गुरुवार, 9 अप्रैल 2015

ननिहाल वही जहाँ हर कोई नाना, नानी, मामा और मौसी

इन्हीं गर्मियों की छुट्टियों में नानी के यहाँ कानपुर चला जाया करता था। शायद पाँचवी क्लास के आसपास ही मम्मी चौबीस रुपए चालीस पैसे का टिकिट कटाकर रेल में बैठा दिया करती थीं। नानी कानपुर के स्टेशन पर आ जाया करती थीं और उतार लिया करती थीं। चिट्ठी युग में यह सब आसानी से हो जाया करता था। चिट्ठी से ही तय भी होता था। नानी भी स्कूल में पढ़ाती थीं, बेसिक प्रायमरी स्कूल। रहती गड़रिया मोहाल में थीं।
घर ले आकर बहुत लाड़ से पूछतीं, क्या खाऊँगा। पहले से बहुत कुछ रखा होता। बहुत कुछ लिया होता। अपनी फरमाइश भी होती थी। सुबह बंगाली की दुकान से समोसा जलेबी लाना रोज का काम था और रात को रामचन्दर की दुकान से दूध और रबड़ी-कलाकंद। रामचन्दर हलवाई पहलवान टाइप थे, मूड़ मुड़ाये, घुटने के ऊपर धोती चढ़ाये, ऊपर से उघाड़े। साठ से ऊपर के थे लेकिन दिखायी पड़ता था, आसपास दूध-घी बिछा हुआ है। कुल्हड़ में दूध बनाकर देते थे, खौलते कढ़ाव से लोटे में डालकर, शक्कर मिलाकर, पाँच-दस बार इस लोटे से उस लोटे में करके फिर कुल्हड़ में डालकर। वो जानते थे, बहनजी का नाती है। पूछते थे कब आये, कब तक नानी का आटा-दाल खत्म करोगे, कब जाओगे। तब मैंं बताता था, अभी मम्मी भी आने वाली हैं, तब कहते, आयं, मुनिया भी अइहयें। मैं कहता हाँ। आत्मीयता से हँसते।
ऊपर मकान मालिक गोपाल मामा बड़े परेशान किया करते थे। उनकी वजह से सोना दुश्वार था। मैं और छोटी बहन गुड्डन दोनों को तंग किया करते। रात को गर्मी के कारण चबूतरे में सोया करता तो सुबह ऊपर से पानी गिराकर उठा दिया करते। बेमतलब डाँटा करते थे, क्यों आ गये, कामधाम नहीं करते हो, पानी भरकर लाओ पम्पा से आदि आदि। नानी उनकी बातों पर कुछ कहें न कहें पर उनको असर नहीं होता था। सुबह का पहला काम भी उनकी कृपा से बड़ी मिन्नतों के बाद होता क्योंकि वह उनके बगल के मुख्य दरवाजे के अन्दर था और सुबह जोर की खबरों के बीच वे चिढ़ा-चिढ़ाकर देर करते। तब मम्मी कई बार कहतीं, गोपाल, भैया मत तंग करो उसे, कहीं चड्ढी में न छूट जाये। तब हँसकर दरवाजा खोलते। वे कई बार रुला दिया करते थे अपने अराजक व्यवहार से।
गड़रिया मोहाल में नानी का पास-पड़ोस नाना, नानी, मामा, मामी का ही हुआ करता था। सुबह से शाम जिस घर चले जाओ, कुछ न कुछ जबान-धार को मिल जाया करता था। पेठा, गुड़ पट्टी से लेकर बरफी, पेड़ा बहुत कुछ। नानी के घर से दो मकान आगे शिवरानी चाची रहा करती थीं, अकेली, बूढ़ी। वे हर समय चिमटी से खरबूजे के बीच की चोंच खोलकर उसके भीतर से बीज का फल निकालकर इकट्ठा किया करती थीं। सुबह हो, दुपहर हो, शाम हो, शायद जागा करतीं तो यही किया करतीं। खरबूजे के बीज का फल दालमोठ और मिठाई में डाला जाता था। उनके घर से छिले हुए बीजफल कोई ले जाता था, पैसे देकर और छिलाई के लिए अगले बीज दे जाया करता। तल्लीनता से वे यह काम करती थीं और पालथी मारे मैं पास बैठा देखता रहता था।
शाम को रोज ही लक्ष्मी चाटवाले की प्रतीक्षा रहती, वह पीछे कहीं गली से अपना ठेला सजाकर आता, नानी से जिद करुँ तो वे रुकवा लिया करतीं, फिर लक्ष्मी से मटर, पानी के बताशे खाने में बड़ा मजा आता।
सुबह जब अखबार वाला आता तो नानी उससे दैनिक विश्वमित्र अखबार लिया करतीं, मैं दैनिक जागरण और आज भी लेने की जिद करता, उसके पीछे बात यह कि फिल्मों के बड़े-बड़े विज्ञापन आया करते थे, उनको देखकर अच्छा लगता। नानी के घर से थोड़ा आगे जाकर मुख्य सड़क पकड़ो तो लाीन से पाँच सिनेमाघर अप्सरा, सुन्दर, रॉक्सी, रीगल और हीर पैलेस। किस में क्या लगा, देखकर फिर उसके पोस्टर देखने जाया करता। तब टिकिट एक रुपये दस पैसे का होता था। नानी अक्सर पैसे देकर फिल्म देख आने को कहतीं। मम्मी के साथ सरस्वतीचन्द्र, राम और श्याम फिल्में देखने की याद है, वहीं जरा बड़े हो जाने पर शोले, दस नम्बरी वगैरह भी। एक बार मौका लगाकर वयस्कों के लिए लगी फिल्म कागज की नाव भी देख आया था बिना बताये, राजकिरण और सारिका की। उसमें क्या देखकर साँस थम गयी, बताना मुश्किल है। हाँ, उसमें एक अच्छा गाना था, हर जनम में हमारा मिलन...............

