बुधवार, 3 जून 2015

हृषिकेश मुखर्जी का सिनेमा : आशीर्वाद (1968)

बहीखाते में कविता


आशीर्वाद, हृषिकेश मुखर्जी की एक मर्मस्पर्शी फिल्म है जो एक सहृदय और कलाप्रेमी नायक के चरित्र को सामने लाने का काम करती है। इसकी कहानी, पटकथा, संवाद लेखन और सम्पादन भी हृषिकेश मुखर्जी का ही उपक्रम है। आशीर्वाद का नायक जोगी ठाकुर अपने नाम के अनुरूप अलमस्त है और उसकी संगीत और गाने में बड़ी रुचि है। जोगी ठाकुर कविताएँ और गीत लिखता है। वह जमींदार का घरजमाई है जो जीवित नहीं हैं मगर उनकी बेटी, जोगी ठाकुर की पत्नी वीना अपने पिता के दमनकारी और संवेदनहीन व्यक्तित्व का निर्वाह कर रही है। उसे अपने पति का गाँव की गरीब बस्ती में जाकर गाने-बजाने में मगन रहना बिल्कुल पसन्द नहीं है। अपने पति के कारण ही वो गाँव वालों से लगान वसूल नहीं कर पाती, उसके लठैत जोगी ठाकुर की फटकार खाकर लौट आते हैं। वीना, अपने मुनीम की सहायता से शोषण जारी रखती है। 

जोगी ठाकुर, बस्ती के ढोलकिए और गायक बैजू से गाना-बजाना सीखता है। बैजू की एक जवान बेटी भी है। जोगी ठाकुर अपने मन की व्यथा कई बार व्यक्त करता है कि भगवान ने उसे इस उम्र में एक छोटी सी बेटी नीना दे दी है, उसका मोह उसको सताता है अन्यथा वो जुल्म और दमन के घर, अपने ससुराल से कभी का चला जाता। ससुर की वसीयत के मुताबिक वीना के किसी भी फैसले का अमल, जोगी ठाकुर के हस्ताक्षर के बगैर मान्य नहीं हो सकता। एक बार वीना के एक षडयंत्र को मुनीम अंजाम देता है और जोगी ठाकुर से धोखे से उस फैसले पर हस्ताक्षर करवा लेता है जिसमें गरीबों की बस्ती जला देने का हुक्म है। त्राहि-त्राहि करते, भीषण अग्निकाण्ड से मरते गरीबों और किसानों को देखकर जोगी ठाकुर का मन विचलित हो जाता है और वह घर छोड़कर चला जाता है। कुछ समय बाद वह जब वापस आता है तो गरीबों की उजड़ी बस्ती और आग तथा उसी के साथ बेटी को मुनीम द्वारा अगवा कर लिए जाने के कारण हादसे से पागल हो गये बैजू को देखकर उसका हृदय द्रवित हो जाता है। वह मुनीम से रुक्मिणी को छुड़ाकर लाने का वचन देकर जाता है। जहाँ मुनीम ने उसे बंधक बना रखा है, वहाँ जोगी ठाकुर का उससे झगड़ा होता है और उसके हाथ से मुनीम का कत्ल हो जाता है। मुकदमा चलता है। जोगी ठाकुर को लम्बी सजा हो जाती है। 

समय बीतता है। जोगी ठाकुर बूढ़ा हो गया है। वह जिस जेल में सजा काट रहा है, वहीं पर एक डाॅक्टर नौकरी करने आता है। उसके घर की देखरेख में जोगी को रख दिया जाता है। इसी डाॅक्टर से जोगी की बेटी प्रेम करती है। इस बीच जोगी की पत्नी वीना की भी मृत्यु हो चुकी है। उसकी बेटी को उसके मामा ने पाल-पोसकर बड़ा किया है। बचपन से उसे चित्रकारी का शौक है और वह गाना भी गाती है। अपनी बेटी को जोगी ठाकुर प्यार से बिट्टू बुलाता है। जेल में जोगी से मिलने वीना के भाई आते हैं जो उसे नीना की शादी डाॅक्टर से करने की बात कहते हैं। बेटी की कामना है कि उसके पिता, जो कि सन्यासी बन गये हैं, उसे बचपन से यही बताया गया, उसके विवाह के समय जरूर, जहाँ कहीं भी होंगे, जरूर आयेंगे और उसको आशीर्वाद देंगे। नीना की शादी गाँव के उसी घर में होती है और जोगी ठाकुर गम्भीर बीमार और जीवन का संकट होने के बावजूद भिखारियों के समूह में शामिल होकर वहाँ जाता है और उसे आशीर्वाद देता है। वहीं उसकी मृत्यु भी होती है।

