बुधवार, 13 मई 2015

चालीस साल बाद मौसम की याद

कुछ फिल्में दिमाग से निकलती नहीं। कई कारणों से वे मस्तिष्क में बनी रहती हैं। स्वाभाविक है, उनमें से एक प्रमुख कारण उनका बहुत अच्छा होना भी होता है और एक मन को छू जाना। मौसम (1975) एक ऐसी ही फिल्म है जिस पर शायद एक बार बात करना ही उस मानसिक बेचैनी से निजात पाना होगा जो इस फिल्म को लेकर बनी हुई है।

1975 में जब यह फिल्म प्रदर्शित हुई थी तब उस साल शोले से लेकर जय सन्तोषी माँ तक और तमाम बाजार लूट लेने वाली फिल्में सिनेमाघरों में लगी थीं। एकल परदे वाले सिनेमाघरों का वह सम्भवः सबसे चरम लोकप्रियता का दौर था। सफल फिल्मों के लिए लम्बी-लम्बी लाइनें, धक्का-मुक्की, कमीज के बटन टूट जाना, मौके-बेमौके दो-चार से मारपीट भी सिनेमाघर परिसर के दृश्य हुआ करते थे। महिलाओं से सभ्यतापूर्वक अपने लिए भी टिकिट खरीद लेने की गुजारिशें की जाती थीं। ऐसे दौर में जब सब तरफ भीड़भरी फिल्में सिनेमाघरों में चढ़ी हों तब मौसम देखने कौन और कितने लोग गये होंगे, यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठता है! लेकिन इस फिल्म के लिए भी उतने लोग तो अच्छे ढंग से जुटे ही थे कि गुलजार आगे भी इसी तरह अपने मन की फिल्में बनाते गये, नहीं तो हम आज उस धारा, उस रस, उस आस्वाद से वंचित ही रहते।

गुलजार एक सर्जक फिल्मकार की तरह अपने गुरु बिमल राॅय से सीखते, समझते और तजुर्बे लेते इस दुनिया में शामिल हुए। मौसम तक आते-आते उनका आत्मविश्वास और खासकर वो धारा जिस पर वे चल पड़े थे, दर्शकों में मान्य हो चली थी। पढ़े-लिखे और भद्र दर्शक चार मित्रों में जताने के लिए भी कि गुलजार की फिल्म देखी, उनकी फिल्म जाकर देखते थे। 

मौसम की कहानी पूर्वदीप्ति में चलती है, मूल में प्रेम है मगर उसका पूरा विस्तार प्रायश्चित में है और ऐसी घुटन में है जिससे नायक का उबर पाना अन्त तक प्रायः असम्भव ही रहता है। शर्मिला टैगोर की चन्दा और कजली की दो भूमिकाएँ उस गहराई की हैं जिसकी थाह पाना मुश्किल है। हममें अच्छे सिनेमा से अच्छे दर्शक की तरह बरताव करना मुश्किल से आता है। कई बार हम माहौल के कारण भी इसमें विफल होते हैं। गनीमत है कि अब तकनीक इतनी आगे आ गयी है कि आप एकाग्रता और अपने अकेलेपन के साथ भी माहौल से बाधित हुए बिना फिल्में देख सको। फिल्म का नायक डाॅक्टर अपनी प्रेमिका को वचन देकर वर्षों बाद जिस तरह अपने भीतर नैतिक भय और अन्देशे के साथ लौटता है वह फिल्म का सशक्त पहलू है। प्रेमिका के बदले उसी शक्ल की बेटी से मिलना और लगातार एक छुपी मगर तड़पभरी दूरी के साथ उसका पीछा करना, उससे जुड़ना अत्यन्त विचलन भरे पहलू हैं। शर्मिला तो खैर अपनी तरह से दूसरी भूमिका में उतर आती हैं पर प्रतिभासम्पन्नता की जो अनुभूतियाँ संजीव कुमार को उनका किरदार जीते हुए देखकर होती हैं, वो भुलायी नहीं जा सकतीं। शर्मिला और संजीव की क्षमताओं का चरम फिल्म का आखिरी दृश्य है जहाँ नायक का प्रायश्चित फूट पड़ता है। यहाँ फूट पड़ना शब्द जानकर लिखा है।

भूषण बनमाली की कहानी पर कमलेश्वर और गुलजार का सृजनात्मक परिश्रम ही इस फिल्म की सजीव आत्मा है। गुलजार के लिखे गाने भूपिन्दर, रफी, लता ने गाये हैं मदन मोहन के संगीत निर्देशन में। दिल ढूँढ़ता है फिर वही फुरसत के रात-दिन, रुके-रुके से कदम और छड़ी रे छड़ी कैसी गले में पड़ी गाने मदन मोहन की गीत संयोजित करने की असाधारण क्षमता का प्रमाण होते हैं। मदन मोहन का निधन भी फिल्म के प्रदर्शन के साल में हो गया था। गुलजार ने मौसम का पाश्र्व संगीत सलिल चैधुरी से आग्रहपूर्वक तैयार कराया था। छड़ी रे छड़ी कैसी गले मेें पड़ी गाने में एक-दो पंक्तियाँ दिमाग में टिक कर रह जाती हैं, धीरे-धीरे चलना सपने, नींदों में डर जाते हैं.....कहते हैं सपने कभी, जागे तो मर जाते हैं...नींद से न जागे कोई ख्वाबों की लड़ी.....और भी बहुत कुछ।

गुलजार अपनी फिल्मोें के साथ हमेशा उसी तरह हुआ करते रहे हैं जैसे किसी देह के साथ उसका नाम जो परस्पर पुरुषार्थ के साथ एक-दूसरे को पहचान देने का काम करता है। अनुभूतियों में जाओ तो ऐसे लगता है जैसे गुलजार स्वयं बोलकर अपनी फिल्म कह रहे हों। 

गुलजार साहब वाकई भारतीय सिनेमा की अस्मिता के बहुत अलग से, अपने समय के एक विलक्षण फिल्मकार हैं।
about film : MAUSAM (1975)
just recall after four dacade
creation of GULZAR.

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