बना रहा कि फागुनी देवी उस खुले और बड़े रास्ते पर चलने के लिए जीवित न थीं। कुछ वर्ष पहले दशरथ माझी का भी देहान्त हो गया।

दशरथ माझी का जीवन एक अविस्मरणयी संघर्ष गाथा है जिस पर फिल्म बनाने का ख्याल केतन मेहता को आ गया। केतन मेहता लम्बे समय से अपनी फिल्म रंगरसिया को प्रदर्शित करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं जिसके लिए उनको अनुकूल अवसर अभी तक नहीं मिल पाया है। कुछ दिनों पहले ही उन्होंने उम्मीद जतायी है कि शायद वर्षान्त तक वे रंगरसिया को रिलीज कर पायें तो राजा रवि वर्मा से प्रेरित है और रणदीप हुडा और नंदना सेन ने इसे अपनी भूमिकाओं से सुर्खियाँ प्रदान करने का काम किया है।

दशरथ माझी पर माउण्टेन मैन बनाने का ख्याल उनको उनकी संघर्ष गाथा को जानकर आया। यह घटना तो 1960 की है और सच में दशरथ माझी का संघर्ष 1980 तक जारी रहा है। मजदूर, विपत्ति और अभाव में जीते हुए एक आदमी किस तरह एक असाधारण काम कर जाता है, इसका उदाहरण उनका जीवन रहा। गैंग आॅफस वासेपुर से चर्चित नवाजउद्दीन सिद्दीकी ने इस फिल्म में दशरथ माझी की भूमिका निभायी है। उनके लिए यह चुनौतीपूर्ण था लेकिन किरदार को अपने लिए खुद बड़ी चुनौती मानने वाले इस प्रतिभाशाली कलाकार ने दशरथ माझी के गाँव, घर और उस रास्ते पर जाकर, तमाम इतिहास जानकर इस किरदार को निबाहने का निश्चय किया। इसमें राधिका आप्टे ने दशरथ माझी की पत्नी की भूमिका अदा की है।

केतन मेहता ने अपने समय में बड़ी महत्वपूर्ण फिल्में बनायी हैं, भवनी भवई, होली, मिर्च मसाला, हीरो हीरालाल, माया मेमसाब, सरदार, मंगल पाण्डे वगैरह। कुछ विफल फिल्मों से प्रभावित उनकी सक्रियता को दशरथ माझी पर बनी फिल्म शायद लौटा सके, यह कामना की जानी चाहिए।

रविवार, 29 सितंबर 2013

दर्शक को अच्छी फिल्म के पक्ष में करना कठिन है?


सिनेमा और दर्शक दोनों एक-दूसरे के पास आने के लिए दूरियाँ तय करते हैं। अधिक दूरी तय करता है सिनेमा और कम दूरी तय करते हैं दर्शक। सिनेमा मुम्बई से चलकर देश भर में जाता है, जगह-जगह सिनेमाघर, मल्टीप्लेक्सेज़, फन, आयनॉक्स, मेट्रोपॉलिस और शहर के एकल थिएटर बुक किए जाते हैं और फिल्में रिलीज की जाती हैं। दर्शक को अपने घर से निकलकर सिनेमाघर तक आना होता है। दोनों की यात्रा दिलचस्प है, एक सप्ताह में तीन-चार फिल्में प्रदर्शित होती हैं। दर्शक तय करता है कि वो कहाँ जायेगा। अच्छा बैनर, बड़े निर्माता और फायनेंसर मिलकर अधिक सिनेमाघर जुटाने की कला में माहिर होते हैं। यह काम बड़े पहले से हो जाता है। 

