गुरुवार, 11 जून 2015

हृषिकेश मुखर्जी का सिनेमा : असली नकली (1962)

बंधी मुट्ठी से फिसलती रेत


देव आनंद की मुख्य भूमिका वाली फिल्म असली नकली हृषिकेश मुखर्जी की एक और उल्लेखनीय फिल्म है, खासकर उस कालखण्ड में जब वे पहली फिल्म दिलीप कुमार को लेकर बना चुके थे और राजकपूर को लेकर अनाड़ी आदि। इस त्रिवेणी में से एक देव आनंद के साथ भी काम करते हुए उनको अच्छे अनुभव हुए। समय वो था जब हृषिदा की साख बन चुकी थी और श्रेष्ठता तथा सफलता दोनों मापदण्डों पर वे प्रमाणित थे। असली नकली एक अमीर दादा के दिशाहीन पोते की कहानी है जो अपने दादा से तब ही मिलता है जब उसके पास पैसे खत्म हो जाते हैं और उसे अपने ऐशो-आराम के लिए और पैसों की जरूरत होती है। दादा सेठ द्वारकादास बड़े कारोबारी हैं और बढ़ती उम्र में अपना कारोबार और बढ़ाना चाहते हैं इसी लालच में उन्होंने पोते आनंद का रिश्ता एक अमीर आदमी की नासमझ सी लड़की से तय कर दिया है। आनंद अपनी आजादी में इस तरह का खलल बर्दाश्त नहीं कर पाता लेकिन उसके पास अपने दादा के विरोध का ठोस आधार भी नहीं है। उसके दादा उसकी अर्कमण्यता और बिना दौलत के उसके वजूद को लेकर बुरा-भला कहते हैं जिसके कारण वो एक दिन बड़ा सा घर छोड़कर चला जाता है। दादा को लगता है कि नाराजगी दूर होने पर पोता लौट आयेगा लेकिन कोई ठिकाना न होने के कारण बैंच पर सोते हुए हवलदार द्वारा उठाकर भगाये जाने पर काम से लौटता एक सहृदय आदमी मोहन उसे मित्र बनाकर घर ले आता है। 

मोहन गरीब है, गरीबों की बस्ती में एक छोटे से घर में रहता है जहाँ उसके साथ उसकी छोटी बहन शान्ति भी रहती है जो स्वभाव से तुनकमिजाज है मगर दिल की कोमल और दयालु। यहीं पर बस्ती वालों के अपनेपन से उसको यह वातावरण और जीवन रास आने लगता है। वह कोई काम करना चाहता है मगर काम मिलना आसान नहीं है। जब तक काम नहीं मिलता, मोहन और उसकी बहन शान्ति उसको अपना भाई बनाकर प्यार से रखते हैं और खाना भी खिलाते हैं। इसी बस्ती के बच्चों और प्रौढ़ों को पढ़ाने रात में रेनू आती है जो दिन में एक दफ्तर में काम भी करती है। आनंद उससे प्रेम करने लगता है। रेनू की ही वजह से आनंद को उसके दफ्तर में काम मिल जाता है। यहाँ पर रेनू आनंद की मदद भी करती है क्योंकि आनंद को टाइपिंग और शाॅर्टहैण्ड नहीं आता और रेनू ने यही बताकर उसको नौकरी पर रखवाया है। एक दिन यह नौकरी भी छूट जाती है। आनंद और भी कोशिशें करता है। बस्ती के ही एक मैकेनिक नंदू की वजह से उसको एक स्कूल में ड्रायवर की नौकरी मिल जाती है लेकिन वह भी नाहक भूल में अगले दिन छूट जाती है।