हृषिकेश मुखर्जी ने एक बिल्कुल सीधी-सादी और सहज कथा का तानाबाना आशीर्वाद के माध्यम से बुना है। इसमें धन-दौलत, आतंक और जुल्म के बीच एक सीधे-सच्चे और दयालु आदमी की गुजर-बसर के संकट को बहुत संवेदनशील तरीके से प्रकट किया गया है। नायक अपनी ही पत्नी के रुपये चुराकर बस्ती में बैजू को दे आता है ताकि वो मुनीम को कर चुका सके लेकिन खजांची रुपये पर हस्ताक्षर देखकर यह चोरी पकड़ लेता है और मुनीम नीना को इसकी चुगली कर देता है। नीना, जोगी को भला-बुरा कहती है, बेइज्जत करती है। जोगी ठाकुर कविताएँ और गीत लिखता है। उसकी नन्हीं बेटी उसको बही-खाते की काॅपी चोरी-छुपे लाकर देती है, लिखने के लिए। यह एक संवेदना और संवेदनहीनता के बीच छोटी सी बच्ची के माध्यम से बना एक सेतु जैसा लगता है कि जिस बही खाते में किसानों के शोषण और जुल्म की भाषा लिखी जाती हो, उसमें एक संवेदनशील और भावुक कवि कविता और गीत लिख रहा है। बही-खाते की यह किताब और नायक की जीवन संघर्ष यात्रा अक्षर दर अक्षर, शब्द दर शब्द ऐसे ही आगे बढ़ती है। गरीबों की बस्ती में बैजू की संगत में, खुले आसमान के नीचे बैठकर जोगी का गाना-बजाना सीखना उसके निर्मल हृदय का परिचय है। बैजू के साथ वह जिस तरह मनुष्यता और मानवधर्म की बात करता है, वह मन में गहरे उतर जाती है। 

निर्देशक इस फिल्म को बनाते समय अपना दृष्टिकोण बेहद साफ रखते हैं। वे बाप-बेटी के प्रेम, परस्पर पति-पत्नी के प्रतिरोध, अमानवीय परिवेश और उससे महसूस की जाने वाली नायक की घुटन को बखूबी प्रस्तुत कर पाते हैं। उत्तरार्ध में जेल को इन्सान के सुधार की ऐसी संस्था के रूप में स्थापित किया गया है जहाँ जेलर सज्जन और दूरदृष्टि से भरा हुआ है। वह जेल के भीतर अपराधियों को काम पर लगाये रखता है। उसका मानना है कि कैदी भी इन्सान हैं कोई पशु नहीं। जिस तरह अस्पताल मनुष्य के शरीर की चिकित्सा के लिए होते हैं उसी तरह जेल उसके मन की चिकित्सा के लिए। इसी अवधारणा के परिणाम में हम जेल के भीतर सजा काटकर रिहा हो रहे एक कैदी का रोते हुए प्रायश्चित देखते हैं। इसी के चलते हमें दूसरे कैदी बागवानी करते दिखायी देते हैं। 

आशीर्वाद, पूरी तरह अशोक कुमार की विलक्षण अभिनय क्षमता का प्रमाण बनकर हमारे दिलो-दिमाग में घर कर जाती है। अशोक कुमार ने जोगी ठाकुर के पात्र को भरपूर जिया है, इस तरह कि वे उस चरित्र की विशेषताओं, संवेदनशीलताओं और इन्सान-इन्सान में समानता पर परम विश्वास रखने वाले व्यक्ति के रूप में एकाकार हो जाते हैं। वे अपने अभिनय, संवेदनात्मक पक्षों से जितना मन को छूते हैं उतना ही आश्चर्यजनक ढंग से गाते भी हैं। इसके लिए निश्चय ही उन्होंने खूब तैयारी की होगी, खास रियाज किया होगा। बैजू ढोलकिया का किरदार निबाहने वाले महान लेखक-कलाकार हरेन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय ने उन दृश्यों में कई आर अशोक कुमार को भी मुश्किल में डाल दिया है जब वे अपनी बदहवासी और विशेषकर अन्त में भिखारियों के समूह में पहचान छिपाये जोगी ठाकुर को पहचान लेते हैं। अपने दृश्यों में उनका इतना आश्वस्त होना भी कमाल का अनुभव कराता है। डाॅक्टर संजीव कुमार, बेटी नीना की भूमिका में बचपन की भूमिका बेबी दीपाली और वयस्क भूमिका में सुमिता सान्याल, जेलर अभि भट्टाचार्य, वीना लीला चैधरी, मामा एस. एन. बैनर्जी अपनी भूमिकाओं में एक मर्मस्पर्शी फिल्म का खूबसूरत हिस्सा बनते हैं।

फिल्म के गीत गुलजार ने लिखे हैं। बिमल राॅय स्कूल का वे भी हिस्सा रहे हैं जिसका अहम हिस्सा हृषिकेश मुखर्जी हुआ करते थे। वसन्त देसाई ने गीतों को संगीत दिया है। रेलगाड़ी छुकछुक गाड़ी, अशोक कुमार की आवाज का अप्रतिम गीत है। लता मंगेशकर का गाया, इक था बचपन, इक था बचपन भावुक स्मृतियों का साक्षी बनता है। सबसे अहम फिल्म का अन्तिम गीत है, जीवन से लम्बे हैं बन्धु, इस जीवन के रस्ते जिसे मन्नाडे ने मन को छू लेने वाले दार्शनिक भाव से गाया है। आशीर्वाद अपने आपमें उस तरह की मर्मस्पर्शी फिल्म लगती है जिसे देखते हुए आत्मसाक्षात्कार हुआ सा प्रतीत होता है। 

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