अच्छा सिनेमा बनाने वालों के सम्पर्क कम होते हैं और शायद जरा-बहुत इच्छा शक्ति की भी कमी होती है, जो हासिल हो गया वही ले लिया, सिनेमा को लेकर भी उनका सोचना होता है, जितना चल गया, वही ठीक है। दर्शक ने देखा तो ठीक है, नहीं देखा तो उसकी समझ। ऐसा कोई आन्दोलन ठीक तबियत में दिखायी नहीं देता कि दर्शक तक ठीक से अच्छी फिल्में ध्वनित हों। अच्छी फिल्मों का चलना उनकी किस्मत पर निर्भर करता है। भीड़ वहीं खड़ी दिखायी देती है जहाँ निर्माता प्रदर्शन के पहले यह बताने में जुट जाता है कि बड़े-बड़े सन्दूक तैयार हैं जिनमें सौ करोड़ या उससे ज्यादा का कलेक्शन आयेगा। दर्शक भी उसकी इच्छापूर्ति में उत्साह से साथ देता है।

हमारे सामने उदाहरण पिछले हफ्ते का ही है जिसमें एक साथ फटा पोस्टर निकला हीरो और द लंच बॉक्स को रिलीज किया गया है। फटा पोस्टर निकला हीरो तो टिप्स कम्पनी की फिल्म थी जिसके निर्देशक की अपनी अलग पहचान है। हीरो भले कमजोर है, हीरोइन को कोई नहीं जानता मगर प्रतिष्ठित निर्देशक का भी अपना दर्शक वर्ग है। यह फिल्म तमाम सिनेमाघरों में लगी, दूसरी तरफ द लंच बॉक्स को सिंगल स्क्रीन में लगाने की जहमत नहीं उठायी गयी। मल्टीप्लेक्सेज में भी छोटे हॉल में इसको जगह मिली लेकिन जैसे तैसे दर्शक गये क्योंकि पच्चीस-तीस कार्यकारी निर्माताओं सहित अनुराग कश्यप, राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम, सिद्धार्थ राय कपूर, करण जौहर जैसे लोगों का फिल्म निर्माण और वितरण में योगदान था। अच्छी खासी चर्चा, अच्छी फिल्म और माहौल के बाद भी दर्शक को शायद मोटिवेट करना उतना आसान नहीं होता क्योंकि हमारे यहाँ जनरुचि के आगे सारी सार्थकता और सोद्देश्यता धराशायी है। 

फटा पोस्टर निकला हीरो को तमाम बार फालतू फिल्म कहिए, एक डेढ़ सितारा दीजिए और द लंच बॉक्स को मर्म तक पहुँच करने वाली फिल्म मानते हुए तीन-चार सितारे दीजिए फिर भी दर्शक को अच्छी फिल्म के पक्ष में करना कठिन है। यह एक अजीब सा विरोधाभास है। आशावाद की अपनी गति है। अच्छा सिनेमा बन पा रहा है, कभी-कभार उन लोगों का समर्थन भी कई बार पा रहा है जो निहायत व्यावसायिक सिनेमा बनाते हैं फिर भी सेहत के लिए तमाम तरह सजग रहने वाली पीढ़ी मनोरंजन के माध्यम से दिमागी सेहत की स्थितियों की फिक्र करती नजर नहीं आती।

शनिवार, 28 सितंबर 2013

बिसराये, भुलाये सितारों की याद

हिन्दी सिनेमा में लगातार इतनी आमद और प्रवाह है कि बहुत से कलाकार आते-जाते बेहतर काम करते हुए भी हमारी स्मृतियों से ओझल हो जाते हैं। कभी-कभार स्मृतियाँ ताजा होने पर हमें उनको लेकर जिज्ञासाएँ हुआ करती हैं मगर हमारे पास उस तरह की सूचना या सन्दर्भ नहीं हुआ करते जो हम उन कलाकारों के हाल जान सकें जिनके खास किस्म के किरदारों, हावभाव या अन्दाज से वे हमें याद रह गये हैं। आज का समय ऐसा नहीं है जो नयी पीढ़ी उन पुराने कलाकारों को याद कर सके। बहुत से कलाकार ऐसे हैं जो उम्र, स्वास्थ्य और अन्य कठिनाइयों के चलते मुष्किलों में हैं। कुछ संस्थाएँ ऐसी जरूर हैं जो ऐसे कलाकारों को वक्त-वक्त पर मदद करती हैं लेकिन किसी समय लाइम लाइट में रहे और चकाचैंधभरी दुनिया से दूर जा चुके ऐसे लोग अपने अकेलेपन और खासतौर पर उस समय और बाद के लोगों की उपेक्षा और भूला दिये जाने के अवसाद से ग्रस्त रहते हैं।