आनंद से प्यार करने वाली रेनू को नहीं पता है कि वह एक रईस आदमी का पोता है। रेनू की अपनी परेशानियाँ हैं। उसकी माँ बीमार रहती है जिसे इस भ्रम में ही रखा गया है कि उसके पति जीवित हैं। रेनू की एक छोटी बहन भी है। उसका मकान भी गिरवी है। इधर सेठ द्वारकादास को पता चल जाता है कि मोहन गरीबों की बस्ती में रह रहा है। उसकी शादी का इरादा फिर प्रबल होने लगता है। जब उनको पता चलता है कि आनंद रेनू से प्यार करता है तो वे रेनू का घर अपने पास गिरवी रख लेते हैं और रेनू को अपने घर बुलाकर आनंद की जिन्दगी से चले जाने को कहते हैं। इधर आनंद भी अपने दादा से जिरह करता है मगर दादा की जिद और रेनू के घर के लिए वह समझौता कर लेता है। आनंद के इस कदम से उसका दोस्त मोहन बहुत नाराज होता है। वह बस्ती के साथियों के साथ सेठ द्वारकादास की हवेली की तरफ जाता है और आनंद को ललकार कर बाहर बुलाता है, उससे मारपीट करता है। आखिर आनंद अपने दादा का घर छोड़कर बस्ती के अपने साथियों के साथ वापस लौट जाता है। बस्ती में उसकी शादी रेनू से हो रही है। अन्तिम दृश्य में आनंद के दादा बस्ती में आकर अपनी सारी जायदाद रेनू के नाम कर देते हैं और आनंद तथा रेनू को आशीर्वाद देते हैं।

असली नकली वह फिल्म है जिसमें हृषिकेश मुखर्जी केवल निर्देशक का दायित्व सम्हालते हैं। फिल्म का लेखकीय पक्ष इन्दर राज आनंद ने सम्हाला है। जयवन्त पाठारे अब तक हृषिकेश मुखर्जी के लगभग स्थायी सिने-छायाकार हो गये थे। इस फिल्म का भी सिने-छायांकन उन्होंने ही किया है। यह फिल्म बहुत स्पष्ट रूप से अमीरी और गरीबी के संसार में सन्तुष्टि, खुशियाँ और मूल्यों की पड़ताल करती है। जब तक आनंद अपने दादा की छत्रछाया में रह रहा है तब तक उसके पास चापलूसों और खुशामदगीरों की कमी नहीं है। इस तरह का एक दृश्य है जब वह एक आलीशान होटल में जाता है और पीने के लिए सिगरेट निकालता है। जैसे वह सिगरेट मुँह को लगाता है, एक साथ चार-पाँच हाथों में लाइटर जल उठते हैं। यह अमीरों की दुनिया में चाटुकारों की उपस्थिति का यथार्थभरा चित्रण है। ऐसे ही एक दृश्य में वह छोटी सी मगर बहुत अहम भूमिका में नजर आने वाले कलाकार मोतीलाल से रूबरू होता है जिनके साथ वह शादी के लिए पीछे पड़ने वाली औरत से बचता हुआ बेमन से बिलियर्ड खेलने चला जाता है। यह शायद दस मिनट का दृश्य है जिसमें इस खेल के साथ ही समय के साथ मनुष्य के बरताव और जीवन की गति को लेकर कर्नल मिश्रा कुछ बातें कहते हैं, आनंद की हथेली पर रेत रखकर मुट्ठी बांधने को कहते हैं और फिसलती हुई रेत से जीवन के अर्थ को समझाने का प्रयत्न करते हैं। आनंद के चकाचैंध भरे संसार से मोहभंग होने के ऐसे कारणों के बीच बस्ती का जीवन उसे एक अलग ही संसार से रूबरू कराता है। निर्देशक ने कला निर्देशक सुधेन्दु राय और अजीत बैनर्जी की सहायता से बस्ती, महानगर के प्रतीकों के ऐसे सेट बनवाये हैं जो अपनी स्थिरता में ही बहुत कुछ बोलते हुए प्रतीत होते हैं। बस्ती में रहने वाले परिवारों की रहगुजर, उनके कष्ट और सहनशीलता के प्रसंगों के बीच ही आनंद जीवन की सार्थकता को पहचानता है।