मंगलवार, 7 अप्रैल 2015

बिछी नींद में पैराग्राफ

उस समय जब ज्यादातर मेरा लिखा खारिज हो जाया करता था, खारिज किए जाने के पक्ष में खारिज करने वाला कुछ न कुछ बताता जरूर था। उन्हें वैसे भी कोई चिन्ता, डर या लिहाज भी नहीं था क्योंकि सामने एक साँवला खिसियाया सा युवक होता था जो बड़ी दूर अपने घर से सायकिल चलाकर हाँफता हुआ प्रेस के दफ्तर तक आता था। बाहर जहाँ जगह मिले अपनी सायकिल खड़ा कर दिया करता था। वह दरवाजे के आदमी को भी नमस्ते करके पहचान बनाने का प्रयास करता था। 
भीतर फिर यही होता कि जो लिखकर लाये, अतिरेक आदर और श्रद्धा में भरकर, भीतर से न जाने क्यों कुछ भयभीत भी, शायद इसी कारण से कि पढ़ने के बाद न जाने क्या उत्तर आये, खड़ा धड़कते दिल से प्रतीक्षा करता। उनकी निगाहें देखता जो सिर के साथ लाइन दर लाइन गतिमान होतीं। कभी जवाब मिलता, ठीक है। कभी, देखते हैं। कभी, देखेंगे। कभी यह भी कि बड़ा बचकाना टाइप लिखा है, हमारे यहाँ नहीं चलेगा। पहले पैराग्राफ बदलने का शऊर नहीं होता था, इतना समझ में भी नहीं आता था कि पैराग्राफ कहाँ से बदलना है। जिन्दगी ने कुछ रास्ते यहाँ-वहाँ से उठाकर जिस तरह बदले थे, उनको भी तब नहीं समझ पाया था। पता नहीं वे पैराग्राफ की तरह थे या नहीं लेकिन अपने सारांशों में भी छीनने-छुड़ाने के साथ कुछ थमा देने का भी काम रहा करता था। 
जो छीना-छुटाया गया, वो भी और जो थमाया गया वो भी, दरअसल सभी बिना सोचे-समझे समेटे रहा। बड़े अन्तराल बाद यह ध्यान आया कि बिना पैराग्राफ छोड़े या बदले, लिखे चले जाने को ही जिन्दगी कहा जाता है शायद। पैराग्राफ छूटते हैं तो वही छूटने-छुड़ाने-थमाने का सिलसिला होता है। उस समय मुझसे यह भी कहा जाता था कि पैराग्राफ न छोड़ने की तुम्हारी आदत ऊबाने लगती है, कुछ ने कोफ्त होने लगती है भी कहा था। बाद में उन सबकी बात मनवा लेने की क्षमता ने इतनी अकल दे ही दी कि कुछ दूरी तय करके पैराग्राफ छोड़ दिया करूँ। अब तक यही करता आया हूँ। 
एक समय अपने आप पर यही सोचकर हँस गया कि अब तक दिमाग में यही क्यों बैठा रहा? बिना पैराग्राफ छोड़ने दूरी क्यों तय नहीं कर पाया? अंधेरे में जागते हुए भी इसके उत्तर नहीं मिले। अंधेरा आश्वस्त कर दिया करता है कि नींद पगडण्डी में खड़ी बैलगाड़ी में बिछी हुई है। चार कदम अंधेरे में चलकर उस बिछी नींद में आपको पड़ जाना है। मैं उस बिछी नींद में पड़ा भी पैराग्राफ नहीं छोड़ पा रहा, जाने क्यों..............

डिटेक्टिव व्योमकेश बख्शी जरा और चतुर होते...

