मंगलवार, 19 मई 2015

सिनेमाघर से भागते दर्शक


अनुराग कश्यप की इस फिल्म की अब तक भरपूर आलोचना-समीक्षा हो चुकी है। नब्बे करोड़ की यह कालसापेक्ष फिल्म बड़े और अब के प्रसिद्ध सितारों के बावजूद बाजार में निराशाजनक सिद्ध हुई है। इसे प्रेरित करने की दृष्टि से न सोचा जाये तो बताना चाहूँगा कि मध्यान्तर होते-होते आधे दर्शक हाॅल में रह जाते हैं, यद्यपि मध्यान्तर से पहले भी कोई उत्साहजनक संख्या नहीं रहती। कल इसका साक्ष्य खुद देखा और दो दिन पहले इन्दौर में भी सुना।

शुरू में कालसापेक्ष शब्द आया है, ऐसी फिल्मों के लिए वाकई एक्टर पर्सनैलिटी की जरूरत होती है। मेरा ख्याल है उस तेवर के जैसा किरदार अखबार मालिक का फिल्म में नजर आता है। करण जौहर के अभिनय की तारीफ कम होने को ही नहीं आ रही। एक खलनायक को प्रस्तुत करने के लिए खासा मजबूत परिवेश तो आप गढ़ देते हैं लेकिन उसके अभिनय और आवाज का क्या कीजिएगा? फिल्म जिस समय के साथ प्रस्तुत हो रही है, उस दौर में बहुत जीनियस क्राइम के बजाय दमखम और दुस्साहस का ही सारा खेल हुआ करता था। षडयंत्र भी देगची में घण्टों पकाये नहीं जाते थे।

खैर, हिन्दी दर्शकों को एक विडम्बना बड़ी खलती है, फिल्म की रोमन स्क्रिप्ट तभी नायक, नायिका को प्यार करने की दीवानगी के लिए लिखे गये शब्द खूँखार को खूनखार बोलता है और शाॅट लेते समय शायद इसे कोई दुरुस्त नहीं कराता होगा। वह बेतजुर्बा बाॅक्सर है, मूलतः छुटपुटिया अपराधी जिसका कद पूछ-परख होते ही दिन दूना रात चैगुना बढ़ता चला जाता है। वह बुद्धिहीनता के साथ बड़ों से लड़ रहा है और मूल में उसकी हीरोइन है तो गाते हुए जब भी सीन में आती है, प्रायः आँखों में आँसू भरे रहती है, रोयी चली जाती है। अपने आसपास घट रहे विरोधाभासों का उसके दिल पर गहरा असर पड़ता दीखता है।

हाँ, बाॅक्सर के शरीर पर भरपूर टैटू तब नहीं हुआ करते थे, 1960 के दशक में। इधर कुछ समय से अनुराग कश्यप पीयूष मिश्रा जैसे बौद्धिक लेखकों से दूर हैं। उनके यहाँ फिल्म को लेकर सामयिकता से लेकर देशकाल के धरातल पर अब दूसरे लेखक सोच रहे हैं। इधर दो-चार फिल्में उनकी ऐसी ही आयीं-गयीं। बहुत सम्भव है कश्यप की महात्वाकांक्षा का यह चरम हो, बड़ा बजट, बड़ा सेटअप, बड़े सितारे। हो सकता है प्रतिक्रियाओं और आलोचनाओं के थमने के बाद वे अपनी इस फिल्म को लेकर कुछ कहें या फिर अगली फिल्म घोषित करें, सब कुछ जिज्ञासा का विषय है..............

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