इस फिल्म में साधना के साथ देव आनंद के प्रेम प्रसंगों को देखना दिलचस्प लगता है। साधना इसमें बाल काढ़े हुए हैं, साधना को इसमें साधना कट नहीं रखा गया जिससे वे बहुत सुन्दर लगती हैं। चरित्र के अनुकूल सौम्यता का प्रदर्शन, प्रेम की परिणति को लेकर अनजाना भय और उसके बीच कुछ गीतात्मक क्षण जिनमें खूबसूरत गानों को देखकर आनंद होता है, तुझे जीवन की डोर से बांध लिया है, एक बुत बनाऊँगा तेरा और पूजा करूँगा, तेरा मेरा प्यार अमर वगैरह। खासकर, एक बुत बनाऊँगा गाने में बाहर बरसता पानी, भीतर एक ब्लैकबोर्ड के सामने स्लेट लेकर बेटा नायक अपनी प्रेमिका को जिस तरह निहारते हुए यह कामना कर रहा है, बहुत ही खूबसूरत फिल्मांकन है। फिल्म का एक गाना, कल की दौलत आज की खुशियाँ शैलेन्द्र ने लिखा है और शेष सभी गाने हसरत जयपुरी ने। शंकर-जयकिशन फिल्म के संगीतकार हैं। मोहम्मद रफी ने अपनी आवाज देव आनंद के लिए खासतौर पर एक प्रभाव और बेचैन स्वरमहक की खूबियों के साथ अनुकूल बनायी है। लता मंगेशकर का स्वर तो खैर कहने ही क्या! मोहन अनवर हुसैन ने बड़े और साफ दिल दोस्त का सकारात्मक किरदार निभाया है जो हर हारे हाल में अपने दोस्त को हौसला दिया करता है। उसकी बहन शान्ति संध्या राय का चरित्र भी इसी तरह खिलकर उभरा है। संध्या पर फिल्माया गाना लाख छुपाओ छुप न सकेगा राज तो इतना गहरा भी बड़ा मनभावन है। निर्देशक ने यहाँ भी छोटे छोटे कलाकारों के लिए भी गुंजाइश बनायी है। नंदू मैकेनिक मुकरी के प्रसंग हास्य उपजाने के लिए हैं जिनका अपना देशज प्रभाव है। 

हम लगातार ऐसी फिल्म देखते हुए यह अनुभव करते हैं कि देश की स्वतंत्रता के पन्द्रह साल बाद (1962 की यह फिल्म है) ही महानगरीय जीवन में गगनचुम्बी इमारतों और गरीब की बस्ती परस्पर विरोधाभासी स्थितियों के साथ अवस्थित हैं। हमारे सामने रंगीनियाँ और रौनक भी हैं और खाने का इन्तजाम करने के लिए बहन भाई को अपने हाथ की चूड़ी बेच आने को भी कहती है। फिल्म का नायक है जिसके खानदान में सिर से लेकर पैर तक अपार दौलत है मगर उसके वृद्ध पितामह को और दौलत चाहिए। हृषिकेश मुखर्जी अपनी फिल्म में निरन्तर किरदारों-चरित्रों के साथ प्रवृत्तियों को भी लेकर चलते हैं। उनकी कुछ फिल्में समाधान के साथ खत्म होती हैं तो कुछ बहुत सारे अनुत्तरित प्रश्नों को छोड़कर। यही अनुत्तरित प्रश्न हमारा पीछा लगातार करते हैं। सवाल केवल आनंद की जिन्दगी, रेनू के सपनों और मोहन के दिल चीन्हें-न चीन्हें जाने का नहीं है, प्रश्न है इन विरोधाभासों के न केवल बने रहने का बल्कि अपने-अपने धरातल पर निरन्तर विस्तृत होते जाने का। असली नकली का गहरा अर्थात यही है।  

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