शुक्रवार, 5 सितंबर 2014

मेरा स्कूल, मेरे गुरु



मैं सम्राट अशोक माध्यमिक शाला भवन के सामने जाकर खड़ा होता हूँ। अन्दर कुछ हलचल हो रही है। सभी कक्षाएँ लगी होंगी। विद्यार्थी आये होंगे, शिक्षक पढ़ा रहे होंगे। आज स्कूल की छुट्टी नहीं है। बाहर से दोनों ओर देखता हूँ एक तरफ शीशम का पेड़ लगा है बड़ा सा जिस पर हम मित्र अक्सर चढ़ जाया करते थे और ऊपर से कूदने का खेल किया करते थे। वहीं एक बार फिसलकर नीचे आते हुए तने पर लगे काँटेदार तार से पेट लम्बा खरुँच गया था, खून भी निकला था, कई दिन चोट-दर्द बनी रही। अगले दिन नहलाने के लिए मम्मी ने बनियान उतारी तो उस बदमाशी के एवज में चार थप्पड़ भी लगाये थे। उसी पेड़ ने नीचे एक बूढ़ी अम्माँ बैठा करती थी जो हरी इमली, गुड़ की गजक, बेर और बेर का चूरन, चने और मूँगफली बेचा करती थी। वहीं से थोड़ा नीचे मदन का ठेला लगता था, वह खीरे-ककडि़याँ पानी में भिगोकर बीच से दो काटकर उनमें नमक-लाल मिर्च लगाकर बेचता था। 

पेड़ के नीचे अब दूसरे बिचवैया बैठते हैं। बूढ़ी अम्माँ के तो कई जनम हो गये होंगे, मदन का भी क्या पता कहाँ होगा? बाहर थोड़ी देर खड़े रहकर जैसे मैं अपने आपको ही भीतर भेजता हूँ खुद अपने को पाँचवीं कक्षा में बैठा देखने के लिए। टाटपट्टी पर अल्यूमीनियम का बक्सानुमा, पेटी कहा करते थे, वही लेकर जाया करता था। उसे खरीदवाने के लिए नाक में दम कर दिया था, मम्मी-पापा की। वे कहते भी थे कि ये बड़ी क्लास के बच्चों के लिए है पर अपने को चाहिए थी बस। पढ़ाई-लिखाई में जितना लद्धड़, बाकी नौटंकी में उतना ही आगे। समय पर सब चाहिए बस्ता, पेन-पेंसिल, कम्पाॅस, फुटा, कटर, रबर सब। 

हसन सर को यहीं पर जाना। नये आये थे, जैन सर कक्षा में उनको लेकर आये थे, कहते हुए कि ये हसन खान सर हैं, नये आये हैं। अब ये आपको गणित पढ़ायेंगे। जैन सर स्वयं हिन्दी और विज्ञान पढ़ाते थे। जैन सर और हसन सर दोनों के पास सायकिलें थीं। जैन सर पास में रहते थे और हसन सर दूर पुराने शहर में। हसन सर को पढ़ाने मेें बहुत रुचि थी। वे बड़े समदर्शी थे। सभी विद्यार्थियों पर बराबर निगाह रखते। प्रतिभाशालियों को प्रोत्साहित करते और हम जैसे गँवारों को ठोंक-बजाकर अपने हिसाब का बना लिया करते। उनका अजीब काम था, नहीं आये छात्रों को घर से बुलवा लिया करते, दूसरे छात्रों को भेजकर और डाँट-फटकार कर कक्षा में बैठा लिया करते। मारते तो थे खैर लेकिन उस मार में कोई दुर्भावना नहीं केवल एक ही भावना बच्चा पढ़ने में मन लगाये। उनका पढ़ाना घण्टे के हिसाब से नहीं बल्कि समझायी जाने वाली बात पूरी हो जाने तक रहता, भले ही वे जैन सर के पीरियड भी इसमें शामिल कर लिया करते।

हमारे कुछ दोस्त, मैं भी प्रायः उनसे मार खाया ही करते। मैं कुछ अधिक इसलिए क्योंकि हमारी माँ भी उसी स्कूल में पढ़ाती थीं। कई बार उन्होंने माँ के सामने भी तमाचे लगाकर अपना प्रभाव दिखाया। हाँ, तो हमारे कुछ दोस्त बाद में इसका बदला भी लिया करते। कई बार यह हुआ कि हसन सर और जैन सर की सायकिलों की हवा निकाल दिया करते। फिर दूर कहीं से उनको पैदल सायकिल घसीटकर जाते देख मजा लेते। एक दोस्त जो अभी साथ नौकरी पर भी है, याद करके हँसता है कि उसने न केवल हसन सर की सायकिल की हवा निकाली बल्कि उसका वालट्यूब, ढिबरी कहीं दूर फेंक दी। उस दिन सर समझ गये थे कि लड़के ये भी करने लगे हैं पर उनकी शिक्षा जिसमें निष्ठा प्रबल थी, उसमें कमी नहीं आयी।

याद आता है, हसन सर की पढ़ाई का ही कमाल था कि उस साल हमारी पाँचवीं क्लास में तीन छात्र प्रावीण्य सूची में आये थे और कक्षा के शत-प्रतिशत छात्र प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए थे। सम्राट अशोक माध्यमिक शाला के इतिहास में ऐसा परिणाम न पहले आया था और न ही अब तक आया होगा। याद है दृश्य जब परीक्षा परिणाम कार्ड बाँटते हुए हसन सर खूब खुश थे और नाम बुला-बुलाकर, कुछ छात्रों को जिनको वे बोझा ढोने वाले प्राणियों के नाम से सम्बोधित करते थे, प्यार से घूँसा और धौल जमाकर कार्ड पकड़ा रहे थे।

मैं हसन खान सर को हमेशा याद रखता हूँ क्याेंकि उस निष्ठा का मुझे कभी पर्याय नजर नहीं आया अपनी आगे की पढ़ाई पढ़ते हुए भी। मैं अक्सर सोचता था कि हसन सर को इतने सालों में कभी भी शिक्षक दिवस के दिन श्रेष्ठ शिक्षक का पुरस्कार क्यों नहीं मिला? हसन सर कभी इसके लिए लालायित नहीं रहते थे, वे अपना कर्म निष्काम और निस्वार्थ भाव से ही करते थे। हसन सर बाद में भी मिला करते थे, हम सब बड़े हो गये थे, किसी न किसी काम से जुड़ गये थे, सर कहा करते थे, तुमने हमारी बड़ी नाक कटायी। हमारे पढ़ाये बच्चे बड़ी-बड़ी जगहों पर हैं कोई डाॅक्टर है, कोई इंजीनियर है, कोई प्रोफेसर है, कोई पुलिस अधिकारी है। एक तुम हो जो फिसड्डी ही रहे। सर की बात सुनकर हँसी ही आ जाती रही लेकिन कभी ऐसा नहीं लगा कि उनमें कोई पक्षपात की भावना है। हसन सर के बारे में सुना है कि वे सेवानिवृत्त होने के बाद शायद अपने बेटों के पास मुम्बई में रहने लगे हैं। मैं अपने जहन में लेकिन उनको अपने बड़े पास ही मानता हूँ। जब कभी तन्हा होता हूँ, उस उम्र में जाता हूँ, सम्राट अशोक स्कूल दिखायी देता है तो हसन सर याद आते हैं, वाकई हमारे हीरो।

कोई टिप्पणी नहीं: