बुधवार, 17 जून 2015

हृषिकेश मुखर्जी का सिनेमा : अनुराधा (1960)

पिया जाने न...........



अनुराधा, हृषिकेश मुखर्जी की एक संवेदनशील फिल्म है जिसकी आत्मा में संगीत बसा हुआ है। सिनेमा को पसन्द करने वाला ऐसा कोई भी दर्शक जो संगीत के प्रति जरा सा भी रुझान या आकर्षण रखता होगा उसे अनुराधा अपनी मर्मस्पर्शी संवेदना के साथ अलग ही प्रभावित करेगी। यह एक ऐसी स्त्री की कहानी है जिसके नजदीक एक डाॅक्टर को उसका संगीत ही लाता है। दोनों में प्रेम होता है, नायिका, पिता की मरजी के खिलाफ इस डाॅक्टर से शादी करती है। डाॅक्टर मूल्यों के साथ जीने वाला आदमी है, वह अच्छी खासी दक्षता के साथ गाँव और गरीबों की सेवा का लक्ष्य लेकर एक छोटी सी जगह आकर रहने लगता है और दिन-रात अपने दायित्वों का निर्वहन करता है। गाँव में उसका बड़ा आदर और सम्मान है। लोग उसे देवता की तरह मानते हैं क्योंकि सबकी मदद और सहायता के लिए वह हर वक्त तत्पर है। उसके छोटे से संसार में एक बेटी भी है जो बहुत बातूनी है। 

नायिका अनुराधा लीला नायडू ने पति डाॅ. निर्मल चैधरी के साथ गाँव की जिन्दगी और उसके जुनून के प्रति सकारात्मक बने रहने को ही अपनी खुशियों का पर्याय मान लिया है। ऐसे अनेक अवसर आते हैं जब वह अपने पति से शाम को जल्दी लौट आने का आग्रह करती है। पति आश्वस्त करके जाता है लेकिन बहुत देर से आता है। एक बार शादी की सालगिरह के दिन भी जल्दी लौटने का वादा करता है मगर डाॅक्टर का फर्ज और आकस्मिक परिस्थितियों के चलते अगले दिन सुबह वापस आता है। ऐसे ही एक दिन शहर से गाँव की तरफ गुजर रही गाड़ी के दुर्घटनाग्रस्त हो जाने के बाद उसमें बैठी एक स्त्री और एक पुरुष दीपक अभि भट्टाचार्य घायल हो जाते हैं। डाॅ. निर्मल, दीपक को अपने घर ले आता है और उसकी होने वाली पत्नी को आॅपरेशन के लिए गाँव के जमींदार के घर भेज देता है। दीपक और कोई नहीं अनुराधा का पूर्व परिचित है जो उसके पिता ब्रजेश्वर प्रसाद राय के मित्र का बेटा होता है। अनुराधा के पिता उसकी शादी दीपक से करना चाहते थे जो अनुराधा और उसके संगीत को बहुत पसन्द करता था लेकिन अनुराधा उसे इस बात से अवगत कराती है कि उसे डाॅ. निर्मल से प्यार हो गया है और वह उसी से शादी करेगी। इस बात से दीपक का दिल टूट जाता है लेकिन उसके मन से अनुराधा नहीं जा पाती।

दीपक अनुराधा का एकाकी और उदास जीवन देखकर समझ जाता है कि वह डाॅ. निर्मल चैधरी के घर में घुट-घुटकर रह रही है। उसका काम केवल पति का बिस्तर बिछाना, खाना बनाना और घर की देखभाल करना रह गया है। निर्मल डाॅक्टरी के पेशे और मरीजों में इतना मसरूफ है कि घर आकर भी वह किताबों में मर्ज का इलाज और दवाएँ ही पढ़ता रहता है। अनुराधा के प्रति उसका आकर्षण न जाने कहाँ चला गया है। दीपक इन बातों को भाँप कर अनुराधा से निर्मल का घर छोड़कर शहर, पिता के वापस चलने और फिर से गीत-संगीत की दुनिया में लौट आने प्रेरित करता है। उसका लहजा बहुत ज्यादा विद्रोही होने के बावजूद अनुराधा उसकी बातों में आना नहीं चाहती बल्कि उससे ये बातें नहीं करने के लिए भी कहती है लेकिन उस दरम्यान निर्मल और बढ़ती उपेक्षा और दीपक का प्रलोभन उसे आखिर डिगा देता है।

इसी बीच दीपक के साथ आयी उसकी प्रेमिका के चेहरे का सफल आॅपरेशन करके निर्मल अपनी उपलब्धियों पर खुश हो रहा होता है। शहर से दीपक की प्रेमिका के पिता और उनके वरिष्ठ चिकित्सक दोस्त गाँव आकर उस आॅपरेशन की तारीफ करते हैं। वरिष्ठ चिकित्सक नजीर हुसैन, डाॅ. निर्मल को शाबाशी देते हैं और बड़े अपनत्व के साथ उसके घर अगले दिन खाना खाने आने की बात कहते हैं। इधर निर्मल घर लौटता है तो अनुराधा उससे कह देती है कि वो उसे छोड़कर हमेशा के लिए अपने पिता के पास जा रही है। निर्मल, अनुराधा की बात से टूट जाता है, हालाँकि वह यह भी समझ जाता है कि इसकी वजह वह खुद है और उसकी ओर से अनुराधा की लगातार हो रही उपेक्षा भी। वह अनुराधा से गुजारिश करता है कि वो सिर्फ एक दिन के लिए रुक जाये क्योंकि उसने खाने पर खास मेहमानों को निमंत्रित किया है। अनुराधा उसकी बात मान लेती है।

अगले दिन डाॅक्टर और उसके मित्र निर्मल के घर आते हैं। डाॅक्टर, निर्मल का पूरा घर देखते हैं, अनुराधा से मिलते हैं। वे अनुराधा की दीवार पर लगी तस्वीर देखकर जान जाते हैं कि यह और कोई नहीं मशहूर गायिका अनुराधा राय है। उनकी निगाह अनुराधा की धूल खाती वीणा पर पड़ती है, वे अनुराधा की नोटबुक पढ़ते हैं और सब समझ जाते हैं। अनुराधा जब उनसे पहली बार मिलती है तो वे उसे बेटी कहकर पुकारते हैं और करुणा से भर जाते हैं। वे उससे गाने की जिद करते हैं। अनुराधा मना करती है पर उसे गाना पड़ता है। वे अनुराधा के खाने की भी तारीफ करते हैं। वे सब समझ जाते हैं कि किन वजहों से अनुराधा का दिल टूटा हुआ है। वे डाॅ. निर्मल को नसीहत देते हैं और उसके द्वारा किए आॅपरेशन की एवज में बीस हजार रुपए का चेक अनुराधा के हाथ में यह कहकर दे जाते हैं कि डाॅ. निर्मल की जो सफलता, प्रशंसा और नाम है उसके पीछे तुम्हारा ही त्याग है। डाॅ. निर्मल अगले दिन सुबह सोकर उठता है तो इस आशंका से घबरा जाता है कि अनुराधा उसे छोड़कर चली जायेगी लेकिन अनुराधा तो उसके क्लीनिक की सफाई कर रही है। एक सुखद अन्त के साथ फिल्म पूरी होती है।

हृषिकेश मुखर्जी की इस फिल्म की खासियत इसकी खूबसूरत कहानी है जो सचिन भौमिक ने लिखी है। पटकथा में राजिन्दर सिंह बेदी, डी. एन. मुखर्जी और समीर चैधरी का सृजनात्मक श्रम है। फिल्म के संवाद राजिन्दर सिंह बेदी ने लिखे हैं। यह उस समय की फिल्म है जब हमारे सिनेमा में आदर्शवाद को लेकर एक भावनात्मक आग्रह प्रबल ढंग से फिल्मकारों के बीच बना रहता था। गाँवों से बीस कोस दूर तक अस्पताल न होना, गरीबों और ग्रामीणों के इलाज की समस्या, डाॅक्टर का भगवान होना और ऐसी अनेक बातें सिनेमा का विषय बना करती थीं। अनुराधा का नायक निष्ठुर नहीं है, उसके मन में सेवा का जुनून है, वह अपने जीवन और अपने मिशन में नैतिकता को जगह देता है लेकिन परिवार का वो अटूट हिस्सा उसकी पत्नी जिससे उसने कभी प्रेम करके सब रस्मों को तोड़कर विवाह किया था, वही इस जुनून में उपेक्षित होकर रह गयी है। निर्देशक ने इस बात को बड़ी गहरी संवेदना के साथ उठाया है। लीला नायडू ने नायिका की भूमिका को जिस गहराई से जिया है वह कमाल है। वे सामंजस्य और धीरज को हर पल अपनी खुशी और सपनों का विकल्प मानकर घुटती हुई मन को छू जाती हैं। डाॅक्टर के रूप में बलराज साहनी बीमारों और रोगियों के लिए देवता हैं मगर पत्नी के साथ निर्मम नहीं हैं। वे उस इन्सान को बखूबी जीते हैं जो जज्बे और संवेदना को बराबर की तवज्जो नहीं दे पाता। उत्तरार्ध में पत्नी के लौट जाने के उत्तर में अपनी गल्ती को तत्काल मान लेना और भूल की ग्लानि को जीने का दृश्य कमाल का है। बलराज साहनी अपनी भूमिका में उतने ही सक्षम नजर आते हैं।

निर्देशक ने सहायक भूमिकाओं में अच्छे चरित्र गढ़े हैं। हृषिकेश मुखर्जी की फिल्मों में प्रायः छोटी भूमिकाएँ करने वाले हरि शिवदासानी, नायिका के पिता की भूमिका में देर तक हैं। अपनी नातिन रानू के साथ उनके दृश्य कमाल के हैं खासकर जमीन में झुक-बैठकर उसके घर-संसार में जाना जो उसने अपने गुड्डे-गुडि़या के लिए बना रखा है। बच्ची रानू की भूमिका बड़े आत्मविश्वास से रानू मुखर्जी ने निभायी है। जमींदार असित सेन, अपनी पत्नी की बीमारी को खुद में जीकर फरियाद लेकर आने वाला किरदार जो मुकरी ने निभाया है, दिलचस्प है। इस फिल्म में डेविड भी हैं एक उद्घोषक की भूमिका में आरम्भ में जरा सी देर के लिए। 

अनुराधा मन में उतर जाने वाली फिल्म है जिसकी स्मृतियाँ निरन्तर बनी रहती हैं। हृषिकेश मुखर्जी ने इसको मनोयोग से बनया है। फिल्म में सचिन शंकर की कोरियोग्राफी और पण्डित रविशंकर का संगीत होना बहुत बड़ी बात है, तभी शैलेन्द्र के लिखे गाने परदे पर देखना और गहराई से सुनना बहुत सुहाता है। फिल्म के पाश्र्व संगीत में रह-रहकर सितार बजता है। नायिका अनुराधा की मनोदशा, उसकी खुशी, उसकी व्यथा और एक-एक सूक्ष्म आवेगों को जिस तरह सितार से जोड़कर हम भावनात्मक संवेदनाओं में खो जाते हैं, सच पण्डित रविशंकर का तेजस्वी व्यक्तित्व दिमाग में कौंध जाता है। लता मंगेशकर, महेन्द्र कपूर और मन्नाडे ने फिल्म में गाया है। जाने कैसे सपनों में खो गयीं अखियाँ, साँवरे साँवरे, कैसे दिन बीते कैसे बीती रतियाँ, हाय रे वो दिन क्यों न आये गाने परिस्थितियों के एकदम अनुकूल लगते हैं। अनुराधा, अपनी समग्रता में एक अनूठी और स्मरणीय फिल्म है। इस फिल्म को राष्ट्रीय पुरस्कार भी प्राप्त हुआ था। 

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