बीते समय के सुपरिचित गीतकार योगेश ऐसे ही गुमनाम समय में अपने समय को याद करते हैं। उन्होंने बासु चटर्जी, हृषिकेष मुखर्जी सहित अनेक फिल्मकारों के साथ काम किया और गीत लिखे। अपने मधुरतम गीतों जैसे आनंद का जिन्दगी कैसी ये पहेली हाय, मिली का बड़ी सूनी-सूनी है की वजह से उनको काफी नाम अपने समय में मिला था। धीरे-धीरे गीतों में अधकचरापन, फूहड़ता और निरर्थकता का बोलबाला हुआ तो योगेष जैसे गीतकारों की जगह भला कहाँ रहती! वे अनजान होते गये। अपने समय में जिन नये गीतकारों को उन्होंने प्रोत्साहित किया, रास्ता बताया, बाद में उनके पास ही योगेष का पता नहीं था।

चरित्र अभिनेताओं की एक पूरी पीढ़ी इस समय काम से दूर है। अच्छा लगा था जब कामिनी कौषल को एक सीन के लिए ही सही शाहरुख खान ने चेन्नई एक्सप्रेस में दिखाया। हो सकता है इस बहाने उनको मदद करने का उनका नेक ख्याल रहा हो। इसी फिल्म में निर्देषक लेख टण्डन भी इसीलिए लिए गये होंगे। आज के सफल और प्रभाव वाले कलाकार ऐसे काम कर सकते हैं। इन दिनों लम्बे समय से सईद जाफरी का कोई हाल नहीं मिल रहा। वे लगभग पचासी साल के हो चुके हैं और फिल्मों में बरसों से दिखायी नहीं दिए। अभिनेता भरत कपूर फिल्म नूरी के खलनायक के रूप में प्रसिद्ध हुए। वे रंगमंच के कलाकार हैं। इन दिनों दिखायी नहीं देते। सुलभा देषपाण्डे, रोहिणी हट्टगडी नजर नहीं आतीं। शम्मी, चरित्र अभिनेत्री हैं, बड़ी उम्रदराज हो गयी हैं उनका परदे पर आना बन्द हो गया है। रमैया वस्तावैया गाने पर नाचने वाले चन्द्रशेखर बरसों चरित्र कलाकार रहे हैं, सामाजिक कार्यों में उन्होंने अपनी सक्रियता का खासा समय लगाया है। आज भी वे सक्रिय हैं और लगभग नब्बे की उम्र में भी चल-फिर रहे हैं।

याद किया जाये तो बहुत से कलाकार याद आते हैं जिनका पता उनके बहुत सारे सहकर्मियों को भी नहीं मालूम, जैसे व्ही. एम. व्यास, बेला बोस, सुलोचना, पूर्णिमा, इन्द्राणी मुखर्जी, श्रीराम लागू वगैरह। पीढि़याँ अपने बुजुर्गों और पितृपुरुषों को भुला दिया करती हैं, ऐसी पीढ़ी आने वाले समय में खुद भी वैसी त्रासदी के सामने हुआ करती है।

