रविवार, 6 अप्रैल 2014

काजू वाली दालमोठ

इस बार कानपुर गया तो एक बड़ा काम यह भी ले कर गया कि जो दालमोठ नानी लाया करती थीं भोपाल लाने पर, काजू पड़ी हुई, वह ढूँढ़ना है, मम्मी के लिए। चालीस साल से भी ज्यादा की स्मृतियों में बिरहाना रोड की दुकान थी। रात को वहीं चला गया, पैदल उतरकर दोनों तरफ की मिष्ठान्न और नमकीन की दुकानों में गया, कुछ दुकानों में दालमोठ रखी थी लेकिन वो स्वाद और खुश्बू नहीं मिल पा रही थी। खास बात यह थी कि काजू वाली दालमोठ चाहिए थी।

काजू से याद आया, बचपन में दालमोठ से काजू और चिवड़े से मूँगफली बीन-बीनकर खा लेना मेरे साथ छोटी बहन ने भी सीख लिया था, उस पर मम्मी आड़े हाथों लिया करती थीं, तत्काल ही, अरे मूर्खों ऐसे खा रहे हो जैसे जिन्दगी में कभी देखा नहीं काजू। उस समय तो हम ठिठक जाया करते थे, हाथ का हाथ में, मुँह का मुँह में, लेकिन वो तुच्छ आदत आज भी नहीं छूटी।

दालमोठ में खरबूजे के बीज भी छीलकर डाले जाते हैं, बड़े स्वादिष्ट लगते हैं। याद आता है, नानी के गड़रिया मोहाल वाले घर के पास ही एक शिवरानी चाची रहा करती थीं, अकेली बूढ़ी सी, उनका जीवनयापन खरबूजे के बीज छील-छीलकर ही चलता था। उनके पास दो-तीन चिमटियाँ थीं, जिनसे वे खूब फुर्ती से बीज छीला करती थीं, फिर स्थान विशेष पर दे आती थीं और पैसे ले आती थीं। याद पड़ता है कि खरबूजे के बीज मिठाइयों में भी प्रयोग होते थे, आज भी होते हैं।

बहरहाल, एक दुकान में उसी खुश्बू, उसी स्वाद और खास काजू पड़ी दालमोठ मिली, जाहिर है खा कर ही चालीस साल पहले की स्वाद-अनुभूतियों से मिलान किया। भोपाल लाकर जब मम्मी को दिया तो उनको नानी की ही याद आ गयी और सुबकने भी लगीं, संवेदनात्मक स्थितियों में अपनी भी आँख सक्रिय हो जाती है जुगलबन्दी के लिए, वैसा ही हुआ।  अभी वे व्रत में हैं पर दो दिन बाद खायेंगी, सम्हालकर रखवा दी है......

 

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