गुरुवार, 19 फ़रवरी 2015

नींद से न जागे कोई ख्वाबों की लड़ी

14 फरवरी को यह विचार मन में आया कि याद करूँ खालिस प्रेम या प्रेम में कुछ अलग से दृष्टिकोण पर बनी कुछेक फिल्मों को। देर तक सोचने के बाद चार फिल्में याद आयीं - परिणीता बिमल रॉय निर्देशित, एक दूजे के लिए, मौसम और पुकार। उनका कहना था कि प्रेम पर बनी फिल्मों के सन्दर्भ में कम से कम दो बातें तो जरूर देखी जानी चाहिए, एक आपसी प्रतिबद्धता और दूसरी परस्पर आत्मीयता या अपनत्व अन्यथा हर साल अपना एक वेलेण्टाइन मनाते रहो, खैर उनकी बात माथे पर ठहर गयी। ये फिल्में सोचता रहा। जाहिर है सब देखी हुई हैं, अलग-अलग उम्र में। एक दूजे के लिए, मौसम और पुकार तो समय के साथ ही देखी थी मगर परिणीता परिपक्वता की उम्र में देखी। वास्तव में सब फिल्में अच्छी हैं लेकिन पहले मौसम और फिर पुकार को लेकर मन में तार्किकीय आकर्षण तभी से हैं, जब से उन्हें देखा।

मौसम फिल्म ज्यादा मन को छूती है, जिसमें नायक अधेड़ अवस्था में अपने खोये प्रेम को तलाश करता हुआ उसी जगह पर आता है जहाँ से उसकी कहानी शुरू हुई थी। स्वाभाविक है जिस तरह से वह नायिका को छोड़कर जाता है, त्रासदी उस कहानी के आगे का घटित था, उसे अपनी बेटी मिलती है जिसकी सूरत नायिका की तरह हूबहू है लेकिन वह देह व्यापार करने लगी है। वास्तव में यह त्रासद पहलू है जिसमें पूर्वदीप्ति में छायाएँ, घटनाएँ, प्रसंग, गीत, प्रेम, चुहल और नोकझोंक के साथ नायक बार-बार यथार्थ से दो-चार होता है। बेटी अपने पिता को भी और आदमियों की तरह समझती है और पिता के आकर्षण को उन्हीं अर्थों में देखकर जवाब देती है। फिल्म के अन्त में पिता का बेटी को ले जाना भावनात्मक रूप से बहुत स्पर्शीय प्रतीत होता है।

गुलजार मौसम के लेखक थे, कमलेश्वर और भूषण बनमाली के साथ। सलिल दा ने फिल्म का पार्श्व संगीत रचा था और गुलजार के लिखे गानों को मदन मोहन ने संगीत से सजाया था। अद्भुत गाने, देह में बहते हुए प्रतीत होते हैं, सुनते चले जाओ तो। भूपिन्दर, लता और रफी के स्वर में कमाल गीत हैं, दिल ढूँढ़ता है फिर वही, छड़ी रे छड़ी कैसी, रुके रुके से कदम......

मौसम के गाने, गुलजार की काव्यभाषा का अनूठा दस्तावेज हैं, जिन गायक कलाकारों ने उन गानों को गाया, सचमुच का जैसे मखमली स्पर्श हो, हृदय में, अनुभूतियों में। मदन मोहन के पास माधुर्य रचने का जो सामयिक सरोकार था, उसका शायद ही कोई विकल्प हो। यही कारण है कि इन गानों को सुनते रहना सुहाये रहता है।

संजीव कुमार, ओम शिवपुरी जैसे कलाकारों को नमन न करो तो बात पूरी नहीं होगी। डॉ अमरनाथ के किरदार में संजीव कुमार स्मृतियों से लौटकर जितने टूटे और एक तरह के अपराधबोध, प्रायश्चित को जीते दीखते हैं, वह प्रभाव बड़ा सशक्त है। शर्मिला टैगोर दो किरदार, एक तरह विपरीत जीती हैं, नायिका और बेटी दोनों तरह वह दिमाग से निकल नहीं पातीं। छोटी भूमिकाओं में ओम शिवपुरी और दीना पाठक भी।

जल्द ही फिर एक बार "मौसम" देखने का मन होगा, तब तक दिल ढूँढ़ता है, छड़ी रे छड़ी कैसी गले में पड़ी सुनते हैं..............

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