गुरुवार, 26 सितंबर 2013

तमीज़-तमीज़ की हँसी


हमेशा ही परिवारों, मुहल्लों और इससे हटकर लोकप्रियता का आलम बढ़ने पर वाचालपन को अलग से ही रेखांकित किया जाता रहा है। प्रायः परिवारों में कोई बच्चा ऐसा होता है जो अपने हिसाब के तमाम गुणों के विपरीत होता है। अक्सर स्कूलों में जहाँ एक साथ बड़ी संख्या में विभिन्न स्वभाव और गुण-दक्षता के विद्यार्थी होते हैं, एकाध प्रतिभासम्पन्न अलग ही दिखायी देता है। प्रतिभा सकारात्मक और नकारात्मक सभी आयामों में आँक ली जाती है। शैतान, बदमाश, शरारती, चपल और वाचाल जैसे शब्द निश्चित ही सकारात्मक आकलन के विपरीत जाने वाली चीजें हैं लेकिन किसे पता रहता होगा कि ऐसे गुण भी आगे चलकर मनुष्य को ज्यादा लोकप्रिय और किंचित मुग्धप्रभाव के धनी रूप में पहचान बना देने का काम करते हैं।

कपिल शर्मा, जो कि खैर इन दिनों राजू श्रीवास्तव से भी आगे निकल गये और राजू श्रीवास्तव की तरह ही उनके रास्ते लोकप्रियता और धनअर्जन के रास्ते में जाने वाले पन्द्रह-बीस कलाकारों ने भी अपनी-अपनी जगहें बना ही ली हैं, कुछेक को बड़े सम्मानपूर्वक कुछ फिल्म निर्देशकों ने अपनी फिल्मों में भी काम किया जैसे रोहित शेट्टी ने बोल बच्चन में कृष्णा को मौका दिया तो उन्होंने अपने सरकस में जाना छोड़ दिया और सितारा बन गये। उस समय कपिल जरा खिसियाये से रहते थे। रेडी में सुदेश लाहिड़ी को मौका मिला पर बाद में वो कम दिखायी देने लगे। भारती सिंह एक-दो धारावाहिकों में दिखायी दीं मगर ज्यादा प्रतिभा न दिखा पाने के कारण अपनी ही दुनिया में खुद को बनाये रखने के लिए संघर्ष कर रही हैं।

दरअसल हास्य की मौजूदा स्थितियों और आम आदमी के जीवन में उसकी जरूरत को ये सभी कलाकार एक ऐसी विचित्र सी कारगर दवा बनाकर लाये हैं जिसने फूहड़ता को शिष्ट और कुलीन समाज में अलग सी मान्यता दे दी है। अब सभी हँसोड़ों की जमात में शामिल हैं और भदेस पर भी शर्मसार होने के बजाय ठहाका लगाते हैं या खिलखिलाते हैं। हास्य के सरकसों और दूसरे तथाकथित शो में एक बड़ी खेंप ऐसे कलाकारों की आकर पुरानी पड़ गयी है। आपको शायद दिमाग पर जोर डालना पड़ेगा तब कुछ कलाकार याद आयें।

इधर कपिल शर्मा उस बड़ी खेंप के लगभग आखिरी प्रतिनिधि दिखायी दे रहे हैं मगर यह भी कम बड़ा आश्चर्य नहीं है कि कल तक अपने लिए काम मांगने जाने वाले इस हँसोड़ के दरवाजे तमाम बड़े कलाकार आ जाया करते हैं। कपिल ने फूहड़ता और सस्ते सेंस ऑफ हृयूमर को यहाँ अपनी लोकप्रियता का आधार बनाया है। उनके शो में उनको छोड़कर सभी पुरुष कलाकार स्त्रियों के वेश में हैं। एक उपासना सिंह लम्बे समय सिनेमा में अवसर तलाशते और हताश होते यहाँ खिल्लियों के बाजार का हिस्सा बनी हुई हैं। कुल मिलाकर यह सारा का सारा प्रस्तुतिकरण निहायत ही हल्का और निराशाजनक है। हम सब इसे खूब देखते हुए हँस रहे हैं और ताली बजा रहे हैं यह और भी निराशाजनक है। लगता है कि हँसी को भी अलग-अलग तमीज़ में देखा जाना चाहिए। कपिल की प्रतिभा और हँसाने की दक्षता के स्रोतों की तमीज़ पर खासतौर पर शिष्टतापूर्वक विचार किया जाना चाहिए।