इस फिल्म को शुरू से ही इस मान्यता के साथ देखना होता है कि यह निर्देशक का सिनेमा है बावजूद इसके कि इसमें टीवी से सिनेमा में बड़ी सम्भावनाओं के साथ आये लोकप्रिय कलाकार सुशान्त सिंह राजपूत नायक हैं। ऐसे दर्शक जो हाल के कुछ वर्षों में युवा फिल्मकारों और तकनीशियनों की प्रतिभा से प्रदर्शित होने वाले सिनेमा को समझने में लगे हैं वे दिवाकर बैनर्जी को ज्यादा जानते हैं। दर्शकों को उनकी पिछली फिल्म "शंघाई" का स्मरण जरूर होगा।
एक सदी पहले चालीस के दशक का परिवेश खड़ा करने में निर्देशक ने अपनी जिद पूरी की है और इस नाते कला निर्देशक का काम भी काबिले तारीफ माना जाना चाहिए कि उस पूरे वातावरण, तब के देशकाल और परिस्थितियों के अनुरूप परिवेश खड़ा करने में आर्ट डायरेक्टर का काम कमाल का है। निर्देशक से पहले इस नाते तारीफ उनकी की जाये तो कोई अतिश्योक्ति न होगी।
व्योमकेश बख्शी तब के समय का एक जासूस चरित्र है जिसके स्वभाव, उसके आरम्भिक जीवन की विफलताएँ, आसपास का माहौल, खासकर जहाँ वह रहता है, पास-पड़ोस सभी को लेकर जो एक तानाबाना, हमारे द्वारा विस्मृत हो चुके इसी नाम के धारावाहिक के बाद एक अलग आस्वाद में ताजा करती है यह फिल्म। अंग्रेज और जापानियों के बीच पकते षडयंत्र में दाँव पर लगे कोलकाता और उस शहर की अस्मिता को बचाने का चातुर्य फिल्म के नायक के सारे उपक्रम को देखकर ही दर्शक जान पाता है।
कालखण्ड विशेष की फिल्में बनाना अलग तरह की चुनौती का काम है। यशराज फिल्म्स निर्माता है। एक तरह से वो सारा समय जुटा कर रख दिया गया है फिल्म में। अपराध, षडयंत्र को दर्शकों तक ज्यादा प्रभाव के साथ पहुँचाने के ख्याल से ही उसको बनाते हुए पूरे बर्ताव को निर्देशक ने स्याह छायाएँ सृजित की हैं। अधिकतर प्रसंग रात के हैं, धुंधलके के हैं और अपराध का स्वभाव भी ऐसे ही सन्नाटे में जन्म लेने और जवान होने का होता है। निर्देशक फिल्म के एक स्त्री किरदार स्वस्तिका मुखर्जी के माध्यम से बड़े अपराधों में उसकी संलप्तिता, भावुक पक्ष और जरूरत के मुताबिक उत्तेजक व्यवहार को भी उपयोग में लाते हैं। हालाँकि आखिर में उसका खलनायक से रो-रोकर यह पूछना कि वो उससे प्यार करता है कि नहीं, निरर्थक और अनावश्यक ही लगता है क्योंकि गुनहगारों की भागीदारी में तमाम धोखे, षडयंत्र और बुराइयों की सीढ़ियाँ बनने के पीछे प्रेम भर तो नहीं होता, खैर।
खूबियों और सावधानियों के बावजूद फिल्म की धीमी गति और सुशान्त सिंह का बहुत काबिल साबित न हो पाना कमजोर पक्ष हैं। फिल्म के पात्र प्राय: इतनी सिगरेटें पी रहे होते हैं कि एक तरफ उसकी चेतावनी लगभग धरी ही रहती है। ऐसा लगता है कि एक कोने में अँगीठी ही जल रही हो। सुशान्त के मित्र बने आनंद तिवारी ज्यादा आश्वस्त दीखते हैं अपनी उपस्थिति में। सब कुछ के बावजूद फिल्म के खलनायक अनुकूल गुहा की भूमिका निबाहने वाले नीरज कबी ज्यादा प्रभावित करते हैं, खासकर अपनी बहुत आकर्षक आवाज, अच्छे गेटअप और किरदार को जीने के इंटलेक्चुअल अन्दाज के जरिए। खासतौर पर क्लायमेक्स में वे प्राय: हर दृश्य में दूसरे किरदारों पर भारी पड़ते हैं।
इसे यों पूरी तरह *** सितारों की फिल्म भी नहीं कहा जा सकता, हाँ ** से जरूर थोड़ी बेहतर है। इसका बाजार भी सम्भवत: उत्साहजनक न होगा लेकिन फिर एक बात कहनी होती है कि समझ के साथ सिनेमा को बनाने की ऊर्जा अच्छे निर्देशकों में बनी रहे, इस नाते इस फिल्म को देखना चाहिए बिना बहुत ज्यादा ऊबे।