मंगलवार, 16 जून 2015

हृषिकेश मुखर्जी का सिनेमा : मुसाफिर (1957)

एक घर में सारी दुनिया


प्रख्यात फिल्मकार हृषिकेश मुखर्जी ने महान फिल्मकार स्वर्गीय बिमल राय के सहायक और उनकी फिल्मों के सम्पादक के रूप में अपनी शुरूआत की थी। बिमल राय निरन्तर उत्कृष्ट सिनेमा बना रहे थे। उनकी फिल्मों में निर्देशन और अन्य श्रेष्ठताओं के साथ सम्पादन पक्ष की विशेष सराहना होती थी। लम्बे समय काम करते हुए हृषिकेश मुखर्जी को स्वतंत्र रूप से फिल्म निर्देशन के लिए अनेक कलाकारों ने प्रेरित और प्रोत्साहित किया जिनमें दिलीप कुमार प्रमुख थे। हृषिकेश मुखर्जी ने दिलीप कुमार से कहा भी कि यदि मैं फिल्म बनाऊँ भी तो आप जैसे कलाकार के साथ काम कैसे कर पाऊँगा क्योंकि आप जो पैसा अपनी प्रतिभा और लोकप्रियता का प्राप्त करते हैं उतना दे सकने में मैं सक्षम नहीं हूँ। तब दिलीप कुमार ने उनको आश्वस्त किया था कि आप जब भी अपनी फिल्म बनाओगे, मैं बिना पैसे लिए ही काम करूँगा। हृषि दा की पहली फिल्म की बात करते हुए इतनी बातें स्वाभाविक हैं क्योंकि 1957 में जब उनकी पहली फिल्म मुसाफिर बनी तो उसमें दिलीप कुमार ने काम किया था, बिना पैसा लिए।

मुसाफिर की कहानी हृत्विक घटक ने आरम्भिक रूप से लिखकर हृषिकेश मुखर्जी को सौंप दी थी। दरअसल इस फिल्म में तीन कहानियाँ हैं, केन्द्र में एक घर है किराये का जिसमें एक के बाद एक तीन किरायेदार आकर रहते हैं। सबकी अपनी अलग-अलग परिस्थितियाँ हैं, जीवन में कुछ घटा है, कुछ घट रहा है। दुनिया बस रही है, जीवन एक उम्मीद की तरह है और अन्त में एक प्रस्थान कथा है। मुसाफिर शब्द संसार में मनुष्य के होने और जीने के यथार्थ से लिया गया है। फिल्म की शुरूआत में अभिनेता बलराज साहनी की आवाज हमें इस फिल्म के कथ्य का आरम्भ बताती है। परदे पर घर के मालिक महादेव चैधरी डेविड का एक छुपे-सहमे से नये किरायेदार को मकान दिखाना और किराये पर लिया जाना तय होना पहला दृश्य है। यह पहली कहानी है जिसमें शकुन्तला सुचित्रा सेन अपने प्रेमी अजय शेखर के साथ अपना घर छोड़ आयी है। वह डरी सहमी है। अजय के पिता और समाज में उसको स्वीकारा जायेगा कि नहीं। अजय चोरी छुपे एक पुरोहित को घर ले आता है और दोनों का विवाह हो जाता है। इस और आगे की भी दोनों कहानियों में डाकिए और चिट्ठी की अहम भूमिका है। अजय ने अपने माता-पिता को चिट्ठी लिख दी है और इस बात का इन्तजार है कि वे उन्हें आकर ले जायेंगे और स्वीकार भी कर लेंगे। एक दिन वे आ जाते हैं। गुस्से में भरे पिता अपने बेटे से सम्बन्ध तोड़ने की बात करने आते हैं पर बेटे की अनुपस्थिति में बहू के द्वारा किया गया आदर-सत्कार और बनाकर खिलाया खाना उनका मन बदल देता है। बेटा लौटकर आता है तो वे दोनों को अपने साथ लिवा जाते हैं।

