रविवार, 6 अप्रैल 2014

नानी का घर

बड़े लम्बे अरसे बाद कानपुर की यात्रा ने बड़ा सुकून दिया, भले दिन भर की यात्रा रही पर गंगा घाट के निकट बिठूर में एक भावनात्मक और मन को छू लेने वाले कार्यक्रम में "ज्ञानवती अवस्थी स्मृति सम्मान" ग्रहण करना अविस्मरणीय अनुभव। मानस मंच के इस कार्यक्रम में बड़ी संख्या में सब उपस्थित जैसे परिजन ही हों, डॉ. सुरेश अवस्थी, उनके सबसे बड़े भैया का प्रेम अपनापन और उनकी माँ जी की स्मृति का सम्मान।

मेरे लिए कानपुर उम्र के बराबर ही अपना है, कानपुर नानी का, आज भी उनकी स्मृतियों को ताजा कर देने वाला जबकि वे तो पच्चीस बरस पहले चली गयीं। उनकी उंगली पकड़कर उनके स्कूल जाया करता था, जब भी वहाँ जाता। भगवत और सरसैया घाट की गंगा जी। अप्सरा सिनेमा में राम और श्याम, सुन्दर टॉकीज में शोले-धरमवीर, हीर पैलेस में सन्यासी और दस नम्बरी, रॉक्सी में दो अनजाने और रीगल में जैसी करनी वैसी भरनी फिल्में। बिरहाना रोड के बनारसी स्वीट की मिठाई और दालमोठ। पैदल और सायकिल से दूर तक जाने के चुपचाप दुस्साहस फिर वो चौक हो या परेड या फिर बड़ा चौराहा। तब किराये की सायकिल चालीस पैसे प्रति घण्टा वहाँ मिल जाया करती थी।

पानी के बताशे, आलू की टिकिया और मटर की चाट लक्ष्मी के ठेले की खूब याद है, घर के सामने से निकला करते थे। नानी का हुक्म था, पूरा मोहल्ला मामा और मौसी, नाना और नानी। सड़क के बीच लगे नल पर लाइफबॉय से नहाने का आनंद। बाल्टी में पानी का नम्बर लगाना और घर लाकर इकट्ठा करना। नानी की बनायी कल्हारी घुइयाँ (अरबी) की सब्जी और पराठे। नगर महापालिका के रेल फाटक के पास बने नानी के बेसिक प्रायमरी स्कूल में साथ जाना फिर उनसे पूछकर सामने ही रेल के पुल पर जाकर आती-जाती रेलगाड़ियों को देखना। जाने कितना समय बीत जाता। सम्मान के बाद बोलने की बात आयी तो मुँह में शब्द से पहले आँखों में आँसू। नानी याद आ गयीं। कभी कल्पना नहीं की थी कि जो कानपुर बचपन से स्मृतियों में रहा है, वहीं से इस सुखद अवसर, घटना का साक्षी होऊँगा।

भैया के घर गया, वे कहीं होली मिलन में गये थे जिनसे बाद में उसी स्थान पर जाकर मिला और देर तक बात की। उसके पहले घर में निर्मल भाभी, जिनसे बचपन का नाता, उनकी उम्र माँ के बराबर है और अपना आदर भी उनको माँ के जैसा ही। आज भी उनकी आँखों के सामने अपना आत्मविश्वास हिल जाता है, पर वे बड़ी स्नेहिल, देखकर खुश हो गयीं, आँखों को भिगोकर। पेट भरा था पर भाभी ने जो-जो जिद से खिलाया, खाता चला गया, चाय भी दो बार, दूसरी बार तो खुद ही बना लायीं। निर्मल भाभी के साथ ही अपने जीवन की पहली रोमांटिक फिल्म "कभी-कभी" निशात टॉकीज में देखी थी। भाभी का हमेशा ऐसा आदर बना रहा है, जिसमें डर के प्रतिशत भी शामिल हैं, कल्पना भी नहीं कि उनसे मिले बगैर आ सकता था, यही उनको बताया भी कि कैसे यह सम्भव था.......

छुटपन में मम्मी के साथ कानपुर आते हुए आखिरी के दो-तीन स्टेशन पुखरायाँ, भीमसेन और गोविन्दपुरी आने लगते तो मम्मी का चेहरा चमक उठता, वे बतातीं कि अब कानपुर आ रहा है। इसी तरह जब भोपाल वापसी होती तो इन्हीं स्टेशनों को देखते हुए मम्मी रोते हुए जातीं, मैं उनका चेहरा देखा करता। कल मम्मी को जब सम्मान की सब चीजें दिखायीं तो उनको फिर रोना आ गया, कहने लगीं, आज नानी होतीं तो कितना खुश होतीं.............उनको देखते हुए मुझे याद आ गया जैसे उनके साथ ही कानपुर से लौट रहा हूँ, गोविन्दपुरी, भीमसेन का पुखरायाँ होते हुए............

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