रविवार, 26 जुलाई 2015

एक महीने बाद........

एक महीना हो गया है आज। आज ही के दिन माँ नहीं रहीं थी। यकीन लेकिन एक पल भी नहीं होता। हम अपने जीवन में हर नींद न जाने कितनी बार अच्छे-बुरे सपने देखते हैं। अच्छा सपना देखने के बाद जागने पर कामना करते हैं कि यह जरूर पूरा हो। बुरा सपना देखकर अधरात ही घबराकर जाग जाते हैं और कामना करते हैं कि यह कभी सच न हो। यथार्थ में स्थितियाँ अलग हैं। अच्छा सच, सच ही रहे सपना न हो, इसकी कामना होती है और बुरा सच, सच न हो, सपना हो, यह विफल सी कामना हम करने लगते हैं। 

चेतन-अवचेतन के इसी फर्क को तौलते हुए माँ स्मृतियों में अनेक छबियों, प्रसंगों, संवादों और अपने अनेक रंगों का पुनर्स्मरण करा रही हैं। कई बार आभास होता है कि आवेग थमेंगे नहीं, फूट चलेंगे, बहने लगेंगे। बमुश्किल रोके से रुकते हैं पर जो बहकर प्रकट हो गये होते हैं वो देर तक नहीं सूखते। बिछोह में रोने की स्थितियाँ भी कम कठिन नहीं होतीं। हम रोना तो चाहते हैं पर अपनों के बीच रोते हुए पकड़ाना नहीं चाहते। आखिर आँसुओं का अथाह भी सब बच्चों में माँ की तरह ही बराबर बँटा होता है। सच है, माँ अपने बच्चों में बराबर बँटी होती है, न किसी में कम और न ही किसी में ज्यादा। माँ में सब बच्चे जीते हैं और सब बच्चों में माँ। 

स्मृतियों का लेखा हमारे पास बन्द किताबों सा हुआ करता है जिसके पन्ने एक के ऊपर एक तहे रखे होते हैं। ऐसा लगता है कि उन पन्नों में हमारा एक-एक पल अपनी बेसुधी में सोया हुआ है। हम जीवन के प्रत्येक दिन को व्यतीत करने के साथ ही उन पन्नों की संख्या में इजाफा किए जाते हैं। हमारे पास शायद कभी उन पन्नों को छूने तक का समय नहीं होता, देखने या पढ़ने की बात और भी अलग है। हमारी उपेक्षा कह लीजिए या रंग-रोगन में रचे-बसे संसार का मोह कि वे बन्द किताबें हमारी ओर से भी मुँह मोड़ लिया करती हैं। घटनाएँ, संत्रास, ठोकरें और बिछोह हमें जब अस्थिर कर दिया करते हैं तब हम देह के सन्दूक में उन किताबों को टटोलने चले जाते हैं, गिरते-पड़ते। फिर उन किताबों से पन्नों को ढूँढ-ढूँढकर हमारा पढ़ना पछतावे के सिवा शायद और कुछ नहीं होता। बहरहाल...........

जीवन का अर्थ अपने कड़वे सच के साथ हर इन्सान की जिन्दगी में कभी न कभी प्रगटता है। यही सच जीवन या देह में फिर साथ-साथ चलता है। याद आता है, माँ शायद 47-48 की होंगी जब नानी नहीं रही थीं। उनको याद करते हुए वे तब ही नहीं बाद में भी और अब तक भी रोया करती थीं। 

हम लोग भी ऐसे ही................................................

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