दूसरी कहानी बड़े बेटे के नहीं रहने के बाद गर्भवती बहू और छोटे बेटे के साथ उस घर में किराये पर रहने आने वाले बुजुर्ग की है जो अपनी संचित पूंजी से परिवार चला रहा है। असमय बेटे के दिवंगत हो जाने के बाद उसकी जवाबदारी बहू के दुख को कम करने और छोटे बेटे की परीक्षा और नौकरी से अपने संसार के सम्हलने की कामना भी है। बेटा भानु किशोर कुमार और बहू निरुपा राय भी दुख के दिन बीतने की कामना करते हैं। बहू गर्भ में पल रहे बच्चे को कोसती है पर देवर भानु भाभी को हमेशा समझाता है और वक्त का इन्तजार करने को कहता है। आगे चलकर वह परीक्षा में पास होता है। अब उसे नौकरी की चिट्ठी आने का इन्तजार है। नौकरी की तलाश में संघर्ष करते हुए एक दिन पैसों की जरूरत होने पर भाभी अपनी गुल्लक फोड़कर उसे पैसे देती है। इस पर पिता भानु को भला-बुरा कहते हैं। तैश में आकर भानु जहर ले आता है और पीकर सो जाता है लेकिन जहर में मिलावट है, भानु मरता नहीं है। अगले दिन सुबह डाकिया एक चिट्ठी के जरिए उसकी नौकरी लग जाने की सूचना ले आता है। इधर बहू भी पुत्र को जन्म देती है। यह परिवार भी इस खुशी के साथ घर से विदा होता है।

तीसरा किरायेदार एक वकील पाल महिन्द्रा है जो अपनी विधवा बहन उमा ऊषा किरण और पैरों से चल पाने में असमर्थ अपने बातूनी भांजे राजा डेजी ईरानी के साथ वहाँ रहने, भांजे का इलाज कराने आता है। राजा का पैर ठीक हो जाये इसके लिए उसकी बीमारी की जाँच करायी गयी है और रिपोर्ट का इन्तजार है। एक दिन डाकिया वकील के डाॅक्टर दोस्त का पत्र ले आता है जिसमें लिखा होता है कि राजा कभी पैरों से चल नहीं पायेगा। उमा इस बात से निराश हो जाती है। उमा अक्सर वायोलिन की आवाज सुनती है। वह सामने चाय वाले लड़के मोहन चोटी से बजाने वाले के बारे में पूछती है तो वह बताता है कि एक पगला बाबू है, अपने में मगन रहने वाला, वह कभी भी किसी भी वक्त आता है और जब तक जी करता है, बजाता है। पगला बाबू दरअसल राजा दिलीप कुमार है। कभी वह उमा से प्रेम करता था लेकिन जब उसको यह पता चलता है कि उसको एक जानलेवा बीमारी है तो वह पत्र लिखकर उमा से शादी के लिए मना कर देता है और उसको दोबारा नहीं मिलता। उमा और उसका भाई राजा को धोखेबाज समझते हैं। यह रहस्य राजा के आखिरी पत्र से खुलता है जिसके साथ फिल्म का अन्त होता है। इस बीच उमा के बेटे राजा के मन बहलाव और उसमें ठीक होने का उत्साह पैदा करने का काम राजा करता है, उसको कहानी सुनाता है, उसके साथ खेलता है और वायोलिन बजाकर सुनाता है। वह बच्चे में हौसला भरता है कि एक दिन तुम जरूर अपने पैरों पर चलोगे। राजा की मृत्यु होने और उसके बाद बच्चे राजा का अपने पैरों पर चलना फिल्म का अन्त है। एक बार फिर घर खाली हो गया है।

मुसाफिर फिल्म को पटकथा के स्तर पर मुकम्मल करने का काम राजिन्दर सिंह बेदी ने किया था। फिल्म के संवाद भी उन्होंने ही लिखे थे। एक तरह से इस कहानी के सूत्रधार के रूप में डेविड का चरित्र खूब जहन में बना रहता है। जिस घर में किरायेदार आकर रहते हैं वह घर उन्हीं का है। महादेव चैधरी बहुत बातूनी है, सहृदय भी और अपने किराये से बराबर मतलब रखने वाला आदमी है। अपने घर के सामने ऊपर टू लेट लिखी तख्ती को अपनी छड़ी से किरायेदार के आ जाने पर पलट देना और चले जाने पर फिर उलटकर सामने कर देना अच्छा प्रसंग है। डाकिए को लेकर शुरू में जिक्र हुआ ही है। डाकिए का घर के सामने क्षण भर को ठिठककर उम्मीद जगाना और फिर बिना चिट्ठी के आगे बढ़ जाना किसी समय चिट्ठी, मजमून और इन्सान के रिश्ते की व्यग्रता को रेखांकित करता है। मोहन चोटी के रूप में एक बैरा है जो हर किरायेदार को शुरू में एक-दो दिन चाय लाकर पिलाता है, पगला बाबू के बारे में बतलाता है। पाश्र्व में चलता हुआ गीत-संगीत दो होटलों की परस्पर स्पर्धा का परिचायक है जिसके मूल में ग्राहकी है। 

अजय और शकुन्तला की कहानी में शकुन्तला का भावुक बने रहना और बचपन से माता-पिता को खो देने के कारण पति के माता-पिता में अपनेपन की कामना बहुत ही मन-स्पर्शी है। सुचित्रा सेन ने यह अभिव्यक्ति बहुत मन से की है। अजय के पिता का गुस्से में आना, माँ का बार-बार समझाना और फिर बहू शकुन्तला के व्यवहार से नरम पड़ना दिलचस्प प्रसंग हैं। इसी तरह दूसरी कहानी में भानु का चरित्र किशोर कुमार ने पूरे दिल से जिया है। ऐसा लगता है कि उस किरदार को केवल वे ही निभा सकते थे। उन पर अपनी भाभी के होने वाले बच्चे के लिए, मुन्ना बड़ा प्यारा गाना फिल्माया गया है, स्वर भी उन्हीं का है, कमाल की चुहल-चंचलता के साथ उन्होंने इस गाने को परदे पर जिया है। जहर खाकर सो जाना, पिता का छाती पर विलाप करना और उनका जाग उठना कमाल का दृश्य है जो नकली जहर के कारण दिलचस्प बन गया है। बच्चे का जन्म जीवन की सम्भावनाओं का उदय है जो व्यथित और अशान्त परिवार की जिन्दगी में खुशियाँ बिखेर देता है। तीसरी कहानी में प्रेम की त्रासदी है। यह अन्त उदास करता है। एक साम्य डाकिए के प्रसंग की तरह और है जो ध्यान आकृष्ट करता है, वह यह कि तीनों कहानी की स्त्रियाँ बारामदे से सामने देर रात होटल को धुलते-साफ होते अगले दिन के लिए तैयार होते देख रही हैं। फिल्म में शकुन्तला के द्वारा घर में बोये गये बीज, उससे अंकुरित पौधे और उसके पुष्पित-पल्लवित होने की अवस्था भी तीनों किरायेदारों की जिन्दगी में खुशियों की समरसता का बोध कराती हैं। 

इस फिल्म में दिलीप कुमार, किशोर कुमार, निरुपा राय, सुचित्रा सेन, ऊषा किरण, नजीर हुसैन, डेविड जैसे मँझे कलाकारों ने यादगार किरदार निभाये हैं। यह फिल्म बाजार के लिहाज से भले उस तरह सफल न हुई हो लेकिन मन को छूने में बहुत अधिक सफल है। इस फिल्म के सिनेछायाकार कमल बोस हैं जिन्होंने एक-एक दृश्य बहुत सधे प्रभावों के साथ लिया है। शैलेन्द्र ने फिल्म के गीत लिखे हैं, सलिल चैधरी का संगीत है। एक अविस्मरणीय गाना लागी नाहीं छूटे रामा, चाहे जिया जाये दिलीप कुमार की आवाज में लता मंगेशकर के साथ है जो इतिहास में दर्ज है। फिल्म में और भी सहायक कलाकार हैं छोटी-छोटी उपस्थिति के साथ केश्टो मुखर्जी, बेबी नाज, दुर्गा खोटे आदि। उनका होना भी दिमाग में ठहरा रहता है। हृषिकेश मुखर्जी भी अपनी पहली फिल्म में इस माध्यम में सृजन की निष्ठा का बड़ी ईमानदारी के साथ परिचय देते हैं। मुसाफिर कुल मिलाकर एक यादगार फिल्म है। 


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